आम का बगीचा - भाग 2 piku द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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आम का बगीचा - भाग 2

'कल पढ़ाया था ना, अ से अनार, आ से आम। लिखो।'

यहां भी आम... ये आम, आम होकर भी इतना ख़ास क्यों है? शायद यही विचार रानी के भी थे, लेकिन नन्ही जान इतनी गहराई से बोलेगी कैसे। उसने आम भले ही नहीं लिखा, लेकिन अपनी गर्दन टेढ़ी कर ऊपर की तरफ़ लटक रहे आमों को देखा ज़रूर। 'चल लिख अब। नहीं तो अम्मा आ जाएगी बुलाने, फिर पढ़ती रहना।'

रानी और मास्टर जी ने कुछ देर पढ़ाई की और जब रानी ने 'उ से उड़ना, ऊ से ऊंचा' कहा तो मास्टर जी हंस पड़े। 'उ से उल्लू, ऊ से ऊंट। तू तो दोनों ही है।' मास्टर जी ने पेड़ों पर सरसरी निगाह डालते हुए कहा।

इतना सुनते ही रानी की गोल-गोल आंखें और बड़ी हो गईं। रानी गुस्से में बोली, 'गांव के लोग कहते हैं मास्टर जी खड्स हैं।'

मास्टर जी को गांव वालों से फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन रानी उनके लिए ख़ास थी। उन्होंने एक बार रानी के पिता की सरकारी काम में मदद की थी, तब से रानी का परिवार मास्टर जी का ख़याल रखता था। समय से चाय, समय से नाश्ता! पढ़ने की ललक में रानी उनके आस-पास मंडराती रहती। मास्टर जी स्वीकार करें ना करें, लेकिन रानी उनके लिए शून्य के विपरीत का अनंत थी। जेठ की तपती ज़मीन पर हाथों से छूटती पानी की फुहारें।

'हम्म... ऐसा है। तू क्या कहती है?'

'हम कहते हैं, उ से उल्लू, ऊ से ऊंट।'

इतना कहकर रानी ज़ोरों से हंसने लगी।

'ए रानी, चाय लेकर आई थी, यहीं रुक गई।' अचानक आई आवाज़ से रानी सकपका गई।

'पापा...' उसने झट से अपनी कॉपी पीठ के पीछे छुपा ली। 'आ ही गए इसको ढूंढते।' मास्टर जी ने आवाज़ की तरफ़ देखते हुए बोला। 'हां, इसकी अम्मा बुला रही थी और कहा है आज खाने में

हलवा-पूड़ी है। तैयार होने में वक्त लगेगा।' रमेशर ने बताया। 'हलवा...' रानी का मुंह आधा खुला ही रह गया। 'हलवा,' ये दोहराते हुए रमेशर ने उसका मुंह बंद किया। 'ये पीछे का रख रही हो, हमको पता है तुम यहां का करती हो, समझी।'

'कोई खास बात, आज हलवा-पूड़ी...?' मास्टर जी ने पूछा। 'वाह मास्टर जी। आज ही सबसे खास बात है और आप हमसे पूछ रहे हैं। आज है आपका जन्मदिन,' रमेशर ने मास्टर

जी की तरफ़ देखते हुए बोला। 'जन्मदिन, 10 जून... हम तो भूल ही गए थे।' रानी ख़ुशी के मारे तालियां बजाने लगी। 'आज तो आपका जन्मदिन है, आज आम तो ज़रूर गिरेंगे।'

मास्टर जी गहरी सोच में डूब गए। सबकुछ तो ठीक है, लेकिन सालों से जिसे आम भेज रहे हैं, वह बेटा उनकी सुध लेने का नाम नहीं लेता। अपने बेटे का जीवन संवारने के लिए उन्होंने खुद साधारण जीवन जिया, मगर उसकी कोई क़द्र नहीं। कितनी अजीब बात है कि जिन माता-पिता की छांव में बच्चे पनपते हैं, वही बच्चे बड़े होकर उन्हें छांव नहीं दे पाते।

अनजान लोग उन्हें सर-माथे पर बिठाते हैं और अपना ही बेटा... खैर... मास्टर जी की आंखों के कोने गीले हो गए। रिटायर होने के बाद उन्होंने सोचा था कि आराम से पोते-पोतियों के बीच रहेंगे। ऊपर हरी-भरी पत्तियों से लदी जो मिठास है, उसका अंश मात्र भी उनके जीवन में नहीं बचा। प्रेम भी अब उनके लिए भावशून्य हो गया है।

मास्टर जी ने अपने आंखों के कोनों को गमछे से पोंछते हुए रमेशर की ओर देखा। तभी अचानक उनकी नज़र पास के पेड़ पर बने एक घोंसले पर पड़ी। 'अरे, ये क्या? घोंसला है? रानी, इधर आओ...'

रानी दौड़ती हुई आई और घोंसले में झांककर बोली, 'इसमें तो अंडे भी हैं।'

तभी उस घोंसले से एक चिड़िया फुर्र करके रानी के ऊपर से निकली। रानी डर गई और मास्टर जी का कुर्ता पकड़ लिया। मास्टर जी हंसते हुए बोले, 'वाह जी वाह, अभी कह रही थी उ सेउड़ना, अब क्या हुआ।'