मैं तो ओढ चुनरिया - 55 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 55

55

घर और शहर पीछे छूट गया था और एक नया शहर मेरा इंतजार कर रहा था या सीधे सीधे कहूँ तो शहर का मैं इंतजार कर रही थी । थोङी थोङी देर में कोई स्टेशन आता तो बराती वहाँ उतर जाते , चाय लेते और चुसकियाँ ले कर पीने लगते । कोई एक कप मेरे हाथ में थमा जाता । एक दो बार तो जैसे तैसे मैंने चाय पी ली पर उसके बाद तो गले से ही न उतरती । हे भगवान ये लोग कितनी चाय पीएंगे । गाङी अंबाला कैंट पहुँची तो इनकी नींद खुली – तू सोई नहीं अब तक । मैंने सिर हिला दिया । ये नीचे उतरे । दो दोनों में आलू छोले ले आए । माँ – पिताजी ने खाने के टिफिन दिए थे । वह खोले तो उसमें से पाँच पूरियां , सूखे आलू की सब्जी , एक बालूशाही और थोङे से शक्करपारे निकले । हमने वे पूरियां खाई और मिठाई चाय के साथ खाने के लिए रख ली । अचानक छोटा देवर आया – वाह जी अकेले अकेले भोग लग रहा है । हमें तो जैसे भूख लग ही नहीं रही । और वह मेरे टिफन से पूरी लेकर खाने लगा । मैं संकोच से सिमट गई ।
इन्होंने जेब से दस रुपए निकाले – जा भाग कर सब्जी ले आ फिर गाङी चल पङेगी ।
वह गाङी से नीचे उतरा और भटूरे चने का दोना ले आया । उसके हाथ में खाने का सामान देख सबकी भूख चमक उठी । सबने कुछ न कुछ खरीदा । टिफन का नाश्ता सबके पास था । कुछ ने खोला , कुछ ने नहीं पर खाकर सब दोबारा सो गये । हम बैठे बातें कर रहे थे । थोङी देर बाद ये कुछ कहते और मैं हां हूँ कर देती । कई बार तो सिर हिला कर ही कहने की कोशिश करती ।
अचानक जोरदार छींकें आनी शुरु हो गई । नाक भी सुङक रही थी । ये एकदम उठे और लापता हो गये । मैंने इधर उधर देखा । घबराहट भी हुई पर मैं चुपचाप वहीं बैठी रही । करीब दस मिनट बाद ये प्रकट हुए – ले पकङ गोली ले ले । पकङ पानी ।
मैंने अचरज से देखा – चलती ट्रेन में यह गोली कहाँ से मिली ।
वो जीजाजी सरकारी अस्पताल में फरमासिस्ट है , उनके पास हमेशा दो चार गोलियां रहती हैं । उनसे मांग कर लाया हूँ । अब फटाफट खा ले । घंटे भर में ठीक हो जाएगी ।
मैंने हथेली पर रखी गोली को देखा , यह सी पी एम थी । मैंने चुपचाप खा ली ।
अब थोङी देर लेट जा ।
आज्ञाकारी बच्ची की तरह मैं लेट गई ।
एक मिनट रुक !
मैं अचकचा कर उठ बैठी – सवालिया नजरों से देखा ।
इन्होने मेरे गले से भारी कामदार दुपट्टा और शाल दोनों खींच लिए । गठजोङ के दोनों दुपट्टे भी मेरे गले में लिपटे थे । वे भी लेकर तह करने लगे । मैं डर गई । धीरे से फुसफुसाई – क्या कर रहे हैं । डिब्बे में सारे बुजुर्ग बैठे हैं । कोई इधर आ जाएगा ।
कोई नहीं आ रहा है । तू चुपचाप सो जा । और अपनी ओढी हुई लोई मेरे ऊपर ओढा दी । अब चुपचाप लेटने के अलावा कोई चारा न था । मैं टांगें समेट कर लेट गई । बीच बीच में अपने दुपट्टे देख लेती जिन्हें तकिया बनाकर ये ऊपर की बर्थ पर सो रहे थे । वह दिन कितना लंबा हो गया था , बीतने में ही नहीं आ रहा था । बैठते लेटते शरीर का एक एक अंग दर्द करने लगा था । आखिर में गाङी भटिंडा स्टेशन पहुँची । मिनटों में सब जाग गए और अपने अपने थैले बैग सम्भाल कर उतरने के लिए लपकने लगे । जेठ जी आए – चलो भाई गाङी बदलनी है । वो सामने सीटी बजाती फिरोजपुर वाली गाङी खङी है । जल्दी करो नहीं तो निकल जाएगी । मैंने बेचारगी से इनकी और देखा – जल्दी कर यार सब भाग गये है ।
बङी मुश्किल से मुँह से निकला – मेरे दुपट्टे ?
इन्होने सारे दुपट्टों में से शाल निकाल कर मेरी ओर बढाई – पकङो । बाकी तीनों चुन्नियां उसी तरह बगल में दबी थी ।
मैने शाल ओढ ली । देखा तो ये प्लेटफार्म की उल्टी तरफ के दरवाजे से नीचे उतर गये थे । मैं भी फुर्ती से पीछे पीछे उतरी । लोहे के बङे बङे पाइपों से होकर हम सामने खङी गाङी में सवार हो गये । बाकी लोग सीढियों से उतर कर दौङते हुए आ रहे थे । जीजा जी ने आते ही डांटा – पूरे हाथ पांव सलामत लेकर घर पहुँच जाएगा ?- कहाँ से चढा कर ले आया । कहीं गिर गिरा जाती तो ...। हम सिर झुकाए सुनते रहे ।
यहाँ से कोटकपूरा एक घंटे का रास्ता था । जब तक गाङी कोटकपूरा पहुँची , अंधेरा उतर आया था । सङकों पर बल्ब जल उठे थे । सात बज गये थे । इतने लंबे सफर ने सबके हूलिए बिगाङ दिए थे । खैर रिक्शा किए गए । हम दोनों को एक रिक्शा में सवार कराके कुछ लोग पैदल ही चल दिए थे ।
मुझे लगा – ये अभी कहेंगे , भई रिक्शा वाले तुझे हमारा घर तो पता है न , कहीं हमें गुम ही न कर देना । एक हल्की सी मुस्कराहट में मेरे होठों पर चली आई । ये अभी अभी भी दुपट्टों की घङी बनाए बगल में दबा कर बैठे थे । मैने चिरौरी की – अब तो दुपट्टे दे दो । घर आने वाला है ।
है तो सही तेरे पास , पर उन्होंने दुपट्टे दे दिए । मैं दुपट्टा ओढने लगी तो उन्होंने रिक्शा वाले को रिक्शा एक साईड में रोकने को कहा । रिक्शा रुका । मैंने फैला कर दुपट्टा सिर पर लेकर लपेट लिया । ऊपर शाल भी ओढ ली । घूंघट करने का मेरा मन न हुआ । सारे सफर में तो बिना दुपट्टे के समय निकाल दिया । अब घूंघट निकाल कर क्या होना था । पाँच मिनट में रिक्शा घर के सामने लग गया । दरवाजे पर द्वार-चार के लिए कोई न था । ये रिक्शा से उतरे । दरवाजे पर जाकर पलटे – आओ । मैंने इधर उधर देखा । गली के बच्चे रिक्शा घेर कर शोर मचाने लगे थे । ऐसे कैसे उतरू । हमारे यहाँ तो ननदें और जेठानियाँ हाथ पकङ कर उतारती है । दरवाजे पर आरती होती है । कई रसमें निभाकर फिर दुल्हन को घर में लिया जाता है । ये भी मुझे रिक्शा पर छोङ घर के भीतर चले गये । अब मैं क्या करूं । कुछ समझ ही नहीं आ रहा था ।
करीब दस मिनट बाद ये दोबारा आए – तू अभी वहीं हैं । आ घर में चले ।
मैं चुपचाप उतर आई । ये एक बैठक में ले आए । ये आज से हमारा कमरा है । मैंने नजर घुमा कर देखा । बारह बाई बारह – तेरह का कमरा रहा होगा । कमरे में पुरानी बनत का एक पलंग लगा था । एक कुर्सी पङी थी । चारों तरफ लेनिन के फोटो चिपकाए हुए थे । कमरे में दीवार में बनी दो अलमारियां और एक शो केस था । कुल मिला कर ठीक ठाक सा कमरा था । मैं पलंग पर बैठ गई । थोङी देर बाद ये एक थाली में दो रोटी और दाल लेकर आए , खाना शुरु किया तो एक रोटी मेरी और बढा दी । भूख तो बहुत लगी थी । मैंने रोटी पकङ ली । अनचुपङी रोटी । साथ में अजीब सी दाल ।दाल कम पानी ज्यादा । खैर पहला ही कौर मुँह में डाला था कि जोर से कै हो गई । दाल में प्याज और लहसुन का तीखा बघार दिया गया था और हमारे घर में ये दोनों ही चीजें नहीं आती थी । लहसुन मैंने कभी खाई ही न थी । तभी इनके मामा की बहु भीतर आई । माँ की तो नहीं मेरी मझली मामी की उम्र की रही होंगी । मेरी हालत देख कर नींबू निचोङ कर शिकंजी बना लाई – बुआ जी तो दाई के साथ लगी है । छोटी के किसी भी वक्त बच्चा हो सकता है । ले तू ये पी ले । इतने लंबे सफर में कई बार मन खराब हो जाता है । शिकंजी पीकर मन टिक गया ।
तभी सास जी अपने हाथों में लोटा और बेरी के पत्ते लेकर प्रकट हुई । मुझे भीतर बैठे देख उनका पारा चढ गया – मैं आ तो रही थी , इतनी क्या आफत आ गई थी ।
भाभी ने सारा दोष अपने सिर ले लिया – बुआ वो रिक्शे वाला जाने की जल्दी मचा रहा था तो मैं ही भीतर ले आई । सास कुछ नहीं बोली । गुस्से में भर कर देखती हुई भीतर चली गई । मेरी आँखों में पानी भर आया । किसी बहु का ऐसा स्वागत शायद ही कभी हुआ होगा ।


बाकी फिर ...