स्वरचित, मौलिक, मानवेतर लघुकथा=
धरती-आकाश☁
धरती भूक्का फाड़कर रो रही थी,
आकाश ने जब रोने का स्वर सुना तो उससे रहा नहीं गया। धरती की ओर देखा।
धरती तुम क्यों रो रही हो,.... क्या हुआ तुमको?
आकाश ने बोला।
धरती.... मेरे बच्चे भूखे प्यासे हैं, मेरी सीना छलनी-छलनी कर दिया हर जगह बोरिंग की है,....पर मैं क्या करूं! मैं तो सूखी पड़ी हूँ और ना ही मेरे पास अनाज है। आप कृपा करके वर्षा वृष्टि कर दो,.... (रोते-रोते) अपने बच्चों को मैं भूके प्यास से तड़पकर मरते नहीं देख सकती हूँ।
धरती ने आकाश से अनुरोध किया।
आकाश (क्रोध में)--- "यह मानव ने,.. ई- वेस्ट को जलाकर, गाड़ियों के धुएं से, फैक्ट्रियों के केमिकल भरे हुए थे,धुए से, और तो और,.... क्या कहूँ,..प्रकृति से भी खिलवाड़ किया है।, इसी कारण मौसम के अनुसार वर्षा भी नहीं हो सकती है। मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता हूँ। इसी कारण बादल ही नहीं बन पाते हैं। मानव ने, इतना प्रदूषण फैलाया है...।"
धरती--- यदि आप हमारी मदद नहीं करेंगे, तो मेरे बच्चे भूखे प्यासे मर जाएँगे, मैं तो माँ हूँ ना,.....मैं इनको मरता हुआ नहीं देख सकती हूँ, लाख इन्होंने मुझे भी क्षति पहुँचाई, प्रकृति का हनन किया है। पर,...मैं माँ होने के नाते, इनसे मुंह नहीं फेर सकती हूँ। आपसे भी अनुरोध करती हूँ;....की वर्षा करें, जिससे मेरे बच्चे जीवित रह सकें,....
आकाश तेज स्वर में बोला---- "इनके कारण ही तो ओजन परत में छेद हो गया है,...।"
गुस्से में ,..."बादल उड़ने ही वाले थे, कि तभी धरती करुणा भरे स्वर में बोली:-
"देखो हमें अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना है।"
(आकाश अब कुछ नरम पड़ा और उसने गौर से देखा,गरम लपटों व तपन से धरती तड़प रही थी, उसके दुख से अब उसका सीन भी फट पड़ा था और धरती पर शीतलता छा गई थी!!
सरिता बघेला 'अनामिका'
11/7/2019
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मानसून
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मानसून ने दी दस्तक,
कहां खोएअब।।
काले बादल लाए झड़ी,
छाते में थी मुनिया खड़ी।।
तेज हवा संग वर्षा की झड़ी,
उड़ते छाते को बचाते,
मुनिया धम से गिर पड़ी।।
भीगी मुनिया, रूठी मुनिया
डब्बू संग घर चल पड़ी,
सब बच्चों ने देखी हालत
रख ली घर में मीटिंग बड़ी।।
टुन्नू बोला वर्षा का बहता जल
काम आएगा हमारे कल।
छत से बोर तक, जल संरक्षण की
बनी योजना बहुत बड़ी।।
डब्बू बोला सब पाैधारोपण करेंगे,
ना ही गड्ढों में पानी भरने देंगे,
चाहे सावन की लगी हो झड़ी।
'सरिता' कहे सीख सदा
रखाे याद हर पल-हर घड़ी।।
-----------दुख
दुखदुख
दुख की अपनी ही भाषा है
दुख से सुख की आशा है।
बीते दिन रीता-रीता है
सपनों में सुख कहीं सोता है।
रात अंधेरे आकर हमें जगाता है
भूखे पेट बार-बार कुछ कहता है।
अंधेरे में भी रोशनी का दीप जलता है
कठोर परिश्रम से फिर पसीना आता है।
परिश्रम से जो धन कमाया है
उसी से स्वाभिमान आता है।
जीवन की राह में आसानी से जीता है
आशा के दिए से प्रकाश ही प्रकाश होता है।
की अपनी ही भाषा है
दुख से सुख की आशा है।
बीते दिन रीता-रीता है
सपनों में सुख कहीं सोता है।
रात अंधेरे आकर हमें जगाता है
भूखे पेट बार-बार कुछ कहता है।
अंधेरे में भी रोशनी का दीप जलता है
कठोर परिश्रम से फिर पसीना आता है।
परिश्रम से जो धन कमाया है
उसी से स्वाभिमान आता है।
जीवन की राह में आसानी से जीता है
आशा के दिए से प्रकाश ही प्रकाश होता है।
सरिता बघेला 'अनामिका'
11/7/2024