युवा किंतु मजबूर - पार्ट 4 Lalit Kishor Aka Shitiz द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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युवा किंतु मजबूर - पार्ट 4

दो महीने बीत चुके थे राकेश अब फिर से बेरोजगार हो चुका था। सब्जी के व्यापार में घाटा लगने की वजह से उसने दुबारा धंधे का नहीं सोचा। इधर किशोर बनारस में वहाँ के प्रसिद्ध लेखक प्रशांत आलोक जी के साथ मिल कर साहित्य क्षेत्र मे लगा हुआ है। राकेश सुबह रोज उठता और बस स्टैन्ड पर सामान ढोने का काम करता। शाम को खाना खा कर सो जाता। उसके पास एक थैला था। जिसमे दो बुशर्ट ओर एक पेंट थी और अखबार मे पलेट कर बंधी हुई किशोर की डायरी। वह दिन भर बस इधर उधर घूमता रहता। और शाम को कहीं आसरा देख सो जाता। राकेश और किशोर एक उम्र के है पर बिल्कुल भिन्न है। दोनों का जीवन भले ही अलग हो परंतु मनः स्थिति वही है। 

बनारस में किशोर का जीवन भी कुछ ऐसा ही है। उसकी चिंताएं राकेश से अलग है। परन्तु एक युवा होने के नाते वह दूसरे आयाम में बड़ी है।किशोर हर सुबह उठ कर सीधा स्नान करके कॉलेज चला जाता है। फिर दोपहर दो बजे लौट कर वापिस लेखन कार्य मे लग जाता है। महीने मे दो बार शहर के सभी लेखकों का संयुक्त सेमीनार होता है। किशोर हर सेमीनार मे जाता है। वहाँ उसे क्षेत्र के सभी लेखकों और रचनाकारों से मिलने का अवसर प्राप्त होता है। आखिर किशोर को और  क्या ही चाहिए था। वह तो केवल अपनी वर्तनी को चिरंजीवी रखना चाहता था। एक बार सेमीनार मे गया तो वहाँ उसे प्रशांत आलोक जी मिले जिन्होंने किशोर की कलम को पहचान लिया था। प्रशांत आलोक जी ने किशोर को अपना पता दिया और चाय का निमंत्रण दिया।


किशोर रविवार को शाम के ठीक पाँच बजे आलोक जी के घर पहुँच गया। घर के बाहर दो गमले मे एलोवेरा के पौधे लगे थे। वह बाहर खड़ा इंतजार कर रहा था। तभी आलोक जी सड़क से दूध ले कर आते हुए दिखाई दिए। ढीला खादी का कुर्ता और उजला पायजामा पहने आ  रहे थे। किशोर ने प्रणाम किया और उनके पीछे पीछे घर के भीतर चला गया। प्रशांत जी रसोई मे दूध रख कर आए। आते ही किशोर को हँसते हुए कहा - "और किशोर कुमार ....मधुबाला के क्या हाल है?" किशोर ने अपना बैग रखते हुए कहा - "आज कल जॉब में ही इतना  इतना व्यस्त हूँ कि फुरसत ही नहीं?" आलोक जी ने किचन मे जाते जाते कहा - " बशीर बद्र जी ने फरमाया है कि  ‘कभी में अपनी हाथों की लकीरों से नहीं उलझा,मुझे मालूम है किस्मत का लिखा भी बदलता है...।" किशोर ने हल्की हँसी के साथ वाह...। आलोक जी किचन से बोले - " जनाब आपके लिए चाय लाएं या कॉफी " किशोर खड़ा होकर किचन की ओर जाने लगा, दरवाजे के पास पहुँच कर बोला - "प्रसाद में जो मिलेगा ग्रहण कर लेंगे" आलोक जी पीछे देख मुस्कुराये। किशोर आलोक जी पास आया और  कहा - " आप बताएं चाय लेंगे या कॉफी " आलोक जी बोले चाय तो रोज ही पीते है आज तुम नौजवान के संग कॉफी पी कर देखते है कि आज की कलम किस स्याही से चल रही है।" किशोर ने गैस के पास आ कर कहा - " फिर तो आप ज़रा आराम कीजिए और अब ये जिम्मेदारी हमे सौंप दीजिए, हम आपको नई कलम की नई  स्याही से रु-बरु कराते हैं।" 

 

आलोक जी ने किशोर को गैस का लाइटर थमा कर जाते हुए कहने लगे - "अब तुम्हारे हवाले ये कलम साथियों " किशोर ने हंसते हुए  लाइटर से गैस चालू किया और कॉफी बनाना शुरू किया। आलोक जी तब तक अपनी लाइब्रेरी मे गए और कुछ ग्रंथ उठा लाए। टेबल पर एक लंबी कतार मे लगा दिए। किशोर तब तक कॉफी बना कर ट्रे मे डाल कर ले आया। आलोक जी मटके से पानी का एक  गिलास भरा और गट गट पी गए। दुबारा भर के साथ में  ले आए। किशोर ने कप ट्रे से निकाल कर रख दिए। दोनों अब बैठे थे।


आलोक जी ने कॉफी की एक चुस्की ली और कहा - " अरे! जब इतनी अच्छी कॉफी बनानी आती है तो भला मधुबाला क्यूँ नाराज है ?" किशोर ने हल्के से हँसते हुए कहा - " जी आलोक जी, हम भी उनसे यही पूछ रहे है कि भला नाराज क्यूँ है?" आलोक जी बोले - " किशोर बाबू जल्दी से मना लो, वरना आज कल कोई इतना इंतजार नहीं करता, अगली बस में सीधे निकाल जाते हैं मुसफिर जिनकी यात्रा बाकी होती है।" किशोर ने हल्के से हँसते हुए कहा -" जी आलोक जी जरूर .... आज ही इस पर ध्यान देंगे" किशोर ने कॉफी का एक सिप लिया और कप टेबल  पर रखते हुए कहा – " आलोक जी, ये अगले रविवार को होने वाले सेमिनार में इस बार क्यूं ना स्कूल के बच्चो को आमंत्रित किया जाए..आपके क्या विचार है इस पर...?"


आलोक जी ने बड़े आश्चर्य से सर हिलाते हुए कहा – “बड़ी अजीब बात है किशोर बाबू....ये खयाल कभी हमारे दिमाग में भी नहीं आया कि, उभरते हुए बाल लेखकों को वरिष्ठ सभा में बुलाना चाहिए ....हम आज ही साहित्य सभा मंडल को आपका ये सुझाव देंगे और बेशक अगले रविवार बच्चे भी सेमिनार हॉल में मौजूद होंगे।" किशोर ने हामी भरते हुए कॉफी का लास्ट सिप लिया और कहा –" आलोक जी...हम एक दुविधा में हैं,,और कोई इतना समझदार अगल बगल है नहीं हमारी जानकारी में तो जरा आपसे ही कह रहे हैं.."


आलोक जी सोमदेव की रचित कथासरीतसागर को पलटते हुए बोले – " अच्छा..बताओ भई, भला एआई और चैटजीपीटी के दौर में भी ऐसी कौनसी परेशानी है जिसके लिए हमारी जरूरत आन पड़ी है।" किशोर को हल्की सी शंका हुई। उसे लगा कहीं वो आलोक जी से इतना फ्रैंक होने की गलती तो नहीं कर रहा। क्या पता उन्हें ये बर्ताव अजीब लगे। शायद वे मेरी निजी जिन्दगी में पड़ना पसंद नहीं कर रहे होंगे। ये सभी सवाल किशोर के दिमाग में टॉरनेडो बने घूम रहे थे। फिर अचानक आलोक जी ने कहा – " अरे! भई..या तो पहले तय कर लो की बताना है या नहीं ऐसे दुविधा में तो न रहो, तुम्हारे चेहरे के हाव भाव पूरे माहौल का अलंकार खराब कर रहे हैं" किशोर थोड़ा सा झिझक कर बोला – "जी,, नहीं मैं तो बस ऐसे ही... नॉर्मल सोच रहा था।" आलोक जी किशोर की स्तिथि भांप गए थे और उन्हें संज्ञान हो गया था कि अब किशोर पूछने पर भी झूठ ही बताएगा, इसलिए उन्होंने उसका काम आसान करने के लिए उसे विकल्प दिए। 


आलोक जी –" अच्छा तो बताओ...कौनसी समस्या है, नौकरी को ले कर या घर की कोई दिक्कत, पैसे की जरूरत है क्या,,या मधुबाला की तरफ से ……।"  किशोर ने आलोक जी के चुप होने का इंतजार किया और फिर बोला – " जी हां ऐसी ही कुछ दिक्कतें एक साथ है, अब जॉब और साहित्य में ही उतना व्यस्त हो जाता हूं कि काव्या और दूसरे दोस्तों के साथ समय नहीं बीता पाता …" आलोक जी ने सांस ली और थोड़ा ठहर के बोले – " अच्छा… तो दिक्कत ये है…वैसे एक बात बताओ किशोर बाबू आपकी जो मधुबाला है, यानी काव्या, उनको समय नहीं दे पा रहे इसलिए परेशान हो या दोस्तो का भी कोई रोल है इसमें...?" 


किशोर की सांस अटक गई। वह शर्म के मारे काव्या के साथ दूसरे दोस्तों को भी जोड़ रहा था लेकिन आलोक जी उसकी इस तरकीब को पहचान गए थे। किशोर ने फिर अपने झूठ को बचाने के लिए एक और झूठ बोला – "जी आलोक जी, दोनो की वजह से… लेकिन ज्यादा काव्या की तरफ से? " आलोक जी हल्के से मुस्कुराए और कहने लगे – "किशोर बाबू… हम साहित्य के विद्यार्थी हैं, हमने आपके जैसे कई चरित्रो को  पढ़ा भी है और परिमार्जित भी किया है, इसलिए हम सब देख पा रहे है कि आप क्यूं बार बार फोन चेक कर रहे हो और क्यों टक टक टाइप कर रहे हो…" 


किशोर अब कुछ नहीं बोल पा रहा था उसने केवल चुप रहना ही बेहतर समझा। थोड़ी देर तक माहौल में शांति रही फिर आलोक जी ने कहा– "देखो किशोर बाबू, हमारी  आपसे एक सलाह रहेगी, आप मानो या ना मानो ये आपके विवेक पर है..।" किशोर ने हामी भरी और फिर से सुनने लगा गया। आलोक जी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा – "जीवन में सब कुछ जरूरी होता है, फिर चाहे वह नौकरी हो या कुछ और, क्योंकि हमारे जीवन का समय निश्चित है, अर्थात जीवन की एक्सपायरी डेट होती है लेकिन दिखती नहीं…" किशोर शांति से सुन रहा था और हां में सर हिला रहा था। आलोक जी थोड़े खरखारये और गला साफ करते हुए बोले – " इसलिए किशोर बाबू, अब आपको कौनसा टाइम कहां देना ये आप तय करिए, क्योंकि देना सबको पड़ेगा… ये तो तय है, अब कैसे देना है, कितना देना है, कब देना है , ये आप अपने अनुसार देखिए…"


किशोर शांत था, उसके शब्द नहीं रहे। वह बैठा था, आलोक जी भी कथासरीतसागर पढ़ने लग गए। किशोर उठा और कहने लगा – "ठीक है आलोक जी, अब विदा लेते हैं। घड़ी भी अब जाने का समय दिखा रही है। आलोक जी ने ग्रंथ को स्टैंड पर रखा और उठते हुए कहा – "रुको जरा, एक मिनट…अभी आया" किशोर सोफे पर बैठ गया। आलोक जी अपने कमरे में गए और अपनी अलमारी खोली उसमे दो बक्से थे उसमे से एक ले आए। बाहर आकर बक्सा खोला जिसमे एक डायरी और एक कलम थी। आलोक जी ने बक्से को साफ किया और फिर उसे किचन में ले गए। ऊपर से बनारसी पेडे का डब्बा उतारा और उसमे से दस पीस पेडे और दो सेव डब्बे में डाल कर उसे ले आए। किशोर ये सब चुप चाप देख रहा था। आलोक जी ने डायरी कलम  और डब्बा तीनों  किशोर को दिए और कहा – "ये लो छोटी सी भेंट, मैं अकेला रहता हूं, इतना सब मेरे अकेले से नहीं खाया जायेगा, तुम भी थोड़ा सहारा लगाओ। और ये डायरी भी रखो, काम आयेगी। किशोर ने धन्यवाद किया और अभिवादन में प्रणाम करके चला गया। 


मोटर साइकिल पर सवार हो कर सीधा गोमती घाट की और चल दिया। शाम को घाट पर थोड़ी देर बैठा और वापिस घर की और चला गया। घर पर आते ही सीधा किचन में गया और पेडे निकाल कर खाने लगा। पेडे खाते खाते ही उसके मन में आलोक जी को वो बाते याद आ गई कि जीवन की एक्सपायरी डेट होती है पर दिखती नहीं………


        To be continued.....