सत्या के लिए - भाग 2 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

सत्या के लिए - भाग 2

भाग -2

उसे देखते ही मेरी नींद हिरन हो गई। मुझे लगा कि अब यह बड़ा बवाल करेगी। कोई आश्चर्य नहीं कि मुझे पुलिस के हवाले कर दे, कि मैंने उसके नशे में होने का फ़ायदा उठाते हुए, उसके साथ ग़लत काम किया है। इसने ऐसा किया तब तो मैं तुरंत गिरफ़्तार कर लिया जाऊँगा। कई साल के लिए जेल भेज दिया जाऊँगा।

मैं एकदम हकबकाया हुआ-सा उसे देखता रहा। उसका चेहरा, आँखें सूजी हुई थीं, लाल हो रही थीं, और बहुत भरी-भरी सी भी लग रही थीं। वह एकटक मेरी आँखों में देख रही थी।

मैं उठ कर बैठ गया। मैंने कहा, “सॉरी और कोई रास्ता ही नहीं था। आपकी हालत बहुत ख़राब थी। आपको उसी तरह रात-भर गीले में छोड़ कर चला जाना मुझे ठीक नहीं लगा।”

वह उसी तरह देखती हुई चुप रही, तो मैंने फिर सॉरी बोला, तो उसने एक गहरी साँस लेते हुए कहा कि “आपको सॉरी बोलने की ज़रूरत नहीं है। सॉरी तो मुझे बोलना चाहिए। आपको धन्यवाद देना चाहिए। आपकी हेल्प की वजह से मैं ठीक-ठाक हूँ, अपने घर में आपसे बात कर रही हूँ। मेरी वजह से आपको इतनी ज़्यादा परेशानी हुई। कल मैं बहुत ज़्यादा परेशान थी। मेरी समझ में ही नहीं आया कि मैं कितना पीती जा रही हूँ।”

उसकी इन बातों से मेरा तनाव, मेरा डर बिल्कुल ख़त्म हो गया कि यह मुझे पुलिस को दे सकती है। मुझे उसकी आँखों में शर्मिंदगी, पश्चाताप दिख रही थी। मुझे उठाने से पहले वह नहा-धो चुकी थी। उसने स्लेटी कलर की एक मैक्सी पहन रखी थी।

मैं भी छह-सात घंटे सो चुका था, लेकिन फिर भी बदन टूट रहा था, दर्द कर रहा था। मैंने सोचा कि अब घर चलूँ। तैयार होकर साढ़े नौ बजे तक ऑफ़िस के लिए निकलना होगा। यह पता नहीं ऑफ़िस जाएगी या नहीं। इसकी हालत तो अभी ऑफ़िस जाने लायक़ दिख नहीं रही। मेरी तरह यह भी हैंग-ओवर में दिख रही है।

मैंने उससे कहा, “अब मैं चलता हूँ, तैयार हो कर ऑफ़िस के लिए भी निकलना है।”

उसने फिर से एक गहरी साँस ली और कहा, “क्या आज छुट्टी नहीं ले सकते?”

मेरे लिए यह अप्रत्याशित था। क्या जवाब दूँ मैं सोच रहा था कि तभी उसने कहा, “यदि आपको कोई प्रॉब्लम न हो तो।”

उसकी सारी बातें व्यवहार सब-कुछ मेरे अनुमानों के विपरीत था। मैंने कहा, “नहीं प्रॉब्लम तो कोई नहीं होगी। बताइए क्या बात है?”

“कई बातें हैं, लेकिन मैं सोच रही हूँ कि पहले आपके लिए कॉफ़ी बनाती हूँ।”

मैंने देखा वह बहुत ही ज़्यादा थकी हुई है। ऐसे में इससे कोई काम करवाना ठीक नहीं होगा। यह सोचकर मैंने कहा, “आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। आप जो कहना चाहती हैं, वह कहें, मैं घर जाकर कॉफ़ी वग़ैरह पियूँगा।”

“नहीं परेशान होने वाली कोई बात नहीं है। अकेली होती तो भी बनाती ही।”

मैं कुछ और नहीं कह सका। वह किचन में चली गई। मेरी उलझन बढ़ती जा रही थी कि इसने अभी तक इस बात पर आपत्ति क्यों नहीं उठाई कि मैं इनको लेकर कैसे घर तक पहुँच गया। और सबसे बड़ी बात यह कि इनके कपड़े चेंज करने की हिम्मत कैसे कर ली।

क्या इन्हें इस बात से ज़रा भी ग़ुस्सा नहीं आया कि एक ग़ैर मर्द होकर मैंने जब यह बिलकुल भी होशो-हवास में नहीं थी, तो इन्हें लेकर घर आ गया और उसी स्थिति में इनके कपड़े तक चेंज कर दिए। मैंने इतनी हिम्मत कैसे कर ली। कपड़े गीले ही तो थे, जब उठती तो चेंज कर लेती।

यह तो सीधे-सीधे मेरी इज़्ज़त पर डाका डालना हुआ। मुझे लगा कि यह निश्चित ही अब मेरी इस मूर्खतापूर्ण ग़लती के लिए मुझसे तमाम क्वेश्चन करेंगी, मुझे अपमानित करेगी। लेकिन मैं इस बात के लिए निश्चिंत हो गया कि यह बाक़ी चाहे कुछ भी करे लेकिन कम से कम पुलिस को नहीं देगी।

जब वह दो कप कॉफ़ी लेकर आई तो मैंने कहा, “बस मैं दो मिनट में आया।” बाथरूम में जाकर मैंने जल्दी से उँगली पर पेस्ट लेकर मंजन किया, हाथ-मुँह धोया और जेब से रुमाल निकाल कर पोंछता हुआ आकर बैठ गया।

कॉफ़ी के साथ उसने प्लेट में नमकीन भी रखा था। कॉफ़ी मुझे देती हुई बोली, “मेरे साथ पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। मैं ख़ुद ही स्कूटर चला कर आ जाती थी। एक-दो बार स्कूटर वहीं छोड़ कर कैब से चली आई। कल कैसे क्या हो गया, मैं समझ नहीं पा रही हूँ। मुझे आप सारी बातें बताइए।”

मुझे लगा कि यह आत्म-ग्लानि की आग में झुलस रही है। साथ ही इसके मन में यह भी है कि मैंने क्या और कैसे किया? क्या मेरे साथ कोई और भी था? मैंने एक चम्मच नमकीन उसके हाथ पर देते हुए कहा, “देखिए जो हो गया। उसको याद करके परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। ड्रिंक करते समय ऐसी स्टेज कभी-कभी आ ही जाती है। भूल जाइए उन बातों को। आपने कॉफ़ी सच में बहुत अच्छी बनाई है।”

“धन्यवाद। लेकिन मैं सिर्फ़ यह समझना चाहती हूँ कि मुझसे यह सब कैसे हो गया। यह अच्छा हुआ कि आप वहाँ थे, और घर ले आए। रात का समय था, कोई ग़लत आदमी भी मिल सकता था, मेरे साथ कुछ भी कर सकता था। जान भी जा सकती थी। इसलिए प्लीज़ बताइए मुझे।”

उसके ज़्यादा प्रेशर डालने पर मैंने उसे सारी बातें बताईं कि कैसे उसने बहुत ज़्यादा पी ली, होशो-हवास खो बैठी तो मैनेजर से बात करके किस तरह उसे घर ले आया।

मैंने कपड़े गंदे होने, चेंज करने की बातों को अवॉइड करना चाहा, सोचा ऐसी बातों को क्या दोहराना। लेकिन उसके ज़ोर देने पर मैंने कहा, “आधे रास्ते में था, आपके कपड़े गंदे हो चुके थे। पहले मैंने सोचा कि आपके कपड़ों को कैसे टच करूँ, आपके लिए एक लेटर लिख कर टेबल पर रख दूँ, और बाहर से दरवाज़ा बंद करके मैं अपने घर चला जाऊँ, नंबर आपके पास है ही। जब आप उठेंगी तो मुझे कॉल करेंगी और मैं चाबी लेकर आ जाऊँगा।

“फिर सोचा कि नहीं ऐसी हालत में अकेला छोड़ना ठीक नहीं है। कहीं होश आने पर आप लड़खड़ा कर इधर-उधर गिर न जाएँ, चोट न खा जाएँ। घर बंद रहेगा तो मुश्किल हो जाएगी। मैंने यह भी सोचा कि मैं भी इधर-उधर कहीं लेटा रहता हूँ। जब आपको होश आएगा तो आप ख़ुद ही चेंज कर लेंगी।

“लेकिन स्थिति ऐसी थी कि न तो मैं घर के अंदर बैठ सकता था, न ही बाहर कार में रात बिता सकता था। मैंने नाक पर रुमाल भी बाँधी, लेकिन उससे भी काम नहीं चला। तभी देखा कि दूसरी बार और भी ज़्यादा गीला हो गया। आप ज़मीन पर थीं।

“मैंने सोचा इस तरह गीले में आठ-नौ घंटे पड़े रहने से आपकी तबीयत ख़राब हो सकती है, ऐसी हालत में आपको कौन देखेगा।

“आपके कपड़े टच करते हुए मुझे बहुत डर लग रहा था कि जब आप होश में आएँगी तो मुझे ज़रूर पुलिस में दे देंगी कि मैंने आपकी इज़्ज़त पर हाथ डाला, मेरी हिम्मत कैसे हुई आपके शरीर को छूने, कपड़े उतारने, बाक़ी सब-कुछ करने की। मगर जब आप की हालत पर ध्यान जाता तो मुझे लगता कि नहीं पहले आप को बचाना ज़्यादा ज़रूरी है, बाद में जो होगा देखा जाएगा।

“साथ ही मैं यह भी सोचता कि जब आप सारी स्थिति जानेंगी तो थैंक्यू भले ही नहीं कहेंगी, लेकिन कम से कम पुलिस में तो नहीं देंगी। बस यही सोच कर मैंने सब-कुछ किया। आप इतना ज़्यादा नशे में थीं कि जब मैंने पानी यूज़ किया, तब भी आपकी आँख भी, ज़रा सी भी नहीं खुली।

“अंदर कमरे में जब आपके कपड़े ढूँढ़ने लगा तो मेरे हाथ आपकी मैक्सी लगी। मैंने सोचा कि यह अच्छा हुआ है। इसे पहनाना बहुत आसान रहेगा।

“आपको बेड पर लिटाने के बाद यह पूरा कमरा धोया, कार भी उसी समय धो डाली। कार के फ्रेशनर से बदबू को ख़त्म करने की कोशिश की।

“मैंने सोचा कि अगरबत्ती वग़ैरह कुछ मिल जाए तो जला दूँ। लेकिन फिर यह सोचकर चुप बैठ गया कि इस तरह घर की छानबीन करना अच्छा नहीं। मैं रात जागते हुए बिताना चाहता था, लेकिन सोफ़े पर लेटते ही नींद पर ज़्यादा देर तक कंट्रोल नहीं कर सका और सो गया।

“मेरे इन कामों से यदि आप नाराज़ हैं, आपके कपड़े चेंज करना मेरी ग़लती थी तो क्षमा चाहता हूँ। आप मेरा विश्वास कीजिए चेंज करते समय आपको मैंने सेकेण्ड भर के लिए भी ग़लत नियत से नहीं देखा, नहीं छुआ।”

अपनी बात कहते हुए मैं उसके चेहरे पर आने वाले भावों को समझने का प्रयास करने लगा। जिस पर पछतावा साफ़ दिख रहा था। उसने एक घूँट कॉफ़ी और पीने के बाद कहा, “क्षमा तो मुझे माँगनी चाहिए। आपको शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं। रही बात मेरे बदन को देखने, छूने की तो यही कहूँगी कि कभी मेरे जीवन में एक ऐसा गंदा, कमीना आदमी आया कि उसके बाद कुछ छिपाने बचाने के लिए मेरे पास बचा ही नहीं। कल भी जो कुछ हुआ, वह भी उसी गंदे जानवर के कारण ही हुआ।”

उसकी इन बातों ने मेरी उत्सुकता बहुत बढ़ा दी। मैंने सोचा कि इसका मतलब मेरा अनुमान बिलकुल सही था कि मेरी तरह इसके साथ भी कोई बड़ी समस्या ज़रूर है, तभी यह इस तरह पीती है। मैंने कहा, “यदि मुझे बताने में आपको कोई दिक़्क़त नहीं हो तो बताइए, हो सकता है मैं आपकी कोई मदद कर सकूँ।”

वह कुछ सोचने के बाद बोली, “जो दिक़्क़त है, उससे ज़्यादा बड़ी दिक़्क़त तो कुछ और हो ही नहीं सकती। इसलिए सोचती हूँ कि बात करूँ आपसे। डिस्ट्रिक कोर्ट में मेरा एक मुक़दमा चल रहा है। कल उसकी पेशी थी। मैं अपनी ज़िन्दगी बर्बाद करने वाले को सज़ा दिलाने की कोशिश कर रही हूँ।

“लेकिन कोर्ट में कल मेरे वकील ने जिस तरह से मेरे केस की पैरवी की, उससे मुझे लगा कि मेरा वकील विरोधी पक्ष से मिला हुआ है। जानबूझकर मेरे केस को कमज़ोर कर रहा है। मेरा केस एकदम खुला और एकतरफ़ा मेरे पक्ष में है। एक लव-जेहादी, उसके परिवार ने मुझे धोखा दिया, मेरी हत्या करने की कोशिश की।

“वकील की बातों से जब मेरा संदेह पक्का हो गया, तो मैंने सुनवाई के दौरान ही न्याय-मूर्ति से कहा कि ‘लॉर्ड-शिप मैं अपना वकील बदलना चाहती हूँ, इसलिए मुझे अगली डेट देने की कृपा करें।’ अचानक मेरा इतना कहना था कि वकील जज के सामने ही बड़ी बदतमीज़ी से बीच में ही बोलने लगा।

“लेकिन जज ने कहने को भी उसे नहीं टोका कि अदालत में उसके ही सामने वह ऐसे बदतमीज़ी से कैसे बात करा रहा है। उसकी बदतमीज़ी की अनदेखी करते हुए मुझसे बहुत सख़्त अंदाज़ में पूछा कि ‘आप ऐसा क्यों करना चाह रही हैं?’

“मुझे भी ग़ुस्सा आ गया था, तो मैंने भी साफ़ शब्दों में कहा कि ‘लॉर्ड-शिप कई कारणों से मेरा विश्वास टूट गया है, इसी लिए मैं अपना वकील बदलना चाहती हूँ।’

“मेरा इस तरह स्पष्ट बोलना वकील की ही तरह जज को भी बहुत बुरा लगा। उन्होंने नाराज़ होते हुए कहा, ‘आपको यह बात कार्रवाई शुरू होने से पहले करनी चाहिए थी। बीच कार्रवाई के दौरान ऐसा करना कोर्ट का समय बर्बाद करना है। आप को चेतावनी दी जाती है कि भविष्य में ऐसा दोबारा नहीं करें।’

“इसके बाद उसने और कई बातें कहीं और मुझे दो महीने के बाद की डेट दे दी। मैंने उसी समय उनसे यह भी कहा कि ‘लार्ड-शिप मुझे अपनी सुरक्षा को लेकर बहुत ही ज़्यादा संदेह पैदा हो गया है। मुझे डर है कि मेरी हत्या की जा सकती है। लार्ड-शिप से मेरी रिक्वेस्ट है कि मेरी सुरक्षा सुनिश्चित कराने की कृपा करें।’

“मेरी इस बात पर भी वह नाराज़ हुए कि ‘क्या मुझ पर पहले कोई हमला हुआ है, जब नहीं हुआ है तो केवल संदेह के आधार पर अदालत कोई कार्रवाई नहीं कर सकती। आपको जिस पर भी संदेह है उसका नाम स्पष्ट करिए।’

“उनकी इस परस्पर विरोधी बात से मेरा ग़ुस्सा और बढ़ गया कि एक तरफ़ कह रहे हैं कि संदेह के आधार पर कार्रवाई नहीं करेंगे, दूसरी तरफ़ कह रहे हैं कि जिस पर संदेह हो उसका नाम बताइये। ग़ज़ब तमाशा है।

“अब मैं उनको क्या बताती कि मेरे मुकदमे में एक बात यह भी लिखी गई है कि मेरी हत्या भी करने की कोशिश की गई थी, और अब यह वकील भी मेरे अगेंस्ट हो गया है। ऐसे में मैं बिल्कुल अकेली हूँ। वकील ने उनके सामने ही जिस तरह से मेरे अगेंस्ट कठोर शब्दों का प्रयोग किया, उसके बाद तो कोई संदेह ही नहीं रह गया है कि वह मेरी विरोधी पार्टी से मुझ पर हमला करवा सकता है। लेकिन जज ने उल्टा मुझे ही चार बातें सुना कर, डेट देकर कर भेज दिया।

“मैं जब कोर्ट से बाहर निकली तो मुझे जैसा संदेह था, वैसी ही बातें देखने को मिलीं। मेरी अगेंस्ट पार्टी मुझे सुना-सुना कर भद्दी-भद्दी बातें, अश्लील कमेंट कर रही थी। मेरा वकील भी उन्हीं के साथ मुझ पर टॉन्टबाज़ी कर रहा था। इससे मैं बहुत ज़्यादा आहत हो गई थी।

“मैं बहुत निराश हो गई कि अब मुझे कभी कोई न्याय मिल पाएगा। एक न एक दिन जेहादियों का वह झुण्ड मुझे मार ही डालेगा। उनका पूरा कुनबा एकजुट है। मज़हब के नाम पर उनका पूरा समाज उनके साथ है। हर महीने सब पैसा इकट्ठा करके उसे मुक़दमा लड़ने के लिए देते हैं। इसी मोटी रक़म से उन सबने हमारा वकील भी ख़रीद लिया। मैं अकेली कब-तक इन सब का सामना करूँगी। इसीलिए शाम को मैं इतना अपसेट हो गई थी कि मैं कहाँ हूँ, कितनी पीती जा रही हूँ, इसका भी ध्यान नहीं रख पाई।

“यह भाग्य ही था कि आपसे कुछ दिन पहले से ही बातचीत शुरू हो गई थी, और आप एक भले आदमी की तरह मुझे यहाँ ले आए। नहीं तो कल रात न जाने क्या होता। न इज़्ज़त बचती, न जान।”

मुझे अंदाज़ा नहीं था कि वह ऐसी विकट समस्या से घिरी हुई है। मैंने कहा, “देखिए जैसे संदेह होने पर आपने वकील हटाया है, वैसे ही अपना केस दूसरी अदालत में लेकर जा सकती हैं। वैसे ऐसी क्या बात हो गई थी कि बात मुकदमें तक पहुँच?”

यह सुनते ही वह और ज़्यादा गंभीर हो गई। कुछ देर खोई-खोई सी, कुछ सोचने के बाद उसने जो बातें बताईं वह सुनकर मैं अचंभित हो गया। मुझे बड़ा ग़ुस्सा आया प्रदेश और देश की सरकारों पर और ख़ुद पर भी। कि मैं अब तक सेकुलरिज़्म का राग अलापने वाले भांडों के झाँसे में आकर एक कटु सत्य को झूठ क्यों मानता रहा और सच को झूठ बताने वाले सेकुलर गैंग को क्यों वोट देता चला आ रहा था।

सरकार के पास तो सारी बातों की जानकारी रहती है, आख़िर इन लव-जेहादियों के विरुद्ध कोई कठोर क़ानून क्यों नहीं बना रही है, कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर रही। हर साल हज़ारों हिंदू, सिख, ईसाई, पारसी लड़कियाँ, औरतें लव-जिहाद का शिकार होकर अपनी जान से हाथ धो रही हैं। परिवार के परिवार बर्बाद हो रहे हैं।

फिर भी सेकुलर गैंग तुष्टीकरण, वोट के लिए यह झूठ स्थापित करने में लगा हुआ है कि लव-जिहाद नाम की कोई चीज़ नहीं है। अभी एक लव-जेहादी द्वारा दिल्ली में एक लड़की के पैंतीस टुकड़े करने की बात पुरानी भी नहीं हो पाई है कि दूसरे जेहादी ने लड़की के पचास टुकड़े कर के फेंक। उसकी त्वचा तक खींच कर निकाल दी थी।

और फिर भी यह मक्कार सेकुलर गैंग झूठ बोलकर लोगों की आँखों पर पर्दा डालने की कोशिश करता चला आ रहा है। और हम जैसे मूर्ख इसी झूठ में फँसते चले आ रहे हैं। अक्टूबर दो हज़ार नौ में केरल कैथोलिक बिशप काउन्सिल और दो हज़ार चौदह में सिख काउन्सिल और हिन्दू संगठन तो बीसों साल से कह रहे हैं, चर्चों ने दो हज़ार बीस में फिर दृढ़ता से कहा, केरल हाई-कोर्ट तक ने कहा, फिर भी इन मक्कारों ने इतना झूठ फैला रखा है कि सच मुझे भी नहीं दिखाई दिया।

मैंने उसी समय दृढ़ता से यह सोचा चाहे जैसे भी हो, जो भी हो लव-जिहाद की शिकार इस महिला का हर स्तर पर सहयोग करूँगा, इसे न्याय दिला कर ही रहूँगा, अगर इस कोर्ट में नहीं तो दूसरे कोर्ट से।

मैंने उससे जब अपनी इच्छा ज़ाहिर की तो वह आश्चर्य से मुझे देखने लगी। मैंने कहा, “आप मेरा विश्वास करिए, मैं हर स्थिति में अंतिम साँस तक आपका सहयोग करूँगा, आपको न्याय दिलवाए बिना पीछे नहीं हटूँगा। एक इंसान होने के नाते यह मेरा कर्तव्य भी है।

“मैं आपके लिए कुछ कर सकूँ इसके लिए यह ज़रूरी है कि आप मुझे सारी बातें विस्तार से बताइए। जिससे कोर्ट में अगली पेशी तक सारी तैयारी कर ली जाए और आप पूरी मज़बूती से अपनी बात कोर्ट में रखें, और कोर्ट न्याय देने के लिए आगे आए।”

वह मेरी बातों को ध्यान से सुन ही नहीं रही थी, बल्कि मेरे भावों को पढ़ने का भी पूरा प्रयास कर रही थी। यह मैं अच्छी तरह समझ रहा था।

उसने मेरी आँखों में गहराई से देखते हुए कहा, “आप पहले ठीक से सोच-समझ लीजिए। काम बहुत कठिन है और समय भी बहुत लगेगा। अदालत के चक्कर काटते हुए कई साल निकल चुके हैं, लेकिन अभी तक कोई ख़ास प्रोग्रेस नहीं हुई है।”

मैंने कहा, “विश्वास कीजिये, मैंने सब सोच-समझ कर ही कहा है। अब और सोचना भी नहीं चाहता। आप यह बताइए कि क्या आपके परिवार के लोग आपको सपोर्ट नहीं कर रहे, भाई-बहन, माँ-बाप परिवार में और कोई . . .”

“मुश्किल तो यही है कि सब हैं, मगर होकर भी नहीं है।”

“क्या मतलब? मैं समझा नहीं।”

“मतलब यह कि माँ-बाप, भाई-बहन सब हैं। मगर कमी है तो यह कि जेहादियों का कुनबा, झुण्ड हर मामले में जिस तरह एकजुट होकर मज़बूती से आगे बढ़ता है, वह नहीं है। बस सहयोग के लिए सहयोग की बात थी तो मैंने सोचा क्यों इन लोगों को धर्म-संकट में डालूँ। फिर मैंने ख़ुद ही सबसे स्वयं को अलग कर लिया।”

“ओह, अच्छा ही किया आपने, ऐसी स्थिति में इससे अच्छा कुछ और नहीं हो सकता। वैसे परिवार कहाँ रहता है?”

“देवबंद में रहता है। माँ-बाप, दो बहन और एक भाई है। वहीं माँ त्रिपुर बाला सुंदरी मंदिर से कुछ दूरी पर है घर। वहीं एक छोटी सी मार्केट में फ़ादर की दुकान है। मैं सबसे बड़ी हूँ। शहर से दूर गाँव में दो बीघा खेत भी है।

“खेती-बाड़ी का काम देखने के लिए फ़ादर जब चले जाते थे तो कई बार माँ के साथ मैं भी दुकान पर बैठ जाती थी।

“वहीं पर हर्षित बाजपेई आता था। सामान लेने-देने के बहाने वह मुझसे बातें करने लगा। जल्दी ही मैं उसकी मीठी-मीठी बातों में फँस गई। ऐसे में जो होता है, वही हुआ। घर में बवाल शुरू हो गया। और मेरी आँखों पर पट्टी बँध गई। माँ-बाप घर वालों की बातें ज़हर लगने लगीं। हर्षित के बहकावे में आकर मैंने उसके साथ भाग कर मंदिर में शादी कर ली। वह मुझे बाइक से लेकर दिल्ली चला गया। वहाँ से मुश्किल से डेढ़-दो घंटे का रास्ता है।

“दिल्ली में पहले दिन वह अपने एक दोस्त के यहाँ रुका और मेरा जानवरों की तरह शारीरिक शोषण किया। उसका ऐसा बदला रूप देखकर मैं दंग रह गई। शादी से पहले भी बहुत बार शारीरिक संबँध बनाए थे उसने, मगर तब जानवर नहीं बना था, अननेचुरल नहीं था। वह सीलमपुर की एक तंग बस्ती में छोटे से मकान में हफ़्ते भर रहा। उसका कोई दोस्त वहाँ पर दिखाई नहीं दिया।

“उसने कई काग़ज़ों पर मुझ से दस्तख़त कराए। मेरा वीडियो बनाया कि मैं बालिग़ हूँ और पूरे होशो-हवास में अपनी इच्छा से हर्षित से मंदिर में शादी की है। मुझे मेरे माँ-बाप, भाई-बहन परेशान कर रहे हैं। मेरी और मेरे पति हर्षित को उनसे जान का ख़तरा है।

“मैंने कहा यह तो झूठ है, ‘ऐसा तो कुछ भी नहीं है। वह सब तो इतने सीधे हैं कि कभी लड़ाई-झगड़ा तक नहीं करते।’ तो उसने कहा, ‘घबराने की ज़रूरत नहीं है। मैं ऐसे ही बना रहा हूँ। उन लोगों ने पुलिस में रिपोर्ट की है। पुलिस तुमको, हमें गिरफ़्तार न कर ले, परेशान न करे, इसलिए इसे बना रहा हूँ।’

“इसके बाद वह मुझे लेकर थाने गया और इसी तरह की बातें लिखते हुए एक एप्लीकेशन दिलवा दी मेरी तरफ़ से कि मुझे, मेरे पति को मेरे परिवार से जान का ख़तरा है। पुलिस समझ रही थी कि सच क्या है? लेकिन क़ानून ने उसके हाथ ऐसे बाँधे हुए हैं, कि सच सामने होते हुए भी वह झूठ का साथ देने के लिए विवश दिखी। धिक्कार है ऐसे क़ानून को, जो कुकर्मियों, चोर-मक्कारों के सामने विवश हो जाए।

“उसकी चालाकी धूर्तता का असली रूप मेरे सामने आता जा रहा था। दूसरे मकान में वह महीने भर रहा। वह मुझे रोज़ बिना कारण पीटता था, मुझे एक पल को भी अकेला नहीं छोड़ता था। मेरा मोबाइल छीन लिया था। मैं किसी से बात भी नहीं कर सकती थी।

“रोज़ कई-कई बार जानवरों की तरह मेरा शारीरिक शोषण करता था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि उसके पास पैसे कहाँ से आ रहे थे। मैं जो पूजा-पाठ करती थी, उसने वह सब बंद करवा दिया।

“मेरे गले में एक माला पड़ी हुई थी, जिसमें माँ त्रिपुर बाला सुंदरी की फोटो की लॉकेट था, उसने वह भी निकलवा दिया। उसे ले जाकर कहाँ क्या किया, मुझे उसकी कोई जानकारी आज तक नहीं हुई।

“मगर देखिये मेरी आँखों पर पट्टी इस तरह बँधी हुई थी कि मुझे तब भी उस पर यह शक नहीं हुआ कि कहीं यह कोई लव-जिहादी तो नहीं है। मैंने इतना भर सोचा कि हो सकता है कि यह नास्तिक हो। पहले केवल मेरा मन रखने के साथ मंदिर चला जाता था।

“महीने भर के बाद ही एक दिन बोला कि ‘मेरे घर वाले इस शादी से नाराज़ नहीं हैं। घर वापस बुलाया है।’ मैं ख़ुश हुई कि चलो घर पर रहेगा तो मुझे इस तरह मारेगा-पीटेगा नहीं। अननेचुरल यातना से मुक्ति मिलेगी। घर में सब के साथ रहेंगे। सास-ससुर, नंद-देवर से मिलेंगे। लेकिन जब वह मुझे लेकर वापस घर देवबंद पहुँचा, तो उसका घर देखकर मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

“शहर के एकदम पिछड़े इलाक़े की मुस्लिम बस्ती में एक टूटा-फूटा, अस्त-व्यस्त सा मकान था। मैंने दरवाज़े पर ही पूछा कि ‘यह कहाँ ले आए हो?’ तो वह गँवारों की तरह डाँट कर बोला, ‘चुप रहो।’