मेरे मरने के बाद
यशवन्त कोठारी
मुझे आप सभी को सूचित करते हुए दुःख है कि मेरा असामयिक निधन कल सायंकाल हो गया है ! मैैं अपने पीछे एक अदद पत्नी और दो ठो बच्चे छोडकर गया हूं। मेरी आयु हाई स्कूल प्रमाण पत्र के अनुसार कुल जमा इकतीस वर्ष थी। इतनी कम आयु में एक व्यंग्यकार का मर जाना साहित्य और समाज के लिए अपशकुन है। अतः मरने के बाद क्या क्या किया जाए, मैंने इसकी फेहरिस्त बना दी ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आए।
नियमानुसार हिन्दी का लेखक जब तक जिन्दा रहता है फटीचर रहता है और मरने के बाद महान हो जाता है। इसी महान परम्परा का निर्वाह करते हुए मैं भी अब महान हो गया हूं। मरने से कुछ समय पूर्व ही मैंने अपनी मृत्यु का शोक समाचार स्वयं लिख लिया था। प्रत्येक शोक समाचार के साथ अपना एक पासपोर्ट आकार का फोटो भी नत्थी कर दिया था। इस समाचार को पत्नी को देते हुए मैंने कहा था,“मेरे मरने के तुरन्त बाद इसे स्थानीय, राष्ट्रीय, दैनिक पत्रांे, साप्ताहिकों, मासिकों, त्रैमासिकों, और वार्षिक पत्रों को भेज देना ताकि वे इसे प्रकाशित कर सकें।” कई बार होता ये कि लेखक जो था वो तो मर गया और पत्रकार उसका फोटो ढ़ूढ़ं रहे है। मैं ऐसी स्थिति नहीं आने देना चाहता।
अपने शोक समाचार से निपटने के बाद मैंने अपनी समस्त अप्रकाशित रचनाओं को एक जगह एकत्रित किया। लगभग एक क्विन्टल रद्दी के ये कागज सम्पादकों के अभिवादन व खेद सहित आए थे। मैंने इनकी अलग अलग ढेरियों बनाईं और मित्र को समझाया।
“प्यारे झपकलाल, मेरे मरने की खबर सुनते ही कई प्रकाशक मेरी अप्रकाशित कचरा रचनाओं की तलाश में आएंगे। तुम उन्हंे ये ढेर दे देना। न केवल सभी रचनाएं प्रकाशित हो जाएंगी वरन् मेरे बच्चों को कुछ रायल्टी भी मिल जाएगी।” झपकलाल ने वायदा किया वो मेरा यह तुच्छ काम दोस्ती के नाम पर मेरे मरने के बाद भी कर देगा। वैसे आजकल मरने के बाद दोस्ती कौन निभाता है।
अपने मरने की सम्पूर्ण प्रक्रिया की रिहर्सल करते हुए मैंने देखा, अकादमी, राज्य सरकार और केन्द्रीय सरकार सभी मरने के बाद लेखकों को पुरस्कृत अवश्य करती है। मैंने सोचा, जीते जी मुझे तो कभी पुास्कार नहीं मिलेगा, लेकिन मरणोपरान्त अवश्य मैं हजारपति हो जाऊंगा। इस कार्य हेतु मैंने एक आलोचक को पटाया, भाई जान, मरने के बाद सभी दुश्मनियां बदल जाती है। आप तो कृपा कर मेरी मौत के तुरन्त बाद एक लम्बा समीक्षा लेख मेरे ऊपर लिख देना। मेरे मरने के बाद उसे प्रकाशित करने में भी आपको दिक्कत नहीं आएगी। आपको भी कुछ पारिश्रमिक मिल जाएगा, और मेरा भी भला होगा।” आलोचक बेचारा साहित्य के दलदल में नया ही आया था, अतः मान गया। अपनी रचनाओं की समीक्षा के प्रति आश्वस्त होने के बाद मैंने अन्य बातों की ओर ध्यान दिया। मैंने पुत्र को अपने बीमे के कागजो और सरकारी चक्रव्यूह को भेदने के तरीके सिखाए। किस प्रकार भोलाराम का जीव फाइलों में अटक जाता है यह भी बताया। पुत्र कलयुगी था सब कुछ समझ गया। पी.एफ. बीमे से निपटने के बाद मैंने मृत्यु चिन्तन को आगे बढ़ाया। मसाण्यों बैराग अर्थात श्मशानी वैराग्य मेरे ऊपर छाने लगा था। संसार असार है, आत्मा अमर है आदि के बाद मैंने इस ओर चिन्तन किया कि किस विधि से मरना उचित होगा ? स्वाभाविक था कि मैं इस विषय पर साहित्य टटोलता।
महाजनों येन गत् स पंथा। महाजन जिस रास्ते पर जाए वही उचित मार्ग होता है। इस उक्ति के आधार पर मैंने हिन्दी के वरिष्ठ लेखकों की मरण प्रक्रिया पर दृष्टि डाली। मगर अफसोस, वे सभी रूटीन में मरे। मरना ाभी नहीं आता। कितने बदनसीब हैं हिन्दी लेखक, मरना भी नहीं जानते। एक भूतपूर्व कवि की बडी इच्छा थी कि वे दिल्ली में मरें। निगम बोध घाट पर सांसदों, विधायकों, पत्रकारों और मंत्रियों की उपस्थिति में जलने का जो आनन्द है वो अन्यत्र कहां, लेकिन भगवान ने उनकी यह इच्छा भी पूरी नहीं की। हिन्दी साहित्य से निराश होकर मैंने अन्य भाषाओं के साहित्यकारों से मार्ग दर्शन लेने का निश्चय किया। इस बारे में भी प्रेरणाएं विदेशों से ही आयातित करना ठीक रहता है।
पुश्किन का ही उदाहरण लो, वे एक युवती के चक्कर में लड़ते हुए मारे गए। हेमिंग्वे ने तो नोबल पुरस्कार लेते ही आत्महत्या कर ली। है न मर्दानगी भरा साहसिक काम। आज तक किसी हिन्दी लेखक ने ऐसा नहीं किया। जापान में सामूहिक आत्महत्याओं का दौर चलता है, लेकिन हिन्दी वाले तो बेचारे तिल तिल कर मरते हैं।
जहां तक आत्महत्या का प्रश्न है, विदेशों में बुद्धिजीवियों में यह खूब पापूलर है। अगर भगवान ने चाहा तो हमारे देश में भी अब दौर शुरू होने ही वाला है। राशन की लाइन से निपटने के तुरन्त बाद खाकसार ने भी इस पर चिन्तन किया।
मरण् थ्चन्तन से निपटने के बाद मैंने देखा के मरने की सभी औपचारिक तैयारियां पूरी हो गई है। और अब समय आ गया है कि मैं मर जाऊं। अतः मैं मर गया। आप भी अपनी श्रद्धांजलि दें। वैसे मैं गा रहा हूं।
प्ंाडितजी मेरे मरने के बाद...।
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यशवन्त कोठारी
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