श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 16 Ashish Kumar Trivedi द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 16



अध्याय 16

देवासुर संपद विभाग योग

पिछले अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने इस संसार की वास्तविकता समझा कर बताया था कि इससे पार होने का उपाय उनके श्रीचरणों में अनन्य भक्ति करना है। उन्होंने समझाया था कि जो लोग उनके स्वरूप को समझ लेते हैं वो उनके परमधाम को प्राप्त होते हैं। ऐसा न कर सकने वाले जन्म मृत्यु के चक्र में फंसे रहते हैं।
इस अध्याय में भगावान श्रीकृष्ण ने दैवीय और आसुरी शक्तियों का वर्णन किया है।
परम पुरुषोत्तम भगवान् ने कहा हे भरतवंशी निर्भयता, मन की शुद्धि, अध्यात्मिक ज्ञान में दृढ़ता, दान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, यज्ञों का अनुष्ठान करना, धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन, तपस्या और स्पष्टवादिता, अहिंसा, सत्यता, क्रोधहीनता, त्याग, शांतिप्रियता, दोषारोपण से मुक्त, सभी जीवों के प्रति करूणा भाव, लोभ से मुक्ति, भद्रता, लज्जा, अनासक्ति, शक्ति, क्षमाशीलता, धैर्य, पवित्रता किसी के प्रति शत्रुता के भाव से मुक्ति और प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्त होना, ये सब दिव्य प्रकृति से संपन्न लोगों के दैवीय गुण हैं।
पाखण्ड, दम्भ, अभिमान, क्रोध, निष्ठुरता और अज्ञानता आसुरी प्रकृति वाले लोगों के गुण हैं।
हे अर्जुन दैवीय गुण मुक्ति का कारण बनते हैं और आसुरी गुण बंधन की तरफ ले जाते हैं। हे पाण्डुपुत्र अर्जुन तुम शोक मत करो क्योंकि तुम दैवीय गुणों से युक्त होकर उत्पन्न हुए हो।
संसार में दो प्रकार के प्राणी हैं एक वो जो दैवीय गुणों से सम्पन्न हैं और दूसरे वो जो आसुरी प्रकृति के हैं। मैं दैवीय गुणों का विस्तार से वर्णन कर चुका हूँ अब तुम मुझसे आसुरी स्वभाव वाले लोगों के संबंध में सुनो।
जो मनुष्य आसुरी गुणों से युक्त होते हैं वो उचित और अनुचित कर्म का भेद नहीं कर पाते हैं। इसलिए उनमें न तो पवित्रता, न ही सदाचरण और न ही सत्यता पाई जाती है।
वो कहते हैं कि संसार में कोई परम सत्य नहीं है। यहाँ कोई भगवान नहीं जो संसार का सृष्टा और नियामक है। दो विपरीत लिंगों में कामेच्छा के अतिरिक्त इसकी उत्पत्ति का कोई अन्य कारण नहीं है।
इस प्रकार की दृष्टि को स्वीकार करने वाले मनुष्यों का आत्म-ज्ञान नष्ट हो जाता है। वो बुद्धिहीन होते हैं। ऎसे आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य केवल विनाश के लिये ही अनुपयोगी कर्म करते हैं जिससे संसार का अहित होता है।
आसुरी प्रवृति वाले मनुष्य अतृप्त काम वासनाओं, पाखंड से पूर्ण, अभिमान में डूबे हुए होते हैं। अपने झूठे सिद्धान्तो से चिपके रहते हैं। इस प्रकार से वो मोहग्रस्त होकर ज़ड़ वस्तुओं को प्राप्त करने के लिये अपवित्र संकल्प धारण किए रहते हैं।
आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्य जीवन भर अंतहीन चिंताओं से पीड़ित रहते हैं। फिर भी वो पूर्ण रूप से आश्वस्त रहते हैं कि कामनाओं की तृप्ति और धन संपत्ति का संचय ही जीवन का परम लक्ष्य है।
सैकड़ों कामनाओं के बंधनों में बंधे, काम वासना और क्रोध से प्रेरित होकर आसुरी प्रवृति वाले लोग अवैध ढंग से धन संग्रह करने में जुटे रहते हैं। यह सब वो इंद्रिय तृप्ति के लिए करते हैं।
आसुरी प्रवृत्ति वाला व्यक्ति सोचता है कि मैंने आज इतनी संपत्ति प्राप्त कर ली है अब मैं इससे अपनी कामनाओं की पूर्ति कर सकूँगा। यह सब मेरी है और कल मेरे पास इससे भी अधिक धन होगा।
वह सोचता है कि मैंने अपने उस शत्रु का नाश कर दिया है और अब मैं अन्य शत्रुओं का भी विनाश कर दूँगा। मैं स्वयं भगवान के समान हूँ, मैं भोक्ता हूँ, मैं शक्तिशाली हूँ, मैं सुखी हूँ। मैं धनाढ्य हूँ और मेरे सगे संबंधी भी कुलीन वर्ग से हैं। मेरे बराबर कौन है? मैं देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ करूँगा, दान दूँगा। मैं सुखों का भोग करूँगा। इस प्रकार से वह अज्ञानता के कारण मोह ग्रस्त रहता है।
ऐसी कल्पनाओं द्वारा पथभ्रष्ट होकर और मोह के जाल से आच्छादित तथा इंद्रिय भोग की तृप्ति के आदी होकर वो अंधे नरक में गिरते हैं।
ऐसे आत्म अभिमानी और हठी लोग अपनी संपत्ति के मद और अभिमान में चूर होते हैं और शास्त्रों के विधि विधानों का आदर नहीं करते हैं। केवल आडंबर करने के लिए यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं।
आसुरी प्रवृति वाले अहंकार, शक्ति, दंभ, कामना और क्रोध से अंधे होकर अपने शरीर और अन्य लोगों के शरीरों के भीतर मेरी उपस्थिति की नकारते हुए मेरी निंदा करते हैं।
आसुरी स्वभाव वाले ईष्यालु, क्रूरकर्मी और मनुष्यों में अधम होते हैं, ऎसे अधम मनुष्यों को मैं संसार रूपी सागर में निरंतर जीवन-मृत्यु के चक्र में डालता रहता हूँ। वो बार बार आसुरी योनियों में ही जन्म लेते हैं।
ऐसी अज्ञानी आत्माएं मुझ तक पहुँचने में असफल होने के कारण बार बार अति अधम जीवन प्राप्त करते हैं।
काम, क्रोध और लोभ वो तीन द्वार हैं जो जीवात्मा को विनाश के नरक की ओर ले जाते हैं। सबको इनका त्याग करना चाहिए।
जो अंधकार रूपी इन तीन द्वारों से मुक्त होते हैं वो अपनी आत्मा के कल्याण के लिए चेष्टा करते हैं और परम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
वो जो इच्छाओं के आवेग के वश में कर्म करते हैं और शास्त्रों के द्वारा बताए गए विधि और निषेधों को नहीं मानते हैं वो न तो पूर्णता प्राप्त करते हैं और न ही जीवन में परम लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं।
इसलिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए यह निश्चित करने के लिए शास्त्रों में वर्णित विधानों को स्वीकार करो और शास्त्रों के निर्देशों व उपदेशों को समझो। फिर तदानुसार संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करो।


अध्याय की विवेचना

इस संसार में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के लोग रहते हैं। दोनों के गुणों में भिन्नता होती है। अच्छे लोगों को दैवीय प्रकृति का और बुरे लोगों को आसुरी प्रकृति का कहा गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में दैवीय प्रकृति और आसुरी प्रकृति के लोगों के बारे में बताया है।
अच्छे लोगों का आचरण दूसरों को सुख पहुँचाने वाला होता है। ये लोग शुद्ध अंतःकरण के होते हैं। इनका झुकाव आध्यात्म की तरफ होता है। अतः ऐसे लोग दूसरों की भलाई के काम करते हैं। दान, यज्ञ अनुष्ठान में समय बिताते हैं। ऐसे लोगों का अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण होता है जिसके कारण भोग विलास से दूर रहते हैं। संयम से भरा जीवन व्यतीत करते हैं।
जो लोग मन के सच्चे होते हैं वो निर्भीक होते हैं। वो अपने स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि समाज की भलाई के लिए जीते हैं। अतः उन्हें कुछ खोने का डर नहीं होता है। निर्भयता का गुण उन्हें सत्य बोलने की शक्ति प्रदान करता है। ऐसे लोग स्पष्ट बोलते हैं। ये सोचकर नहीं डरते हैं कि कहीं हमारा अहित न हो जाए।
अहिंसा भी एक दैवीय गुण है। अहिंसा का अर्थ होता है अपने स्वार्थ के लिए किसी को कष्ट न पहुँचाना। अपने मन, वचन और कर्म को इस प्रकार नियंत्रित करना कि उनसे किसी को चोट न पहुँचे। केवल निर्भीक और साहसी व्यक्ति ही अहिंसा के सिद्धांत पर चल सकता है। भीरु व्यक्ति स्वार्थी होता है। वह अपने लाभ के लिए दूसरों को कष्ट देने से परहेज़ नहीं करता है।
दैवीय प्रकृति के लोग बेवजह क्रोध नहीं करते हैं। उनकी कोशिश होती है कि समाज में शांति स्थापित की जा सके। यदि दूसरों से कोई गलती हो जाती है तो उदारता पूर्वक उन्हें क्षमा कर देते हैं। उनकी गलती को मन में बसाकर उनके प्रति शत्रुता का भाव नहीं रखते हैं।
ऐसे लोगों में मान सम्मान, धन संपत्ति पाने का लोभ नहीं होता है। अपने व्यवहार से सौम्य होते हैं और धैर्यवान होते हैं।
दैवीय गुणों के वर्णन के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने आसुरी प्रवृत्ति वाले लोगों की पहचान भी बताई है। आसुरी प्रवृत्ति के लोगों में दिखावा यानि पाखंड बहुत अधिक होता है। यदि वो यज्ञ अनुष्ठान आदि करते भी हैं तो समाज के लाभ के लिए नहीं वरन अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए। इसलिए वो आडंबर बहुत अधिक करते हैं।
दंभ आसुरी लोगों की सबसे बड़ी पहचान है। अपने अहंकार के आगे वो दूसरों को खुद से नीचा समझते हैं। दंभी व्यक्ति में क्रोध का होना अनिवार्य होता है। यदि कोई उनके अहंकार को चोट पहुँचता है तो वो उस व्यक्ति से क्रोधित हो जाते हैं। उसे अपना शत्रु मानकर उसका अहित करने की सोचते हैं। निष्ठुरता से अपने शत्रु को चोट पहुँचाते हैं।
अज्ञानता के कारण आसुरी प्रकृति वाले लोगों की बुद्धि नष्ट हो जाती है। जिसके कारण वो कुछ भी करते समय उचित अनुचित का भेद नहीं कर पाते हैं। उनके अंतःकरण में पवित्रता नहीं होती है जिसके कारण उनका आचरण लोगों को कष्ट पहुँचाने वाला होता है। अपने लाभ के लिए असत्य बोलने से भी नहीं कतराते हैं।
आध्यात्म की तरफ उनका ज़रा सा भी झुकाव नहीं होता है। उनके अनुसार इस संसार का कोई परम नियंता नहीं है। किसी ने भी इस सृष्टि की रचना नहीं की है और न ही कोई इसका पालन करता है। यहाँ जीवों की उत्पत्ति का कारण सिर्फ कामेच्छा है जो विपरीत लिंगों को एक दूसरे की तरफ आकर्षित करती है।
आसुरी प्रवृत्ति के लोग संचित धन संपत्ति के अभिमान में डूबे रहते हैं। उनके मन में सदैव एक ही बात आती है कि किस प्रकार अपनी संपदा को बढ़ाया जाए। ऐसे लोग अनेक प्रकार की काम वासनाओं में लिप्त रहते हैं। उनका मानना है कि ये संसार सुख भोगने के लिए है। वो अच्छे बुरे कर्मो और उनके फलों पर विश्वास नहीं रखते। सुखों का भोग उनके लिए सर्वोपरि है उसके लिए चाहे कुछ भी करना पड़े। उनके लिए जीवन सिर्फ एक बार मिलता है। अतः उनका मानना है कि पाप पुण्य, सही गलत के बारे में सोचना व्यर्थ है। बस अपने सुख के बारे में सोचा जाना चाहिए।
आसुरी प्रवृत्ति के लोग न ईश्वर को मानते हैं न ही आत्मा की अमरता को। शास्त्रों में कही गई बातों को व्यर्थ मानते हैं। सारा जीवन अपने स्वार्थ में ही व्यतीत करते हैं।
एक साधारण मनुष्य में दैवीय और आसुरी दोनों तरह की शक्तियां पाई जाती हैं। फर्क बस इस बात का होता है कि उनका अनुपात क्या है। कुछ लोगों में दैवीय गुण अधिक होते हैं। पर इसका अर्थ ये नहीं होता है कि उनमें आसुरी प्रवृत्ति नहीं है। उनमें भी कुछ मात्रा में आसुरी प्रवृत्ति पाई जाती है। इसी प्रकार बुरे से बुरे व्यक्ति में भी कुछ अच्छाइयां होती हैं।
दैवीय गुण हमें उन्नति की तरफ ले जाते हैं। आसुरी प्रवृत्ति हमें विनाश की तरफ ले जाती है। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने विवेक का प्रयोग करे। अपने भीतर दैवीय गुणों की वृद्धि करे। आसुरी गुणों को पहचान कर उन्हें दूर करे।
ये ही उसकी मुक्ति का मार्ग है।


हरि ॐ तत् सत्