'जन्मदिन, 10 जून... हम तो भूल ही गए थे।' रानी ख़ुशी के मारे तालियां बजानेमास्टर जी गहरी सोच में डूब गए। सबकुछ तो ठीक है, लेकिन सालों से जिसे आम भेज रहे हैं, वह बेटा उनकी सुध लेने का नाम नहीं लेता। अपने बेटे का जीवन संवारने के लिए उन्होंने खुद साधारण जीवन जिया, मगर उसकी कोई क़द्र नहीं। कितनी अजीब बात है कि जिन माता-पिता की छांव में बच्चे पनपते हैं, वही बच्चे बड़े होकर उन्हें छांव नहीं दे पाते।
अनजान लोग उन्हें सर-माथे पर बिठाते हैं और अपना ही बेटा... खैर... मास्टर जी की आंखों के कोने गीले हो गए। रिटायर होने के बाद उन्होंने सोचा था कि आराम से पोते-पोतियों के बीच रहेंगे। ऊपर हरी-भरी पत्तियों से लदी जो मिठास है, उसका अंश मात्र भी उनके जीवन में नहीं बचा। प्रेम भी अब उनके लिए भावशून्य हो गया है।
मास्टर जी ने अपने आंखों के कोनों को गमछे से पोंछते हुए रमेशर की ओर देखा। तभी अचानक उनकी नज़र पास के पेड़ पर बने एक घोंसले पर पड़ी। 'अरे, ये क्या? घोंसला है? रानी, इधर आओ...'
रानी दौड़ती हुई आई और घोंसले में झांककर बोली, 'इसमें तो अंडे भी हैं।'रानी ने अपने पिता की तरफ़ देखा। मास्टर जी ने भी रमेशर की तरफ़ देखा। उनकी आंखें रानी की शिक्षा के लिए मौन में अनुरोध कर रही थीं। रमेशर ने मौन में ही स्वीकृति दे दी। मास्टर जी ने रानी के सर पर हाथ फेरा और दोनों हंस पड़े।
ढप्प...
'क्या गिरा?'
रानी ने देखा उसके पांव के पास एक आम गिरा हुआ है। और अपनी आंखें घुमा-घुमाकर कह रहा है- उठा ले।
रानी सोच में डूबी थी कि मास्टर जी ने आम उठाकर उसको दे दिया, 'ले, गिर गए आम।'
'घर चल, वहीं खाएंगे हलवा-पूड़ी...'
रानी खुश होकर मास्टर जी के साथ चल पड़ी। उसका अबोध मन इतना तो जानता था कि जिन स्नेहिल हाथों को पकड़े वो आगे बढ़ रही थी उन्होंने ही आज उसके शिक्षित भविष्य की नींव रखी थी।
'और आम, कोई चोरी कर गया तो ?'
'कौन चोरी करेगा... किसकी मजाल?'
फिर थोड़ा रुकते हुए कहा, 'और कर भी ले तो कोई बात नहीं, आम ही तो हैं।'
दोनों आगे बढ़े, इतने में रमेशर घंटी बजाता आगे निकल गया।
'तुम कहां?' मास्टर जी ने आवाज़ ऊंची करते हुए पूछा।
'अरे आते हैं, आज अनिल बाबू के यहां दरयचा का नाप लेना है। खास बनवाना है उनको, आम की लकड़ी का।'
मास्टर जी के कुर्ते की जेब को हिलाते हुए रानी ने पूछा, 'दरयचा मतलब...'
'दरयचा नहीं, दरीचा...। दरीचा मतलब खिड़की।'
'वाह, सूरज वाली खिड़की।' रानी ने चहकते हुए कहा।
'हां बिटिया, उजाले वाली खिड़की। मन की खिड़की, प्रेम की खिड़की, जीवन की खिड़की।'
'कितना अच्छा होता ना मास्टर जी, हमारा घर भी बागीचे के पास होता और उसमें होती एक बड़ी-सी खिड़की। हम तो सारा दिन वहीं बैठे रहते, हरे-पीले आमों को देखते। जैसे ही कोई आम गिरता, भागकर ले आते।'
मास्टर जी ने धीरे-धीरे स्वीकृति देते हुए कहा, 'हम बनवाएंगे ना तुम्हारे लिए आम का दरीचा।'
अपनी बातों की गुंजाइश में दोनों एक साथ बढ़ रहे थे। गांव की धूप भी अब कम गर्म महसूस होने लगी थी, वहीं आम के पेड़ों की छांव में एक नया दरीचा खुल रहा था।