अब चलें,,,,, - भाग 2 piku द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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अब चलें,,,,, - भाग 2

"बताने के लिए इतना गंभीर चेहरा बनाने की जरूरत नहीं। बिंदास होकर कहो। तुम्हारी हर बात समझ सकती हूं मैं," संध्या ने उसके होंठों को ऐसे छुआ जैसे उन पर हंसी बिखेर रही हो।"मैं तुमसे अब नहीं मिल पाऊंगा," कहते हुए नीलाभ को लगा मानो उसके स्वर में कांटों की बाड़ उग आई है। कहना इतना तकलीफदेह है तो उसके लिए सुनना कितना पीड़ादायक होगा।


"हो गया मजाक तो चलें?" संध्या जोर से हंसी।


"मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता। मेरी कुछ मजबूरियां हैं," नीलाभ ने अपनी भावनाओं को नियंत्रित करते हुए कहा।


"कोई बात नहीं। मत करो अभी शादी। अपनी मजबूरियों को पहले सुलझा लो। मैं मदद करूंगी और इंतजार भी।"


"तुम किसी बात को समझती क्यों नहीं? कहा न, मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता। न अभी, न कभी," वह झल्ला उठा था।


"तुम क्यों समझ नहीं रहे? मैंने भी कहा कि कोई बात नहीं। अगर अपनी जिंदगी के कोरे पन्नों पर मेरा नाम न लिख पाने का अफसोस खत्म हो गया हो तो क्या अब चलें? रात हो गई है। मुझे तो मच्छर भी काट रहे हैं," संध्या उठ खड़ी हुई। उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी।


नीलाभ की कोई बात उसे बुरी क्यों नहीं लग रही? वह उस पर अविश्वास क्यों नहीं कर रही? क्यों करती है वह उससे इतना प्यार? प्यार खुशी देता है और नीलाभ से प्यार करके उसे गम ही मिलेगा !


"तुम इतनी जिद्दी क्यों हो? पढ़ी-लिखी हो, नौकरी करती हो और खूब समझदार भी हो, लेकिन जो मैं कह रहा हूं वह तुम्हारी अक्ल में घुस क्यों नहीं रहा?" नीलाभ की आवाज में व्याप्त गुस्सा झील के दोनों किनारों को छू रहा था।

रात होने की वजह से अब वहां कोई नहीं था, सिवाय आकाश में टिमटिमाते कुछ तारों और पत्तों पर रोशनी की लकीर खींचते जुगनुओं के। सोडियम लाइट्स चारों ओर जल चुकी थीं। अंधेरा था तो केवल नीलाभ के भीतर... पर क्या संध्या वह अंधेरा रहने दे सकती है क्या उसेक भीतर ?


"मैं सब जानती हूं नीलाभ," अचानक संध्या ने आसपास फैली नीरवता को भंग किया। "तुम्हें क्या लगता है तुम में आने वाले बदलाव से मैं अनजान थी। मुझसे छिपाकर अस्पताल जाना, वहां एडमिट होना... बहुत पहले ही जान गई थी और अस्पताल जाकर तुम्हारे डॉक्टर से मिलकर सब पता लगा लिया था।"


"फिर भी?" नीलाभ चौंका। कदम लड़खड़ाए तो उसके पांव की ठोकर खाकर एक पत्थर पानी में गिरा और छपाक की आवाज आई। लहरें उठीं वहां भी और उसके भीतर भी। संध्या ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया।


"फिर भी क्या? प्यार करती हूं साथ निभाऊंगी। तुम्हारी रहूंगी हमेशा, तुम रहो या न रहो। लेकिन जान लो तुम्हारी जिंदगी के किसी पन्ने को कोरा नहीं रहने दूंगी। हर लाइन पर अपना नाम लिखूंगी। रेत की तरह फिसलती तुम्हारी जिंदगी को जब तक हो सकेगा थामे रखूंगी। अब इसके बाद दार्शनिक बन मेरे सामने गंभीर चेहरा मत बनाना। मैं तुम्हारे होंठों पर हमेशा मुस्कान देखना चाहती हूं। तुम हंसते हुए बहुत अच्छे लगते हो।" संध्या उससे लिपट गई थी। उसके स्वर के कंपन और आंखों की नमी वह देख पा रहा था, लेकिन वह उसके बहते आंसुओं को रोकने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाता, उससे पहले ही संध्या ने उसके हाथों को कसकर थाम लिया और उसकी हथेली को गुदगुदाते हुए  बोली, "मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कमल के पत्ते पर ओस टिके या फिसले या रेत की तरह जिंदगी तुम्हारे हाथों की पकड़ से छूटने लगे। मेरे प्यार को ओस की बूंद मत समझना, वह तो विशाल सागर है। चाहे जितनी बूंदें उसमें से निकल जाएं, वह कभी रिक्त नहीं होगा। तुम्हारी जिंदगी के कुछ महीने शेष हैं, यह भी जानती हूं। पर मेरा प्यार हमेशा रहेगा तुम्हारे लिए, तुम्हारे साथ। बड़े आए थे मजबूरियां गिनाकर शादी न करने वाले। कल ही फेरे लूंगी तुम्हारे साथ।"


नीलाभ कुछ कहने ही वाला था, कि वह फिर बोली, "बस बहुत हुआ। मुझे इतनी गंभीर बातें करने की आदत नहीं है। थकान हो गई है। अब चलें?"


नीलाभ उसके साथ कदम मिलाता चल रहा था या उसके प्यार को जी रहा था, समझ नहीं पा रहा था।


"सचमुच बहुत जिद्दी हो तुम," वह बोला तो संध्या ने एक मीठी मुस्कान के साथ उसे देखा।