सत्या के लिए - भाग 3 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सत्या के लिए - भाग 3

भाग -3

उसके बड़े संदेहास्पद हाव-भाव को देख कर मैं बड़े असमंजस पड़ गई कि यह क्या हो रहा है? कई बार दरवाज़ा खटखटाने पर जब मैला-कुचैला सलवार, कुर्ता पहने, नंगे पैर एक फूहड़, काली, भद्दी मोटी-सी मुस्लिम औरत ने खोला तो उसे देखकर मैं डर गई। वह अजीब चोर नज़रों से मुझे देखती हुई हर्षित से बोली, ‘अंदर आ बाहर क्यों खड़ा है।’

“वह मोटर-साइकिल पर पीछे बैग को खोल रहा था। जब वह मेरा हाथ पकड़ कर अंदर चलने लगा तो मैं ठिठक गई। मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा था। लेकिन मेरे ठिठकते ही वह मुझे क़रीब-क़रीब खींचता हुआ अंदर लेकर चला गया। अंदर बकरियों, मुर्गियों की गंदगी, बदबू से मेरी नाक फटने लगी।

“मुझे अब यह विश्वास हो गया कि मैं ठगी गई। मैं लव-जिहादी के धोखे, षड्यंत्र का शिकार हो गई हूँ। उसी समय मेरे कानों में उसकी एक बहन की आवाज़ सुनाई दी, “अब्बू उठो, हारून भाई-जान अपनी बीवी को लेकर आ गया है।” उसकी बात मेरे कानों में पिघले शीशे सी घुस गई।

लव-जिहाद के बारे में मीडिया से लेकर सोशल-मीडिया तक हर जगह देखती सुनती रहती थी। मगर मैं भी इसका शिकार हो जाऊँगी कभी नहीं सोचा था। मैं उसके ऊपर बिगड़ गई। मैंने उससे चीख कर कहा, “तुमने मुझे धोखा दिया। तुम हर्षित नहीं हारून हो, मुसलमान हो। मैं यहाँ नहीं रहूँगी। मेरा तुम्हारा अब कोई सम्बन्ध नहीं है।”

मैं चीखती हुई घर से बाहर की ओर भागी, लेकिन उसने झपट कर मुझे दबोच लिया। अब-तक उसकी बहनें, भाई, छोटे–बड़े दर्जन भर बच्चे, सब ने मुझे घेर लिया। उस जानवर हारून ने मेरी चोटी खींच कर मुझे ज़मीन पर पटक दिया। इसके बाद पूरा झुण्ड मुझे खींचता हुआ भीतर कमरे में ले गया। वहाँ सब ने मुझे बुरी तरह पीटा।

मेरी नाक-मुँह से ख़ून आने लगा। मेरे मुँह में कपड़ा ठूँस कर बाँध दिया, जिससे मेरी आवाज़ घर से बाहर नहीं जाने पाए। जब मैं बेहोश हो गई तो जानवरों ने मुझे उस गंदी नरक सी कोठरी में बंद कर दिया।

पूरे परिवार ने मुझे पीटा था। उसके लंगड़े अब्बू, घिनौनी भैंस अम्मी, सबने। बहुत देर रात को जब मुझे होश आया तो मैं समझ नहीं पाई कि कितने बज रहे हैं। कोठरी में कहने भर को लाइट थी। मेरे मुँह से कपड़ा निकाल दिया गया था। हाथ-पैर भी खुले हुए थे।

पूरा शरीर जगह-जगह गहरी चोटों के कारण सूज गया था, काले निशान पड़ गए थे। मुझे बहुत तेज़ प्यास लगी हुई थी। बाथरूम भी जाना चाहती थी। जब मैं ज़मीन पर उठी तो देखा मेरे बदन पर एक कपड़ा नहीं था।

मैंने दरवाज़ा खोलने की कोशिश की तो मालूम हुआ कि वह बाहर से बंद है। बाहर पूरे झुण्ड की चख-चख की आवाज़ आ रही थी। मैं वहाँ किसको आवाज़ देती, किससे मदद माँगती, जिसको हर्षित समझा था वह हारून नाम का धोखेबाज़ मक्कार जानवर निकला था। पूरा परिवार ही मक्कार जाहिलों का झुण्ड था। मुझे लगा कि अब मेरा बचना मुश्किल है। ये झुण्ड अन्य लव-जेहादियों की तरह पहले मुझे ख़ूब यातना देगा फिर कहीं मार काट कर फेंक देगा।

मैंने सोचा जब मरना ही है तो हर कोशिश करूँगी यहाँ से निकलने की। ख़ुद को इस झुण्ड के सामने ऐसे ही नहीं छोड़ दूँगी कि जैसे चाहें मुझे वैसे आराम से मारें काटें फेंकें। आख़िर मैंने दरवाज़े को जब दो-तीन बार खटखटाया तो वह कमीना अपनी एक भैंस सी डरावनी बहन के साथ आया।

आते ही मुझे माँ-बहन की कई गालियाँ देते हुए कहा, “सुन तुझको अब यहीं रहना है, अगर ज़रा सी भी कोई गड़बड़ की तो तेरी बोटी-बोटी काट कर यही गाड़ देंगे।”

मैंने कहा, “ठीक है, तुम लोग जो कहोगे वह करूँगी, मुझे मेरे कपड़े दे दो।”

तभी उसकी दूसरी बहन आ गई। उसके हाथ में एक मैला-कुचैला सलवार कुर्ता था बस। अंदुरूनी कपड़ा एक भी नहीं था। उस जानवर ने भी गाली देते हुए मेरे मुँह पर कपड़ा मार कर कहा, “ले पहन।”

वो मेरे कपड़े नहीं थे, तो उससे मैंने कहा कि “मेरे कपड़े दे दीजिए।”

तो वह जंगली सूअर सी मुझ पर झपटी। गंदी-गंदी गालियाँ देती हुई तीन-चार थप्पड़ मार कर बोली, “यही हैं तेरे कपड़े। पहनना है तो पहन, नहीं तो ऐसे ही मर करम जली काफ़िर कहीं की।”

जब-तक मैं कुछ समझी तब-तक उस कमीने ने भी मुझे दो-तीन थप्पड़ और लात मारी। मैं फिर ज़मीन पर एक तरफ़ लुढ़क गई।

आख़िर मैंने वही कपड़े जल्दी से पहन लिए। वह सब अब भी सिर पर सवार थे। मैंने बाथरूम जाने की बात कही तो दोनों भैंसें मुझे बड़ी गंदी-गंदी बातें कहती हुई बाथरूम के नाम पर नरक-सी एक जगह ले गईं, जिसमें दरवाज़ा भी नहीं था। एक गंदे मोटे चीथड़े से बोरे का पर्दा पड़ा था।

मैंने सोचा कि दोनों वहाँ से हट जाएँगी, लेकिन दोनों वहीं पर प्रेतनी सी खड़ी रहीं, निर्लज्ज कहने पर भी नहीं हटीं। निकल कर जब मैंने हाथ-मुँह धोने के लिए पानी चाहा, तो बग़ल में एक छोटी सी जगह में पहुँचा दिया। जहाँ एक ड्रम में गंदा बदबूदार पानी भरा था। मुझे वही यूज़ करने के लिए विवश किया।

मुझे बहुत तेज़ प्यास भी लगी थी। मैंने पीने का पानी माँगा तो उन्हीं में से एक भैंस बोली, “इतना पानी सामने है, दिख नहीं रहा, पीना है तो पी, नहीं तो मर।”

इतनी चोटों के बावजूद ग़ुस्से से मेरा ख़ून खौल रहा था। मैंने मना करते हुए कहा, “यह बाथरूम का गंदा पानी है, मुझे पीने वाला साफ़ पानी दीजिए, बहुत प्यास लगी है।”

वहीं पास में ज़मीन पर पसरी बैठी उसकी अम्मीं जानवरों की तरह डकारती हुई चिल्लाई, ‘वहीं ले जाकर बंद कर दे, साफ़ पानी भी मिल जाएगा, सारी प्यास भी ख़त्म हो जाएगी।’ साथ ही कई घिनी-घिनी गालियाँ दीं। लड़कियों, औरतों के मुँह से वैसी गंदी गालियाँ मैं पहली बार उन्हीं सब से सुन रही थी।

“उसकी बातें सुनते ही दोनों भैंसों ने मुझे बालों से पकड़ कर खींचते हुए ले जाकर उसी कमरे में बंद कर दिया। मैं पानी माँगती रह गई, लेकिन बदले में गालियाँ और मार मिली।”

“ओफ़्फ़, बहुत ही कमीने लोग थे, फिर क्या हुआ?”

“फिर मुझे दो दिन तक खाना-पानी कुछ नहीं दिया गया। पिटाई और भूख-प्यास से मैं एकदम मरणासन्न हो गई। इन दो दिनों में मार गालियों के अलावा एक और नारकीय काम भी मेरे साथ बराबर होता रहा।

वह पाँचों नारकीय जानवर भाई मेरा शारीरिक शोषण करते रहे। जिसे जब मर्ज़ी होती थी, दरवाज़ा खोलता था, जानवरों की तरह मुझ पर टूट पड़ता था। इस दौरान यातना से जब मेरी चीख निकलती तो उन निर्लज्ज भैंसों, पूरे कुनबे की हँसी सुनाई देती।

कुनबे की नीचता तो यह थी कि दरवाज़े को खोल-खोल कर झाँकते भी थे। मैं तड़प उठती थी कि कुछ तो ऐसा हो कि मैं इनकी बोटी-बोटी कर सकूँ।”

यह सुनकर अचंभित होते हुए मैंने कहा, “सच में नीचता की हद पार दी उन सबने। ये लव-जेहादी नीचता के दल-दल में कितने नीचे जा सकते हैं, इसकी कोई सीमा ही नहीं दिखती। इनसे किसी मानवतावादी काम की आशा रखना ही पागलपन है। क्योंकि घुट्टी तो इनको यही पिलाई जाती है कि काफ़िरों को जितना यातना दोगे, मारोगे, उतना ही ज़्यादा सवाब मिलेगा, जन्नत में बहत्तर हूरें मिलेंगी।

“सदियों से ये काफ़िरों या किसी भी ग़ैर मुस्लिम की हत्या करके बड़े शान से गाज़ी की उपाधि धारण करते आ रहे हैं। आज भी इनकी गाड़ियों पर जो शान से गाज़ी लिखा देखती हैं, वह इनकी इसी कट्टर मज़हबी सोच का प्रतीक है। मैं बड़े अचम्भे में हूँ कि इतनी गंदी, क्रूर यातना इन कट्टर मज़हबी जेहादियों के कारण आपको झेलनी पड़ी।”

“इनकी दरिंदगी की हद इतनी ही नहीं है, अभी और सुनिए, हद की सीमा भी तब पार कर गई जब उसका लंगड़ा अब्बा भी आया। कमीना डंडा लेकर खड़ा हो पाता था। देख कर लगता जैसे इसकी अभी जान ही निकल जाएगी।

आकर जानवरों की तरह टूट पड़ा। ख़ुद को सँभाल नहीं पा रहा था। बार-बार मुझ पर ही गिर जा रहा था। जब कुछ न बन पड़ा तो उस लंगड़े सूअर ने अपने डंडे से मुझे कई डंडे मारे और फिर हाँफता-काँपता, घिसटता हुआ चला गया।

इन सबके चलते हफ़्ते भर में ही मैं इतनी कमज़ोर हो गई थी कि ठीक से खड़ी भी नहीं हो पाती थी। सब इतने शातिर, होशियार थे कि मैं किसी भी तरह, कहीं से निकल कर भाग न सकूँ, इसके लिए मुझे बिना कपड़ों के ही कमरे में बंद रखते थे।

आठ-दस दिन बाद ही एक दिन एक मुल्ले को बुलाया और मेरी गर्दन पर चाकू रखकर, मेरा धर्मांतरण कर दिया। मैं पक्की मुसलमान बनी रहूँ हमेशा, इसके लिए उसी दिन मेरा खतना करने की तैयारी थी . . .

“आपका खतना! . . .”

“हाँ मेरा . . . “

“लेकिन यह तो जेंट्स का होता है, उनके प्राइवेट पार्ट के कुछ हिस्से काट कर निकाल देते हैं। लेडीज़ में क्या . . .”

“लेडीज़ में भी होता है। उनके प्राइवेट पार्ट के क्लिटोरिस हुड और लैबिया माइनोरा के भीतरी हिस्से को काटकर निकाल दिया जाता है। कई बार तो इससे भी आगे जाकर एक्सटर्नल जेनेटाइल को निकाल कर यूरिन, पीरियड हो पाए बस इतनी जगह छोड़ कर हमेशा के लिए स्टिचिंग कर दी जाती है। दाउदी मुस्लिमों में तो क़रीब अस्सी परसेंट औरतों का खतना होता है . . .”

“हे भगवान, इसके बाद तो उनके जीवन में बचता ही क्या है। वो तो एक संवेदनहीन रोबोट बन कर रह गईं।”

“औरतों के सेक्सुअल प्लेज़र को नष्ट करना ही तो उनका उद्देश्य है। और यह सब शेविंग करने वाले मामूली ब्लेड से ही कोई बुज़ुर्ग औरत, कई बार तो मर्द ही कर देते हैं। कोई डॉक्टर वग़ैरह नहीं।”

“तो आप कैसे बचीं?”

“बस संयोग कह सकते हैं। क़ानूनी शिकंजे से बचने के फेर में वो कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते थे, उसी के चलते पहले मेरा निकाह पढ़वाना ज़रूरी समझा गया। और फिर उसी समय गिरगिट हारून से मेरा निकाह भी पढ़वा दिया।

“यह सब होता रहा लेकिन मुझ में इतनी शक्ति नहीं थी कि मैं सब-कुछ ठीक से समझ पाती और कुछ विरोध करती। कमीनों ने सुहागरात की नौटंकी भी सजाई और हारून की जगह उसका बड़ा भाई मेरा जानवरों की तरह शोषण करके चला गया।

“उन पाँचों में से चार का निकाह हो चुका था। घर में छोटे-बड़े कुल मिलाकर क़रीब डेढ़ दर्जन बच्चे थे। हारून भी शादी-शुदा था। उसके भी तीन बच्चे थे। वह काम-धाम कुछ नहीं करता था। बस चोरी-चमारी, दलाली के सहारे चल रहा था। घर के सारे आदमियों का यही हाल था।

“मुझे इस तरह से फँसा कर, मेरा धर्मांतरण करा कर, उस झुण्ड ने बड़े सवाब का काम किया था। एक काफ़िर को इस्लाम क़ुबूल करवाया था, पुरस्कार-स्वरूप जन्नत में बहत्तर हूरें इंतज़ार कर रही हैं, पूरा कुनबा इसी ख़ुशी में फूला नहीं समा रहा था।”

“ओह, लेकिन मेहनत तो औरतों ने भी की थी, उन्हें क्या मिलेगा?”

“हं . . .अ . . . अ . . . इतने दिनों में इनकी तमाम बातें सुनी जानीं। औरतों के हिस्से में केवल इतना आता है कि वो दोयम दर्जे की प्राणी हैं, मर्दों की खेती हैं, वो जिधर से चाहें उधर से उसमें प्रवेश करें।”

“क्या! क्या उनके यहाँ औरतों की ऐसी ख़राब हालत है।”

“जितना सोच सकते हैं आप, उससे भी ज़्यादा। जब उनके यहाँ औरत को दोयम दर्जे का और मर्दों की खेती माना जाता है तो उनकी दयनीय हालत का अंदाज़ा लगाना कोई कठिन काम नहीं है।”

“हाँ, सही कह रही हैं। फिर आगे क्या हुआ?”

“कुनबे की हालत देख-देख कर मेरे मन में बार-बार यह बात आती कि यह महँगी मोटर-साइकिल, मोबाइल और जो पैसे रोज़ ख़र्च करता है अन्य धर्म की लड़कियों, औरतों को फँसाने के लिए, वह कहाँ से ले आता है? उन सब की योजना यह थी कि जल्दी से जल्दी मुझे बच्चे हो जाएँ, तो उनके बोझ तले दबी मैं उनके तलवों में पड़ी रहूँ, वहाँ से निकलने की सोच भी न सकूँ। मैं कहीं की भी न रह जाऊँ।

“इस बीच घर में आने वाले कुछ मुल्लों की बातचीत से मुझे पता चल गया कि इन सबको इनके तमाम संगठनों द्वारा बक़ायदा हर महीने पैसे दिए जाते हैं। मोटर-साइकिल और मोबाइल दी जाती है कि ज़्यादा से ज़्यादा हिंदू, अन्य धर्मों की औरतों को लड़कियों को फँसाओ, उनका धर्माँतरण करो, ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे पैदा करो और फिर उन्हें तलाक़ देकर छोड़ दो, अगली को ले आओ। इससे तुम्हें सवाब मिलेगा। अल्लाह त’आला तुम्हें जन्नत बख़्शेगा। वहाँ बहत्तर हूरें तुम्हारे लिए हमेशा तैयार रहेंगी। अगर कोई विवाद होता है तो, पूरा समुदाय इन लव जिहादियों की हर सम्भव मदद करता है।

“इन सारी बातों को जानने के बाद मेरी समझ में आया कि यह सब बिना काम-धाम के कैसे इतना बड़ा कुनबा चला रहे हैं। पूरा का पूरा परिवार इस जिहाद में एक दूसरे को मदद कर रहा था।

“उन कमीनों की इसी नीचता भरी सोच का मैं शिकार बनी थी। जिस दिन मुझे यह सारी बातें पता चलीं, मैंने उसी समय तय कर लिया कि जो भी हो एक न एक दिन तो अवसर मिलेगा ही और तब मैं यहाँ से निकल कर इन सबको इनके कुकर्मों की सज़ा दिलाकर ही रहूँगी।

“इस बीच यदि प्रेग्नेंट हुई तो जैसे भी हो मैं अबॉर्ट करवा दूँगी। बच्चा हो भी गया तो उस गिरगिट की औलाद को मैं छुऊँगी भी नहीं। क्योंकि गिरगिट की औलाद गिरगिट ही होगी, वह भी इसी की तरह कुकर्मी होगा। जैसे मैं इस कुकर्मी का शिकार हुई, वैसे कोई और नहीं हो।”

यह कहते-कहते ग़ुस्से से उसका चेहरा लाल हो उठा। मैंने कहा, “आपका ग़ुस्सा, घृणा स्वाभाविक और न्यायोचित है। उस नर्क से बाहर कैसे निकलीं? अवसर कैसे मिल गया।”

फिर कुछ याद करती हुई वह बोली, “मैं हर क्षण अवसर ढूँढ़ ही रही थी। क़रीब तीन महीने हुए होंगे कि एक दिन मुझे लगा कि शायद मैं प्रेग्नेंट हो गई हूँ। मेरा ख़ून खौल उठा। मैंने सोचा चाहे जो भी हो जाए, मुझे यदि इस नारकीय कोठरी की दीवारों पर सिर पटक-पटक कर जान देनी पड़ी तो भी दे दूँगी, लेकिन एक गिरगिट की औलाद को नौ महीने पेट में नहीं रखूँगी।

“हैरान-परेशान मैं रात-दिन सोचती रही, अवसर ढूँढ़ती रही, मगर लकड़बग्घों, सियारों के उस झुण्ड के आधे से अधिक सदस्य सिर पर ही सवार रहते थे, अवसर मिलने की कोई सम्भावना दिख ही नहीं रही थी। देखते-देखते उस नर्क में चार महीने बीत गए।

“मैं अपना पेट देखती तो घबरा उठती, क्योंकि बदलाव दिखने लगा था। मैं रात-दिन रोती। एक दिन मैंने सोचा कि डॉक्टर को दिखाने के बहाने यहाँ से किसी तरह एक बार निकलने का मौक़ा मिल सकता है। डॉक्टर के सामने ही पुलिस बुलवाऊँगी, यहाँ से मुक्ति मिल जाएगी।

“यह सोच कर मैंने हारून से कहा, ‘जो होना था, हो गया। तुम बाप बनने वाले हो अपने बच्चे की ख़ातिर मुझे डॉक्टर को दिखा दो।’ तो वह गालियाँ देता हुआ बोला, ‘साली कैसे बोल दिया मेरा है। बाक़ी भाई जान क्या तेरी . . .’ सूअर ने ऐसी गंदी बात कही कि ज़बान पर नहीं ला सकती।

“सच तो यही था कि उन पाँचों में से किस सूअर का ख़ून था, यह कहाँ पता था? लेकिन मेरा उद्देश्य तो जैसे भी हो वहाँ से निकलना, और पेट में पल रहे सूअरों के ख़ून से मुक्ति पाना था, तो उसकी माँ-बहन, भाभियों सबसे कहा लेकिन सब खिल्ली उड़ाते।

“उन सब का एक ही इरादा था कि जो होगा अपने आप घर में हो जाएगा। बच जाएगी तो ठीक है। नहीं मरती है तो मर जाए। खाना-पानी अब भी मुझको जीने भर का ही मिलता था।”

“वाक़ई सब बहुत क्रूर और जाहिल थे। इतने दिनों के बाद भी आप से कोई ठीक से बात नहीं करता था?”

“मैं कोई उनके परिवार का सदस्य नहीं थी, जो वो मुझसे बात करते। वो तो एक काफ़िर को ग़ुलाम बना कर सवाब कमा रहे थे। तो मुझसे सुबह उठने से लेकर सोने तक जानवरों की तरह काम करवाते थे, टॉयलेट साफ़ कराने से लेकर कुनबे भर के कपड़े धुलवाने तक। जब सब खा लेते थे तब मुझे जूठन मिलता था।”

“हे ईश्वर आप किस नर्क में फँस गई थीं?”

“वास्तव में वह पूरा मोहल्ला ही जिहादियों का मोहल्ला बन चुका है। जो आपस में भी लड़ते-झगड़ते मरते रहते हैं। मुझे आए दिन लड़ाई-झगड़े की आवाज़ें सुनाई देतीं थीं। ऐसे ही एक दिन उसके घर के आस-पास ही झगड़ा हो रहा था।

“बड़ी देर तक लोगों की गाली-गलौज, चीखना-चिल्लाना सुनाई देता रहा। फिर उस चोर-उचक्के के घर के दरवाज़े पर होने लगा। लगा जैसे लोग लड़ते-झगड़ते हुए उसके घर के सामने आ गए।

“फिर कुछ ही देर में पुलिस की गाड़ी का सायरन भी सुनाई दिया। तभी मेरे दिमाग़ में एक आइडिया आया उस नर्क से बच निकलने का। मुझे लगा इससे अच्छा अवसर जल्दी मिलने वाला नहीं।

“मैंने सबसे पहले कोठरी की कुंडी अंदर से बंद कर ली। उसके बाद मैं पूरी ताक़त से बचाओ-बचाओ चिल्लाने लगी। मेरा चिल्लाना था कि झुण्ड के कई सदस्य मेरी कोठरी के दरवाज़े पर लपकीं। उन्होंने खोलना चाहा तो अंदर से बंद मिला। सब घुटी-घुटी आवाज़ में एक के बाद एक गालियाँ देती हुई तुरंत दरवाज़ा खोलने को कहने लगीं, धमकियाँ देने लगीं—खोल दे, नहीं तो आग लगा दूँगी। अंदर ही ख़ाक हो जाएगी।

“अब-तक मैं समझ गई थी कि सारे मर्दों सहित ज़्यादातर सदस्य बाहर हैं। जो मुझे ख़ाक करने को कह रही हैं वो सब बुरी तरह डरी, घबराई हुई हैं। इस समय ये सब कुछ नहीं कर सकतीं, दरवाज़े पर पुलिस खड़ी है। यह सिर्फ़ मेरा मुँह बंद कराने के लिए धमकी दे रही हैं, इसलिए मैंने उन सब की बातों पर ध्यान दिए बिना बचाओ-बचाओ चिल्लाना जारी रखा।

“मेरे खाने-पीने के जो बरतन थे, उनको भी ख़ूब तेज-तेज़ पीटने लगी। सब दरवाज़े को बिल्कुल तोड़ने पर आमादा हो गईं, लेकिन मैं ज़रा सी भी टस से मस नहीं हुई। मुश्किल से दो-तीन मिनट ही बीता होगा कि मुझे मुख्य दरवाज़ा बड़ी तेज़ आवाज़ के साथ खुलता हुआ लगा। मैं और तेज़ चीखने-चिल्लाने लगी।

“इसके साथ ही मैंने तमाम क़दमों की आवाज़ को अपनी तरफ़ बढ़ते सुना। अचानक मुझे एक भारी-भरकम आवाज़ सुनाई दी, “कौन है अंदर?”

“मैंने दरवाज़े की झिरी से देखा पुलिस ही है तो मैं ख़ूब तेज चीखी, ‘मुझे बचाइए, मुझे बचाइए, ये सब मुझे मार डालेंगे।’ यह सुनते ही इंस्पेक्टर चीखा, ‘खोलो दरवाज़ा।’

“मैं फिर चीखी, ‘यह सब मुझे मार डालेंगे।’

तो वह गरजा, “तुम दरवाज़ा खोलो, पुलिस है, कोई तुम्हें कुछ नहीं कर सकता।”

मैंने कहा, “मुझे मेरे कपड़े दिलवा दीजिए, मेरे तन पर कोई कपड़ा नहीं है। इन सबने छीन लिया है।”

“यह सुनते ही वह उन सब पर दहाड़ा, ‘इसके कपड़े लाओ।’ और उन्हें पुलिसिया अंदाज़ में कई गालियाँ दीं।

“कपड़े आते ही उसने कहा, ‘अब खोलो दरवाज़ा।’

“मैंने दरवाज़ा खोल कर एक हाथ बाहर निकाल कर कपड़े लिए। पहन कर बाहर आई, उन्हें सारी बात बताई तो पुलिस मुझे और उन सबको थाने ले गई। मैंने पूरे परिवार के ख़िलाफ़ नाम-ज़द रिपोर्ट लिखाते हुए सब बताया कि किसने क्या किया।

“धोखाधड़ी, अपहरण, जबरन धर्माँतरण, बलात्कार, धमकी, हत्या करने की कोशिश, मारने-पीटने के आरोप में पूरे झुण्ड को गिरफ़्तार कर लिया गया। मेरी हालत इतनी ख़राब थी कि थोड़ी देर में मैं थाने में ही बेहोश हो गई।