सन्नाटे में शनाख़्त - भाग 2 Pradeep Shrivastava द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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सन्नाटे में शनाख़्त - भाग 2

भाग -2

कितनी बुरी तरह चोटिल हो गई थी, सवेरा होते-होते जब मेरी जान पर बन आई तो शैतान को लगा कि कहीं मर-मरा गई तो जेल जाना पड़ेगा, इसलिए घरवालों से कहा कि यह ग़ुस्लख़ाने में फिसल कर गिर गई, वहाँ रखा कोई सामान इसको ज़ख़्मी कर गया। 

और जाहिलों का पूरा कुनबा सब-कुछ जानते हुए भी मुझ पर ही टूट पड़ा। एक औरत, ऊपर से सास, जो असल में दोनों ही के नाम पर कलंक थी, अपने साहबज़ादे के कुकर्म, वहशीपन को कुछ कहने की बजाय बेग़ैरतों की तरह मेरी ही जाँच कर डाली। मुझको ही शर्मों-हया की दुश्मन कहते हुए कौन-कौन सी गालियाँ नहीं दीं, क्या-क्या नहीं कहा। अभी भी गूँजती है कानों उसकी बेशर्मी भरी यह बात कि ‘आग लगे तेरी ऐसी शर्मगाह को।’

जब बेहोश हो गई, तो उसको भी पुलिस का डर सताने लगा, तब जाकर मेरा इलाज कराया। जब-तक मैं ठीक नहीं हो गई, मुझे अब्बू-अम्मी से या तो बात ही नहीं करने देती थी, या बग़ल में ऐसे बैठी रहती थी जैसे गर्दन पर छूरी रखे हो, जिससे मैं एक लफ़्ज़ सच न बोल पाऊँ। 

और मेरे घर वाले भी! अल्लाह ता'ला से यही दुआ है कि सभी वालिदैन को अपनी बेटियों की भी बात सुनने-समझने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाएँ। जब कई दिन बाद आए तो मेरे चेहरे की उदासी, रोज़-रोज़ के ज़ख़्मों से बदली-बदली सी मेरी चाल का अंदाज़ा तक नहीं लगा पाए या फिर यह सोच कर अनजान बने रहे कि निकाह कर दिया, अब ये जाने, इसका मुक़द्दर जाने, हमें क्या लेना-देना। 

निकाह से पहले मैं कितना कह रही थी कि इतनी जल्दबाज़ी न करो, मुझे नौकरी कर लेने दो, आख़िर तुम लोगों ने इतना पढ़ाया है, मैं पूरी तैयारी करके नौकरी के लिए बार-बार एग्ज़ाम दे रही हूँ, आज नहीं तो कल, कहीं न कहीं मिल ही जाएगी। लेकिन कभी अल्लाह की मर्ज़ी बताते, तो कभी कहते कि ‘कौम में बदनामी हो रही है कि इतनी उम्र हो गई, निकाह क्यों नहीं हो रहा है। एक तो सारे रीति-रिवाज़ों को दरकिनार कर तुझे इतना पढ़ा रही हूँ, उम्र निकली जा रही है फिर भी निकाह नहीं कर रही हूँ।’

मेरी एक सुनने को कौन कहे, हर साँस पर दबाव डालते रहे कि ‘बस बहुत हो गई पढ़ाई, नौकरी की तैयारी। अब पहले निकाह, उसके बाद जो तेरा शौहर चाहे, तो करती रहना नौकरी।’ आख़िर मुझे जहन्नुम में भेजकर ही माने। जिस औरत का शौहर उससे पहली रात से ही जानवरों के जैसा व्यवहार करे, वह पढ़ाई-लिखाई, नौकरी की बात करता? ऐसी जगह जहन्नुम नहीं तो और क्या होगी? 

जहन्नुम ही थी तभी तो तीन महीने बाद ही तलाक़ दे दिया, घर से निकाल दिया। जिस मायके को अपना घर समझकर पहुँची कि चलो जहन्नुम से फ़ुर्सत मिली, अब अब्बू-अम्मी भाई-बहनों सब के साथ रहूँगी, नौकरी करूँगी। अब किसी के साथ निकाह नहीं करूँगी। दुनिया में बहुत सी औरतें हैं जो अकेले जीवन बिता रही हैं, मैं भी अकेली रह लूँगी। 

इतनी क़ाबिल तो हूँ ही कि आज नहीं तो कल नौकरी भी मिल ही जाएगी। घर वालों पर भी कोई बोझ नहीं रहूँगी बल्कि घर के बाक़ी ख़र्चों को भी उठाऊँगी। जब पैसा मिलेगा तो घर के सारे लोग भी और ज़्यादा ख़ुश रहेंगे। लेकिन जब सिर पर शैतान सवार हो तो सही बात भी ग़लत ही नहीं, ज़हर भी लगती है। तो आख़िर वो समझते कैसे? मुक़द्दर में तो जहन्नुम में फिर लौटना लिखा था। 

उसका हलक़ सूखता ही जा रहा है, तपता फ़र्श पैरों, नितम्बों को झुलसा रहा है, फिर भी बवंडर थम नहीं रहा, वह ग़ुस्से से भरती हुई सोच रही है, जब तलाक़ के बाद मेहर वापसी की बात आयी तो ससुराल के नाम पर कलंक बदनुमा धब्बे चले आए कि तैश में ग़लती हो गई, इसे घर ले जाने के लिए तैयार हैं। उन कुछ दिनों में ही जो जहन्नुम वहाँ देखा, जिया था उसके बाद वहाँ जाना ही नहीं चाहती थी, लेकिन घरवाले उनके आने भर से सजदे में ऐसे झुक गए कि ज़बरदस्ती ही नहीं, एक तरह से धक्के मार कर मुझे फिर उस ज़ालिम के पास भेज दिया। 

और उन ज़ालिमों के घर में किसी को भी तक़रीबन मेरी आधी उम्र के देवर से हलाला कराने में शर्म नहीं आई कि कम से कम उम्र का ही फ़ासला देख लेते, या कि वह अभी एक लड़का ही है, मैं कहाँ अठाइस-उन्तीस बरस की औरत और वो एक सत्रह बरस का लड़का। 

लेकिन शैतानों के ख़ानदान में तो बच्चा हो या बूढ़ा, लड़का हो या जवान, लड़की हो या औरत, होंगे तो सब शैतान ही न, तो उस सत्रह साला शैतान ने भी पहली रात वाली तकलीफ़ से कहीं कम तकलीफ़ नहीं दी थी। और मैं भी मूर्ख जाहिल तब भी मन ही मन ख़ुद को तसल्ली दे रही थी कि अब इस शौहर को अक़्ल आ जाएगी कि जिसको वह हलाला के बाद फिर अपनी बेगम बनाएगा वो एक और मर्द के सामने बेपर्दा हो चुकी है, उसके बदन, शर्म-गाह को कोई और भी रौंद चुका है। ना-समझी में भटक कर तलाक़ दिया होगा, अब अपने शौहर होने का मुकम्मल फ़र्ज़ निभाएगा . . . बवंडर थमने का नाम नहीं ले रहा है और उसकी आँखों से गिर रहे आँसू उस पसीने निकालती गर्मीं में भी उसे गालों पर गुनगुने से लग रहे हैं। 

उसे रह-रहकर पछतावा हो रहा है कि वह उस जहन्नुम से निकलने के बाद नौकरी करते हुए भी, उससे बड़े इस दूसरे जल्लाद के चक्कर में कैसे पड़ गई, उसकी आँखें एक और शैतान को पहचानने में धोखा कैसे खा गईं। 

बढ़ती रात के साथ उसे गर्मीं कम होने की बजाय और बढ़ती महसूस हो रही है। उस अँधेरे में भी उसे अहसास हो रहा है कि सिर से ख़ून अब भी रिस रहा है। जब गर्मीं, प्यास, चोट से हो रही पीड़ा बर्दाश्त करनी मुश्किल हो गई, ग़ुस्सा बहुत भर गया तो वह उठ कर दरवाज़े पर दस्तक दे रही है। 

सोचा उससे कहे कि कम से कम मुझे पूरे कपड़े पहनने दो, पानी लेने दो, ख़ून बह रहा है कुछ मरहम-पट्टी कर लेने दो, और यह भी ध्यान दो कि बालकनी में कोई वॉश-रूम नहीं है। बस इतना कर दो तो मैं रात बालकनी में ही बिता लूँगी, बाक़ी बातों का हिसाब सवेरे करूँगी, आख़िर इस फ़्लैट में मेरा भी हिस्सा है। ख़रीदते समय मैंने अपनी पाँच साल की पूरी कमाई लगा दी थी। सोचा यह भी कि जब इसने तलाक़ दे ही दिया है, तो मेरा पैसा भी वापस करे और मेहर भी। 

उसने दरवाज़े पर कई बार दस्तक दी लेकिन अंदर से कोई जवाब नहीं मिला। दरवाज़ा नहीं खुला। इससे ज़िद में आकर उसने बार-बार कॉल-बेल बजानी शुरू कर दी तो आख़िर वह अचानक ही गालियाँ देते हुए दरवाज़ा खोल कर सामने आया और उसके बाल पकड़ कर खींचते हुए कहा, “अभी तक तू यहाँ क्यों बनी हुई है? अब तेरा यहाँ कुछ नहीं है, जहाँ मरना है जाकर मर, तुरंत चली जा यहाँ से नहीं तो अभी उठाकर नीचे फेंक दूँगा।”

दुर्योग से चोट वाली जगह के ही बाल खिंचने से, दर्द से वह बिलबिला उठी है। उसका भी ख़ून खौल उठा है, उसने भी मन ही मन कहा, ताक़त में तुमसे कम मैं भी नहीं हूँ, नीचे फेंकोगे तो अकेले नहीं गिरूँगी, साथ में तुझको भी लेकर गिरूँगी। अपनी चोटों की परवाह किए बिना वह तुरंत ही मुक़ाबला करती हुई कह रही है, “तुमने मुझे तलाक़ दे दिया है, अब मैं तुम्हारी बेगम नहीं हूँ कि तुम मुझ पर हाथ उठाओगे और मैं चुप रहूँगी। 

इस मकान में पैसा मेरा भी लगा है, अंदर आधा से ज़्यादा सामान मेरा है, मेरी पर्सनल चीज़ें हैं। उस पर पूरा हक़ मेरा है, और मुझे अब अपना हक़ लेना आ गया है। मैं अपना हक़ लिए बिना यहाँ से जाने वाली नहीं। तुम इस बालकनी की बात कर रहे हो, मैं इस मकान के अंदर रहूँगी, देखती हूँ तुम मुझे कैसे रोकते हो।”

उसकी बातों, जबर्दस्त प्रतिरोध से तबरेज़ हक्का-बक्का हो गया, उसका ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया है। उसने ख़्वाबों में भी नहीं सोचा था कि उसकी हिम्मत इस क़द्र बढ़ जाएगी, वह कभी इतना बोलेगी ही नहीं बल्कि हाथ भी उठाएगी। उसने तुरंत सोचा कि इससे पहले कि ‘यह खोपड़ी पर सवार हो, यही समय अच्छा है कि इसे अंदर ले चल कर, इतनी क़ायदे से कुटाई कर दूँ कि इसकी रूह भी काँप उठे, और जो पैसों, सामान का हिसाब माँग रही है, उसे भूल कर अपनी जान बचाकर इसी समय भाग जाए।’

यह सोचते ही उसने उसे अंदर आने का रास्ता देते हुए कहा, “ठीक है, आओ इसी समय क़ायदे से हिसाब कर ही लेते हैं।”

अंदर पहुँचते ही उसने दरवाज़ा बंद कर दिया। उसे लेकर फ़्लैट के भीतर वाले कमरे में पहुँच कर वहाँ भी दरवाज़ा बंद कर दिया। वाज़िदा मना करती रही, लेकिन उसने उसकी बात पर ध्यान ही नहीं दिया। वह अंदर ही अंदर घबरा रही है कि इस कमरे में यह हमेशा एक तमंचा और चॉपर भी रखता है, कहीं यह यहाँ मेरी हत्या करने के इरादे से तो लेकर नहीं आया है। 

लेकिन फिर तुरंत ही हिम्मत कर सोच रही है कि ‘इतनी आसानी से तो अब यह मुझ पर हाथ नहीं उठा पाएगा।’ उसने तुरंत ही आसपास पड़ी उन चीज़ों पर एक नज़र दौड़ाई, जिन्हें वह ख़ुद पर हमला होने पर, अपने बचाव के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल कर सके।

इसके आगे वह कुछ सोच-समझ पाती कि तबरेज़ उस पर टूट पड़ा, लेकिन वह तो पहले से ही तैयार थी इसलिए तबरेज़ का हमला सफल नहीं हुआ, बल्कि वाज़िदा ने जिस स्टील के जग पर पहले से ही अपनी सुरक्षा के लिए निगाह रखी हुई थी, उसी से उसके सिर पर ताबड़-तोड़ हमला कर दिया है। 

वह ऐसा भी कर सकती है, यह तबरेज़ के ख़्वाब में भी नहीं था, इसलिए वह थोड़ा लापरवाह था, और सिर, नाक पर बुरी तरह चोट खा गया है, ख़ून बहने लगा है। मगर बड़ी जल्दी ही उसने ख़ुद को सँभाल लिया है, और बेड पर पड़ा तकिया उठाकर ढाल की तरह इस्तेमाल करते हुए, उसको पकड़ने के लिए, उसकी तरफ़ बढ़ रहा है, लेकिन वह भी पीछे हटती हुई, जो भी सामान हाथ लग रहा है, उसे फेंक-फेंक कर मार रही है।