श्रीमद्भागवतगीता के कुछ महत्वपूर्ण श्लोक
(भाग 1)
अध्याय 2
श्लोक 14
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।।
हे कुंतीपुत्र इंद्रियों और इंद्रिय विषयों के बीच संपर्क होने से सुख और दुख की क्षणभंगुर अनुभूतियाँ उत्पन्न होती हैं। ये अस्थायी हैं और सर्दी और गर्मी के मौसम की तरह आते जाते रहते हैं। हे भारतवंशी हमें इन्हें बिना विचलित हुए सहन करना सीखना चाहिए।
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुख और दुख में सम रहने की सीख दी है। उन्होंने कहा है कि जिस तरह जाड़े और गर्मी के मौसम स्थाई नहीं होते हैं। थोड़े समय के बाद मौसम बदल जाता है वैसे ही सुख और दुख भी स्थाई नहीं हैं। अतः मनुष्य को चाहिए कि दोनों को समान भाव से ग्रहण करें।
मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह अपने लिए सदैव सुख की कामना करता है। जब उसे सुख मिलता है तो बहुत खुश होता है। उसका प्रयास रहता है कि उस सुख को पकड़ कर रखे। उसे अपने से दूर न जाने दे। कई बार इस प्रयास में वह उस सुख का आनंद भी नहीं ले पाता है।
पर सदैव सुख मिले या वो स्थाई रूप से रहे ऐसा संभव नहीं है। इसलिए उसे सुख का आनंद लेना चाहिए किंतु स्वयं को उस स्थिति के लिए तैयार रखना चाहिए जब दुख की घड़ी आएगी। ऐसा तब ही हो सकता है जब हम स्वयं को याद दिलाते रहें कि सुख और दुख जीवन का हिस्सा हैं। आज सुख है तो कल दुख आएगा। दुख भी कुछ समय ठहर कर चला जाएगा।
न सुख में उत्साहित हों और न ही दुख में निराश
श्लोक 21
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥
हे पार्थ जो व्यक्ति जानता है कि आत्मा अविनाशी, शाश्वत, अजन्मा और अपरिवर्तनीय है, वह कैसे किसी को मार सकता है या किसी को मरवाने का कारण बन सकता है?
इस श्लोक में हमारे भीतर बसे परमात्मा के अंश की बात की गई है। परमात्मा का अंश जिसे आत्मा कहते हैं हम सभी के शरीर में वास करता है। यही हमारा वास्तविक रूप है। आत्मा शरीर को ऊर्जा प्रदान करती है।
आत्मा अविनाशी है। ये शाश्वत है। न तो इसका जन्म होता है और न ही कभी इसकी मृत्यु होती है। इसका स्वरूप परिवर्तित नहीं होता है।
आत्मा हमारे कर्मों की साक्षी मात्र है। आत्मा न तो कोई काम करती है और न ही हमारे कर्मो से प्रभावित होती है।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि तुम अपना कर्तव्य समझ कर युद्ध करो। तुम्हारे भीतर रह रही आत्मा तुम्हारे कर्म से प्रभावित नहीं होगी। जिन्हें तुम युद्ध में मारोगे उनके भी सिर्फ शरीर नष्ट होंगे। उनके भीतर रह रही आत्मा का वध नहीं हो सकता है। इसलिए अपने वास्तविक स्वरूप को समझ कर तुम भी बिना किसी दुविधा के युद्ध करो।
इस श्लोक का मुख्य उपदेश ये है कि हमें अपने भौतिक अस्तित्व को सच न मानकर अपने वास्तविक स्वरूप शाश्वत और अविनाशी आत्मा को सत्य मानना चाहिए।
श्लोक 47
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
तुम्हें अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करने का अधिकार है, लेकिन तुम अपने कर्मों के फलों के अधिकारी नहीं हो। अपने आप को कभी भी अपने कर्मों के परिणामों का कारण मत समझो, न ही अकर्म में आसक्त रहो।
ये श्रीमद्भगवद्गीता का सबसे प्रसिद्ध श्लोक है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को अपना कर्तव्य करने में ध्यान लगाना चाहिए। कर्म करना उसका कर्तव्य है पर वह कर्म का फल पाने का अधिकारी नहीं है।
अब सोचने वाली बात है कि जब कोई काम किया जाएगा तो उसका परिणाम तो होगा ही। फिर मनुष्य अपने कर्म के फल का अधिकारी क्यों नहीं है। इसका उत्तर है कि मनुष्य जब किसी परिणाम की इच्छा से कर्म करता है तो वह परिणाम से आसक्त हो जाता है। ऐसे में वह सिर्फ वांछित परिणाम पाने की चेष्ठा करता है। तब वह परिणाम प्राप्त करने के लिए उचित अनुचित का भेद नहीं करता है।
वह स्वयं को कर्म के परिणाम कारण मानकर कई बार उन कर्तव्यों से पीछे हट जाता है जो उसके लिए नियत हैं। वह मानता है कि अपना नियत कर्म करने से उसे अपयश मिलेगा। यही स्थिति अर्जुन की थी। स्वयं को कर्ता और कर्म के परिणाम का कारण मानते हुए उसे लग रहा था कि स्वजनों की हत्या कर वह पाप का भागी बनेगा। जबकि वह सत्य की विजय के लिए युद्ध कर रहा था अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं।
साधारण व्यक्ति भी कई बार सिर्फ अपने लाभ हानि, यश अपयश के बारे में सोचकर वो काम करने से पीछे हटने लगता है जो समाज की भलाई के लिए किया जा रहा है। इसलिए इस श्लोक में भगवान ने बताया है कि हमें अपना नियत कर्म बिना किसी दुविधा के करना चाहिए। उससे क्या लाभ होगा? उसके करने से यश मिलेगा य अपयश इस पर विचार नहीं करना चाहिए।
जब हम परिणाम के विषय में न सोचकर अपना कर्तव्य समझ कर कोई काम करते हैं तो उस कार्य को सबसे अच्छे तरीके से कर पाते हैं। फल की चिंता किए बिना कर्म करने वाला सिर्फ अपने कर्म पर ध्यान देता है। पूरी मेहनत व लगन के साथ काम करता है। जब पूरी निष्ठा के साथ काम किया जाता है तो वो श्रेष्ठ होता है।
इस श्लोक की एक सीख ये भी है कि हम फल की इच्छा को त्याग कर कर्म करें पर कभी अकर्मण्यता के प्रति आकर्षित न हों। निष्काम भाव से अपना कर्म करें।
श्लोक 48
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
हे अर्जुन सफलता और असफलता की आसक्ति को त्यागकर अपने कर्तव्य पालन में दृढ़ रहो। ऐसे समभाव को योग कहते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम भाव से कर्म करने का उपदेश दिया। अब वह बता रहे हैं कि निष्काम भाव से कर्म किस प्रकार किया जा सकता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब मनुष्य कर्म करते हुए सिर्फ ये देखता है कि वह अपने निर्धारित कर्म का पालन सही प्रकार से करे। कर्म करते हुए उसके परिणाम अर्थात सफलता और असफलता के बारे सोचकर परेशान नहीं होता है तब इस स्थिति में वह समभाव में होता है। इसे ही योग कहते हैं।
इसका अर्थ हुआ कि कर्म करते समय अपना संपूर्ण ध्यान उसके सही निष्पादन में लगाना चाहिए। यदि कर्म करते हुए हम बार बार ये विचार करेंगे कि अपने कर्म में हमें सफलता मिलेगी या असफलता तो कर्म सही तरीके से नहीं कर पाएंगे। इसलिए सफलता और असफलता के बारे में सोचना छोड़कर कर्म करना चाहिए। कर्म हम वर्तमान में करते हैं जबकि परिणाम भविष्य में मिलता है। अतः जो भविष्य में होने वाला है उसके लिए वर्तमान में परेशान होना बुद्धिमानी नहीं है। बुद्धिमानी है कि हम वर्तमान में अपने कर्म पर ध्यान दें। जब कर्म सही होगा तो परिणाम भी सही होगा।
यहाँ योग की बात कही गई है। योग का मतलब है अपने मन, विचार और कर्म को संतुलित कर सम भाव में स्थापित होना। जीवन द्वंद यानि विपरीत परिस्थितियां आती रहती हैं। इन विपरीत परिस्थितियों में धैर्य रखते हुए समभाव बनाए रखने वाला ही जीवन को सही प्रकार से जी सकता है।
अध्याय 3
श्लोक 19
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन् कर्म परं आप्नोति पूरुषः।।
अतः आसक्ति का परित्याग करके कर्तव्य समझकर कर्म करो, क्योंकि फल की आसक्ति किए बिना कर्म करने से मनुष्य परमपद को प्राप्त होता है।
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को वो मार्ग बता रहे हैं जिस पर चलकर वह परम पद को पा सकता है। जब तक व्यक्ति पूरी तरह से आध्यात्म के उच्च धरातल पर नहीं पहुँचता है उसे सही प्रकार से ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। उसके लिए एक आसान रास्ता है कि वह अपने नियत कर्म अपना कर्तव्य समझ निष्काम भाव से करे। इस तरह कर्म करने से उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है।
कर्म करते हुए उसके फल के प्रति मोह न रखना व्यक्ति को आसक्ति से मुक्त करता है। असक्ति से मुक्त व्यक्ति ही बंधन मुक्त हो सकता है। वह कर्म करते हुए अपने लाभ हानि के बारे में नहीं सोचता है। उसके कर्म सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति से जुड़े होते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने भीतर शांति का अनुभव करता है।
श्लोक 21
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
श्रेष्ठ व्यक्ति जो कार्य करते हैं, सामान्य लोग उनका अनुसरण करते हैं। उनके द्वारा जो आदर्श स्थापित किया जाता है सारा संसार उनका अनुसरण करता है।
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म करते हुए एक आदर्श स्थापित करने की बात कही है। एक कर्तव्य परायण व्यक्ति अपने कर्तव्य करते हुए दूसरों से सम्मान पाता है। ऐसे व्यक्ति को लोग श्रेष्ठ मानकर उसका अनुसरण करते हैं। वह व्यक्ति जो करता है वो समाज के लिए एक आदर्श बन जाता है। लोग भी उसी आदर्श के अनुसार काम करने लगते हैं। अतः समाज में सम्मानित व्यक्तियों का उत्तरदायित्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। यदि वह किसी प्रलोभन में आकर ऐसा कुछ कर देता है जो उचित नहीं था तो भी सामान्य लोग उसे उचित ही मानेंगे। वह भी उसकी तरह अनुचित मार्ग पर चलने लगेंगे।
उदाहरण के लिए कोई संत यदि किसी व्यसन को अपना लेता है तो उसके अनुयायी भी उसे अपना लेते हैं। उनका मानना होता है कि जब संत वो कार्य कर रहे हैं तो अवश्य उसमें कोई बुराई नहीं होगी। संत होने के कारण वह आदर्श हैं और हमें उनका अनुसरण करना चाहिए।
वर्तमान समय में इस श्लोक का महत्व बहुत अधिक है। आज बहुत से लोग समाज के मार्गदर्शक बनने का दावा करते हैं। अपने काम से लोगों को अपने प्रति आकर्षित कर लेते हैं। लोग उन्हें रोल मॉडल मानकर उनका अनुसरण करते हैं। पर देखने में आता है कि ऐसे रोल मॉडल अपने आचरण पर ध्यान नहीं देते हैं। अनुचित आचरण करते हैं। उन्हें देखकर उन्हें मानने वाले भी उसी तरह का आचरण करते हैं।
नायक वही हो सकता है जो अपने आचरण को संयमित रखे।
श्लोक 35
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥
अपने स्वधर्म अर्थात स्वाभाविक नियत कर्म को करना, भले ही उसमें दोष हों, दूसरे के नियत कर्म को, भले ही वह पूर्णतः अच्छा हो, करने से कहीं अधिक श्रेष्ठ है। वस्तुतः, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मर जाना, दूसरे के मार्ग पर चलने से अधिक श्रेष्ठ है। दूसरे के मार्ग पर चलना जोखिम से भरा है।
इस श्लोक का महत्व तब ही समझ में आएगा जब हम स्वधर्म को समझेंगे। स्व का अर्थ है स्वयं। इसके साथ धर्म लगा है। अतः इसका अर्थ हुआ अपना धर्म।
स्वधर्म को समझने के लिए धर्म का अर्थ समझना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। धर्म से अभिप्राय सिर्फ वो नहीं है जिस संदर्भ में इसका प्रयोग वर्तमान में होता है। वर्तमान में हम इसका प्रयोग केवल पूजा पद्धति के आधार पर ही करते हैं। इसलिए हिंदू धर्म एक शब्द प्रचलित है।
धर्म का अर्थ है वो जो अनुकरणीय है। जो धारण किया जाना चाहिए। इसका एक अर्थ मूलभूत स्वभाव भी है। अतः स्वधर्म का अर्थ है व्यक्ति विशेष के लिए अनुकरणीय कर्तव्य।
जैसे कि एक राजा के लिए अनुकरणीय है कि वह प्रजा का पालन करे। इसलिए एक शब्द है राजधर्म। इसी तरह पतिधर्म, पत्नीधर्म, पुत्रधर्म, पुत्रीधर्म, शिष्यधर्म इत्यादि शब्द पढ़ने सुनने को मिलते हैं। इसका अर्थ हुआ कि हर एक व्यक्ति का अपना एक कर्तव्य है। उसे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
अब यदि हम स्वधर्म की जगह दूसरे का धर्म अर्थात कर्तव्य करते हैं तो मुश्किल होगी। जैसे कि राजा अपना कर्तव्य छोड़कर किसान का काम करने लगे। हो सकता है कि वह अच्छा किसान साबित हो। पर उसका कर्तव्य खेती करने से बहुत बड़ा है। राजा का कर्तव्य करते हुए वह राज्य के किसानों के साथ साथ अन्य वर्ग की भलाई के काम कर सकता है। इससे समाज की उन्नति होगी और सबका भला होगा।
एक सैनिक का कर्तव्य समाज की रक्षा करना है। यदि इस कर्तव्य का पालन करते हुए उसे किसी व्यक्ति के प्रति हिंसा करनी पड़े तो भी उसके लिए उचित है। सामान्य दृष्टि से देखा जाए तो हिंसा निंदनीय कार्य है। पर यदि दूसरों की रक्षा के लिए एक सैनिक को ऐसा करना पड़ता है तो ये निंदनीय नहीं अनुकरणीय हो जाता है। अतः हिंसा निंदनीय है कहकर उस सैनिक को पीछे नहीं हटना चाहिए।
धर्म का अर्थ मूलभूत स्वभाव भी है। जैसे अग्नि का धर्म है जलाना। बिच्छू का स्वभाव है डंक मारना। न आग जलाना छोड़ सकती है और न बिच्छू डंक मारना। यदि ऐसा होता है तो इनका अस्तित्व ही खत्म हो जाता है। ऐसे ही हर मनुष्य का अपना एक मूलभूत स्वभाव होता है। उस स्वभाव के विपरीत जाकर किसी और की तरह बनना हानिकारक है। ऐसा प्रयास करते हुए व्यक्ति न अपने जैसा रह पाता है और न ही दूसरे की तरह बन पाता है।
यदि कोई गृहस्थ है और खुशी खुशी अपने गृहस्थ धर्म का पालन कर रहा है। अब यदि वह किसी सन्यासी को देखकर सिर्फ इसलिए संन्यास लेना चाहता है कि संन्यासी समाज में सम्मानित है, तो न वह गृहस्थ रह पाएगा और न ही संन्यास अपना पाएगा। वह संन्यासी तभी हो सकता है जब उसके स्वभाव में बदलाव आता है।
अध्याय 4
श्लोक 38
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥
इस संसार में दिव्य ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है। जिसने योग के दीर्घकालीन अभ्यास से मन की पवित्रता प्राप्त कर ली है, उसे समय आने पर हृदय में ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
इस श्लोक में ज्ञान के महत्व को दर्शाया गया है। जिस व्यक्ति के पास ज्ञान होता है उसके मन में पवित्रता होती है। उस व्यक्ति का आचरण पवित्र होता है।
पहले हमको समझना होगा कि ज्ञान क्या है। ज्ञान का अर्थ है वो स्थिति जहाँ अंधेरा दूर हो जाता है और व्यक्ति सत्य को स्पष्ट रूप से देख पाता है। अतः यदि कोई सत्य को न समझ पाए तो उसके पास ज्ञान नहीं है।
सिर्फ सूचनाओं का एकत्रीकरण ज्ञान नहीं है। हम वर्तमान में बहुत सी चीज़ों की जानकारी रखते हैं। पर उनमें से अधिकांश ऐसी होती हैं जो सत्य तक पहुँचने में बिलकुल भी सहायक नहीं होती हैं।
सच्चा ज्ञान अनुभूति से आता है। ईश्वर इस सृष्टि का आधार है। ये सच होते हुए भी तब तक एक सूचना है जब तक हम स्वयं इसका अनुभव न करें।
ईश्वर की सत्यता की अनुमति के लिए हमें अभ्यास द्वारा अपनी इंद्रियों को वश में करके अपने अंतःकरण में इस सत्य को देखना होगा। इसे योग कहते हैं। योग द्वारा जो ऐसा कर पाते हैं उनका मन अपने आप ही पवित्र हो जाता है।
इस अवस्था को प्राप्त करना आसान नहीं है। बहुत अभ्यास के साथ ही हम योग की उस अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं जहाँ अपनी इंद्रियों से ऊपर उठकर हम सत्य की अनुभूति कर सकते हैं।
हरि ॐ तत् सत्