युवा किंतु मजबूर - पार्ट 3 Lalit Kishor Aka Shitiz द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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युवा किंतु मजबूर - पार्ट 3

राकेश ठेला सरकाते सरकाते मंदिर के पीछे वाले मैदान में आ गया। अभी सवेरे के साढ़े आठ ही बजे थे। हल्की हल्की धूप आने लगी थीं।राकेश ठेले के पास ही नीचे बैठ गया। जुराबे खोल दी और कंबल को भी उतार कर ठेले के ऊपर टांग दिया।वह केवल लंबी बाजु के शर्ट और पेंट पहने था।अब उसे यह तो एहसास हो गया कि आज बाज़ार नहीं खुलेगा। तो वह शांति से बैठ गया।

सब्जियों पर पानी का छींटा मार उन्हें कपड़े से ढक कर छोड़ दिया। बचे हुए पैसे निकाल कर गिने तो केवल बाईस सो रुपए निकले। बाकी तो सब्जियों को खरीद में ही चले गए। राकेश बार बार सब्जियों को देखता और सोचता कहीं अगर ये बिकने से पहले खराब हो गई तो वह नुकसान कैसे उठाएगा। हां आलू प्याज पांच सात दिन चल जायेंगे मगर टमाटर और गोभी....


राकेश को इन्हीं सब का भय सताए जा रहा था। इधर पूरे गांव भर में अनासक्ति का माहौल था।पंडित जी के घर पर शोकाकुलो का ताता लगा हुआ था।आस पास के गांवो व तहसीलों से भी अंतिम संस्कार हेतु परिजन आ रहे थे।


पंडित जी के मकान के सामने बने गट्टे पर आज लोगों ने जमघट लगा रखा था।पंडित जी के घर की चौखट से औरतों का कूकगान सुनाई दे रहा था। रोने की आवाज जैमनपुर मोहल्ले तक सुनाई दे रही थीं।इस छोटे से गांव के एक मात्र वरिष्ठ पुरोहित जो थे ‘शिव बाबू’....


कुछ औरतें झुंड बना कर चुप चाप आती।लेकिन किंवाड़ के समीप पहुंचते ही रुग्ण शुरू हो जाता। इन महिलाओं की यह अभिव्यक्ति पंडित शिव बाबू के स्वर्गवास का दुख नहीं अपितु यह इनका सामाजिक दायित्व है। बाहर से रोती हुई औरतों को सुन भीतर बैठी औरते रोने लग जाती। महिलाओं का यह कॉर्डिनेशन सदियों पुराना है और आज तक चला आ रहा है।

वहीं पुरुष प्रजाति स्वयं को इस कार्य के लिए अनुचित समझती है। हमारे समाज में तो यदि कोई छोटा लड़का कभी रोता है तो उसे आस पास के लोग लड़की कह कर चिढ़ाते हैं। कितनी अजीब बात है ना की अभिव्यक्ति दोनो को होती है किंतु एक उसे प्रकट कर सकता है जबकि दूसरे के लिए यह अनिवार्य है की वह उसे छिपा कर रखे। अन्यथा उसके व्यक्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग सकता है।


आदमी लोग वहां कुछ अन्य काम कर रहे थे जैसे कोई चप्पल सीधी कर रहा था, तो कोई सरपंच साहब के लिए खैनी बना रहा था। पंडित जी के संबंधि सफेद कुर्ते पजामे में, कोई आधी बाजु की स्वेटर तो कोई कानो को मफलर से लपेटे खड़े थे। कुछ एक बीड़ी जला रहे थे और कुछ लोग समान रखवा रहे थे। कोई मोटर साइकिल और गाड़ियों की सही पार्किंग करवा रहा था तो कुछ पड़ोसी थर्मस में चाय लेके आ रहे थे।

सरपंच साहब खैनी दबा कर खड़े थे। तभी एक नौजवान लड़का उन्हें आ कर पूछता है कि–
शिव बाबू का घर यही है ....? मैं बनारस से राम प्रसाद दुबे जी के घर से आया हूं।’

सरपंच साहब ने हामी भरी और कहा ‘जी हां, यही है …पंडित जी का लड़का माधव भीतर है...। वैसे आपका शुभनाम..?
लड़के ने अपने कंधे पर लटकाए बैग को पकड़ा और चश्मे को साफ करते हुए बोला ‘जी मैं किशोर... किशोर दुबे।’

सरपंच ने कमर सीधी करी ओर किशोर से कहा ‘ अच्छा.. आइए बैठिए ... और क्या करते हैं..आप?’
किशोर -‘जी शुक्रिया... मैं..वो..अभी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाता हूं।

सरपंच ने थोड़ी से कंधे झुकाए और नम्र आवाज में गर्दन हिलाते हुए बोले- ‘ अच्छा..तो मास्टर है.।’

किशोर - ‘ जी हाँ , .. प्रोफ़ेसर हूँ ' . कहते हुए अपनी शर्ट छेड़ने लगा ।

किशोर गांव वालो के बीच सहजता से बातचीत कर रहा था । वह स्वयं गांव की पृष्ठभूमि से ही आता है। परंतु गांव वाले उसे बड़े शहर का बाबू समझने लगे और ऐसे चारो ओर घेरा डाले खड़े थे जैसे कि वह बिन बुलाए ब्याह में आ गया हो। सरपंच ने कुर्सी पर बैठे बैठे हाथो को बगल में बांधते हुए कहा - ‘ अच्छा..… तो आपको पढ़ाने का शौक है…’

किशोर थोड़ा सा मुस्कुराया और बोला - ‘ जी नहीं.…शौक तो लिखने का है.…ये तो पिताजी चाहते हैं कि सरकारी नौकरी करे हम। ’

सरपंच ने अपनी मोटी बुद्धि का परिचय देते हुए किशोर को ओर देख के टोंट मारते हुए कहा - ‘ आपके पिताजी सौ टका सही है…वैसे भी क्या ही रखा इन सब शेर-ओ-शायरी और कविताओं में।’

किशोर ने सरपंच की ओर देखा और कमर सीधी करते हुए कहा- ‘जी ये आपकी अपनी सोच होगी… पर मेरे साहित्य को लेकर ऐसे विचार नहीं है।’

सभी चस्मदीद गवाह अब सरपंच को देख रहे थे। आज से पहले किसी ने उनसे इस तरह बात नहीं की। सरपंच ने आंखें तिलमिलाए व्यंग्य करते हुए कहा - ‘ बुद्धिमान व्यक्ति पढ़ लिख कर नौकरी कर लेता है… ज्ञानचंद ज्ञान ही देते रह जाते हैं।’

अब सबकी नजर किशोर की तरफ थी सभी एक टक उसी को देख रहे थे। औरतों का रोना जैसे किसी को सुनाई ही नहीं दे रहा था। सारे के सारे इंतजार में थे कि अब कुछ बोले।तभी किशोर ने सरपंच की ओर देखा और दयादृष्टि के भाव से अठाहस पूर्ण ढंग से वही कॉलेज के युवा की भांति जवाब देते हुए कहा-

किशोर - ‘श्री मान अगर लिखने वाला किताबे लिखता ही नहीं तो वो बुद्धिमान क्या कोरे पन्ने पढ़ कर ही नौकरी लग जाता …’

पूरा माहौल एका एक शांत हो गया।और भीड़ में अब किशोर को ले कर फुसफुसाहट होने लगी। सरपंच दांत पीसते हुए टांग पर टांग रख कर बैठ गया। पास ही में एक यजमान ने बीड़ी जला ली और सरपंच अब उनके साथ धुआंबाजी करने लग गए। किशोर अब इनसे अलग हो गट्टे की दूसरी ओर जा कर खड़ा हो गया।

औरतें वैसे ही रुग्णगान कर रही थी। क्रियाकर्म की विधि चालू हो गई थी। स्नान आदि करवा कर शव को नए वस्त्र तथा झीणे राम नाम के वस्त्र ओढ़ा दिए। बाहर पुरुष अर्थी तैयार कर रहे थे और एक जन हांडी में आग सजग कर रहा था।

किशोर और बाकी लोग बाहर गट्टे पर बैठे थे। तभी सरपंच खैनी दबाते हुए किशोर के पास आकर बोले - ‘ और…कभी मातम देखा है…? खैर तुम्हारी अभी उम्र ही क्या है।’

किशोर ने हल्के से हंसते हुए अलग अंदाज में कहा - ‘ मैं काशी बनारस से हूं…वहां देश विदेश के लोग मोक्ष प्राप्ति के लिए आते हैं… मणिकर्णिका घाट पर ऐसी सैकड़ों चिताएं रोज भस्म होती है।’

सरपंच साहब अब बिल्कुल चुप हो गए और वापिस अलग जा कर खड़े हो गए। अगल बगल वाले अब किशोर की ओर देखते और फिर सरपंच साहब को देखते और अंदर ही अंदर गुदगुदाते……

लोगों में से एक ने किशोर की और मुड़ कर उससे पूछा - ‘आपने तो ऐसी सैकड़ों चिताएं देखी होगी बनारस में…वहां कैसा माहौल होता होगा ?’

किशोर कुछ विचलित सा हो गया। उसे सूझ नहीं रहा था कि वह इसका क्या जवाब दे। तभी उसने अपने बैग से डायरी निकाली और दो साल पहले लिखी कविता पढ़नी चाही।

सरपंच ने पहले तो रोक कि ये कोई जगह है इन सब की…। लेकिन फिर लोगों ने आग्रह किया तो मान गए… और किशोर से कहा कि मंद आवाज में जल्दी से बांच दीजियेगा ज्यादा देरी न हो।किशोर ने डायरी के पन्ने पलटना शुरू किया और एक पन्ने पर हाथ रखा। एक बार सबको देखा फिर पढ़ना शुरू किया -

“ एक सुबह ऐसी भी होगी
जहां हर तरफ़ खामोशी होगी
चाह कर भी कुछ कर न पायेंगे
जिस दिन हम मर जाएंगे “

“अपने बहुत रोएंगे
पराए चैन से सोएंगे
कुछ लोग अफसोस मनाएंगे
जिस दिन हम मर जायेंगे।”

“अर्थी पर हमे लिटाएंगे
कंधो पर हमे झुलाएंगे
राम राम सब गायेंगे
जिस दिन हम मर जायेंगे।”

“गांव की सैर कराएंगे
रस्ते की रस्म निभायेंगे
कुत्ते को भोग खिलाएंगे
जिस दिन हम मर जायेंगे।”

“शमशान में जब जाएंगे
चिता हमारी सजाएंगे
अपने ही आग लगाएंगे
जिस दिन हम मर जायेंगे।”

“अनुज सिर मुंडवाएंगे
अग्रज शोक मनाएंगे
शेष भजन गायेंगे
जिस दिन हम मर जायेंगे।”

“स्नान करने सब जायेंगे
चंदन का टीका लगायेंगे
कड़वा नीम भी खायेंगे
जिस दिन हम मर जायेंगे।”

“जब अंत सभी का यही होना है
तो क्यूं आजीवन बस रोना है
अकेले ही हम आए थे अकेले ही जायेंगे
ये साथ देने वाले यहीं तक रह जायेंगे ।”

“धीरे धीरे झुलसते हुए
हम भी भस्म हो जायेंगे
यह वही दिन होगा
जिस दिन हम मर जायेंगे।”

किशोर ने डायरी बंद की ओर सामने देखा। सभी स्तब्ध अवस्था में खड़े थे।कोई शब्द नहीं थे,केवल मौन छा रखा था। किसी ने पीछे की ओर इशारा किया। पंडित जी की अर्थी आंगन से उठ कर बाहर आ रही थी। सभी अर्थी के पीछे हो लिए। सभी क्रियाकर्म के बाद अंत्येष्टि हुई । लोग वापिस शिवबाबू के घर के आगे आ गए। गंगाजल का छींटा लिया और अपने अपने घर चले गए।

पंडित जी का किंवाड खुला ही था। अंदर आंगन में पंडिताइन बिलख रही थी। कमरे में माधव मौन बैठा था। किशोर माधव से मिलकर सीधा बस स्टैंड को चला गया।

इधर राकेश को खबर मिल चुकी थी कि पंडित जी की अंत्येष्टि हो गई। वह अपना ठेला ले कर बाजार की ओर जाने के बजाय बस स्टैंड चला गया। स्टैंड पर चट्टे के पास ठेला खड़ा कर दिया। वहीं चट्टे पर बैठ गया। पास ही में एक लड़का चश्मा साफ कर रहा था। राकेश ने लड़के से समय पूछा। वह लड़का किशोर था। किशोर ने राकेश को देखा और कहा - ‘चार बजे हैं …।’

राकेश सब्जियों पर पानी मारते हुए आने जाने वालों को देख रहा था।कोई भी उसे ग्राहक नहीं लग रहा था। किशोर ने उसे देखा और डायरी निकालते हुए हल्के से हंसने लगा। राकेश ने किशोर को देख कौतूहल से पूछा-

राकेश - ‘कौन हो भाई … यहां के नहीं लगते…?’

किशोर - ‘युवा हूं……परन्तु मजबूर…।’

राकेश ने हंसते हुए कहा - ‘हम भी कुछ ऐसे ही है…भई… युवा…पर मजबूर…’


दोनों एक दूसरे को देख के हंसने लगे। और फिर थोड़ी देर बाद ही किशोर की बस आ गई। किशोर बस के गेट के पास ही खड़ा हो गया। बस रवाना हुई और राकेश देखते देखते सब्जियों पर पानी छिड़क रहा था। रकेश की नजर चट्टे पर गई तो देखा कि किशोर की डायरी वहीं पड़ी है जिसके बीच में पेन अटका कर रखा हुआ है। डायरी खोलकर पन्ने को देखा तो उस पर नीले पेन से लिखा था -

“ युवा मजबूर था …पर हमेशा नहीं रहेगा… एक दिन वह ऐसी उड़ान भरेगा कि समाज उसकी परछाई भी नहीं देख पाएगा… वह एक दिन मजबूर नहीं… बेखौफ बनेगा , वह युवा अब प्रौढ़ होगा …प्रौढ़ होगा……।”