श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 18 Ashish Kumar Trivedi द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 18


अध्याय 18 (भाग 1)

मोक्ष संन्यास योग

हम श्रीमद्भागवतगीता के अंतिम अध्याय पर आ गए हैं। इस अध्याय में संन्यास और त्याग का वर्णन है। कर्म, कर्म के घटक एवं कर्म फल और तीनों गुणों का इन पर प्रभाव बताया गया है।
अध्याय के आरंभ में अर्जुन संन्यास और त्याग के विषय में प्रश्न करते हुए कहता है कि हे महाबाहु मैं संन्यास और त्याग की प्रकृति के संबंध में जानना चाहता हूँ। हे केशिनिषूदन, हे हृषिकेश मैं दोनों के बीच का भेद जानने का भी इच्छुक हूँ।
परम भगवान ने उत्तर देते हुए कहा कि कामना से अभिप्रेरित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और सभी कर्मों के फलों के त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते है।
कुछ मनीषी घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के कर्मों को दोषपूर्ण मानते हुए उन्हें त्याग देना चाहिए किंतु अन्य विद्वान यह आग्रह करते हैं कि यज्ञ, दान, तथा तपस्या जैसे कर्मों का कभी त्याग नहीं करना चाहिए।
हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का होता है।
यज्ञ, दान, तथा तपस्या पर आधारित कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए। इन्हें निश्चित रूप से सम्पन्न करना चाहिए। यज्ञ, दान तथा तपस्या वास्तव में महात्माओं को भी शुद्ध करते हैं।
ये सब कार्य आसक्ति और फल की कामना से रहित होकर संपन्न करने चाहिए। हे अर्जुन यह मेरा स्पष्ट और अंतिम निर्णय है।
नियत कर्त्तव्यों को कभी त्यागना नहीं चाहिए। मोहवश होकर निश्चित कार्यों के त्याग को तमोगुणी कहा जाता है।
नियत कर्त्तव्यों को कष्टप्रद और शरीर को व्यथा देने का कारण समझकर किया गया त्याग रजोगुणी कहलाता है। ऐसा त्याग कभी लाभदायक और उन्नत करने वाला नहीं होता।
जब कोई कर्मों का निष्पादन कर्त्तव्य समझ कर और फल की आसक्ति से रहित होकर करता है तब उसका त्याग सत्वगुणी कहलाता है।
वे जो न तो अप्रिय कर्म को टालते हैं और न ही कर्म को प्रिय जानकर उसमें लिप्त होते हैं, ऐसे मनुष्य वास्तव में त्यागी होते हैं। वे सात्विक गुणों से संपन्न होते है और कर्म की प्रकृति के संबंध में उनमें कोई संशय नहीं होता।
देहधारी जीवों के लिए पूर्ण रूप से कर्मों का परित्याग करना असंभव है लेकिन जो कर्मफलों का परित्याग करते हैं, वे वास्तव में त्यागी कहलाते हैं।
जो फल की इच्छा के प्रति आसक्त होते हैं उन्हें मृत्यु के पश्चात अपने कर्म का सुखद, दुखदायी और मिश्रित कर्मफल भोगने होते हैं। लेकिन जो अपने कर्मफलों का त्याग करते हैं उन्हें न तो इस लोक में और न ही मरणोपरांत ऐसे कर्मफल भोगने पड़ते हैं।
हे अर्जुन अब मुझसे सांख्य दर्शन के सिद्धांत में उल्लिखित समस्त कर्मों को संपूर्ण करने हेतु पाँच कारकों को समझो जो यह बोध कराते हैं कि कर्मों की प्रतिक्रियाओं को कैसे रोका जाए।
शरीर, कर्ता, विभिन्न इन्द्रियाँ, अनेक प्रकार की चेष्टाएँ और विधि का विधान अर्थात भगवान ये पाँच कर्म के कारक हैं।
शरीर, मन या वाणी से जो भी कार्य संपन्न किया जाता है भले ही वह उचित हो या अनुचित, इन पाँच सहायक कारकों के कारण ही संपन्न होते हैं। वो जो इसे नहीं समझते और केवल आत्मा को ही कर्ता मानते हैं, अपनी दूषित बुद्धि के कारण वो वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में नहीं देख सकते हैं।
जो स्वयं को कर्ता नहीं समझते हैं। जिनकी बुद्धि मोहग्रस्त नहीं है, यद्यपि वो जीवों को मारते हैं तथापि वो न तो जीवों को मारते हैं और न कर्मों के बंधन में पड़ते हैं।
ज्ञान, ज्ञान का विषय और ज्ञाता ये कर्म को प्रेरित करने वाले तीन कारक हैं। कर्म, कर्म के साधन, और कर्ता ये कर्म के तीन घटक हैं।
सांख्य दर्शन में ज्ञान, कर्म और कर्ता की तीन श्रेणियों का उल्लेख किया गया है और तदनुसार प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार इनमें भेद का वर्णन भी किया गया है। मैं तुम्हें इनका भेद बताता हूँ।
जिस ज्ञान द्वारा कोई मनुष्य सभी जीवों में एक अविभाजित अविनाशी सत्य को देखता है उसे सतगुण प्रकृति ज्ञान कहते हैं।
वो ज्ञान जिसके कारण कोई मनुष्य भिन्न भिन्न शरीरों में अनेक जीवित प्राणियों को पृथक-पृथक और असंबद्ध रूप में देखता है उसे राजसी ज्ञान कहा जाता है।
वह ज्ञान जिसमें कोई मनुष्य ऐसी विखंडित अवधारणा में तल्लीन होता है जैसे कि वह संपूर्ण सत्य के सदृश हो, जो न तो किसी कारण और न ही सत्य पर आधारित है उसे तामसिक ज्ञान कहते हैं।
जो कर्म शास्त्रों के अनुमोदन के अनुसार है, राग और द्वेष की भावना से रहित और फल की कामना के बिना संपन्न किया जाता है, वह सत्वगुण प्रकृति का होता है।
जो कर्म स्वार्थ की पूर्ति से प्रेरित होकर मिथ्या अभिमान और तनाव ग्रस्त होकर किए जाते हैं वो रजोगुणी प्रकृति के होते हैं।
जो कार्य मोहवश होकर और अपनी क्षमता का आंकलन, परिणामों, हानि और दूसरों की क्षति पर विचार किए बिना आरंभ किए जाते हैं वो तमोगुणी कहलाते हैं।
जो अहंकार और मोह से मुक्त होता है, उत्साह और दृढ़ निश्चय से युक्त होता है, ऐसे कर्ता को सत्वगुणी कहा जाता है।
जब कोई कर्ता कर्म फल की लालसा, लोभ, हिंसक प्रवृत्ति, अशुद्धता, हर्ष एवं शोक से प्रेरित होकर कार्य करता है, उसे रजोगुणी कहा जाता है।
जो कर्ता अनुशासनहीन, अशिष्ट, हठी, कपटी, आलसी तथा निराश होता है और काम में टाल मटोल करता है वह तमोगुणी कहलाता है।
हे अर्जुन अब मैं प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार तुम्हें विभिन्न प्रकार की बुद्धि तथा वृति के विषय में विस्तार से बता रहा हूँ, उसे सुनो।
हे पृथापुत्र वह बुद्धि सत्वगुणी है जिसके द्वारा मनुष्य ये जान पाता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित है। कर्त्तव्य क्या है और क्या करने योग्य नहीं है। हमें किससे भयभीत होना चाहिए और किससे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। बंधन में डालने वाला क्या है और क्या मुक्ति देने वाला है।
हे पार्थ ऐसी बुद्धि राजसिक कहलाती है जो धर्म और अधर्म तथा उचित और अनुचित आचरण के बीच भेद करने में भ्रमित रहती है।
जो बुद्धि अंधकार से आच्छादित रहती है। जो अधर्म में धर्म, असत्य में सत्य की कल्पना करती है, वह तामसिक प्रकृति की होती है।
जो धृति योग से विकसित होगी और जो मन, प्राण शक्ति और इन्द्रियों की क्रियाओं को स्थिर रखती है उसे सात्विक धृति कहते हैं।
वह धृति जिसके द्वारा कोई मनुष्य आसक्ति और कर्म फल की इच्छा से कर्तव्य पालन करता है। सुख और धन प्राप्ति में लिप्त रहता है, वह राजसी धृति कहलाती है।
दुर्बद्धि द्वारा हठ में लिया गया संकल्प जिसमें मनुष्य स्वप्न देखने, भय, दुख, मोह, निराशा और कपट का त्याग नहीं करता उसे तमोगुणी धृति कहा जाता है।
हे अर्जुन अब तुम मुझसे तीन प्रकार के सुखों के संबंध में सुनो जिनसे देहधारी आत्मा आनंद प्राप्त करती है और सभी दुखों के अंत तक भी पहुँच सकती है।
जो आरंभ में विष के समान लगता है लेकिन अंत में जिसका स्वाद अमृत के समान हो जाता है उसे सात्विक सुख कहते हैं। यह शुद्ध बुद्धि से उत्पन्न होता है जो आत्म ज्ञान में स्थित होती है।
उस सुख को रजोगुणी कहा जाता है जो इंद्रियों द्वारा उसके विषयों के संपर्क से उत्पन्न होता है। ऐसा सुख आरंभ में अमृत के सदृश लगता है और अंततः विष जैसा हो जाता है।
जो सुख आदि से अंत तक आत्मा की प्रकृति को आच्छादित करता है और जो निद्रा, आलस्य और असावधानी से उत्पन्न होता है वह तामसिक सुख कहलाता है।


अध्याय की विवेचना (पहले 39 श्लोक)

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया कि संन्यास और त्याग में क्या अंतर है? प्रश्न करते हुए अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण को दो नामों से संबोधित किया है। पहले अर्जुन ने श्रीकृष्ण को 'केशिनिषूदन' कहकर संबोधित किया है जिसका अर्थ है केशी नामक असुर का संहार करने वाला। केशी ने एक पागल घोड़े का रूप धारण करके बृजभूमि में आतंक मचा रखा था। श्रीकृष्ण ने उसका वध कर उसके आतंक से बृज को मुक्त कराया था। अर्जुन के मन में भी आरंभ में कई संशय थे जिन्होंने उसके ह्रदय में हलचल मचा रखी थी। उसके मन के संशय रूपी केशी को भी भगवान श्रीकृष्ण ने शांत करा दिया था। अब उसके मन में संशय नहीं था। अब तो बस वह श्रीकृष्ण के उपदेश को पूरी तरह आत्मसात करना चाहता था।
अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण को 'ऋषिकेश' कहकर भी संबोधित किया जिसका अर्थ होता है इन्द्रियों का स्वामी। अर्जुन का लक्ष्य विजय प्राप्त करना था। सिर्फ कुरुक्षेत्र के मैदान में ही नहीं बल्कि अपनी इंद्रियों पर भी।
भगवान श्रीकृष्ण ने उसके प्रश्न का उत्तर देते हुए बताया कि जब कोई ऐसे कर्म का त्याग करता है जिसमें फल प्राप्त करने की इच्छा हो तो उसे संन्यास कहते हैं। पर जब सभी प्रकार के कर्म करते हुए उनके फलों की कामना का परित्याग किया जाता है तो उसे त्याग कहा जाता है।
शाब्दिक अर्थ में संन्यास से आशय पूरी तरह से त्याग देना है। अर्थात किसी चीज़ को पूर्ण अस्वीकृति। इस आधार पर कुछ विद्वानों का मानना है कि कर्म हमारे भीतर फलों की लालसा उत्पन्न करते हैं। फलों की लालसा मुक्ति में बाधक है। अतः जब कर्म करते हुए फल की इच्छा हो तो उस कर्म को छोड़ देना चाहिए।
त्याग का शाब्दिक अर्थ है आत्म-साक्षात्कार में बाधा डालने वाली सभी चीजों से विमुख होना। कुछ विद्वान मानते हैं कि फल की इच्छा हमारी प्रगति में बाधक है कर्म नहीं। अतः कर्म फल की इच्छा का त्याग करो। श्रमद्भगवद्गीता के अनुसार त्याग वही है जिसमें निष्काम भाव से कर्तव्य का पालन किया जाए और फलों में किसी तरह की आसक्ति न हो। त्याग का अर्थ है कर्म के फल का त्याग।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि यज्ञ, दान, तथा तपस्या पर आधारित कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त अपने नियत कर्मों को किसी भी स्थिति में नहीं त्यागना चाहिए।
वर्तमान परिस्थितियों में संन्यास का सही अर्थ जानना बहुत ज़रूरी है। आज यदि हम किसी संन्यासी के बारे में सोचते हैं तो गेरुआ वस्त्र पहने किसी व्यक्ति की छवि हमारे मन में उभरती है। गेरुआ वस्त्र संन्यासी का वस्त्र अवश्य है पर सिर्फ गेरुआ वस्त्र धारण कर लेने से कोई संन्यासी नहीं हो जाता है। संन्यास उस अवस्था का नाम है जब व्यक्ति उन वस्तुओं का त्याग करता है जो आध्यात्मिक उन्नति में बाधक हों। बिना समझौता किए आंतरिक और बाहरी दोनों तरह की दुनिया की चीजों के प्रति गहन वैराग्य।
पर अक्सर देखने को मिलता है कि लोग गेरुआ वस्त्र पहन लेते हैं और संन्यासी हो जाते हैं। वो सोचते हैं कि संन्यास लेने के बाद उन्हें किसी प्रकार के कर्म की आवश्यकता नहीं है। पर भगवान ने स्पष्ट कहा है कि यज्ञ, जान, तप और नियत कर्मों का त्याग नहीं किया जाना चाहिए। इसका अर्थ है कि संन्यासी के लिए भी अपने नियत कर्म करना आवश्यक है।
संन्यासी के लिए त्याग बहुत आवश्यक है। त्याग ही गीता का सार है। चाहे संन्यासी हो या सांसारिक व्यक्ति उसे मन से सभी आसक्ति त्यागना आवश्यक है। संन्यास वाह्य हो सकता है पर त्याग पूरी तरह से मानसिक है। अतः त्याग की विचारधारा को सही तरह से समझ कर संन्यास को समझा जा सकता है।
मनुष्य कर्म से विमुख नहीं हो सकता है। अतः उसे नियत कर्म करने चाहिए। किसी बहलावे में आकर कि मुझे कर्म की आवश्यकता नहीं है, कर्म न करना तामसिक वृत्ति है। कर्तव्यों को कष्टप्रद मानकर उनका पालन न करना राजसिक है। फल की इच्छा से रहित अपने कर्तव्य करना सात्विक है।
भले ही कोई संन्यासी हो पर उचित कर्म करना उसके लिए भी आवश्यक है बस उसे अपने कर्म के बदले किसी प्रकार के फल की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
कर्म शरीर की सहायता से संपन्न होते हैं। अहंकार, इंद्रियां और विभिन्न चेष्ठाएं इसके पूर्ण होने में सहायक होती हैं। एक पाँचवा कारक है ईश्वर। जो आत्मा के रूप में हम सभी के भीतर रहकर कर्म को दृष्टा की तरह देखता है। हमारी वास्तविक पहचान आत्मा है। अतः जो कर्म और उसके फलों से खुद को असंबद्ध रखता है वो सही रूप में संन्यासी है।
जब मनुष्य सभी प्राणियों में एक ही परम सत्य के दर्शन करता है तो उसका ज्ञान सात्विक होता है। अलग अलग प्रणियों में ईश्वर के विभिन्न रूप देखना राजसिक ज्ञान है। जब प्रत्येक प्राणी में बसे ईश्वर को नकारा जाता है तो ये तामसिक ज्ञान है।
सात्विक मनुष्य के कर्म लालसा रहित होते हैं। वह अहंकार से रहित होता है और उत्साह से भरा होता है। उसकी बुद्धि उचित और अनुचित में भेद करना जानती है। वह कर्म करने का संकल्प लेता है पर बार बार परिणाम के बारे में नहीं सोचता है।
फल प्राप्त करने के उद्देश्य से किए गए कर्म राजसिक होते हैं। ऐसा कर्ता सिर्फ अपने लाभ के बारे में सोचता है। फल मिलने पर खुश होता है और न मिलने पर दुखी। उसकी बुद्धि धर्म अधर्म, उचित अनुचित का भेद करने में भ्रमित होती है।
जब मनुष्य अपनी शक्ति का आंकलन किए बिना सिर्फ दूसरे को कष्ट देने के लिए कर्म करता है तो उसके कर्म तामसिक होते हैं। ऐसा व्यक्ति अनुशासनहीन, हठी और आलसी होता है। वह धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म समझता है।
जो सुख पहले कष्टकारी लगते हैं पर समय के साथ अच्छे लगने लगते हैं वो सात्विक हैं। जो आरंभ में इंद्रियों को तृप्त करे और बाद में विष के समान बन जाए वो राजसिक है। जो बुद्धि को भ्रष्ट कर दे वो सुख तामसिक होता है।


हरि ॐ तत् सत्