सपनो का शुभ अशुभ फल - भाग 25 Captain Dharnidhar द्वारा ज्योतिष शास्त्र में हिंदी पीडीएफ

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सपनो का शुभ अशुभ फल - भाग 25

सपनें -

नत्वा जिनेन्द्रं गतसर्वदोषं, स्वानन्दभूतं धृतशान्तरूपम्।नरामरेन्द्रैर्नुतपादयुग्मं, श्रीवीरनाथं प्रणमामि नित्यम्।।

नाना प्रकार के कर्मों से यह संसारी आत्मा क्षण क्षण में जरा से निमित्तों को प्राप्त कर आकुल—व्याकुल हो उठता है। जागृत व सचेत अवस्था में तो नाना प्रकार के मन के घोड़े दौड़ाता रहता है लेकिन आश्चर्य यह है कि जब यह प्राणी शारीरिक व मानसिक चेष्टाओं में व्यस्त होने पर थकान का अनुभव करता है तथा उसे दूर करने का उपाय सोचता है तब आश्रय एकान्त स्थान का लेता है और वहाँ विश्राम कर समस्त िंचताओं से दूर होने के लिए निद्रादेवी की गोद में अपने को समर्पित कर देता है। जरा ध्यान से विचार करें कि उस निद्रित अवस्था में शारीरिक व वाचनिक क्रियायें सभी स्तब्ध हो जाती है। लेकिन क्या वह मुक्त है िंचताओं से, क्या उसके मन ने विश्राम पाया है ? आप कह सकते हैं कि ऐसी अवस्था में मन करेगा भी क्या ! अरे भाई, उस समय भी वह जीव कर्मबन्ध कर रहा है। अचेत होकर भी यदि कहो वैâसे? तो बहुत ही सीधा और सरल उत्तर है—उस कर्म बन्धन से बद्ध होने का प्रत्यक्ष दर्शन कराते हैं, जिसे मुक्त स्वर में सभी स्वीकार करते हैं। चलो, अपने भूतकालीन अनुभवों की डायरी उठाकर देखें तो पता चल जावेगा कि हम अमुक दिन सोकर उठे तो अपने को घबड़ाते हुए पाया। घबड़ाने का कारण था बस, यही न कि स्वप्न में मेरे बच्चे को हरण कर लिया है और अपने चित्त की पूर्ण शान्ति को खो चुका हूँ। इस प्रकार नाना तरह से स्वप्न देखा ही करते हैं, कभी कुछ कभी कुछ ये सब हमें ज्ञात कराते हैं कि हम शारीरिक व वाचनिक क्रिया के निरोध में भी कर्मबन्धन से अछूते नहीं हैं। हमारा हर समय आकुलताओं में निकल रहा है। शास्त्रों में हम पढ़ा करते हैं कि स्वर्गों में रात्रि दिन का भेद नहीं होता। ठीक उसी प्रकार आकुलताओं की स्थिति में भी रात्रि दिन का भेद नहीं होता। दिन की अपेक्षा अपने को रात्रि में अधिक व्याकुल पाते हैं। सुबह होते ही स्वप्न का शुभ—अशुभ जानने की चिन्ता व्यक्त करते हुए लोगों को देखा जाता है। उसका कारण जब खोजते हैं तो पाते हैं कि इस विषय का हमें अध्ययन ही नहीं है। अष्टांग निमित्तों का कथन करते हुए ज्योतिष विषय के माध्यम से स्वामी भद्रबाहु ने अपने नाम से एक संहिता लिखी है। इसका पूरा नाम ‘‘भद्रबाहु संहिता’’ है। इसी ग्रंथ के छब्बीसवें अध्याय में उन्होंने स्वयं लिखा है—

नमस्कृत्य महावीरं सुरासुर जनैर्नतम्।स्वप्नाध्यायं प्रवक्ष्यामि शुभाशुभ—समीरितम्।।

अर्थात् देव और दानवों द्वारा नमस्कृत किये गये भगवान महावीर स्वामी को नमस्कार कर स्वप्नों के शुभाशुभ निमित्तों का वर्णन करता हूँ।

आचार्यश्री कहते हैं कि स्वप्न दो प्रकार के होते हैं–शुभ और अशुभ। स्वप्न शास्त्र में प्रधानतया स्वप्न नौ प्रकार के कहे गये हैं। यथा—दृष्ट—श्रुत—अनुभूत—प्रार्थित—कल्पित—भाविक—दोषज, मंत्रज व देव।नौ प्रकार के स्वप्न इस प्रकार हैं

(१) दृष्ट—जो कुछ जागृत अवस्था में देखा हो उसी को स्वप्न अवस्था में देखा जावे।

(२) श्रुत—सोने से पहले कभी किसी से सुना हो उसे स्वप्न अवस्था में देखा जावे।

(३) अनुभूत—जो जागृत अवस्था में किसी भाँति अनुभव किया हो उसी का स्वप्न देखना।

(४) प्रार्थित—जिसकी जागृत अवस्था में प्रार्थना (इच्छा) की हो उसी को स्वप्न में देखना।

(५) कल्पित—जिसकी जागृत अवस्था में कभी भी कल्पना की हो उसे स्वप्न में देखना।

(६) भाविक—जो कभी न देखा न सुना हो, पर जो भविष्य में होने वाला हो उसे स्वप्न में देखना।

(७) दोषज—वातादि दोषों से उत्पन्न दोषज स्वप्न।

(८) मंत्रज—पापरहित मंत्र साधना द्वारा सम्पन्न स्वप्न।

(९) देव—पुण्य और पाप के व्यापक स्वप्न