पथरीले कंटीले रास्ते - 19 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पथरीले कंटीले रास्ते - 19

पथरीले कंटीले रास्ते 

 

19

 

बस में खङे खङे उसकी टाँगे दुखने लगी थी । वह कभी एक टाँग पर खङे होने की कोशिश करता कभी दूसरी पर । बस में दोनों टांगे एक साथ नीचे टिकाने की सुविधा कहाँ थी । एक सवारी उतरती तो चार चढ जाती । आखिर बस रामपुरा के बस अड्डे पर पहुँची । सवारियाँ उतरने लगी तो वह भी उतरने के लिए दरवाजे की ओर बढा । नीचे खङी सवारियाँ बस में चढने के लिए उतावली हो रही थी और धक्का मार कर भीतर बढी चली आ रही थी । वह दरवाजे में फँस गया ।

 भई पहले उतर तो जाने दो फिर आराम से चढ लेना ।

एक दो सवारियां नीचे उतर गयी तो वह पसीनोपसीने हुआ बस से नीचे उतरा और बिना रुके लपकता हुआ  घर की ओर चल दिया । रास्ते में एक दो जान पहचान वालों  ने उसे टोका तो सरसरी सी सत श्री आकाल बुला कर वह बिना रुके चलता गया । घर पहुँच कर वह जल्दी से जल्दी यह खुशखबरी अपनी पत्नी को सुनाना चाहता था ।

आँगन में पहुँचते ही  उसने रानी को पुकारा पर कोई जवाब नहीं मिला । दोबारा पुकारने पर उसका मंझला बेटा राना पानी का गिलास लिए आया – पापा ले पानी पी ले । माँ तो घर पर नहीं है ।

कहाँ चली गयी आज ।

वो पङोस में करमजीत है न , उसकी झाई आई थी बुलाने । उनके घर आज शाम को सुखमनी साहब का पाठ था । माँ तो जाना ही नहीं चाहती थी । उसने ताई को कहा भी कि वह आ नहीं सकेगी । वो तो ताई ने कसम दे दी तो जाना ही था । इसलिए चली गयी । बस थोङी देर में आ जाएगी ।

अच्छा , कब गयी थी ।

साढे पाँच बजे ।

चल तू अपना काम कर । मैं थोङी देर आराम करता हूँ ।

उसने वहीं खङा मंजा टेढा किया और लेट गया । लेटते ही उसकी आँख लग गयी । वह डेढ घंटा तो सोया ही होगा कि रानी ने आकर उसे जगाया – हाय मैं मर जाऊँ । ऐसे कैसे नंगी अलानी मंजी पर सो गये । उठो तो मैं दरी बिछा दूँ ।

आवाज सुन कर वह उठ कर बैठ गया – रहने दे दरी । बहुत देर सो लिया । आराम करने के लिए लेटा था । मेरी आँख ही लग गयी थी । अब तो उठने का टाईम हो गया है । चाय बना ले । मैं हाथ मुँह धोकर आता हूँ ।

रानी ने पतीली धोकर चाय का पानी चढा दिया । तीन छोटी इलायचियाँ डाल कर पानी उबलने का इंतजार करने लगी । थोङी देर बाद चाय पत्ती और चीनी डाल कर हारी से दूध निकाल लाई ।

रविंद्र को हारी में कढ कढ कर लाल हुआ दूध बहुत पसंद था । आज पता नहीं किस हाल में होगा । दूध छोङ रोटी भी पूरी मिलती होगी या नहीं , कौन जाने । आँखों मे आया पानी उसने अपनी चुन्नी के साथ ही सोख लिया । तब तक बग्गा सिंह हाथ मुँह धोकर आ गया था ।

भलिए लोक .क्यों आँसू बहा रही है । चाय पीकर रविंद्र के कुछ कपङे लत्ते और छोटा मोटा सामान निकाल दे । कुछ खाने के लिए भी बना दे । कल सुबह मुलाकात की परमिशन मिल गयी है । मिलने जाना है ।

सच्ची । कल ही । फिर तो मैं भी चलूँगी । मैंने अभी वाहेगुरु से अरदास की थी कि हे सच्चे पातशाह , मुझे मेरे बेटे से मिला दे और देख , साथ की साथ उसने मिलवा भी दिया ।

रानी का चेहरा बेटे को देखने की उम्मीद में चमक उठा था । 

पर रानी कल तो मुझे अकेले ही जाना पङेगा । इस बार सिर्फ मुझे मिलने की इजाजत मिली है ।

रानी के चेहरे पर जैसे किसी ने कालिख फेर दी हो ऐसा हो गया । वह एकदम मुरझा गयी । 

मैं क्यों नहीं मिल सकती उसे । आखिर माँ हूं उसकी । नौ महीने कोख में रखा है । पाल पोस कर बङा किया है और वो मुझे ही नहीं मिलने देंगे ।

समझा कर रानी । वो जेल में कैदी से मिलने के लिए अरजी लगानी पङती है । फिर मिलने की इजाजत मिलती है । इस बार दो घंटे की मुलाकात की मंजूरी मिली है । वकील कह रहा था , जल्दी तुझे भी मिलवा देगा ।

ठीक है , जो रब को मंजूर । हर प्राणी में वही तो बसता है । चल कोई न , इस बार तू जा आ । उसे देख आ । कैसा है वह । किस हाल में है । मैं सामान तैयार कर देती हूँ ।

घुटने पर हाथ रख कर वह उठ गयी । कमरे में जाकर उसने अलमारी खोली और रविंद्र के कपङे निकाल कर पलंग पर ढेर कर दिये ।

चल इस बहाने रविंद्र की अलमारी सैट हो जाएगी । वह कुरते पाजामे अलग रखने लगी । शर्ट और जीन्स भी निकाल कर एक ओर रख दिये । बनीयान , अंडरवियर जुराबें सब सैट करके रखे । फिर बैग निकालकर झाङा तो बैग में से कुछ गिरा । उसने झुक कर उठाया तो यह रविंद्र का पहला झबला था जो उसके पैदा होने पर उसके दादा का कुरता फाङ कर उसकी चाची ने सिला था । साथ ही उसके नजरिये भी पङे थे ।

झबले को देख कर रानी स्मृतियों के बादलों पर सवार हो गयी । जब वह ब्याह कर आई थी तो सत्रह साल की , बछिया जैसी चंचल और हिरनी जैसी फुरतीली थी । हर समय मैना की तरह चटर पटर करती रहती थी । घर की बङी बहु थी तो सबकी लाडली होना स्वाभाविक ही था ।  सास ने उसे सिर आँखों पर लिया था । ससुर हर रोज तरह तरह के फल , मिठाई लाते और चौंके में ढेर कर देते । सास मनुहार कर करके खिलाती । बग्गा सिंह उससे सात आठ साल बङा था । कुछ डर और कुछ शरम लिहाज , वह बग्गा सिंह को देखते ही घबरा कर भाग खङी होती । पाँच महीने बीतते न बीतते सास को पोता खिलाने की इच्छा जताने लगी थी । सोते जागते वह रानी को उकसाती । पोते के आने की आशा जताती । रानी शर्मा कर इधर उधर हो जाती । बग्गा सिंह सिर नीचा किये बाहर चला जाता । साल बीतते बीतते रानी की गोद भर गयी । सास ससुर की खुशियों का कोई ओर छोर नहीं था । ये सात आठ महीने उसकी जिंदगी के सबसे सुंदर महीने थे । फिर रविंद्र का जन्म हुआ था तो उसकी सास ने सौ सौ शगुण किये थे । दाई को दो सूट के साथ अँगूठी भी मिली । साथ साथ दो सौ मिले थे और पंसेरी अनाज की ।

सारे अङोस पङोस में लड्डू बटे थे और सवा महीने बाद जिस दिन रविंद्र को पहली बार घर से बाहर निकाल कर गुरद्वारे और मंदिर में माथा टिकाने ले जाया गया , उस दिन सारे गाँव के दावत दी गयी थी । कई तरह की दालें सब्जियां , दही , रायता , चावल जलेबी , रसगुल्लले बनवाये थे दार जी ने खुद अपनी देखरेख में आखिर उनके खानदान का बङा पोता जन्मा था ।

 

 

बाकी फिर ...