माफ कर देता हूँ,
भूलता नही..
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फ्रायड कहता है- हर एक्शन के मूल में कुछ मूलभूत स्वार्थ होते है।
लालच,
नफरत,
वासना
और भय..
मूल स्वाभाविक गुण, जिनके साथ मनुष्य पैदा होता है। और सम्पूर्ण जीवन की यात्रा इन्हें साधने, या ढंकने की होती है।
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जो ढंक ले, साध ले, वह सुंदर है। जो न ढंक पाया , वह नग्न है। यथावत उतना ही नंगा, जैसा वह पैदा हुआ था।
शिक्षा, संस्कार, दर्शनशास्त्र, धर्म ( पंथ नही) आपको ढंकना सिखाते हैं, वस्त्र पहनाते हैं। सुंदर बनाते हैं। क्योकि कपड़े इंसान ने सुंदर दिखने के लिए पहनना शुरू किया, ठंड वंड से बचने को नही।
तो जब आप मूल स्वाभाविक गुणों को ढंकना सीख जाते है, याने कपड़े पहनना आने लगता है, तब आप नग्नता में सौंदर्य नही पाते।
नए नए फैशन के कपड़े पहनते है, आईने में देखते है, इठलाते हैं। याने नए विचार अपनाते हैं, जो जन्मजात नही होते। ये है सहिष्णुता, क्षमा, अहिंसा, ह्यूमिलिटी, एडजस्टमेंट, सेक्रिफाइस, लेटिंग इट गो..
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यह सम्भव है कि नितांत निजी क्षणों, निजी मामलों में आप वस्त्रहीन हों जाएं। मुखौटा उतार दें। लेकिन सार्वजनिक रूप से नग्नता का प्रदर्शन, पागलपन और भौंडा ही माना गया है।
ऐसे में यह मानते हुए की किन्ही निजी हालात में आप किसी मूल मानवीय स्वभाव के वशीभूत हो गए। चोरी कर ली, झूठ बोला, धोखा दिया..
ऐसी मानवीय कमजोरी, ऐसे स्वार्थ को मैं समझ सकता हूँ, किसी लाभ के लिए, लालसा में स्लिप को दरकिनार कर, आपको स्वीकार कर सकता हूँ। माफ कर सकता हूँ।
यह सच है, की कृत्य भूल नही पाता..
दोबारा फिर भरोसा, नही कर पाता।
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पर विंगत आठ दस सालों में जिन लोगो ने अपने रंग दिखाए हैं, उन्हें माफ करना भी मुश्किल है।
बरसों तक सार्वजनिक रूप से नफरत का प्रदर्शन, भय को बताकर हिंसा का जस्टिफिकेशन, और खास तौर पर इसके तोड़ मरोड़ किस्म के पौराणिक उदाहरण देकर इस प्रवृत्ति को मेरे धर्म (पन्थ) का अनिवार्य हिस्सा बताना..
तर्क करने पर न धर्म विरोधी,
देशद्रोही कहना..
एक निहायत मेडिकोर, नकली, नीच, घटियामुखी, कुवाची, क्रिमिनल माइंड आदमी को इस महान धर्म, और इस महान देश की राजनीति का सबसे बड़ा आइकन बनाना..
दिन रात उसकी झूठी प्रशंसा के गीत गाना, उसके झूठ भरे किस्से सुनाकर शेखी बघारना...
हासिल क्या था इसका???
देशभक्ति का फील ???
ताकत का अहसास??
या भीतर जमी सख्त नफरत का स्खलन??
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लोग अब आ रहे है...
वे अपने लोग जिन्हें पिछले कुछ बरसो में छोड़ दिया था, डपट दिया था। भाव देना, कॉल करना, मिलना बंद कर दिया था। अब लौटकर आ रहे हैं।
- "अभय भाई, ठीक लिखते थे"
- "हां यार, सच मे ये आदमी झूठा है"
- "अरे, अपन दुश्मन थोड़ी न थे भाई"
तो इन शब्दों से मुझे कोई विजय की ध्वनि नही आती। दरअसल वितृष्णा होती है।
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आपका कोई निजी लाभ होता, दो पैसे कमा लिए होते, दो छोरियां पटा ली होती, किसी ईर्ष्यालु दुश्मन से बदला लेने का मोटिव होता- तो मैं मान लेता।
कि तुम्हारा स्वार्थ था।
स्वार्थपूर्ति में लगे थे।
जाओ माफ किया
पर यहां तो कोई लाभ नही, स्वार्थ नहीं।
- तुम निस्वार्थ नफरती बने।
- निस्वार्थ दंगा किये।
- निस्वार्थ झूठ बोले।
- निस्वार्थ तुमने देश, समाज के वृहत्तम आइकन्स पर थूका।
- निस्वार्थ अपने, मेरे, 140 करोड़ लोगों के 15 सुनहले सालो में आग लगा दी।
दूसरे धर्म, दूसरी जातियां, दूसरे मनुष्यो (जो बेसिकली सँख्या, या सामाजिक स्तर में तुमसे छोटे थे) के प्रति तुम्हारा अंहकार पूर्ण, जनसंहारी सोच-
यह भी परमनिस्वार्थ भाव से परिपूर्ण थी।
अरे, तो तुम्हारे पास वह स्वार्थ, वह मजबूरी भी नही, जिसके प्रति सिम्पेथेटिक होकर मैं यह सब माफ कर दूं??
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समाज मे सेनिटी लौट रही है। टेम्परेचर कूल हो रहा है। लोग होश में आ रहे हैं। लेकिन इन्हें माफ करने का दिल नही।
इन लोगो ने दिखाया है कि ये भीतर से गलीज, दोहरे, नीच किस्म के जीव हैं। ये पास रखने, यारी करने, रिश्ते बनाने लायक जीव नही।
ऐसे सभी फ्रेंड, अंकल, दोस्त, रिश्तेदार,
जो लौट रहे हो, याद रहे..
आप शादी ब्याह, पार्टी आदि ओकेजन पर बुलाये जाते तो रहेंगे, लेकिन आपसे गले मिलने में सदा घिन आएगी।
तुमसे कभी दिल न मिल पायेगा। पास बैठा न जायेगा। तुम्हे माफ कर पाऊंगा नही।
और भूलता तो कभी भी नही।