वंश - भाग 6 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वंश - भाग 6

छह

दरवाज़े की घण्टी की आवाज़ सुनकर जब सुष्मिताजी ने दरवाज़ा खोला तो सामने का नजारा देखकर अपनी आँखों पर एकाएक विश्वास नहीं हुआ उन्हें। सामने वरुण सक्सेना और उनके साथ में रत्ना को खड़े पाया उन्होंने। हाथ में सूटकेस लेकर खड़े वरुण सक्सेना भी समझ नहीं पाये कि क्या बोलें। वे समझ रहे थे सुष्मिताजी की खुशी।

यह क्या? यह क्या देख रही थीं सुष्मिताजी? रत्ना और वरुण उनके घर आये हैं। अकस्मात्, बिना किसी पूर्व सूचना या कार्यक्रम के। कैसा सुखद आश्चर्य! वरुण की आस-उम्मीद तो खैर जब तब बनी ही रहती थी उन्हें, और उनका आना अप्रत्याशित नहीं था परन्तु रत्ना ने स्वयं चलकर उनकी देहरी तक आना गवारा किया था, यह न जाने क्यों कुछ भला-भला-सा लग रहा था, उन्हें सोचकर। वे भीतर के सारे उद्वेलनों और परेशानियों को पलभर के लिये भूल ही गईं, और अपने अहम मेहमान की अगवानी में बिछ-बिछ गईं।

चाय पीते हुए वरुण सक्सेना ने बताया कि उन्हें अखबार के माध्यम से जब इस 'केस’ के बारे में पता चला तो वे लोग हैरान हो गये। किसी भी तरह आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। किन्तु सन्देह की कोई गुंजाइश भी तो नहीं थी, इस तरह शब्द-शब्द सारी जानकारी तमाम अखबारों ने दे डाली थी। राजधानी में कत्ल कोई 'घटना’ या समाचार जैसी बात तो अब रही नहीं है लेकिन अलबत्ता यह जरूर अब भी प्रेस के लिए चटपटा समाचार था कि जिस युवा व्यक्ति का खून हुआ था, वह एक प्रतिष्ठित महाविद्यालय की सम्माननीया प्रोफेसर के घर ठहरा हुआ था। इससे भी बड़ी बात यह कि अविवाहिता प्रोफेसर ने रात को अपने घर ठहरने वाले युवक को नितान्त अपरिचित अजनबी बताया। अब इस सब में तो मसालेदार समाचार की पूरी-पूरी गुंजाइश थी। प्रेस बेचारी क्या करे? फिर चाहे वह प्रोफेसर सुष्मिता सिंह ही क्यों न हों.... अविवाहित महिला के एकान्त अकेले घर में अजनबी युवक रात भर सोता रहे, यह तो जमाने के बरदाश्त की बात नहीं है भाई। सदी बेशक इक्कीसवीं हो या बाइसवीं, इससे क्या फर्क पड़ता है। सदियाँ तो पहले भी बीती हैं आगे भी बीतेंगी। और पुरुषों के हरम में नारी चाहे जबरन उठा लाई जाये, चाहे छल-कपट से, चाहे चाकू की नोंक पर, चाहे चाँदी के कलदारों के दम पर.... वह वहाँ चाहे रात भर रहे या दिन भर... वह चाहे पुरुष से परिचित हो या अपरिचित, वह चाहे मजबूरी में आई हो.... चाहे मनमर्जी... ये सब तो सामाजिक है, जायज है, स्वाभाविक है। इससे तो पुरुष का पुरुषार्थ और उभरकर ही आता है। किन्तु एक महिला के घर पुरुष....? ना बाबा ना! वह चाहे दोस्ती में ही आया हो, चाहे स्वस्थ पवित्र जान-पहचान की बिना पर आया हो, सिर्फ रात काटकर चले जाने के लिए आया हो... इसकी छूट तो जमाना नहीं दे सकता साहब। यह तो असामाजिक है। यह तो घोर अनैतिकता है और ऐसी बात समाज में घट जाये, तो क्या तो प्रेस और क्या सामान्य आदमी! समाचार बनाकर पेश तो करेंगे ही.... तहलका तो मचेगा ही.... बस! इसी से अखबारों ने लिखा था, बवंडर मचाया था और पढ़ा था वरुण सक्सेना और रत्ना ने। चले आए थे उनके पास, सहानुभूति में कहो या भय में। उन्हें ले जाने के लिए कहो या उन्हें जलील करने.... नहीं-नहीं, वरुण सक्सेना ऐसा कैसे सोच सकते थे, और गुस्ताखी माफ हो, इस वक्त तो कम से कम रत्ना ने भी यह नहीं सोचा, कि अपनी सौत सुष्मिताजी को जलील करे। वह तो हमदर्दी में ही आई थी। कुत्ते का एक पिल्ला चार दिन साथ रह ले तो उसके दु:ख-दर्द सालने लग जाते हैं इन्सान को, फिर सुष्मिताजी तो बराबर चौबीस साल, दो युगों तक उस परिवार की नैया को पतवार-सी ढकेलती रहीं जिसे रत्ना का परिवार कहा जाना चाहिये, वरुण सक्सेना का परिवार कहा जाना चाहिये।

यह घटना जान लेने के बाद रत्ना ने तो ऐसी अकुलाहट दिखाई कि तुरन्त ही वे लोग सुष्मिताजी के घर के लिए चल दिये। और इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने बताया कि कल ही शाम को नमिता और उसके पतिदेव भी आये हैं। वे लोग भी यह खबर जानने के बाद ही आये हैं। रत्ना ने बताया कि अभी वे उन्हें घर पर ही छोड़कर आये हैं। नमिता की बहुत इच्छा थी सुष्मिताजी से मिलने की। वह बेचैन हुई जा रही थी पर घर को अकेला छोड़कर आने में मुश्किल होने की वजह से ही अभी वे लोग वहाँ रुक गये। रत्ना ने सुष्मिताजी को यह भी बताया कि नमिता से वे लोग यही कह आये हैं कि सुष्मिताजी को अपने साथ ले आयेंगे। रत्ना बेहद आत्मीयता और अपनेपन के साथ बोली थी कि ऐसे में हम आपको यहाँ अकेला नहीं छोड़ेंगे। सुष्मिताजी का भी कलेजा भर-सा आया।

सुष्मिताजी एक गहरी पर छिपी-बची नजर से वरुण सक्सेना की ओर देखती हुई मन ही मन गद्गद् हो गईं। थोड़ी देर के लिए कुछ भी न सोचने का मन हो आया सुष्मिताजी का। 'पल’ सुष्मिताजी का हासिल बन गया।

तभी बाहर दरवाज़े पर एक मोटर साइकल रुकने की आवाज के साथ-साथ ही कुछ आहटें सुनाई पड़ीं। बाहर का दरवाज़ा खुला ही था, एक साथ तीनों की निगाहें उस ओर उठ गईं। दरवाज़े से गिरधर और दो युवक भीतर आये। सुष्मिताजी के साथ एक दम्पत्ति को बैठे देख तीनों जरा अचकचाए। फिर एकाएक सहज होकर बैठ गये। सुष्मिताजी को तीनों ने ही नमस्कार किया। सिर हिलाकर अभिवादन करती सुष्मिताजी ने वरुण और रत्ना का परिचय नवागन्तुकों से करवाया।

–ये वरुण जी हैं... और ये रत्ना जी, इनकी धर्मपत्नी। अभी-अभी आये हैं ये लोग। सुष्मिताजी की समझ में नहीं आया कि और क्या बोलें वे। थोड़ी-सी असहज होकर हिचकिचाईं सुष्मिताजी वरुण का नाम लेते हुए। जुबान थोड़ी-सी लड़खड़ा भी गई।

किन्तु गिरधर वरुण जी का नाम सुनते ही जैसे सब समझ गया। यही नहीं, बल्कि वह उन्हें पहचान भी गया।

....ओह! अच्छा-अच्छा, बड़ी खुशी हुई यहाँ आपके दर्शन पाकर। कहकर अतिरिक्त विनम्रता और शिष्टता के साथ उसने दोनों हाथ जोड़ दिये। गिरधर के साथ ही बाकी दोनों युवकों ने भी हाथ जोड़ दिये।

रत्ना ने उनके नमस्कार का प्रत्युत्तर देते हुए गिरधर से पूछ ही डाला–आपका परिचय?

वरुण सक्सेना कुछ बोलने को हुए, उससे पहले ही गिरधर ने सुष्मिताजी की ओर देखा, मानो उसे आशा थी कि परिचय वे ही करवायेंगी उन लोगों का। सुष्मिताजी ने वही किया—

–ये लोग मेरे पुराने स्टूडेण्ट्स हैं। यह गिरधर है। यह तो अब बहुत नामी आदमी हो गया है। आज कल इसका नाम तो अखबारों में रोज आता रहता है। इसकी सक्रियता तो आपको अखबारों से पता चली होगी। राजनीति से इसका लगाव तभी का है, अब तो काफी आगे निकल गया है इस रास्ते पर। ये दोनों लोग भी इसके साथी हैं। इनके भी अपने-अपने कारोबार हैं यहाँ पर। तीनों ही युवक कांग्रेस से संबंधित हैं। यह राकेश है, इसके पिता रिटायर्ड कर्नल हैं और अब यहाँ ये लोग एक फास्ट-फूड रेस्त्रां चला रहे हैं। यह मयूर....लॉ कर रहा है यूनिवर्सिटी में अभी। इसके पिताजी एडवोकेट हैं। ये भी उन्हीं के पद-चिह्नों पर चलने का रास्ता बना रहा है। इसका इरादा प्रेक्टिस और समाज-सेवा साथ-साथ चलाने का है। तीनों युवकों ने एक बार फिर से हाथ जोड़ दिये। मयूर अपनी समाज-सेवा वाली बात से जरा-सा झेंप गया। धीरे से बोला–समाज-सेवा को आजकल गाली समझते हैं लोग, कम से कम ऐसा मत कहिये.... सब हँस पड़े।

अब वातावरण अपरिचय के खोल से निकलकर थोड़ा हल्केपन के दायरे में आ गया था। इसका सबसे पहला लाभ गिरधर ने ही उठाया। बोला—

–असली बात तो यह है कि 'मम्मी’ ने रिजाइन कर दिया, यह बात हमें पसन्द नहीं आई। यह जानने के बाद से यहाँ माहौल में और अफवाहें फैल रही हैं।

वरुण सक्सेना और रत्ना के लिए इस बात से चौंक उठने का दोहरा कारण छिपा था। पहला रहस्य तो यह कि यह युवक गिरधर सुष्मिताजी की ओर इशारा करके उन्हें मम्मी संबोधित कर रहा था और दूसरा यह, कि सुष्मिताजी ने इस्तीफा दे दिया था, यह राज तो अब तक उन लोगों को नहीं पता चल पाया था। वैसे समाचार-पत्रों में जो कुछ छपा था, वह उन्होंने पूरे ध्यान से दो-तीन बार पढ़ा था। पर उसमें सुष्मिताजी के नौकरी छोड़ देने की बात तो कहीं नहीं थी। हाँ, एक समाचार-पत्र में इस तरह की अफवाह का जिक्र जरूर था कि महिला प्रोफेसर के संदिग्ध चरित्र को लेकर कुछ छात्र-छात्राओं ने उन्हें कॉलेज से निकाले जाने की मंशा की है।

कॉलेज की प्रबंध समिति ने इस अफवाह को किस रूप में लिया, या कि इस अफवाह में कितनी सच्चाई है यह जाने बिना ही सुष्मिताजी ने खुद ही अपना त्याग-पत्र भेज दिया था। वे इस इकतरफा कार्यवाही के बाद कॉलेज जाकर किसी से मिली नहीं थीं, पर उनसे मिलने आने वालों का तांता लग गया था।

गिरधर, जो किसी जमाने में कॉलेज छात्र यूनियन का सक्रिय नेता रहा था सुष्मिताजी का आरंभ से ही प्रिय छात्र रहा था। वह उन्हीं दिनों से उन्हें मम्मी संबोधन देकर पुकारा करता था। पहले-पहल तो सुष्मिताजी को यह अटपटा-सा लगता था पर धीरे-धीरे उस युवक की निश्छलता से दो-चार हो लेने के बाद उन्होंने इस संबोधन को स्वीकार कर लिया था। सुष्मिताजी ने शायद इस संबोधन की शाश्वत गमक और उसके नैसर्गिक सम्मोहन को मान्यता दे डाली थी। गिरधर को वे अपने मुँह बोले बेटे के रूप में ही देखती थीं, किन्तु जब कॉलेज छोड़ने के बाद गिरधर चला गया तो सुष्मिताजी से उसका वास्ता फिर ना के बराबर ही पड़ा था। यद्यपि छात्र-जीवन की समाप्ति के बाद भी शहर की युवक कांग्रेस शाखा से जुड़ जाने के कारण सक्रिय गतिविधियों में लिप्त गिरधर गाहे-बगाहे यूनिवर्सिटी या कॉलेज में आता ही रहता था। इस बीच सुष्मिताजी की उससे अर्से तक मुलाकात नहीं हो सकी थी। सुष्मिताजी को उसके राजनैतिक अभ्युदय की उड़ती-उड़ती-सी जानकारी जब-तब मिलती रहती थी।

लेकिन कुछ दिन पूर्व घटे हादसे के रूप में जब सुष्मिताजी के साथ वह अनहोनी हो गयी और वे पुलिस-कचहरी के फंदे में अकारण ही आ गईं तो स्वयं ही आकर गिरधर उनसे मिला था। और न केवल आकर मिला ही था बल्कि उसने सुष्मिताजी को इस सारे दंद-फंद से निजात दिलाने में भी भरसक भाग-दौड़ की थी। उसने अपने वसीले और परिचयों का खासा लाभ सुष्मिताजी को दिलवाने की भरपूर चेष्टा की थी। वह सुष्मिताजी के घर पर बैठकर, सुष्मिताजी की जबान से खुद सारी कहानी सुन चुका था। इसके बाद उसने समाचार-पत्रों में छपी और कॉलेज में उड़ी बातों की राई-रत्ती भी परवाह न करके केवल और केवल वही सच माना था जो स्वयं 'मम्मी’ ने उसे बताया था। पुलिस और स्वयं अपनी मैनेजमेण्ट कमेटी के सारे क्रिया कलापों में सुष्मिताजी ने कठोर दाढ़ी और मजबूत जिस्म के पीछे बेहद कोमल और विनम्र दिल रखने वाले अपने इस मुँह बोले बेटे का पाक साफ, स्वार्थ रहित आन्तरिक द्वन्द्व उस सारी भाग-दौड़ के दौरान देखा था। उसने 'मम्मी’ को इस कठिन घड़ी में भरपूर सहारा देने में कोई कोर-कसर नहीं उठा छोड़ी थी।

आरंभ में जब सुष्मिताजी को पुलिस विभाग की ओर से यह हिदायत मिली थी कि फिलहाल वे अगली सूचना तक शहर छोड़कर कहीं न जायें तो वे थोड़ी परेशान अवश्य हुई थीं, क्योंकि इस हादसे के बाद वे वहाँ रह पाने में असुविधा और बेचैनी-सी महसूस करने लगी थीं। इस झमेले से पार पाने में सुष्मिताजी गिरधर की वजह से ही कामयाब हो पाई थीं जिसने उनकी इस बंदिश को हटवाने में अपने क्षेत्र के वरिष्ठ व्यक्ति की देहरी की धूल लेने में भी संकोच नहीं किया था। और अन्तत: सुष्मिताजी को यह अनुमति मिल गई कि वे जहाँ, जब चाहें जा सकती हैं, बस केवल अपने गन्तव्य का पता-ठिकाना वे सूचित करके जाएँ।

सुष्मिताजी एक बार तो दहल गई थीं जब प्रारंभ में उन्हें पुलिस से यह जानकारी मिली कि सुधीर का संबंध नाजायज धंधों में लगे एक बेहद खतरनाक गिरोह से था, और वे अकारण ही किसी बड़े धोखे में आ जाने से बाल-बाल बच गई थीं। सहज जिज्ञासु ममतामयी सुष्मिताजी से वह चालबाज युवक, यदि जीवित रहता तो कोई भी खतरनाक लाभ उठा सकता था, उसे अपनी घिनौनी गतिविधियों को सम्पादित करने का एक विश्वसनीय और महफूज ठिकाना जो मिल गया था। लेकिन शायद सुष्मिताजी के भाग्य में अपराधी जगत् की चालबाजियों में आ जाना नहीं लिखा था। उन्हें किरण पर भी सहानुभूति हो आई जो बेचारी अपनी जिस्मानी भूख की मारी किस चक्रव्यूह में घिरने जा रही थी। वैसे किरण से या सुधीर के अन्य किसी भी नाते-रिश्तेदार से सुष्मिताजी का सामना अब तक नहीं हुआ था।

वरुण सक्सेना की चुप्पी काफी देर बाद टूटी, जब काफी सोच समझकर उन्होंने यह राय जाहिर की कि सुष्मिताजी को नौकरी छोड़नी नहीं चहिये थी।

गिरधर यह सुनते ही एकदम समर्थन करते हुए बोला–मैंने तो मम्मी से यही कहा था। ये सब कोरी अफवाह है कि स्टूडेण्ट्स उन्हें कॉलेज से निकालने की माँग करेंगे। स्टूडेण्ट्स क्या उनके बारे में जानते नहीं हैं? और यदि केवल कुछ लोग महज शिगूफेबाजी के लिए ऐसा करते भी हैं तो हम भी उन्हें उनकी ही भाषा में जवाब दे सकते हैं। तैश में आकर उत्तेजित हुआ गिरधर बोलता चला गया–मैं आग लगवा दूँगा कॉलेज में, यदि फिजूल इस तरह की कोई हरकत करके इन्हें लांछित करने की कोशिश की गई। कोई कुछ बोलकर तो देखे, लाशें बिछवा देंगे हम भी... आखिर कोई आधार भी तो हो। अगर संयोग से कोई आदमी किसी मुसीबत में फँस जाये, तो इसका मतलब यह हो गया कि अब उसे आदमी ही मत मानो.... आदमी ही मत रहने दो? ये भीड़ मनोविज्ञान हमारे देश की एक खतरनाक बीमारी है। यहाँ कोई भी गलत बात किसी समूह को तुरन्त समझाई जा सकती है। आप किसी महर्षि के लिए यहाँ हाथ जोड़कर उसे सुनने वाले चार अनुयायी नहीं जुटा सकते लेकिन दो गुंडों की आवाज पर किसी भी पुण्यात्मा पर बिना सोचे-समझे पत्थर फेंकने वाले सहज ही जुटा सकते हैं। सचमुच समाज गंदी बातों के लिए तो बाँसों का जंगल बन जाता है जो तुरंत आग पकड़ ले, पर कोई ढंग की बात सिखाने की कोशिश यहाँ बरसों करते रहिये... मजाल है जो कामयाबी मिल जाए। आवेश में आकर गिरधर ने पूरा भाषण-सा ही दे डाला। सभी सन्न-से बैठे उसकी जोश भरी उक्तियाँ सुनते रहे और महसूस करते रहे उसकी आवाज की उस शिद्दत को, जो वहाँ सुष्मिताजी की नेकनामी के लिए थी।

गिरधर के दोनों साथी राकेश और मयूर अचरज से गिरधर को देखने लगे। सुष्मिताजी का अंतर भीग-भीग-सा गया.....।

चाय पीने के बाद गिरधर, राकेश और मयूर चलने के इरादे से जब उठे तो उन्हें दरवाज़े तक छोड़ने के लिए रत्ना, वरुण जी, सुष्मिताजी भी चले आये। चलते-चलते सुष्मिताजी को लगा कि जैसे गिरधर अकेले में सुष्मिताजी के साथ कोई बात करना चाहता है, संभवत: जिसके लिए इस वक्त वो यहाँ आया था। सबके सामने कुछ कहने में उसे संकोच हो रहा था। सुष्मिताजी उसकी भंगिमा से ही उसका इशारा समझ गईं। वे उसे जरा अलग ले गईं और उन दोनों के बीच खुसुर-पुसुर के रूप में कुछ देर बातें होती रहीं। शेष चारों चुप्पी ओढ़े हुए दरवाज़े के समीप ही खड़े रहे। पाँच-सात मिनट बाद जब गिरधर वापस आया तो वह नमस्कार के साथ-साथ वरुण जी व रत्ना जी से क्षमा माँगना भी नहीं भूला। तीनों युवक मोटर साइकल पर सवार होकर निकल गये।

रत्ना और वरुण सुबह घर से नहा-धोकर ही चले थे और अब इस समय अच्छा-खासा नाश्ता भी चाय के साथ हो ही गया था। इसलिए दोपहर के खाने की बात देर पर टालकर तीनों लोग इत्मीनान से भीतर वाले बेडरूम में आ बैठे थे और बातों का सिलसिला शुरू हो गया। सुष्मिताजी ने नमिता, रूपा और दीपा के बारे में सारे समाचार खोद-खोद कर पूछे रत्ना से। रत्ना को भी यह जानकर काफी ताज्जुब हुआ था कि बेटियों की चिट्ठी-पत्री भी बहुत दिनों से सुष्मिताजी के साथ नहीं हुई है। फिर खुद ही रत्ना ने तुरन्त उनकी ओर से सफाई भी दे डाली, यह कहकर, कि असल में वे तीनों भी इतनी व्यस्त रहने लगी हैं कि तीन-तीन चिट्ठियाँ लिखने पर ही एक बार खत का जवाब आ पाता है।

सुष्मिताजी ने रत्ना को भी उलाहना दे डाला–अच्छा बेटियों की बात छोड़ो, उनसे तो मिलने पर पूछूँगी, पर आप? आप तो अब खाली रहती हो सारा दिन। कभी-कभार भूले-भटके एकाध चिट्ठी डाल ही सकती हो। कम से कम खबर तो लेती रहा करो, कि सुष्मिता जिन्दा है या मर गई। सुष्मिताजी ने यह बात भरपूर दुनियादारी की टोन में कुछ इस तरह कही कि निशाना रत्ना के कंधे से होता हुआ वरुण के कान पर जाकर लगे। वरुण भी इस आरोप पर थोड़े सकपकाकर रह गये, फिर धीरे-से बाले–मैं तो कहता रहता हूँ इनसे...

–रहने दो, रहने दो.... कहते रहते हो। आज भी मैं ही कहकर ले आई हूँ तुम्हें। तुम तो अखबार पढ़-पढ़ कर उतावले-बेचैन तो हुए जा रहे थे, पर यहाँ आने की तो सूझी नहीं थी तुम्हें।

रत्ना के इस रहस्योद्घाटन पर वरुण खिसिया-से गए, पर सुष्मिताजी को बेहद भायी यह सूचना कि अखबार में उनके बारे में पढ़कर वरुण बेचैन से हो गये थे... परन्तु सुष्मिताजी का ध्यान रत्ना के गर्मजोशी से कहे गये इस वाक्य पर दोबारा गया तो वे जरा उदास-सी हुईं। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी बहाने रत्ना सुष्मिताजी पर यह जताना चाहती हो कि देखो, तुम्हारा प्रेमी तो अब दु:ख-दर्द में भी तुम्हारी खोज-खबर लेने आने की बात नहीं सोचता, मैं सौत होते हुए भी तुम्हारी झोली में तुम्हारे प्रेमी की मुलाकात सौगात के रूप में डाले जा रही हूँ।

लेकिन अगले ही पल सुष्मिताजी को महसूस हो गया कि ऐसी पेचदार व्यंग्यभरी कल्पना रत्ना जैसी अनपढ़ औरत नहीं कर सकती। वह कम से कम इस समय तो उनसे किसी ईर्ष्या-जलन के फेर में नहीं है। ये तो पढ़ी-लिखी, समझदार प्रोफेसर सुष्मिता सिंह का महज अनुमान ही हो सकता है, रत्ना के सीधे-सपाट मस्तिष्क की पैदावार नहीं... फिर से सामान्य होकर उसी हँसी-हल्केपन के माहौल में उतर आईं सुष्मिताजी।

तभी न जाने क्या याद आया रत्ना को अचानक जो उठकर अपना पर्स ढूँढने लगी। फिर पर्स में से निकालकर एक लिफाफा सुष्मिताजी की ओर बढ़ा दिया–लो देखो, तुम्हारी बेटियों ने फोटो भेजे हैं।

फोटो का लिफाफा मुस्कराते हुए सुष्मिताजी ने ले तो लिया पर वह व्यंग्य का ताना मारने से नहीं चूकीं। बोलीं–मेरी बेटियाँ भेजतीं तो सीधे मुझे ही न भेजतीं? उनकी तस्वीरें मेरे पास यूँ घूम-फिर कर थोड़े ही आतीं? इस हल्के-से व्यंग्य में भी सुष्मिताजी ने जाने इन्सानी अंतर-सागर की कौन-सी दर्दीली सीपियाँ तल से चुनकर रत्ना के विचार-तट पर बिखरा दीं। वह अशिक्षित, घरेलू दुनियादार नारी भी इस टीस को भीतर तक महसूस कर गई। सुष्मिताजी ने युगों की शिकायतें मानो पलों में दुखती रग तक पहुँचा दीं। रत्ना देखती रह गई सुष्मिताजी को, सुष्मिताजी देखती रह गईं उन रंग-बिरंगी तस्वीरों को जिनमें किसी और परिवार के बालक बच्चे खड़े थे। फिर भी सुष्मिताजी के नेह-मनके जड़े थे उन किलकारियों में... खुशियों में। और वरुण सक्सेना देखते रह गये उन दो तटों को जिनके दरम्यान उनकी जिन्दगी की कश्ती ताउम्र हिचकोले खाती घूमती, तिरती, डगमगाती रही... तीन लोक के मानिंद तीन जेहन आ जुटे थे उस दोपहर, उस छोटे-से कमरे में, उन दौड़ते-भागते पलों के छोटे-से टुकड़े में.... बड़ी अजब दोपहरी बीती।

दो दिन के बाद सुष्मिताजी का रत्ना और वरुण के साथ जाना तय हो गया। स्वयं सुष्मिताजी भी इस समय यही चाहती थीं और वरुण का आग्रह तो था ही। उस दिन सुबह से ही सुष्मिताजी ने घर को एक लंबे अर्से के लिए बंद करके छोड़ जाने के लिए यथोचित तैयारी करना शुरू कर दिया। वे बखूबी जानती थीं कि अब इस मनस्थिति में यहाँ से जाने के बाद उनका लौटना जल्दी संभव नहीं होगा। फिर नमिता आई हुई है, क्या पता कब तक उन लोगों का ठहरने का कार्यक्रम है। अपने रहते तो उन्हें लौटकर आने नहीं देगी। मुमकिन है कि चलते समय सुष्मिताजी से भी साथ में चलने का आग्रह करे और आज भी नमिता की कोई पेशकश आसानी से ठुकरा पाने की स्थिति में स्वयं को नहीं पाती थीं सुष्मिताजी।

यह मन भी वे भली भाँति बना चुकी थीं कि अब वे कम से कम यहाँ दिया हुआ इस्तीफा वापस तो नहीं लेंगी। लोग आ-आकर तरह-तरह से उन्हें समझा रहे थे। लोगों का कहना था कि सामयिक अफवाहों के डर से इतना निराशामय कदम सुष्मिताजी को नहीं उठाना चाहिये। एक तरह से देखा जाये तो लोगों की बात पूरी तरह गलत भी तो नहीं थी। ये सब किस्से-कहानियाँ तो दो-चार दिन के बाद आप ही आप काल की परतों में गुम हो जाया करते हैं। इससे ज़्यादा वक्त कहाँ होता है समाज के पास, कि वह बातों-अफवाहों को लंबे समय तक खींचता चला जाये। सब कुछ भुला ही देते हैं लोग। समाज का डर तो बस उतना ही है जितना स्वयं इंसान माने। और फिर अपना भला-बुरा सोचने में आदमी को इतनी भावुकता के स्तर पर आना भी नहीं चाहिये। नहीं तो किसी पल चैन लेने ही नहीं देते लोग, एकबारगी तो हत्थे से उखाड़ ही छोड़ते हैं। परन्तु न जाने क्यों सुष्मिताजी की अन्तरात्मा उस माहौल, उस परिसर में फिर से जाने को तैयार हो ही नहीं पा रही थी जहाँ उनकी क्षणिक बदनामी की बातें धुँए की तरह फैल गई थीं।

वरुण सक्सेना सुबह जल्दी ही घर से निकल गये कि शाम के टिकट, बस या गाड़ी के रिजर्व करवा लायें। लेकिन जब लौटे तो लगभग उन्हीं के संग-संग थाने से पुलिस का एक फरमान सुष्मिताजी के लिए आ गया कि वे कम से कम दो-तीन दिन यहाँ से कहीं न जायें, उन्हें कभी भी बुलाया जा सकता है या यहाँ आकर उनसे गुफ्तगू करने की तकलीफ दी जा सकती है। संभवत: इंस्पेक्टर जयकुमार अपने मिशन से आज सुबह ही वापस लौट आये थे और इसी कारण कुछ और पूछताछ की जरूरत आ पड़ी थी। सुष्मिताजी झुंझला-सी पड़ीं। वरुण भी सोच में पड़ गये। सोच-विचार करके एक बार यह भी विचार बनाया कि चलो और दो-चार दिन ठहरा जाये। उसके बाद सब साथ-साथ निकल चलेंगे। पर रत्ना का मन इस बात के लिए सहज ही राजी नहीं हुआ। एक तो उसकी दलील थी कि पुलिस-कचहरी के दो दिन का मतलब दो दिन नहीं होता और दूसरे, वे नमिता और दामाद जी को घर में प्रतीक्षारत छोड़कर आई थी। उसका कलेजा कुछ हद तक सही, लेकिन अपने घर से चाक-चौबस्ता था। सुष्मिताजी बुझ-सी गईं। उन्हें एक तो इस 'केस’ के झमेले में शुरू से ही कोई दिलचस्पी नहीं थी और बेवजह की पूछताछ और जाँच उनके लिए तो फिजूल सजा-सरीखी ही हो गई थी। सुधीर पाटिल निर्दोष था या अपराधी, वह किरण को प्रेम करता था या छल रहा था, वह स्वयं गलत राह पर था या उस पर दबाव डाले जा रहे थे.... सुष्मिताजी की बला से। वे भी इसलिए मर्जी से तो वहाँ रुकना नहीं चाह रही थीं। परन्तु जब उन्होंने इस मुद्दे पर रत्ना के तेवर बदलते देखे तो स्वत: ही कह उठीं-नहीं तो ऐसा करो, आप लोग आज निकल जाओ, मैं यह झंझट काटकर फिर आ जाऊँगी, मौका लगते ही।

अन्तत: यही तय हो गया। दोपहर का खाना खाकर वरुण और रत्ना निकल गये। उनके जाते-जाते भी रत्ना के सामान में सुष्मिताजी नमिता के लिए कल ही खरीद कर लायी गई वह साड़ी ठूँसना नहीं भूलीं। रत्ना कहती ही गई.... अब आप भी तो आ ही रही हो वहीं दे देना उसे अपने हाथ से, पर कहाँ मानने वाली थीं सुष्मिताजी।

काम से फुरसत पाकर सुष्मिताजी दो पल चैन से बैठीं तो मन की काफी स्वस्थता अनुभव कर रही थीं। बड़ी राहत मिली थी इस समय वरुण और रत्ना को देखकर। इस समय वरुण का आ जाना उन्हें बेहद सुकून दे गया था। वे नए सिरे से मानो बीमार मन के लिए कोई आरोग्यवर्धिनी बूटी-सी पा गई थीं। जिन्दगी से जूझने के लिए कुछ न कुछ तो चाहिये ना।

फिर इन दिनों शोभा के काम पर वापस लौट आने से उन्हें थोड़ा सुभीता और हो गया था।

दोपहर को पड़ौस के घर का काम निबटाकर जब शोभा फिर आई तब सुष्मिताजी सोफे पर अधलेटी-सी पड़ी थीं। शोभा भी घड़ी दो घड़ी बातें कर लेने के इरादे से उनके पास, जमीन पर ही जमकर बैठ गई। सुष्मिताजी कुछ बोली नहीं। वे जानती थीं कि जब बतियाने के लिए ही बैठी है तो वही तोड़ेगी चुप्पी। पर इतने रहस्यमय तरीके से तोड़ेगी, यह नहीं सोचा था सुष्मिताजी ने। शोभा धीरे-से बेहद डरते-डरते बोली-

–बीबी जी, एक बात पूछूँ, यदि बुरा नहीं मानें तो।

सुष्मिताजी उसकी इस रहस्यमयता और जिज्ञासा पर किंचित् मुस्करा उठीं। वे समझ गईं कि शोभा का सवाल रत्ना को लेकर ही होगा। आखिर औरत कितनी भी अनपढ़-गंवार हो, इतना तो जानती है कि एक औरत के लिए सौत क्या होती है। और अब जब शोभा ने दो-तीन दिन रत्ना को ध्यान से देख लिया.... तो कैसे रहेगी बिना कुछ पूछे। वे उसके हर संभावित प्रश्न का उत्तर देने के लिए स्वयं को तैयार करके, संशय सहित बोलीं–क्या है, बोल न...

–बीबी जी सच-सच बताना.... नाराज भी मत होना देखो आपसे तो अब पूछूँगी ही....। न जाने कहाँ से इतना आत्मविश्वास आ गया शोभा में, इतनी मुँह लगी उसे कभी देखा तो नहीं था सुष्मिताजी ने। बोलीं–हाँ-हाँ....

–ये सुधीर पाटिल जो लड़का था....

–चुप कर! जोर से चीखीं सुष्मिताजी। वे समझ रही थीं कि नौकरानी की जिज्ञासा को वे भांप चुकी हैं, पर जब उसकी सवालिया जबान खुली तो कुछ अलग पाकर आपा-सा खो बैठीं सुष्मिताजी। ये वे हरगिज बरदाश्त नहीं कर पा रही थीं कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि हर ऐरा-गैरा नत्थू खैरा मुँह उठाये उनसे इस तरह के सवाल करे जिनसे प्रोफेसर सुष्मिता सिंह लेशमात्र भी किसी की निगाह में नीची होती हों, आहत होती हों, कमतर आंकी जाती हों उससे, उस स्तर से, जिस पर वे थीं।

शोभा सहम गई, और हक्की-बक्की-सी रह गई। वह बेचारी तो अपनी मालकिन को विश्वास में लेकर उन बातों के बारे में कुरेदने का इरादा बना रही थी जो उसने गली-मोहल्ले, पास-पड़ौस में यहाँ-वहाँ लोगों के मुँह से तरह-तरह से सुनी थीं। दिन जरूर बीच में इतने बीत गये थे पर इतनी फुरसत से मालकिन को अकेला कहाँ पाया था उसने अब से पहले, जो वह बेचारी पल-पल सोच में लगती जा रही गाँठों को खोल पाने का प्रयास मालकिन की ही छाया तले बैठकर कर पाती। सो यह भी नहीं सुहाया सुष्मिताजी को। क्या है, आदमी मुसीबत में भी पड़ जाये और हमदर्दी के दो बोल भी लेने को राजी न हो किसी से। भला कोई बात है यह? पर आदमी सुष्मिताजी सरीखा हो तो?

अगले ही पल सुष्मिताजी के तेवर कई सोपान नीचे आ गये। एकदम से हाथ पकड़ लिया शोभा, का। स्वर भीगा-सा हो गया। बोलीं–तू खुद ही बोल, क्या ऐसी लगती हूँ मैं तुझे? मैं क्या मरी जा रही हूँ रास रचाने को... शर्म नहीं आती लोगों को ऐसी-वैसी बातें करते। शोभा फिर भौंचक्क, फिर हतप्रभ!

तभी दरवाज़े की घण्टी बजी। शोभा दौड़कर दरवाज़ा खोलने गई। सुष्मिताजी भी संयत होकर बैठ गईं।

गिरधर था। साथ में एक और व्यक्ति था, जिसे सुष्मिताजी भी नहीं जानती थीं। संभवत: पहली ही बार देख रही थीं। राजनीति से जुड़े लोगों की एक खूबी या खामी यह होती है कि उनके इर्द-गिर्द साफ और बदलते पानी की लहरों के मानिंद लोग और चेहरे भी बदलते रहते हैं। यह बात अलग है कि... पता नहीं कैसे, पंक फिर भी इकट्ठा हो ही लेता है जेहन में।

ड्राइंग रूम में उन्हें बिठाकर शोभा सुष्मिताजी को बुलाने आई, तब तक सुष्मिताजी स्वयं ही बाहर निकल आई थीं।

–अरे गिरधर, कैसे आना हुआ इस वक्त?

–वो लोग चले गए आपके मेहमान? चलिये अच्छा हुआ एक तरह से। गिरधर ने मानो उनके प्रश्न को अनसुना करते हुए कहा।

–कैसे? क्या हो गया?

–नहीं, दरअसल आज शाम को एक छोटा-सा कार्यक्रम है। मैं चाहता था कि आप वहाँ आएँ। पर मैं यही सोचता आ रहा था कि यदि आपके मेहमान घर में होंगे तो आप नहीं आ सकेंगी। इसीलिए ऐसा कहा।

–क्या कार्यक्रम है वहाँ?

–वो नवजीवन निकेत का मैदान है ना? वहाँ एक समारोह आयोजित किया गया है। वैसे तो असली फंक्शन तो उस बिल्डिंग के शिलान्यास का है जो सोसायटी वहाँ बनवाने जा रही है। ऊर्जा राज्य मंत्री आ रहे हैं शिलान्यास करने, लेकिन उससे पहले सोसायटी ने दोपहर बाद कुछ कार्यक्रम और भी रखे हैं। एक गोष्ठी है अभी शाम को, जिसमें आपको लेकर चलने की इच्छा है मेरी। आशा है आप अस्वीकार नहीं करेंगी।

–मुझे क्या ऐतराज होगा। पर बात क्या है। किस बारे में है गोष्ठी? मैं चली तो चलूँगी पर आज सिर्फ श्रोता की हैसियत से। वहाँ कुछ बोलने-वोलने को मत कहना। अभी न तो इसके लिए तैयार हूँ और न ही ऐसी मन:स्थिति में हूँ।

–अच्छा जैसा आप ठीक समझें। मैं तो वहाँ यह बात कहकर आया था कि आपको लेकर आऊँगा। मेरी बात रह जायेगी आपके चलने से। हाँ, एक खुशखबरी और देनी है आपको। उसके बाद खुद ही आप फैसला कीजियेगा कि आप वहाँ गोष्ठी में सिर्फ श्रोता की हैसियत से रहेंगी या...

–क्या?

–शायद आपको पता भी होगा, नवजीवन निकेत सोसायटी ने पिछले दिनों एक 'संदर्भ समिति’ बनाई थी। यह संदर्भ समिति नाम भी आपको कुछ अटपटा-सा लगेगा, क्योंकि आज तो जमाना संघर्ष समितियों का है, चंदा-चुनाव समितियों का है, घेराव और तोड़-फोड़ संगठनों का है। ऐसे में शुद्ध साहित्यिक और सात्त्विक-सा नाम लेकर भला कोई समिति कैसे काम कर सकती है। लेकिन इन लोगों ने चन्दा, चुनाव और संघर्ष से ध्यान हटाकर एक साफ-सुथरी समिति बनाई है, जिसकी मीटिंग महीने में एक बार होती है। इस समिति में समाज के विभिन्न वर्गों तथा स्तरों के लोगों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की गई है। लेकिन फिलहाल इसका पहला और सबसे मुख्य उद्देश्य है देश और समाज में सामंतशाही यानी फ्यूडलिज़्म के बढ़ते प्रभाव एवं प्रसार के खिलाफ जनमत बनाना। यह समिति अपने सीमित दायरे के भीतर विचार करके ऐसे मामलों का पता लगायेगी जहाँ सामंतवाद को प्रश्रय देने वाले तत्त्व पाए जायेंगे, घटनाएँ पाई जायेंगी और फिर लोगों के मन में इस एक बार दुतकारी जा चुकी व्यवस्था के प्रति घृणा के भाव फिर से हरे-भरे करने की कोशिश की जायेगी। लोगों के लिए मार्गदर्शी सिद्धान्त जारी किये जायेंगे। समिति ऐसे विचारों का प्रकाशन एवं प्रसार करेगी जिनसे लोग सामन्तशाही की खामियाँ जान सकें और अपने-अपने तरीके से उसके प्रति अपना आक्रोश या विद्रोह व्यक्त कर सकें। एक साथ बोल गया गिरधर। उसका साथी जितनी तन्मयता से उसकी बात सुन रहा था उससे यही प्रतीत हुआ कि वह भी इसी कार्य को लेकर उससे संबद्ध ही कोई मित्र है।

गिरधर ने उसका परिचय भी सुष्मिताजी से करवाया, तब उसके चेहरे पर जिस प्रकार के भाव आये, उससे सुष्मिताजी को यही लगा कि जैसे गिरधर ने पहले भी बहुत कुछ सुष्मिताजी के बारे में उसे बता रखा होगा।

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद सुष्मिताजी फिर बोलीं–गिरधर, तुम स्वयं अपने निजी स्तर पर भी क्या इन बातों से सहमत हो जो तुम कह रहे हो।

गिरधर एकदम सकपका गया। हड़बड़ाकर बोला–मैं आपका मतलब समझा नहीं।

–मेरा मतलब यही है कि क्या तुम यह मानते हो, सामंतवाद या सामंतशाही के बिना हमारे देश में या समाज में कोई व्यवस्था स्थापित की जा सकती है।

–इसमें मानने वाली क्या बात है। सामंतशाही या राजशाही, जिसका एक भाग ही सामंतशाही है, हम छोड़ ही चुके हैं। राजा-रजवाड़े हमारे यहाँ खत्म कर ही दिये गये। जनतंत्र को हमने स्वीकार किया है। जनता का जनता पर शासन हो, यह सिद्धान्तत: अब हमारा मूलमंत्र बन ही चुका है।

–तो फिर समस्या क्या है? क्यों बनाई गई है समिति? क्या करेगी यह समिति? सुष्मिताजी ने कहा।

अब गिरधर के साथ वाले व्यक्ति की खामोशी टूटी। मानो उसे महसूस हुआ कि गिरधर अपनी बात ठीक तरह सुष्मिताजी को समझा नहीं पायेगा। उसने बोलना जरूरी समझा। बोला—

–नहीं! देखिये मैडम, आपकी बात बहुत वजनदार है। वास्तव में यह प्रश्न हमारे सम्मुख मुँह बायें खड़ा है कि क्या वर्तमान परिस्थितियों और माहौल में हम किसी प्रकार सामंतशाही प्रवृत्ति से बच सकते हैं। यह बात बिलकुल सही है कि लंबे प्रयासों के बाद हमने, या यों कहें कि देश की जनता ने जनतांत्रिक मूल्यों की लड़ाई लड़कर एक बार राजा-राज को धक्का देकर फेंक दिया। लेकिन कुछ समय बाद महसूस हुआ कि वास्तव में जो लोग, जो परिवार या समूह इस तरह धकिया दिये गए थे, वे बगुला भगत बनकर, चोले बदल-बदल कर फिर से प्रशासन और सत्ता की महत्त्वपूर्ण जगहों पर आ बैठे। वे लोग अपनी कोशिशों में जल्दी ही कामयाब भी हो गये क्योंकि वे मूलत: सत्ता के आदी, रुआब के भूखे लोग थे। तमाम तरह की तिकड़में जानते थे। राजकाज की नस-नस से वाकिफ थे और साम-दाम-दण्ड-भेद के प्रखर हिमायती थे। दूसरी ओर जो लोग जनतांत्रिक व्यवस्था के चलते सत्ता के नये आधार बने थे, वे अपने विचारों-व्यक्तित्व और प्रयासों के ही धनी थे, उनके पास गंदी और कुटिल चालों की कोई गंदी और कुटिल काट नहीं थी, इसी से वे दृश्य में पीछे कर दिये गये। वे नेपथ्य के लोग बनकर रह गये और फोकस में आ गये फिर वही भेड़िया-जमात के लोग!

सुष्मिताजी प्रभावित हुईं। गिरधर भी कुछ संतुष्ट-सा दिखाई दिया। फिर बोला—

-अभी तो सौ बातों की एक बात यह है कि हमने आपका नाम उस समिति के लिए प्रस्तावित किया था और अब सिर्फ आपकी सहमति की आवश्यकता है। बाकी हम लोग तो आपको सदस्य मान ही चुके हैं। आज के कार्यक्रम में आपके चलने से, आपको और जानकारी होगी। कौन लोग हैं, क्या उद्देश्य हैं, काम करने का तरीका क्या होगा, वगैरह-वगैरह। सुष्मिताजी जरा सोच में पड़ीं।

गिरधर के साथी ने परिहास में कहा–गिरधर जी तो आपको अपनी 'मम्मी’ की तरह मानते हैं। अत: जब बेटे ने ही माँ के नाम का प्रस्ताव रखा है तो आपको स्वीकार करना ही पड़ेगा।

सुष्मिताजी हँस पड़ीं। लेकिन बोलीं-

–देखिये साहब, यदि आपका यह तर्क मान लिया जाये तो चल चुकी समिति। यही तो सामंतवाद है। बेटे ने माँ का प्रस्ताव किया, माँ ने बेटे का अनुमोदन किया, यही तो वर्तमान समस्या है देश की और आप लोगों की। इस विचारधारा के चलते तो सामन्तशाही से निजात नहीं पा सकेंगे आप लोग। वास्तव में देखा जाये तो हम सभी लोगों को उस दिन का इन्तजार है जब यह कहा जाये कि बेटा इस समिति का प्राथमिक सदस्य तक नहीं बन सकता क्योंकि इसमें इसकी माँ सदस्य है। याद होगा आपको, कुछ सालों पहले तक हम लोग इन मूल्यों को स्थापित कर चुके थे। यदि बाप या माँ किसी परीक्षा में परीक्षक क्या निरीक्षक भी हों तो सन्तान को उस केन्द्र पर परीक्षा देने की छूट नहीं मिलती थी। एक कलाकार का बेटा यदि कला के क्षेत्र में अवतरित होता था तो वह नैतिकता के तकाजे के कारण अपने पिता का नाम तक लेने में हिचकिचाता था, ताकि कहीं लोग यह न समझ बैठें कि अपने पिता की ख्याति का लाभ उठाने के लिए ही वह इस क्षेत्र में चला आया है। आज देख रहे हैं न क्या हो रहा है? बाप अपनी ही जोड़-तोड़ से अपनी जागीर अपने रहते अपने बेटे को सौंपना चाहता है। कलाकार अपने बेटे को अपनी तरह कलाकार ही बनाना चाहता है ताकि वह प्रचार और मान्यता उसके कारण बेटे को पहले दिन से ही मिल जाये जो उसे वर्षों के परिश्रम और सफलता के बाद मिला है। यही कारण है कि मानव-मूल्य सिरे से ही तब्दील होते जा रहे हैं। यही सामन्तशाही है। सामन्तशाही राजा या शासक ही तक सीमित नहीं रह जाती, यदि शासक स्वयं इस रोग से पीड़ित हो तो हरेक तबका, निम्नतर स्तर तक इससे प्रभावित होता है। ऊपर से नीचे तक उठती है इसकी बू। एक चौक पर झाङू लगने वाली जमादारिन भी अपने बाद अपनी सरकारी जगह अपनी सन्तान को ही दिये जाने का सपना पालने लगती है। यही हमारे देश में आज हो रहा है जो सामाजिक व्यवस्था का वीभत्सतम पहलू है। बनाइये समिति, चलिये शुरू करते हैं काम.... यदि वास्तव में आपने यही सोचा है।

दोनों निरुत्तर हो गये सुष्मिताजी के धाराप्रवाह उद्बोध से। गिरधर का मित्र सुष्मिताजी से बहुत प्रभावित हुआ। यह उसके लिए सुखद आश्चर्य था कि गणित की प्रोफेसर सुष्मिताजी समाज, व्यवस्था और नीति पर इस हद तक वैचारिक नजरिया रखती थीं। उसने तो सोचा था कि गिरधर मात्र अपने निजी संबंधों की वजह से ही उनका नाम समिति के लिए सुझा आया है।

सुष्मिताजी ने इधर उन दोनों युवकों को उनके इस नये प्रस्ताव पर अपनी सहमति दी, उधर शोभा ने ड्राइंगरूम का पर्दा हटाकर चाय की ट्रे के साथ प्रवेश किया।

–लीजिये, चाय के साथ ही 'संदर्भ समिति’ की सदस्या हो जाने के फैसले और आपकी स्वीकृति की पुष्टि हो गई। चाय का दौर आज शिष्टाचार के आवरण में एग्रीमेण्ट की अहम पहचान ही तो है। कहकर हँस पड़ा गिरधर। पर उसके साथी की निगाह में गिरधर का यह मजाक जरा फीका रहा। उसके सोच में तो शायद सुष्मिताजी की बात ही अब तक घूम रही थी।

चाय पीते-पीते थोड़ी बहुत और जानकारी मिली सुष्मिताजी को शाम के कार्यक्रमों की, और वे दोनों उनकी उपस्थिति की पुष्टि करके ही रुखसत हुए। पिछले कुछ दिनों से थकी-चुकी सुष्मिताजी ने मानो आज की दोपहर को चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया कि वे अन्तत: सुष्मिताजी ही हैं।

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