युवा किंतु मजबूर - पार्ट 2 Lalit Kishor Aka Shitiz द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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युवा किंतु मजबूर - पार्ट 2

चुनाव का नतीजा आ चुका था, खाने के पैकेट और मोबाइल बांटने वाली पार्टी जो सत्ता में थी, उसे हार का सामना करना पड़ा। विपक्षी दल ने मंदिर और धर्मस्थलों के नाम पर वोट बटोर कर अपनी सरकार बना ली। वास्तविकता में केवल मुखौटे बदले है जबकि नीयत वही है... जो गरीब कल किसी और के सामने आंसु बहा रहा था वो अब किसी और के सामने रोएगा।

एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में अस्सी से नब्बे फीसद लोग यदि सरकार के दिए हुए अनाज पर गुजारा कर रहे है , जनसंख्या का अगर ये हाल है तो यह स्वयं स्वतंत्रता पर प्रश्न खड़ा करता है.. कि 'क्या ये लोग आजाद हुए है या अब कानूनों और अधिनियमों के जाल में फस चुके है'? ....

दुविधा की बात है कि जो खेतिहार किसान कल एमएसपी की लड़ाई लड़ रहा था वो आज भी लड़ रहा है.....। और बेरोजगारी भी एक महामारी है, सरकार जिस दिन ये समझ जाएगी उस दिन युवाओं के लिए भत्ते की नहीं अवसर की योजनाएं क्रियान्वित करेगी। चूंकि अमृत महोत्सव मनाने से समाज की वास्तविकता नहीं बदल जाती। जो जहर पूरे समाज में घुला हुआ है बेरोजगारी का मुखौटा पहने...उसे मिटाना है। न कि उसे लोककल्याण के नाम पर पालने लग जाएं और अवसर के स्थान पर गुजारा भत्ता देने लग जाएं। .....बैशाखी सोने की ही क्यूं ना हो पर लंगड़े पर ही शोभा देती है...।

बहराल राकेश ने अब दीमापुर तहसील से बस पकड़ी और पुनः गांव आ गया। इस बार उसने कुछ अलग तरकीब लगाने की कोशिश की ।और दीमापुर में भांति भांति के लोगो से मिलने के बाद उसे समझ आ गया कि बैल की तरह मजदूरी करने से पेट भर सकता है मगर आवश्यकताएं पूरी नहीं हो सकती।

सुबह पानी की बॉटल और स्टेशन का दौरा अभी तक जारी था, क्योंकि न स्टेशन पर पानी की व्यवस्था थी ना बाहर कहीं संडास की। दो शौचालयों का टेंडर पास हुआ था लेकिन उस जमीन पर एक चाय वाले का कच्चा पक्का धंधा चल रहा है और रात को वहीं अवैध शराब बिक रही है।

राकेश भोर के साथ ही काम के लिए चला गया और बस स्टैंड पर समान ढोने चढ़ाने का काम करता। दिन भर कुछ सौ पचास रुपए कमाता कभी कुछ ज्यादा हो जाते तो कभी सौ भी नहीं। परंतु लगभग इतने कमा लेता था। शाम को सरकारी भोजनालय में जा कर खाना खा लेता।


पिछली सरकार ने भले ही लाखो करोड़ो का घोटाला किया, नौकरियां खाई, अपराधियो को पनाह दी । एक काम अच्छा कर गए कि गरीबों के खाने का जुगाड बैठा दिया। खैर लोककल्याणकारी है तो इतना तो दायित्व बनता है। युवाओं की रोटी छीन कर मुफ्त में रोटी ... अरे! नहीं नहीं कम कीमत पर सम्मान के साथ रोटी। राकेश ने अपना यह सम्मान बनाए रखा और रोज़ यहीं पेट भर खा कर बचे पैसे जमा करने लगा। एक अच्छी बात हुई कि उसने तंबाकू खाना छोड़ दिया।

कुछ दो ढ़ाई महीने हो गए और राकेश लगातार दिन भर जानवरों की तरह समान ढोता और शाम को खा कर सो जाता.... । अब सर्दियों का मौसम आ गया था सो अब नई चिंता थी, इससे कैसे छुटकारा करे। हर बार पंचायत के पीछे कोठडी में सो जाता था लेकिन अब वहां भी मरम्मत का काम चालू है। राकेश ने कुछ पांच छः हजार रूपया जमा किया था जिसमे से पांच सौ रूपये दिवाली के दिन कपड़े और में खर्च कर दिए। बड़ी अजीब बात है कि जब खाने का पता न था तब त्यौंहार भी आ कर चले जाते थे। अब कमाने लगा तो त्यौंहार मनाना भी ज़रूरी हो गया।

राकेश ने जमा पैसे से सर्दी का बंदोबस्त किया। कंबल, जुराब और मफलर खरीद लिया। बचे कुछ पांच हजार रुपए जिनके खर्च होने के डर से उसने अब अपना काम शुरू करने का मन बना लिया। एक किराए का ठेला लिया और सुबह सवेरे दीमापुर से आढ़तियों की गाड़ी आती थी जिससे सभी थोक में सब्जी लेते थे।

राकेश सुबह स्टेशन से सीधा बस स्टैंड गया और गाड़ी का इंतजार करते करते चार बार पैसे गिन चुका था। गाड़ी आते ही सभी ठेले वाले भागने लगे। राकेश भी झुंड में खड़ा हो गया।

झुंड में से एक ने बोला - ‘तू आज पहेली बार दिखा भाया, के बात है नई नई दुकान लगाई है ’ ?

राकेश - ‘हां, नई लगाई है। मगर दुकान नहीं ठेला लगाया है ..दुकान तो बाद में लगाऊंगो बड़ी सी ’

भीड़ वाले हंसने लगे और उसी आदमी ने दूसरे लोगो को सुनाते हुए कहा- ‘देख रहा है मांगीलाल..ये छोरा बड़ी दुकान लगावेगा.. ते फेर सगला इसकी दुकान से खरीदें ... वाह री जोगमाया इसके धन दीजो ’..

राकेश चुप चाप खड़ा हो गया और आढ़ती ने भाव का पर्चा गाड़ी पर चिपका दिया। सारे ठेले वाले अपना अपना माल खरीद कर चलने लगे। राकेश ने आव देखा न ताव, पंद्रह किलो टमाटर और इसी तौल में गोभी, आलू और प्याज ले लिए। पर्चे से भाव देख पैसे जोड़े और दो बार गिन कर पकड़ा दिए। आढ़ती समझ गया कि बिना भाव तौल किए ले लिया मतलब नया नया है। उसने अपना फायदा देखा और जेब गर्म कर ली।राकेश ने सब्जियां ठेले पर भरी और चल दिया।

रास्ते में सोच कर खुश हो रहा था कि आज पूरा ठेला सजा कर शाम तक सारा खाली कर देगा। और हाथ मे पैसे गिनेगा फिर ऐसे ही अपनी बड़ी दुकान खोलेगा फिर उसमे सारी महंगी महंगी विदेशी सब्जियां भी रखेगा।ऐसे ही सपने देखते देखते वह बाजार में आ गया और ठेला लगा के खड़ा हो गया।


सुबह पूरे बाजार के बीचों बीच ला कर ठेला खड़ा कर दिया और चिल्लाने लगा- 'गोभी आलू-प्याज टमाटर, गोभी आलू-टमाटर प्याज... अरे। औ भैया जी... ओ! आंटी जी ओ अंकल ले जाओ प्याज टमाटर ... गोभी आलू भाव गिरा दिये आधे से कम भाव में ले जाओ

सुबह से दोपहर हो गई मगर मजाल है कि कोई जूं भी रेंग जाए। राकेश सुबह से शाम चिल्ला चिल्ला कर सब्जियां बेच रहा है.. एक लाल सारी पहनें करीब तीस वर्ष की औरत साथ में तीन साल का लड़‌का राकेश की ओर आने लगे लड़का हाथ में फोन लिए- अंगूठा स्क्रीन पर हिलाते हुए इधर - उधर की परवाह किये बिना ही सड़क पर चल रहा था --- तभी उसकी माँ चिल्लाते हुए ..

अरे । चीकू' इधर आ वहाँ कहाँ जा रहा है गाडी से लगा देगा आ ना,अरे! आना.. ये फोन मुझे दे... मैं क्या बोल रही हूँ चीकू.. चीकू ..इधर दे।

राकेश खड़ा देख रहा था,तभी उसने पूछा - "बताइए बहन जी क्या दूं ..।"
चीकू की मम्मी राकेश को देख के बोली- "नहीं भैय्या, वो एक खाली थैली दे दोगे क्या,सामान ज्यादा हो गया है.... थोडा ..।"

राकेश ने निराशा से उनकी ओर देखा। चीकू हाथो में चिप्स, बिस्किट लिए खड़ा था।राकेश ने धीरे से कांटे के नीचे से थैली निकली और दे दी। बदले में चीकू की मम्मी ने जाते समय हल्की सी नजर डाल कर कहा - "थैंक यू भैया..।"

अब सुबह से शाम होने को थी लेकिन किसी ने अभी तक भाव न पूछा। करीबन सांझ के समय एक लड़का हाथ में टिफिन लिए आ रहा था। उसके बालो में मिट्टी भरी थी, और शरीर चूने की मटमैली खुशबू से महक रहा था।राकेश की ओर आकर बोला- "क्या भाई..आलू क्या भाव करे..?"

राकेश - " बीस रूपये किलो...।" लड़के ने हामी भरी और थोड़ा भाव तौल करके कुछ तीस रूपए की सब्जी ली। जेब से कड़कड़ाता सौ का नोट निकाला और दे दिया।

राकेश क्षणिक असमंजस में पड़ गया क्यूंकि बेताज बादशाह जी सुबह से ही खाली बैठे थे। छुट्टे आयेंगे कहां से जब कुछ बिका ही नहीं। आस पास कोई दुकान खुली नहीं थी। लड़का खड़ा देख रहा था राकेश जेब टटोल रहा था, एक पांच का सिक्का निकला बस। अब इस स्तिथि में क्या ही करे। लड़का भी बचे हुए पैसे से आटा खरीदेगा और राकेश के पास अब कुछ नहीं रहा।

उसने ठेला उठाया और लाल चौक की तरफ मोड़ लिया, लड़का पीछे पीछे चलने लगा। लाल चौक कुछ ही दूरी पर था। दोनो बस पांच मिनट में पहुंच गए। लड़के ने पैसे छुट्टे करवाए आटा खरीदा और बाकी में से तीस राकेश को दे दिए।

राकेश अब लाल चौक में सब्जी की कतार में ठेला खड़ा कर रहा था। तभी सामने से दीमापुर तहसील वाला पत्रकार आ रहा था, राकेश कुछ समझ पाता तब तक वह राकेश के ठीक पास से निकल गया। राकेश को सब्जी के ठेले में थोड़ी लज्जा लग रहीं थी लेकिन पत्रकार शायद उसे पहचानता भी नहीं।

थोड़ी देर तक वहां गोभी, आलू, प्याज , टमाटर चिल्लाया लेकिन कुछ खास बात बनी नहीं सो निराशा भरा मुंह लिए ठेले को मंदिर की और मोड़ लिया। पीछे वाले मैदान में ठेले को एक किनारे लगाया और वहीं नीचे जूट का पायदान बिछा कर सो गाय। आंखे खुली तो सीधी भोर ही दिखी।

अब गरीबों को कौनसा इंसोमिनिया डिसऑर्डर होता है कि नींद ना आए। उनके लिए तो भूख ही सबसे बड़ा स्लीपिंग डिसऑर्डर है। जब पेट में अन्न रहता है तो नींद आ जाती है जब नहीं रहता तो सुबह के इंतजार में ही सो जाते हैं।

राकेश उठते ही सीधा ठेला लेके स्टेशन गया। सर पे छत नहीं होने के कारण आदमी अक्सर भटकता ही रह जाता है। हालात इतने बिगड़े हुए है की उसे ठेला साथ ही ले जाना पड़ा। सब्जियां वैसी ही थी बस थोड़ी अलसा गई। शौच से निवृत हो वहा सीधा बाजार को चला गया।

आज उसका अकेले का ठेला लगा हुआ था। रस्ते में दूध वाला दिखा और कोई आदमी का नामो निशान नहीं था।
बाज़ार में खालीपन सा था।अब इतनी जल्दी कौन अपनी काया को कष्ट दे इस ठंड में। बजे ही तो बस छः ही थे।
सूरज भी ऊपर नहीं आया ढंग से अभी तक तो।

थोड़ा समय बीता और अब धीरे धीरे कुछ एक लोग साइकिल पर आते हुए दिखे उनके हाथों में टिफिन था। उनमे से एक की साइकिल के पीछे वह लड़का भी बैठा था। जिसके तीस रूपए का हिसाब था। लड़के ने राकेश की ओर देखा और हाथ उठा कर संबोधित किया। राकेश ने अपनी गर्दन दो बार हिला दी।

अब वह मज़दूर भी आगे जा चुके थे।फिर से क्षणिक सन्नाटा छा गया।तभी दूध वाला तेज रफ़्तार में वापिस आया
राकेश की और आ कर बोला- " अरे भाई !ये ठेला वापिस घुमा लो..., आज बाजार बंद ही रहेगा "

राकेश - " क्यूं ठेला क्यूं घुमा ले ?.."

दूधवाले ने पास आ कर कहा - " अरे! बड़े भोले लगते हो, क्या तुम्हे पता नहीं?..पंडित जी आज चल बसे.."

राकेश एक दम से चौंक के बोला - " क्या....? महाराज जी.... कब.. ?"

" हाँ.. भाई, शिव बाबू .. सौ बरस कर गये। अब तुम ये दुकान समेटो और चलो ।"

राकेश को कुछ नहीं सूझ रहा था कि अब वो क्या करे।इस स्तिथि का उसे ज्ञान न था। दूधवाला भी चला गया। राकेश के शब्द गायब हो गए .. निराशा से ठेला उठाया और रवाना हो गया। रस्ते में लोग तीन चार के झुंड में इकठ्ठे खड़े थे। आपस में सभी फुस फुसा रहे थे। कहीं से उसे सुनाई दिया

- “भले आदमी थे ;किसी का कभी अपमान नहीं किया ; छोटे को भी बड़ी इज्जत देके बुलाते थे...”

कहीं से एक ने कहा - “ शिव बाबू तक़दीर वाले थे.. देखो आज एकादशी भी है ; सीधे स्वर्ग के रस्ते गए हैं।”

सामने से दो तीन लोग और आ रहे थे। सबकी जबान पर पंडित जी की भली बातो का अंबार था। राकेश ठेला सरका रहा था और आगे चल रहा था। मोहल्ले में सब यही काना फूसी कर रहे थे। कहीं औरतों की आवाज सुनाई दी - “ अभी ही तो पंडिताइन के गहना गढ़वाया था .... बेचारी अभागी .. सुहाग ही न रहा तो क्या गहने पहनेगी.. ।”

राकेश यही सब सुन रहा था और शांति से चल रहा था। कहीं से तारीफ तो कहीं से अफसोस उसके कानो में सुनाई दे रहा था। कोई मन्दिर की सेवा किसको मिलेंगी ये भी सोच रहे थे। तो कोई पंडित जी के लड़के की पढ़ाई का।
मरने के बाद पीछे यही सब तो रह जाता है। चंद तारीफे और थोड़ा सा अफसोस।

जाते जाते राकेश ने भी अपने और पंडित जी के वाकिये का स्मरण किया और न चाहते हुए भी उसके मुंह से सहसा निकल गया - "भले आदमी थे...भले... ।"