रहस्य Dheeraj Kumar Nishad द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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रहस्य

Chapter-1
Secret Mind
दोस्तों अगर हमारा मन खाली हो जाए तो हम उसमें कुछ ऐसी चीज़ डाल सकते हैं, कुछ ऐसे विचार डाल सकते हैं जिससे हम अपने मन की बक बक को शांत कर सकते हैं। जो विचारों का सैलाब हमारे मन में चलता रहता है, उन्हें हम बहुत अच्छी तरह रोक सकते हैं।

और दोस्तों अगर एक बार मन की बक बक रुक जाए तो फिर हम मन से जो चाहे वो करवा सकते हैं। इसीलिए अगर आप मन की बक बक को शांत करवाना चाहते हो तो इस कहानी को आखिर तक जरूर पढियेगा।
एक नगर की बात है उस नगर में एक नौजवान युवक रहता था, उसका नाम विकास था। उसे एक समस्या थी और उसकी समस्या यह थी कि उसका मन हर समय भटकता रहता था।

उसके मन में हर समय कोई ना कोई नकारात्मक विचार चलते रहते थे। उसके मन की बक बक कभी शांत नहीं होती थी। वो जब भी कुछ सोच कर करता तो कुछ अलग ही कर देता। कभी वो अपने अतीत के बारे में सोच कर पक्षताता था, की काश मैंने उस काम को उस समय कुछ ऐसा कर दिया होता उस काम को वैसा कर दिया होता या फिर वो अपने भविष्य के बारे में सोचता रहता और डरता रहता कि कहीं भविष्य में ऐसा हो गया तो क्या होगा? कहीं में असफल हो गया तो क्या होगा? अगर मुझसे कोई गलती हो गई तो लोग मेरा मजाक उड़ाना शुरू कर देंगे और ऐसे ही कई सारे नकारात्मक और असफलता से भरे विचार उसके मन में आते रहते थे।
विकास हमेशा ही अपने विचारों में खोया रहता।
अपने विचारों से मुक्ति पाना चाहता था। विकास चाहता था कि उसके मन में कोई भी फालतू विचार कभी भी ना आए, लेकिन हर समय विचारों का सैलाब उसके मन में फूटता ही रहता।

इसीलिए जीवन में वो बहुत परेशान हो गया था। फिर 1 दिन उसे किसी ने बताया की यहाँ पास के ही जंगल में एक बौद्ध भिक्षु रहते हैं। उसके पास जाओ। वो तुम्हारी मानसिक समस्या का समाधान अवश्य कर देंगे।


यह सुनकर विकास तुरंत ही बौद्ध भिक्षु के पास चला जाता है और अपनी सारी समस्याएं उन्हें बताता है। बौद्ध भिक्षु भी विकास की बातों को बड़े ही ध्यान से सुनते हैं और उसे कहते हैं कि तुम मुझसे क्या जानना चाहते हो। यह सुनकर विकास कहता है, गुरुदेव मैं अपने मन को शांत और खाली करना चाहता हूँ।

मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि मन को खाली या शांत कैसे करते हैं। मेरा मन हर वक्त विचारो से भरा रहता है। मेरा ध्यान एक जगह लगी नहीं पता है, जिसके कारण मेरे हर काम में समस्या आ जाती है। मैं एक चीज़ करता हूँ तो नकारात्मक विचारों के कारण दूसरी चीज़ पर पहुँच जाता हूँ। मेरा मन एक जगह ठहरता ही नहीं है और यूं ही हर दिन मेरे मन में हजारों विचार चलते रहते हैं।

पर यह कब होता है, क्यों होता है मुझे कुछ भी पता नहीं चलता। बहुत देर बाद मुझे एहसास होता है की मैं क्या करने बैठा था और मैं क्या कर रहा हूँ।


गुरुदेव, मैं अपने मन के विचारों को खाली कर देना चाहता हूँ।
मैं चाहता हूँ की मेरे मन में एक भी विचार ना आये जब मैं चाहूं तभी मेरे मन में विचार आये।

फिर बौद्ध भिक्षु ने कहा, किसी समस्या का समाधान तभी निकलता है जब हम उस समस्या की जड़ तक पहुँच जाते हैं, उस समस्या को ठीक से समझते हैं और उसे जानते हैं। आगे बुद्ध भिक्षु कहते है, जिस मन को तुम खाली करना चाहते हो, क्या तुमने उस मन को कभी थोड़ा बहुत भी समझा है, जाना है?

ये सुन कर विकास ने कहा की महाराज मैंने अपने मन को जानने की बहुत कोशिश की है, लेकिन मैं जितना इसके बारे में जानता हूँ मेरा मन उतना ही रहस्यमयी हो जाता है।

फिर बौद्ध भिक्षु ने उसी वक्त उसको एक घड़ा देते हुए कहा कि जाओ इस घड़े में छोटे छोटे पत्थर भरकर लेकर आओ। वो घडे में पत्थर भरकर ले आया और उस घड़े को बौद्ध भिक्षु के पास रख दिया।

फिर बौद्ध भिक्षु ने उसी वक्त उससे कहा कि इस घड़े को तुम अपना मन समझो और इस घड़े में भरे पत्थरों को अपने विचार समझो।

अब इस घड़े में और पत्थर डालो। उसी वक्त उसने घड़े में और पत्थर डालना शुरू किया, क्योंकि घड़ा पहले से भरा हुआ था। एक दो पत्थर डालने के बाद जब उसने पत्थर डाले तो बाकी सारे पत्थर नीचे गिरने लगे।


फिर बौद्ध भिक्षु ने उसी वक्त से कहा, रुको, ज़रा ध्यान से देखो अब घड़े में पत्थर नहीं आ रहे हैं बल्कि पत्थर नीचे गिर रहे हैं क्योंकि यह एक घड़ा है जो इसमें आ सकता था, वो आ गया। अब इसमें और पत्थर नहीं आएँगे। अगर दूसरे पत्थर डालने हैं तो पहले वाले पत्थरों को निकालना होगा।

यह सुनकर उसी वक्त उसने कहा, गुरुदेव, मैं आपकी बात समझ गया हूँ कि आप मुझे क्या बताना चाहते हैं? हमें अपने मन को विचारों से ही खाली कर देना चाहिए।


विकास की यह बात सुनकर बौद्ध भिक्षु मुस्कुराने लगे और कहा, पहले मेरी पूरी बात तो सुन लो, उसके बाद मन को खाली कर लेना। फिर बौद्ध भिक्षु ने उसी वक्त को कहा कि हमारा मन एक घड़े के बिल्कुल उल्टा है क्योंकि घड़े को तुम पत्थरों से भर सकते हो लेकिन मन को विचारों से नहीं भर पाओगे क्योंकि मन तो हमेशा खाली रहता है।


ये सुनकर उसी वक्त उसने कहा, गुरुदेव, मुझे आपकी बातें कुछ समझ नहीं आ रही है। मन अगर खाली रहता है तो फिर हम उसे खाली करना क्यों चाहते हैं? फिर मन को खाली करने की क्या ही आवश्यकता है?

फिर बौद्ध भिक्षु ने उसे कहा कि इस घड़े से एक एक करके पत्थरों को बाहर निकालो। विकास ने वैसा ही किया। वह घड़े में से एक एक करके पूरे पत्थरों को बाहर निकालता रहा और ऐसा करते करते अंत तक घड़ा खाली हो गया। फिर बौद्ध भिक्षु ने उसी वक्त उससे कहा देखा तुमने जब एक एक करके तुमने पत्थरों को बाहर निकाला तो यह घड़ा खाली हो गया।

अब तुम इस घडे में कोई भी पत्थर डाल सकते हो, दूसरे पत्थर डाल सकते हो या फिर उन्हीं पत्थरों को दोबारा डाल सकते हो, आधा भर सकते हो या फिर पूरा भी भर सकते हो। फिर वह युवक कहता है, गुरुदेव मैं भी तो यही कह रहा हूँ कि मुझे अपने मन को खाली करना है, यह तो एक पत्थर है। जिसे आसानी से निकाला जा सकता है और घड़े को खाली किया जा सकता है।
लेकिन गुरुदेव, मैं अपने मन को खाली कैसे करूँ?

फिर बौद्ध भिक्षु ने कहा, इस घडे में एक पत्थर डालो और दो पत्थर निकालो। यह सुनकर उसी वक्त विकास ने कहा, गुरुदेव, यह कैसे हो सकता है? जब इस घड़े में एक पत्थर होगा तो एक ही पत्थर निकलेगा दो कैसे निकलेंगे?

फिर बौद्ध भिक्षु ने उसे कहा ऐसा नहीं हो सकता है। तो ऐसा करो कि इस घड़े में दो पत्थर डालो और चार निकालो।
विकास ने कहा महाराज ऐसा कैसे हो सकता है? ये कोई चमत्कारी घड़ा तो है नहीं की एक डालो तो दो निकल आएँगे, दो डालो तो चार निकल आएँगे।

ये सुनकर बौद्ध भिक्षु ने कहा, ये घड़ा तो चमत्कारिक नहीं है। लेकिन तुम्हारा मन तो चमत्कारिक है। उसमें से अगर तुम एक विचार बाहर निकालते हो तो उसके साथ दो विचार आते हैं और जब तुम उन दो विचारों को पकड़ते हो तो उसके साथ चार विचार निकलते हैं और फिर ऐसा करते करते विचारों की एक लम्बी श्रृंखला बन जाती है और फिर तुम कहीं नहीं रुकते। एक के बाद एक विचारों को पकड़ते जाते हो।

यह मिट्टी का घड़ा तो पत्थरों से भर जाएगा लेकिन तुम्हारा मन कभी नहीं भरता। वह हमेशा खाली है, लेकिन वह खाली नहीं करता। यह इस मन की माया है कि सब कुछ है लेकिन फिर भी कुछ नहीं। फिर उसी युवक ने कहा, गुरुदेव मैं आपकी बात समझ रहा हूँ, लेकिन क्या मैं हमेशा अपने विचारों के जाल में ही फंसा रहूँगा? क्या मन के इस माया जाल से निकलने का कोई रास्ता नहीं है?

फिर बौद्ध भिक्षु ने कहा, इस मिट्टी के घड़े में आधे पत्थर भर दो।
फिर उसी वक्त विकास ने ऐसा ही किया। फिर बौद्ध भिक्षु ने कहा, अब इन पत्थरों में से कोई एक पत्थर चुनो और उस पत्थर की एक छोटी सी मूर्ति बनाकर मुझे दे दो। मैं जानता हूँ की तुम एक अच्छे कलाकार हो।


विकास ने एक पत्थर निकाला और उस पत्थर को बौद्ध भिक्षु के सामने ही तराशने लगा। पत्थर को तराशते वक्त उसे लगा कि यह पत्थर अच्छा नहीं है। फिर उसने दूसरा पत्थर घड़े से निकाला, लेकिन उसे वह पत्थर भी पसंद नहीं आया। फिर उसने तीसरा पत्थर निकाला, लेकिन वह तीसरा पत्थर भी उसे पसंद नहीं आया उसका रंग अच्छा नहीं था। ऐसा करते करते उसी वक्त उसने सारे ही पत्थरों को बाहर निकाल दिया।

उसी वक्त उसको ऐसा करते हुए बौद्ध भिक्षु बड़े ही ध्यान से देख रहे थे। फिर बौद्ध भिक्षु ने उसे कहा कि जो तुमने सबसे पहले पत्थर निकाला था उस पत्थर को यह समझ कर तराश दो की इसके बाद तुम्हारे पास कोई और पत्थर नहीं है और यह एक ही पत्थर तुम्हारे पास है।

फिर उसी वक्त से जैसा गुरुदेव ने कहा उसी एक पत्थर को लेकर तराशना शुरू किया और उसने उस पत्थर में से एक बहुत ही सुंदर मूर्ति बनाई और बौद्ध भिक्षु को भेंट की और बौद्ध भिक्षु से कहा, गुरुदेव इस पत्थर से इतनी सुंदर मूर्ति बन सकती थी, मैं ये सोच भी नहीं सकता था।

उस युवक की बात सुनकर बौद्ध भिक्षु ने कहा कि जब हमारे पास और कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है। तब हम उस विकल्प में ही संपूर्ण ऊर्जा लगाते हैं और उसी को सबसे बेहतर बनाते है और जब हमारे पास कई सारे विकल्प होते हैं तो हम पत्थर चुनते भी नहीं और मूर्ति बनती भी नहीं।

हमारा मन भी एक विचार के पीछे हजारों विकल्प खोल के रख देता है। और हम एक मुख्य विचार को छोड़कर उन हजारों फालतू के विचारों में उलझ कर रह जाते हैं। फिर उसी वक्त उसने कहा, गुरुदेव, मैं आपकी बातों को बहुत अच्छे से समझ गया हूँ।
लेकिन अब मुझे क्या करना चाहिए? कृपया आप मेरा मार्गदर्शन करे।

बौद्ध भिक्षु ने उसी वक्त उससे कहा कि मन को खाली करना साफ करना एक दो दिन का काम नहीं है। ये बहुत लम्बी प्रक्रिया है तो क्या तुम इसके लिए तैयार हो?

वो युवक कहता है जी गुरुदेव मैं तैयार हूं, चाहे कितनी भी लम्बी प्रक्रिया क्यों ना हो। फिर बौद्ध भिक्षु ने उसी वक्त उससे कहा कि मन को खाली करने और नकारात्मक विचारों से दूर रखने के छह तरीके हैं आओ उन्हें एक एक करके समझते हैं।







Chapter-2
The 4 Habits
तो आइए इस कहानी को शुरू करते हैं। एक बार एक बौद्ध भिक्षु किसी पेड़ के नीचे ध्यान कर रहा था तभी एक राजकुमार उस भिक्षु के पास आता है और उनसे कहता है, महोदय, आप हमेशा कहते रहते हैं कि ध्यान करो, ध्यान करो, लेकिन मेरे लिए ध्यान करना तो दूर की बात है।

मैं कुछ समय के लिए अपनी आँखे बंद करके शांति से भी नहीं बैठ पाता हूँ। मेरा मन इतना बेचैन है की ये हर समय कुछ ना कुछ सोचता रहता है। मैं जब भी ध्यान करने बैठता हूँ तो मेरे अंदर विचारों का तूफ़ान आने लगता है।

लोगों के बारे में सोचकर अपने जीवन की बीती घटनाओं के बारे में सोचकर, अपने भविष्य के बारे में सोचकर ऐसे ही ना जाने कितने सारे अजीबोगरीब विचार लगातार मेरे मन में आते रहते हैं। मैं इन्हें रोकने की बहुत कोशिश करता हूँ लेकिन जब मैं इन्हें रोकने के लिए ध्यान करने की कोशिश करता हूँ तो मेरा मन अशांत होने लगता है और फालतू की बातें मन में उठने लगती है तो मैं ध्यान को तोड़ कर बैठ जाता हूँ।

इतनी बातें कहने के बाद वह उस बौद्ध भिक्षु की ओर देखता है और कहता है महोदय कृपा करके आप मेरी समस्या का कोई समाधान बताएं?

यह सुनकर भिक्षु ने कहा, मैं क्या समाधान बता सकता हूँ? सोचो तुम्हारा ही मन है, लेकिन यह तुम्हें कुछ देर तक आंख बंद करके बैठने भी नहीं देता है। तुमने अपने इस मन को कितना आजाद कर रखा है?

राजकुमार ने कहा, महोदय, मैंने बहुत सोचा लेकिन मुझे अपनी समस्या का कोई समाधान समझ नहीं आया। इसीलिए मैं आपकी शरण में आया हूँ। अब आप ही कोई रास्ता दिखाइए।

भिक्षु ने कुछ देर तक राजकुमार के चेहरे की तरफ बड़े ध्यान से देखा और फिर कहा, ठीक है, मैं तुम्हें अपने स्वामी गौतम बुद्ध द्वारा बताई गई चार आदतों के बारे मे बताउंगा अगर तुम ये चार आदतें छोड़ दोगे तो फिर तुम्हारा मन लगेगा और फिर तुम्हे कभी भी बेचैनी नही होगी।

राजकुमार पूरा ध्यान लगाकर बौद्ध भिक्षु की बातें सुनने लगा।
भिक्षु ने कहा, पहली आदत ये है कि दूसरे के मन को पढ़ना छोड दो।


तुम और तुम्हारे जैसे ज्यादातर लोग यही गलती करते हैं कि वो दूसरों के मन की बातों को पढ़ने का प्रयास करते है। जैसे की अच्छा, सामने वाला मेरे बारे में ऐसा सोच रहा है । और यही एक आदत तुम्हे सबसे ज्यादा बेचैन और परेशान करती है।

ज्यादातर लोग दूसरों के मन की बातों को गलत और नकारात्मक तरीके से ही पढ़ते हैं।

जैसे कि लोग अक्सर सोचते हैं की दूसरे लोग उनकी तरक्की से जलते हैं, उसे नीचा दिखाना चाहते हैं, उसे पसंद नहीं करते, उसकी मदद नहीं करना चाहते, और ऐसे ही न जाने कितनी सारी नकारात्मक बातें।

ये लोग दूसरों के प्रति घृणा अपने अन्दर बैठा लेते हैं, फिर उनके बारे में ही सोचते रहते है, उनसे बदला लेने के तरीके सोचते रहते हैं, उन्हें नीचा दिखाने के मौके ढूंढते रहते है, और दूसरों के प्रति यही नकारात्मक सोच इन्हें दुखी करती है और फिर ये लोग बेचैनी महसूस करते हैं।

इसलिए दूसरे लोग क्या सोच रहे हैं इसका अनुमान लगाना बंद करो, दूसरे लोगों के मन के विचारों को पढ़ने की कोशिश करना बंद करो। अगर पढ़ना ही है तो खुद के विचारों को पढ़ना शुरू करो कि तुम्हारे अन्दर क्या चल रहा है?

कहीं तुम नकारात्मक सोच, शिकायत या बुराई करने जैसी आदतों के शिकार तो नहीं हो रहे हो?

फिर बौद्ध भिक्षु ने कहा दूसरी आदत ये सोचना की अगर असफल हो गए तो लोग क्या कहेंगे?

कहीं लोग मुझ पर हसेंगे तो नहीं, जो हँस रहा है उसे हसने।
दो लोगो की असफलता पर हसना तो लोगो का काम है।


क्योंकि अगर तुम सफल हो जाते तो यही लोग तुम्हारी तारीफ करते, तुम्हें सम्मान देते, तुम पर गर्व करते। अगर तुम अपनी सफल होने पर दूसरो ऐसी तारीफ की उम्मीद करते हो, तो अपनी असफलता पर उनके हंसने से तुम्हें दुखी नहीं होना चाहिए।

और समस्या ही यही है की हम इंसान असफलता को बुरा मानते हैं जब कि असफल होना सफल होने से भी ज्यादा जरूरी है।
क्यूंकि बिना असफल हुए सफल, इन्सान के अन्दर घमण्ड और दूसरों को खुद से छोटा समझने की भावना पैदा होती है।

जब की असफलता हमें विनम्र रहना, धैर्य रखना, और लगातार प्रयास करना सिखाती है। इसलिए असफलता को बुरा मत समझो।

और अगर तुम्हारे काम में असफल होने की संभावना नहीं है तो इसका अर्थ है कि तुमने अपना लक्ष्य अपनी क्षमताओं से छोटा बनाया है।

और अगर लोग तुम पर हंस नहीं रहे, तुम्हे ताने नहीं मार रहे हैं, तुम्हारी बुराई नहीं कर रहे हैं, तो इसका मतलब तुम अन्दर से मरे हुए हो, तुम अपने मानसिक सीमा से बाहर जाकर कुछ नया करने का प्रयास नहीं कर रहे हो।

क्योंकि असफल भी वही होता है जो कुछ नया करने का प्रयास करता है। और एक बात हमेशा याद रखना, अगर तुम्हारे अन्दर असफल होने का साहस नहीं है तो तुम कभी भी कोई भी बड़ा लक्ष्य हासिल नहीं कर पाओगे, जो तुम करना चाहते हो वह नही कर पाओगे।

इसलिए असफल होने और लोगों के हँसने से डरना बंद कर दो।
बौद्ध भिक्षु ने आगे कहा, तीसरी आदत यह है की बेवजह समय को बर्बाद करना छोड़ दो।

लोगो को लगता है कि वह समय को काट रहे हैं, लेकिन असल में समय हर बार उन्हें काट रहा है।

लोगो के द्वारा समय को व्यर्थ के कामों में बर्बाद करने का केवल एक ही कारण हैं, और वह यह है की उन्हें लगता है कि उनके पास बहुत समय है। जबकि सच्चाई यह नहीं है।

क्यूँकि उनसे पहले वाले लोगो को भी यही लगता था की उनके पास बहुत समय है, लेकिन उन्हें पता नहीं चल पाया कि कब समय बीत गया और उनका बुलावा आ गया और जब कि सारा जीवन व्यर्थ के कामों में बर्बाद कर दिया, और फिर इस दुनिया से, बिना खुद को जाने, बिना, इस जीवन की सच्चाई को समझे वो चले गए।

इसलिए जब तक यह जीवन है, इससे अच्छे काम में, लगाओ, खुद को जानने में, दूसरों की मदद करने में, लोगों को सही राह, दिखाने में, मानवता के कल्याण में और दूसरी बात, समय को बर्बाद करने से आज किसी को खुशी नहीं मिली है।

हालांकि समय काटने से तुम्हें क्षण भर की खुशी तो महसूस हो सकती है लेकिन जब तुम्हे होश आता है और तुम देखते हो की कितना सारा समय बर्बाद किया जा चुका है तब तुम्हें खुद पर क्रोध आता है और तुम पश्चाताप के भाव से भर जाते हो और फिर यही पश्चाताप का भाव तुम्हारे अन्दर तनाव पैदा करता है और तुम बेचैन हो जाते हो और लगातार अपनी उस गलती के बारे में सोचते रहते हो।

फिर तुम्हारा किसी भी काम में मन नहीं लगता और तुम उदास रहने लगते हो और यह चक्र लगातार चलता रहता है। जिसकी शुरुआत हुई थी समय को काटने से इसलिए समय को काटना बंद करो और वह करना शुरू करो जो जरूरी है।

बौद्ध भिक्षु ने आगे कहा चौथी आदत यह सोचना छोड़ दो की मुझसे बड़े बड़े लोग नहीं कर पाए तो मैं कैसे कर पाऊंगा?
असल में दूसरों से खुद की किसी भी चीज में तुलना करना ही व्यर्थ है और यह तुलना करना ही हमें हानि पहुँचती है।

सबकी परिस्थितियां अलग अलग होती है, सबकी सोच अलग है।
और क्या हुआ अगर दूसरे नहीं कर पाए तो हो सकता है कि तुम ही कर जाओ।

क्योंकी अक्सर वही लोग इतिहास रचते हैं जिनसे ज्यादा उम्मीद नहीं होती। और फिर हो सकता है कि जिसे तुम बड़ा समझ रहे थे, जिसके लिए तुम सोच रहे थे कि उसने बहुत मेहनत की है, बहुत प्रयास किया है, उसने कभी उतना प्रयास किया ही न हो, केवल मेहनत करने का दिखावा किया हो।


क्योंकि ज्यादातर लोग कभी उतनी मेहनत करते ही नहीं है जितनी उन्हें अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए करनी चाहिए।
और दूसरे लोगों के सामने यह दिखाने का प्रयास करते रहते है की मैंने तो बहुत मेहनत की थी लेकिन मेरी किस्मत ही खराब थी।

और यही वो लोग हैं जो दूसरों को बातों ही बातों में कहते रहते हैं कि जब इतनी मेहनत करने के बाद मैं सफल नहीं हो पाया तो तुम कैसे हो पाओगे?


लेकिन अन्दर ही अन्दर वह इस बात को जानते हैं की उन्होंने कभी उतनी कोशिश नहीं की थी जितनी उन्हें करनी चाहिए थी।

ये बस दूसरों की नजरों में अपनी इज्जत बचाने के लिए और इस डर से की कहीं दूसरा व्यक्ति इनसे आगे न निकल जाए, ये अपने अधूरे प्रयास से घबराते रहते हैं और दूसरों को डराते रहते हैं की जब मैं नहीं कर पाया तो तुम कैसे कर पाओगे।

इसलिए किसी दूसरे असफल व्यक्ति को देख कर यह सोचना छोड़ दो कि तुम भी असफल हो जाओगे।

तुम बस अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करो और बाकी सब समय और ईश्वर पे छोड दो ।

फिर तुम जहाँ चाहो वहाँ अपना मन लगा सकते हो। इतना कहकर वृक्ष शांत हो गए और राजकुमार को भी अब समझ आ चुका था कि उसे क्या करना है उसने मन ही मन उन 4 आदतों को छोड़ने का निश्चय किया।

उसने उस बौद्ध भिक्षु को धन्यवाद किया और वहाँ से चला गया।

दोस्तों हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि लोग मेरे बारे में क्या सोच रहे हैं, अगर मैं कोई काम करता हूँ तो लोग मेरे उस काम को लेकर हँसेंगे।

इसके अलावा हमें अपना फलतु समय बर्बाद नहीं करना चाहिए।

इसके अलावा हमें कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए की अगर किसी व्यक्ति से कोई काम नहीं हो पाया है तो मैं उसे नहीं कर पाऊंगा।


अगर आप मेहनत से किसी भी काम को करते है तो कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता और एक न एक दिन सफलता अवश्य मिलती है।


Chapter-3
The Last Story

तो दोस्तों चलिए अब इस विषय पर अगली कहानी की शुरुआत करते हैं, शिव यानि कि महादेव यानि की नील कंठ उन्होंने ध्यान की 114 प्रक्रियाओं की खोज की।

ऐसे ही हम समाज में देखते हैं की नाना प्रकार के ध्यान की प्रणालियाँ बनी हुई हैं, हर आदमी, हर गुरु अपने तरीके से ध्यान करवाने में लगा हुआ है।

लेकिन जब एक सामान्य आदमी ध्यान करने के लिए बैठा हो तो उसका दिमाग, उसका मस्तिष्क, उसका मन इन्ही चीजों में उलझ कर रह जाता है कि मैं ध्यान की कौन सी प्रणाली अपनाऊँ ?

किस विधि से मैं ध्यान करूँ और इसी वजह से जब वह ध्यान करने बैठता है तो उसके मन में नाना प्रकार की ध्यान की प्रणालियाँ चल रही होती हैं।

वो सोचता है की मुझे इस विधि से तो कुछ प्राप्त नहीं हो रहा,
हो सकता है कि मैं दूसरी विधि का प्रयास करूँ तो मैं वहाँ गहरे ध्यान में उतर जाऊँ और यही विचार उसके ध्यान की सबसे बड़ी रुकावट बन जाती है।

अब सवाल ये है की कौन सी ध्यान की प्रणाली ऐसी है जो हर एक प्राणी के लिए बनी है, सर्वत्र बनी है, सबके लिए बनी है।

एक ऐसी प्रणाली जिसमें कोई भी आदमी, किसी भी प्रकार का मस्तिष्क और मन आसानी से ध्यान में प्रवेश कर जाए।

क्या सचमुच कोई ऐसी टेक्निक या ऐसा तरीका है जिसके द्वारा हमें नाना प्रकार के ध्यान सीखने की आवश्यकता ही न पड़े और वह एक प्रणाली एक मात्र ध्यान की प्रक्रिया सभी ध्यान की प्रक्रिया को अपने अन्दर शामिल कर ले, जिसके परिणाम स्वरुप आपको जो परिणाम 114 ध्यान को खत्म करने के बाद प्राप्त होता वह एक मात्र एक ही प्रक्रिया से हासिल हो जाए।
तो सोचिए आपकी ध्यान की यात्रा कितनी सुगम हो जाएगी।

आज की जो बौद्ध कहानी मैं आपको सुनाने वाला हूँ उसमे आपको ध्यान की एक ऐसी प्रक्रिया पता चलेगी जो बहुत ही सरल है और जो सबके लिए समान रूप से लाभकारी है।
तो चलिए कहानी शुरू करते है।


बात उस समय की है जब भगवान बुद्ध अपने सत्य की यात्रा पूरी कर चुके थे उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो चुका था और उसके बाद उन्होंने अपने सारे शिष्यों को अलग अलग दिशाओं में भेज कर आम लोगों के बीच ध्यान की प्रक्रिया समझाने के लिए उन्हें जन साधारण के बीच भेज दिया।

इनमे से बहुत से भिक्षु अलग अलग दिशाओं में जाकर अलग अलग गाँवों में जाकर लोगो को ध्यान के बारे में जागरूक करने लगे।

वो कुछ दिन गाँव में ठहरते गाँव के लोगो को ध्यान की प्रक्रिया के बारे में समझाते और कुछ दिन उन्हें ध्यान करवाने के बाद वो अगले गाँव में चले जाते।

एक दिन एक बौद्ध भिक्षु एक गाँव के लोगों को ध्यान के बारे में उपदेश दे रहे थे ।

ध्यान किस प्रकार किया जाता है, ध्यान की गहराइयाँ क्या है और ध्यान एक आम इन्सान के लिए क्यों जरूरी है? इसके बारे में पूरा व्याख्यान हो रहा था।

तभी व्याख्यान के बीच में एक 20 साल का लड़का खड़ा होकर उनसे पूछता है कि हे भंते?

मुझे लगता है कि ध्यान सिर्फ बुजुर्ग लोगों के लिए बना है, जो मेरी उम्र के लोग हैं, जो युवा हैं, जिन्हें जीवन में अभी बहुत कुछ हासिल करना है, उन्हें ध्यान करने से क्या प्राप्त होगा?

ध्यान तो एक कोने में चुपचाप बैठकर किया जाता है, उसमे तो कुछ किया ही नहीं जाता। तो फिर युवाओं के लिए इसका क्या फायदा?

और अगर देश का युवा ध्यान करने के लिए कोने में घंटों तक बैठ गया तो वह देश की प्रगति में अपना योगदान कैसे देगा?

क्या उसका जीवन व्यर्थ नहीं हो जाएगा?

सिर्फ ध्यान में बैठे रहो कुछ काम धाम करने की जरूरत है नहीं, सवाल बड़ा ही तार्किक था। आप लोगों के मन में भी ऐसा सवाल उठता तो जरूर होगा।

लेकिन इसका जवाब क्या है?

बात सही है की अगर आज आप अपनी युवा अवस्था में ध्यान की प्रक्रियाओं में जुड़ जाते हैं, ध्यान करने मे लग जाते हैं, घंटों तक ध्यान में बैठे रहते हैं, तो घर की व्यवस्था कैसे चलेगी?

क्योंकि युवा को तो घर से बाहर निकाल कर कमाना ही पड़ेगा।अगर अपने परिवार का भरण पोषण करना है तो?

तो एक युवा किस प्रकार ध्यान की प्रणालियों का अभ्यास करते हुए अपना काम सुचारू रूप से जारी रख सकता है?

यह सुनकर वह बोध भिक्षु मुस्कुराते हुए बोला की हे
भंते, ध्यान का मतलब कोने में आँख बंद करके बैठ जाना नहीं होता है।

आप ध्यान का गलत मतलब समझ रहे हैं। ध्यान का मतलब होता है होश, जागरूकता।


किसी भी काम को करने के लिए आप कितने मौजूद है वही ध्यान का पैमाना है और उसी से आपकी जागरूकता आपकी जीवंतता नापी जाती है।

जरा सोचिए आप किसी भी काम को सोये सोये भी कर सकते हैं, सोये सोये कहने का अर्थ यह नहीं है की आपने निद्रा में है लेकिन आप अपनी जिंदगी के ज्यादातर काम सोये सोये ही करते हैं।

जरा सोचिए जब आप खाना खाते हैं तो क्या आप जागरूक होकर खाना खाते हैं?

नहीं आपका ध्यान, आपका मस्तिष्क, आपका मन किसी दूसरे विचारों में भटक रहा होता है और आपकी जुबान और आपका मुंह यहाँ पर खाना खाने के लिए चल रहा होता है।

यह उसी भांति होता है जिस प्रकार किसी यंत्र में चाबी भर दी गई हो और वो यंत्र अपना काम करते रहें।

उसके लिए उसे कुछ सोचने की जरुरत नहीं है, उसके लिए उसे वहाँ पर मौजूद होने की जरुरत नहीं है क्योंकि उसमें चाबी भरी जा चुकी है।

और इसी प्रकार हम अपने जीवन के अधिकतर काम करते हैं,
हम जागरूक होकर नहीं करते।

हम एक यंत्र की भांति सोए सोए सारा काम करते रहते हैं। लेकिन अगर आप को परमानंद का स्वाद चखना है आपको प्रकृति में छुपी हुई उस दिव्य सत्ता को पहचानना है, उस परमात्मा की मौजूदगी का एहसास लेना है तो आपको यंत्र न बनते हुए एक जागरूक आदमी बनना होगा, जागरूक होकर अपना काम करना होगा क्योंकि आप जब जागेंगे तभी तो आप अपनी खुली आँखों से उस दिव्य सत्ता को पहचान पाएंगे।

कुछ लोग ध्यान को अपना फर्ज समझ कर करते हैं। इस प्रकार के लोग नित्य ध्यान में बैठते हैं। उन्हें लगता है, कि एक सीमित समय तक ध्यान में बैठने के बाद उनकी ध्यान की प्रक्रिया समाप्त हो गयी।

अब वह पूरा दिन आराम से जी सकते हैं, जैसे की कुछ लोग सुबह ध्यान करते हैं और कुछ लोग शाम को ध्यान करते हैं।
और जब वो लोग अपना ध्यान पूरा कर लेते हैं तो फिर से संसार में घुल जाते हैं।

उन्हें लगता है कि वो एक घंटे का ध्यान ही उनके लिए काफी होता है ।

और दूसरे प्रकार के लोग वे होते हैं जिन्हें लगता है कि ध्यान करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती है, बस अपने हर काम को ध्यान से करो और वही ध्यान बन जाता है।

लेकिन समझने की बात है यहाँ पर, कि दोनों ही लोग कहीं न कहीं उल्टी दिशा में चले जा रहे हैं।


ध्यान किस प्रकार किया जाता है?

आखिर जब हम बैठते हैं अपनी आँखें बंद करके तो हमें क्या हासिल होता है, उससे क्या मिलता है?

जब हम अपनी आँखें बंद करके किसी भी प्रकार का ध्यान लगाते हैं। वो सांसों का ध्यान हो सकता है, तीसरे नेत्र का ध्यान हो सकता है या कुंडली का ध्यान हो सकता है। ध्यान कई प्रकार के हैं।

लेकिन जब आप ध्यान करने के लिए बैठते हैं तो आपके अन्दर क्या परिवर्तन होते हैं?

जरा सोचिए आप अपनी सांसों पर ध्यान लगाना शुरू करते हैं।
आप अपनी सांसों को निरंतर देख रहे हैं, वह किस नाक से आ रही है, किस नाक से जा रही है, नाक के कौन से कोने से टकरा रही है।

आप यह एक दृष्टा की भांति देख रहे हैं इससे आपके अन्दर क्या परिवर्तन होंगे ?

सबसे बड़ा परिवर्तन जो होगा वो यह की आप जागरूक बनेंगे, आप संवेदनशील बनेंगे, जरा सोचिए की आपकी सांसे वर्तमान में चल रही हैं और जब आप अपना ध्यान सांसों पर लगाना चालू करते हैं तो आप कहीं न कहीं अपने अतीत और अपने भविष्य को छोड़कर कर वर्तमान में आ जाते हैं।

और जब आप बारीकी से एक दृष्टा की भांति अपनी सांसों को देखते हैं तो कहीं न कहीं आपकी जागरूकता, आपका होश, और चीजों को देखने का आपका नजरिया आपकी दृष्टि और भी बारिक बन जाती है, आप और भी ज्यादा जागरूक हो जाते हैं और भी ज्यादा होश में आने लगते हैं।

लेकिन वो ध्यान या वो होश तभी कारगर साबित होगा जब आप कोई भी काम करते वक्त, आप अपनी जागरूकता व होश को बरकरार रख पाए। हर काम को होश में जागरूक होकर कर पाए तभी वो एक घंटे ध्यान करने का परिणाम आपको हासिल होगा।

लेकिन अधिकतर लोग क्या करते हैं, वो एक घंटा ध्यान में बैठते हैं और उसके बाद उसी पुराने ढर्रे से अपना जीवन जीने लग जाते हैं, उसी प्रकार कार्य करने लगते हैं।

सोये सोये एक यंत्र की भांति ही कार्य करते रहते हैं, लेकिन वही काम वो जागरूक हो कर, होश में भी कर सकते हैं।

इसीलिए जब भी आप बैठकर कोई ध्यान करते हैं तो वही ध्यान आपके पूरे दिन को संचालित करना चाहिए।

हर काम को पूर्ण रूप से शामिल होकर करें। यह नहीं की आप के विचार कहीं हैं और आप एक यंत्र की भांति उस काम पर लगे हुए हैं। तो इस प्रकार के ध्यान का क्या मतलब रह जाता है?

ध्यान का मतलब होता है आपको संगठित करना, आपको सम्मिलित करना। जब आपके शरीर का रोम रोम, किसी काम में शामिल हो जाए, सम्मिलित हो जाए तो वही काम आपके लिए ध्यान बन जाता है।

इसीलिए जागरूक होकर, किसी काम को पूरे सम्मिलित होकर कीजिये पूरा रोम रोम लगा दीजिये, उस काम में रम जाइए।
उसके बाद आप निर्विचार के भाव को भी अनुभव कर पायेंगे।

निर्विचार यानि के मस्तिष्क में कोई भी विचार नहीं, किसी भी प्रकार का न अतीत का, न भविष्य का, बस आप उसी काम में लगे हुए हैं।

और काम को वर्तमान में करते हुए आपके दिमाग में विचार नहीं दौड़ेंगे, आपका दिमाग निर्विचार हो जाएगा, एकदम शुद्ध हो जाएगा, एकदम शांत हो जायेगा और उस वक्त कुछ क्षण के लिए आप ध्यान के बारे में समझ पाओगे, आप ध्यान की अनुभूति ले पाओगे, आप ध्यान का रस जान पाओगे।

तब आपको पता चलेगा की ध्यान क्या है और ध्यान में कितना आनंद है।

जब आप किसी काम को निरंतर बिना विचारों के करते हैं तो आप ध्यान में ही होते हैं।

और जब आप काम पूरा कर लेते हैं, खत्म कर लेते हैं, तो आपको एहसास होता है की मैं इतनी देर से यह काम कर रहा था।

मुझे तो लगता है कि मैंने यह काम अभी अभी शुरू किया था, मतलब आपको कोई थकान नहीं होगी, आपको ऊब पैदा नहीं होगी, बल्कि वही काम आपके लिए आनंद बन जाएगा।

पर याद रहे जब भी हम कोई ध्यान बैठकर करते हैं, आँखे बंद कर के करते हैं, तो हमें उसमें कोई प्रयास नहीं करना है।
अपनी सांसों पर ध्यान लगाने का या अपने विचारों को हटाने का, आपको केवल दृष्टा मात्र बनना है।

देखने वाला बनना है की हमारी सांसे कहाँ से आ रही हैं, कहाँ को जा रही हैं, नाक के कौन से कोने से टकरा रही हैं।

अधिकतर लोग ध्यान में संघर्ष करने लगते हैं। संघर्ष अपने विचारों को खाली करने का, अपना ध्यान एक ही केंद्र पर केंद्रित करने का। और उसी वजह से हमारे अन्दर विरोधाभास पैदा होने लगता है।

हमारा मन कहीं जा रहा है, लेकिन हम उसे खींच कर वापस उसी जगह पर लाना चाहते हैं जिसकी वजह से खिंचाव तनाव पैदा होता है।

इसीलिए हमें दृष्टा मात्र बनना है, साक्षी मात्र बनना है, हर चीज का, जो हमारे आस पास हमारे अन्दर घटित हो रही है।

एक सूत्र जो आपको ध्यान में और भी गहरे लेकर जाएगा वो आपको बता रहा हूँ।

जब आप सास अपने अन्दर लेते है तो अनुभव कीजिए महसूस कीजिए की आप हर प्राणी मात्र का पूरे संसार का दुख अपने
अन्दर ले रहे हैं, अपने अन्दर समाहित कर रहे हैं। और जब आप अपनी सास से बाहर छोड़ते हैं तो अनुभव कीजिये महसूस कीजिए कि आप अपने अन्दर की सारी खुशी सारा आनंद इस संसार को दे रहे हैं, इस संसार पर बिखेर रहे हैं।

इससे क्या होगा कि- आपके मन के अन्दर आपके ह्रदय के अन्दर एक करुणा का उदय होगा और करुणा में ही हृदय परमात्मा के सबसे करीब होता है।

अगर आपके मन में करुणा का उदय हो जाता है, हर प्राणी मात्र के प्रति तो आप परमात्मा के सबसे करीब होते हैं।

फिर आप इस प्रकृति में छुपी हुई उस दिव्य सत्ता को देख पायेंगे उसको पहचान पायेंगे और उसको अनुभव कर पायेंगे ।