प्रकरण - १५
मैंने बड़ी ही उत्सुकता से रईश से पूछा, "तो फिर तुम नीलिमा को अपने दिल की बात कब तक बताओगे? कैसे तुम उससे मिले? कैसी थी तुम दोनों की पहली मुलाकात? ये भी तो बताओ भाई!"
रईशने मुझे बताया, "रोशन! यह तब की बात है जब मैं पी.एच.डी. में दाखिला लेने के बाद अहमदाबाद गया था। वैसे तो मैंने एम.एस.सी. भी अहमदाबाद में गुजरात युनिवर्सिटी से ही किया था, इसलिए मैं अहमदाबाद से परिचित तो था ही।
उस दिन मुझे अपनी पी.एच.डी. के रजिस्ट्रेशन के लिए गुजरात युनिवर्सिटी जाना था। जहां मैं पीजी छात्रावास में रहता था वहां से युनिवर्सिटी लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर थी। मेरा वहां पर एक जगह से दूसरी जगह पर ए.एम.टी.एस. की बस से ही आना जाना रहता था। उस दिन भी मैं ऐसे ही युनिवर्सिटी जा रहा था। मुझे बस पकड़ने के लिए अपने घर से बस स्टैंड तक थोड़ा पैदल चलना पड़ता था। इसलिए मैं उस दिन बस स्टैंड तक पहुंचने के लिए पैदल जा रहा था। मैं बस स्टैंड पर पहुंचा तब तक बस आई नही थी, इसलिए मैं बस स्टैंड पर बस का इंतज़ार कर रहा था तभी मेरी नज़र एक कुत्ते पर पड़ी।
वो कुत्ता थोड़ा लंगड़ा कर चल रहा था। मैंने ये देखा तो मैं उस कुत्ते के पास गया। कुत्ते के नजदीक जाकर मैंने देखा तो मुझे समझ आया की उसके पैर से थोड़ा खून बह रहा था। मैं उस कुत्ते को देख ही रहा था तभी युनिवर्सिटी की ओर जानेवाली बस आ गई।
मुझे उस कुत्ते को ऐसी हालत में छोड़ना ठीक नहीं लगा इसलिए मेरी वह बस मैंने जाने दी। मैंने सोचा कि अगर मैं युनिवर्सिटी थोड़ा देर से पहुंचूं तो भी ठीक ही है। वो कुत्ता इतना दर्द में था कि मुझे पहले उसका दर्द दूर करना ज्यादा जरूरी लगा। कुत्ते की मदद करने के लिए मैंने वो बस को जाने दिया।
मुझे उस कुत्ते पर बहुत दया आई। अचानक मुझे एहसास हुआ कि मेरे हाथ में रूमाल है। मैंने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किया और उस रूमाल से उसके पैर पर पट्टी बांध दी। मेरे द्वारा पट्टी बाँधने के बाद उस अबोल कुत्तेने कृतज्ञतापूर्वक मेरी ओर देखा। हालाँकि जानवर बोल तो नहीं सकते, लेकिन वे हमारी भावनाओं को भी समझते तो है ही इस बात का मुझे उस दिन एहसास हुआ।
मेरी एक बस छूट गई थी इसलिए मैं फिर वहीं खड़ा होकर दूसरी बस के आने का इंतजार कर रहा था। जल्द ही दूसरी बस आई और मैं यूनिवर्सिटी पहुंच गया।
जब मैं अपनी रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया निपटाने के लिए युनिवर्सिटी ऑफिस गया तो वहां पहले से ही एक लड़की मौजूद थी। वह कुछ देर तक मेरी ओर देखती रही। मानो याद करने की कोशिश कर रही हो, उसने मुझे कहाँ देखा है? मुझे समझ नहीं आया कि वह मेरी तरफ ऐसे क्यों देखती रहती है? लेकिन उसने खुद ही थोड़ी देर में मेरे मन में चल रहे सवाल का जवाब दे दिया।
उसने मुझसे पूछा, "क्या आप वही व्यक्ति हैं जो कुत्ते की पट्टी बांध रहे थे और आपकी बस छूट गई थी?"
मैंने कहा, "हाँ! मैं वही हूँ, लेकिन आपको ये बात कैसे पता?"
वो बोली, "क्योंकि मैं उसी बस में मौजूद थी जिसे आप चूक गए थे। मैंने बस की खिड़की से आपको कुत्तों को प्यार से सहलाते हुए देखा था। ऐसा लगता है कि आपमें जानवरों के लिए बहुत दया है। आपको देखकर मुझे लगा कि आपका स्वभाव अलग है। आमतौर पर जानवर तब चिढ़ते हैं जब इंसान उनके पास आते हैं, लेकिन आपको देखकर उस कुत्ते ने न तो छेड़ा और ना ही हमला किया।
मैंने यह भी देखा कि, कुत्ते को भी आपकी ओर से गर्मजोशी और स्नेह महसूस हो रहा था! जब आपने धीरे से कुत्ते के सिर पर अपना हाथ फेरा तो कुत्ता भी आपके करीब आकर बैठ गया, मानो आपकी भावनाओं को भांप रहा हो! लेकिन अब ये तो बताओ, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?"
मैंने कहा, "मैं यहां अपनी पी.ए.डी. के रजिस्ट्रेशन के लिए आया हूं। मैं प्राणीशास्त्र में पी.एच.डी. कर रहा हूं।"
मेरी ये बात सुनकर वो भी बोल पड़ी, "अरे वाह! यह तो बहुत ही अच्छा हो गया। मैं भी यहाँ प्राणीशास्त्र में ही पी.एच.डी. करने आई हूँ। मेरा नाम नीलिमा है। तुम्हारा नाम क्या है?"
मैंने भी उससे कहा, "ओह! क्या बात कर रही हो? मेरा नाम रईश है। फिर तो हमें साथ में ही पढ़ाई करनी है। आपका पी.एच.डी. गाइड कौन है?"
उसने बताया, "डॉ. किरीट जोशी सर। आपके गाईड कौन है?" नीलिमाने मुझसे फिर पूछा।
मैंने उत्तर दिया, "मेरी गाइड हैं डॉ. सुनिधि मेहता मैडम।"
वो बोली, "ओह! फिर तो आप बड़े भाग्यशाली हैं! मैं भी सुनिधि मैडम के हाथ के नीचे ही रिसर्च करना चाहती थी, लेकिन मुझे थोड़ी देर हो गई। अब उनके मार्गदर्शन में किसी भी छात्र के लिए कोई जगह खाली नहीं थी इसलिए मेरे पास जोशी सर के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था।"
मैंने नीलिमा से कहा, "कोई बात नहीं। जोशी सर भी बहुत अच्छे हैं। मैंने यहीं से एम.एस.सी. की है इसलिए मैं जानता हूं उन्हें। वे हमे पढ़ाते थे इसलिए मुझे पता है कि वे भी बहुत अच्छे हैं। आपने एम.एस.सी. कहां से किया है?"
नीलिमा बोली, "मैंने यह राजकोट सौराष्ट्र युनिवर्सिटी से किया है।"
ये सुनकर मैंने पूछा, "ओह! फिर तो आप राजकोट से ही है या कहीं और से?"
उसने कहा, "हाँ, मैं राजकोट से ही हूँ और आप?"
मैंने कहा, "अरे! मैं भी तो राजकोट से ही हूं।"
मैं भी राजकोट से ही हूं ये जानकर नीलिमा बहुत ही खुश हो गई और बोली, "अरे! ये क्या बात कर रहे हो! आप राजकोट में कहाँ रहते हैं?"
मैंने कहा, "मैं भक्तिनगर में रहता हूं। आप कहा रहती है?"
वो बोली, "मैं रेसकोर्स के पास रहती हूँ।"
मैंने कहा, “चलिए फिर तो ठीक है। अब तो हमारा रोज़ ही मिलना होगा।”
वो बोली, "हां हां चलो! अब जिस काम के लिए आये हैं, वह तो निपटा लें?"
मैंने कहा, "हां हां बिल्कुल।"
फिर हम दोनों जिस काम के लिए आए थे वो खत्म किया।
अगले दिन से हमारा रिसर्च कार्य शुरू हो गया। कभी वह मेरे काम में मदद करती थी तो कभी मैं उसके काम में। हम दोनों अब बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे। धीरे-धीरे मैं भी नीलिमा की ओर आकर्षित होने लग गया हूं। लेकिन मैंने अभी तक उसे अपने दिल की बात नहीं बताई है।''
रईश की यह बात सुनकर मैंने उससे कहा, "रईश! एक बात कहूँ? अगर तुम मेरी बात मानो तो जैसे ही तुम यहाँ से छुट्टियाँ ख़त्म करके वहाँ वापस जाओ तो तुम्हें नीलिमा को अपने दिल की बात बता देनी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हे ये बात उसको बताने में देर हो जाएं और वह अपना दिल किसी और को दे बैठी हो!"
मेरी ये बात सुनकर रईश भी बोला, "हाँ! हाँ! रोशन तुम ठीक कह रहे हों। मैं दो दिन में युनिवर्सिटी जाकर नीलिमा को अपने दिल की बात बताऊँगा। अब तुम कहो! तुम्हारी जिंदगी में क्या चल रहा है?"
मैंने कहा,"मेरी जिंदगी भी अच्छी ही चल रही है। मैं अंध विद्यालय जाता हूं और वहां छात्रों को संगीत सिखाता हूं और फातिमा इसमें मेरी मदद करती है।"
ये सुनकर रईशने पूछा, "फातिमा... तो वही न जिसने तुम्हें यह विद्यालय का ऑफर दिया था?"
मैंने उत्तर दिया, "हां हां वही।"
रईशने मुझसे कहा, "मैं उस फातिमा से मिलना चाहता हूं। कल जब तुम विद्यालय जाओगे तो क्या तुम मुझे उससे मिलवाने ले जाओगे? मैं उससे मिलकर उसका शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। उसका हम पर ये बड़ा एहसान है। समय आने पर हम उसका कर्ज जरूर चुका देंगे।
मैंने कहा, "हां, तुम ठीक कह रहे हो। तुम कल मेरे साथ विद्यालय आना। मैं तुम्हे वहां फातिमा से मिलवाऊंगा।"
(क्रमश:)