पथरीले कंटीले रास्ते - 20 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पथरीले कंटीले रास्ते - 20

 

पथरीले कंटीले रास्ते 

 

20

 

 

रविंद्र का दुनिया में आना बङी धूमधाम से मनाया गया था । बेबे ने आँगन में सुमंगला औरतों को बुलाकर सोहर और घोङियाँ पूरे इक्कीस दिन गँवाई थी । सबको हर रोज पाँच बङे पतासे दिये जाते । लोग बधाई देते तो दो लड्डू खाने को मिलते । सब मिठाई खाकर दुआएँ देते हुए विदा होते । खुसरों ने नाच नाच कर आँगन में धूल उङा दी थी । इतने वारने हुए थे कि ले रब का नाम । चमेली ने अपने आँचल में उसे लेकर जब लोरी गाई तो बापू जी ने पूरे सौ रुपए का वारना किया था । नगमा और तारे की तो आँखें ही फटी की फटी रह गयी थी । कई दिन तक गाँव की चौपालों में इसकी चर्चा रही थी ।
बापू जी और बग्गा सिंह जब भी मंडी जाते , रविंद्र के लिए कपङे और खिलौनों का ढेर खरीद लाते । तरह तरह के खेल खिलौने । मिट्टी से लेकर चाबी से चलने वाले भालू , रेल , कार , बंदर और भी न जाने क्या क्या ।
बेबे तो उसे एक मिनट के लिए भी गोदी से नीचे न उतारती । वह कई बार टोकती भी – बेबे जी , थोङी देर को नीचे लिटाकर पैर सीधे कर लो । यूं गोद में लेकर बैठे बैठे पैर और कमर अकङ जाएँगे ।
आगे से बेबे हँस कर कहती – ले बहु , इसमें कौन सा भार है । एक छटांक भी नहीं होना । ऊपर से ठंड , पता है कितनी है । एक बार बच्चे को ठंड लग गयी तो लेने के देने पङ जाएंगे । आराम से निग्घा होकर गोदी में सो रहा है । इसे सोने दे । तू अपना काम करले ।
वह ऐसे मौके पर चुप हो जाती । पूरे दो साल, जब तक रविंद्र दूध पीता रहा , बेबे ने उसे न बरतन मांजने दिये , न कपङे धोने । एक महरी आती और ये दोनों काम कर जाती । आखिर दूध पिलाने वाली माँ ठंडे पानी में हाथ कैसे डालेगी । बच्चे को कहीं ठंड लग गयी तो ? एक नैन अलग से दोनों माँ बेटे की मालिश करने आती थी जो घर के बने देसी घी में बादाम जलाकर उस तेल से दोनों माँ बेटे की मालिश किया करती थी । सवा साल बाद बेबे ने उसे दो तेवर , चाँदी के दो रुपए , ढेर सारा अनाज , पंसेरी गुङ देकर आदर से विदा किया था । नैन खुश होकर उन्हें असीसती हुई विदा हुई थी ।
घुटनों के बल चलना तो इसने सीखा ही नहीं । हमेशा बेबे की गोद में बैठा रहता। बेबे उससे छोटी छोटी बातें करती रहती । यह सयाने बंदों की तरह चुपचाप बैठ कर सुनता रहता और एक दिन अचानक चारपाई पकङ कर चलने लग गया । बेबे ने उबले छोलों में शक्कर डाल कर जात बिरादरी में बँटवाए थे उस दिन । दो चार दिन चारपायी पकङ कर चला होगा कि बापू जी की ऊँगली पकङ कर बाहर की सैर को जाने लग पङा ।
इसके अगले साल राना उसकी गोद में आ गया था और उसके दो साल बाद पिंका । बेबे और बापू जी के पैर जमीन पर न लगते । हालांकि दोनों छोटे बच्चों को भी बहुत प्यार मिला पर रविंद्र को तो सबसे ज्यादा मिला । बेबे और बापू जी की तो जान बसती थी उसमें । जैसे किसी जादूगर की जान बसती थी उसके तोते में । तोते तो जरा सी तकलीफ होती तो जादूगर तङफने लगता था । बिल्कुल वही हालत बेबे जी और बापू जी की थी । एक बार छोटे होते रविंद्र को दस्त लग गये थे । जितना घबराये थे बेबे जी कि पूछो मत । हकीम से पुङियां लेकर तो आये ही । हरङ अलग से घिस कर खिलाई । यहाँ वहाँ की मन्नतें मान ली वह अलग और रविंद्र के ठीक होने पर पूरे तीन महीने बाद तक मन्नतें उतारते रहे थे ।
और ये उसकी पहली स्कूल की वर्दी । जिस दिन वह पहली बार स्कूल गया बापू जी पूरा दिन स्कूल के गेट पर बैठे रहे थे । पता नहीं कब उनका पोता रोना शुरु कर दे और मास्टर उसे घर ले जाने के लिए कह दे । छुट्टी होने पर जब रविंद्र बाहर आया तो ऐसे भाग कर उसको गले से लगा लिया था जैसे पता नहीं कब से बिछुङे हुए मिल रहे हैं । गोदी में उठाये उठाये ही वे घर आये थे । गोद में बैठा कर ही पूरे दिन की बातें सुनी थी और अपने बाथ से रोटी खिलाने लगे तो बेबे भङक उठी थी – अब क्या तू ही चिपका के बैठा रहे गा । बाकी लोग भी हैं घर में । उनको भी तो प्यार करना हुआ कि नहीं ।
बापू जी झेंप गये थे और रविंद्र मौका पाते ही भाग कर दादी की गोद में जा चढा था । बेबे जी रोती जाती और उसकी बलाएँ लेती जाती । रविंद्र ने ही पहल की – बेबे , बङी जोर की भूख लगी है ।
हाय मैं वारी जाऊँ , आ पुत्त । तुझे रोटी खिलाऊँ ।
मैंने रोटी नहीं खानी । मैं तो चूरी खाऊँगा ।
क्यों नहीं बच्चे । ले बहु , इसके लिए घी और शक्कर डाल कर चूरी कूट दे । और बेबे जी उसे चूरी खिलाने लग पङे थे । ऐसा ही लाड प्यार था दादी पोते का । बेबे जी बीमार हुए तो उन्हें शहर के एक प्राइवेट अस्पताल में दाखिल कराया गया था । उन्हें साँस लेने में दिक्कत हो रही थी । उन्हें आक्सीजन स्पोर्ट पर रखा गया था । वे बार बार बाहर दरवाजे की ओर बेबसी से देखते । आखिर रविंद्र को उनसे मिलाने लाया गया । जब नन्हे से रविंद्र ने बेबे को इस हाल में देखा तो बुरी तरह से डर गया । आखिर मुश्किल से सात साल का रहा होगा तब रविंद्र । बेबे जी के चेहरे पर संतोष का भाव दीखने लगा था । उन्होने अपना कांपता हुआ हाथ रविंद्र के सिर पर रखा और आखिरी सांस ली । सचमुच रविंद्र उनका तोता था जिसमें उनकी रूह बसती थी ।
ओए , तेरे कपङे निकले या नहीं , या अभी तक अलमारी के आगे सजी खङी है । - बग्गा सिंह की आवाजों ने उसे अतीत से खींच कर वर्तमान में पहुँचा दिया । वह कितनी देर से यह झबला हाथ में पकङे खङी थी । झबले को अलमारी में रख कर उसने कुछ कुरते पाजामें बैग में डाले । एक दो शर्ट और जीन्स भी डाली । तीन बनियान पङी थी वह भी रख दी । बाकी कपङे अलमारी में रख कर वह बाहर आ गयी । सुन कुरते पजामे तो मैंने रख दिये पर बनैन और कच्छे तू बजार से खरीद लेना । पोडर . साबने और सैंट भी । मैं थोङी सी पंजीरी बना दूँ । साथ ले जाना ।
उसने कङाही में ढेर सारा घी निकाला । आग जला कर कङाङी चूल्हे पर ऱख दी । आटा डाल कर भूना और मेवे डाल कर पिन्नियाँ बना डाली ।
खोया तो आ जाने देना था । कुलविंदर लेने गया था । दो मिनट सब्र कर आता ही होगा ।
खोये वाली पिन्निया पाँच छ दिन से ज्यादा नहीं चलती । जल्दी खराब हो जाती हैं । ये पिन्नियाँ वह आराम से खाता रहेगा ।
चल ठीक है जो तुझे ठीक लगे ।
बग्गा सिंह सारे दिन की भाग दौङ से थका हुआ था , इसलिए लेट रहा पर नींद उसकी आँखों से ओझल हो गयी थी । वह सुबह जेल कैसे जाएगा । जेलर से कैसे मिलेगा । उसे क्या कहेगा । रविंद्र से वह कैसे मिलेगा । रविंद्र कैसा होगा । वह उसका सामना कैसे करेगा । ये सब सवाल उसे लगातार परेशान करते रहे ।


बाकी फिर ... .