पथरीले कंटीले रास्ते - 24 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पथरीले कंटीले रास्ते - 24

 

24

 

जेल के उस मुलाकात के कमरे में बग्गा सिंह अपने बेटे के साथ दुख सुख बाँट रहा था । बारह तेरह दिन बाद उसे बेटे से मिलने का अवसर मिला था और वह इस अवसर का पूरा पूरा लाभ उठाना चाहता था । इस बीच सिपाही दो बार आकर कमरे में झांक गये थे । बग्गा सिंह का मन अभी भरा नहीं था । उसे लग रहा था कि बेटे से आज पहली बार मुलाकात हो रही है । इससे पहले उसने इस बेटे को कभी देखा ही नहीं । कभी जाना ही नहीं । घर में तो रविंद्र से उसकी सरसरी सी सामान्य सी बात होती थी – बेटा उठ जाओ । बेटा भैंस को पानी पिला दे । बेटा अब सो जाओ । ऐसे ही छोटे मोटे आदेशों के अलावा उनकी आपस में कोई बात होती ही नहीं थी । पर आज गाँव की , घर की अनेक बातें थी दोनों के पास । कभी न खत्म होने वाली असंख्य बातें । उसका बेटा व्यवहारकुशल , समझदार , और बातचीत में प्रवीण है यह उसे आज ही पता चला था ।
पापा राणा से कहिएगा , ध्यान से पढा करे । इस बार बोर्ड की परीक्षा देनी है , अच्छे नम्बर आ गये तो आगे सुविधा होगी । कहीं बढिया संस्था में उसे दाखिला तभी मिलेगा ।
मेहनत तो बहुत कर रहा है । रात को देर तक पढता रहता है । बाकी किस्मत की बात है ।
और पिंकी को बोलना – अपना क्रिकेट खेलना जारी रखे । स्टेट की टीम में जाना है एक दिन उसे ।
और मम्मी से कहना – रोना बिल्कुल नहीं । उदास भी नहीं होना । मैं यहाँ बिल्कुल ठीक हूँ । बस समझ ले कि मैं नौकरी करने बाहर किसी मुल्क में गया हूँ । कुछ दिन बाद लौट आऊँगा । फिर हम पहले की तरह खूब मस्ती करेंगे तब तक हौंसला बनाए रखे । रोटी टाईम से खा लिया करे ।
आप न इन सब का खास ख्याल रखना और अपना भी ।
ठीक है बेटे । तू भी अपना ध्यान रखना ।
बग्गा सिंह ने कपङे का बैग उसकी ओर सरका दिया । रविंद्र ने बैग खोल कर कपङे देखे - इतने सारे कपङे पापा । इन सब की कोई जरूरत नहीं थी ।
रख लो बेटा । पहन लेना और कोई धोने वाले कपङे है तो दे दो । धुलवाकर भेज देंगे ।
नहीं पापा । कोई कपङा धोने वाला नहीं है । यहाँ बहुत से लङके है जो मुझे काम करने ही नहीं देते । कोठरी साफ कर देते हैं । कपङे धो देते हैं । उन्हें सुखाकर कमरे में रख जाते हैं ।
बग्गा सिंह ने टिफिन बंद कर दिये । रविंद्र ने कपङे दोबारा बैग में डाले ही थे कि दो सिपाही कमरे में आ पहुँचे ।
चलो चलो । बाहर निकलो । मुलाकात का समय समाप्त हो गया है ।
बग्गा सिंह ने अपनी घङी देखी । चार बज कर पैतालिस मिनट हो चुके थे । अब जाना होगा । पर मन का क्या करे वह , जो अभी और बातें सुनना चाहता था ।
सिपाही ने आकर फिर पुकारा – जल्दी चलो । मुलाकात का समय खत्म हो चुका है फिर तुम्हारी हाजिरी भी होने वाली है ।
रविंद्र ने उठ कर बग्गा सिंह के पैर छुए । सामान उठाया । बग्गा सिंह ने बेटे को गले से लगा लिया । रविंद्र सिपाही के साथ कमरे से बाहर हो गया और धीरे धीरे आँख से ओझल हो गया ।
बग्गा सिंह उसे जाते हुए देखता रहा । जब वह दिखाई देना बंद हो गया तो उसने परने के छोर से नम हो आई आँखें पौंछी और ठंडी सांस भर कर कमरे से बाहर आ गया । अब इस वकील को भी ढूँढना पङेगा । न जाने सुबह से कहां भटक रहा है । मिलेगा तभी घर जा पाऊँगा । अभी वह यह सब सोच ही रहा था कि सामने से वकील आता हुआ दिखाई दिया – और भाई , हो गयी बेटे से मुलाकात । कैसा है बेटा ? ठीक है न ?
ठीक है , वकील साहब ।
वैसे तो यहाँ पाँच सात मिनट की ही मुलाकात होती है । इतनी इजाजत भी बङी मुश्किल से मिलती है पर तेरी मुलाकात तो डेढ घंटे की करवा दी । खुश है न ?
आपकी मेहरबानी साहब ।
वकील बातें करता हुआ कार पार्किंग की ओर मुङ गया । पीछे पीछे बग्गा सिंह भी लपक लिया । मोङ काट कर कार शहर की ओर चल पङी ।
सुनो , दस दिन बाद रविंद्र की कोर्ट में पेशी है । तुम्हारा वह गवाह गवाही के लिए कोर्ट में आएगा न । मुकर तो नहीं जाएगा न ?
आ जाएगा जनाब ।
गुड । तो एक बार पेशी से पहले मुझे उससे मिलवा देना । उसे समझा दूं कि जज के सामने क्या बोलना है ? कितना बोलना है ?
बग्गा सिंह ने हैरानी से वकील को देखा – कचहरी में गीता की कसम खाकर आदमी झूठ कैसे बोल सकता है । वही तो बोलेगा जो उसने देखा है या जो उसे पता है । धर्म की सच की सौंह कोई झूठी कैसे खा सकता है । पर प्रत्यक्ष में उसने यही कहा – जी वकील साहब , एक दो दिन में मिलाने ले आता हूँ ।
अचानक उसने देखा कि शहर का पहला चौंक गया था ।
वकील साहब , आप मुझे यहीं उतार दीजिए ।
कार को ब्रेक लगी । वकील ने दरवाजा खोल दिया । बग्गा सिंह को नीचे उतार कर कार आगे बढ गयी । सामने फलों की रेहङीवाले खङे थे । वह एक रेहङी पर फल तुलवाने लगा । अभी उसने लिफाफे थामे ही थे कि सामने से बस आती दिखाई दी । उसने फटाफट जेब से रुपये निकाले । फलवाले को पकङा कर दौङता हुआ बस में चढ गया । बस में सौभाग्य से आज दो सीटें खाली पङी थी । वह खिङकी के पास वाली सीट पर बैठ गया । मन ही मन रानी के संभावित प्रश्नों और उनके संभावित उत्तरों के बारे में सोचने लगा । घर जाते ही रानी कौन से सवाल पूछेगी और वह किस तरह से उनके जवाब देगा , इन्हीं ख्यालों में वह उलझा हुआ था कि कंडक्टर ने उसका कंधा हिलाया – उतरना नहीं है क्या मैं कब से आवाजें दिये जा रहा हूँ ।
माफ करना भाई – उसने लिफाफे उठाये और बस से नीचे उतर गया ।
अंकलजी आप का एक लिफाफा तो सीट पर ही रह गया ।
उसने पलट कर देखा । एक लङका बस के दरवाजे पर हाथ में केलों का लिफाफा लटकाये उसे पुकार रहा था ।
ओह ! उसने हाथ बढा कर लिफाफा पकङा और तेज तेज कदमों से घर की ओर चल दिया ।


बाकी कहानी फिर ...