सम्राट् मिहिर भोज Mohan Dhama द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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सम्राट् मिहिर भोज

सम्राट् मिहिर भोज (अनु. 836 ई.-885 ई.) अथवा भोज प्रथम, गुर्जर-प्रतिहार राजवंश के राजा थे। जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी हिस्से में लगभग 49 वर्षों तक शासन किया। इनकी राजधानी कन्नौज (वर्तमान में उत्तर प्रदेश में) थी। इनके राज्य का विस्तार नर्मदा के उत्तर से हिमालय की तराई तक तथा पूर्व में वर्तमान बंगाल की सीमा तक माना जाता है। भोज को प्रतिहार वंश का सबसे महान् शासक माना जाता है। अरब आक्रमणों को रोकने में इनकी प्रमुख भूमिका रही थी। स्वयं एक अरब इतिहासकार के अनुसार इनकी अश्वसेना उस समय की सर्वाधिक प्रबल सेना थी। इनके पूर्ववर्ती राजा इनके पिता रामभद्र थे। इनके काल के सिक्कों पर आदिवाराह की मूर्ति मिलती है, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि ये विष्णु के उपासक थे। इनके बाद इनके पुत्र महेंद्रपाल प्रथम राजा बने। मिहिर भोज का सबसे आम नाम भोज है। इसी नाम के अन्य राजाओं से विभेदित करने के लिए उसे भोज प्रथम कहा जाता है। इतिहासकार सतीशचंद्र के अनुसार उसे उज्जैन के शासक ‘भोज परमार से भिन्न दिखाने के लिए कभी-कभी मिहिर भोज भी कहा जाता है’, हालाँकि रमाशंकर त्रिपाठी ग्वालियर से प्राप्त अभिलेख के हवाले से लिखते हैं कि इसमें उसका प्रथम नाम ‘मिहिर’ लिखा गया है। जो सूर्य का पर्यायवाची शब्द है। उपाधि के बारे में सतीशचंद्र का कथन है कि ‘भोज विष्णुभक्त था और उसने ‘आदि वाराह’ की उपाधि धारण की थी, जो कि उसके कुछ सिक्कों पर भी अंकित मिलती है।’

मिहिर भोज का शासनकाल भारतीय इतिहास के मध्यकाल का वह दौर है, जिसे ‘तीन साम्राज्यों के युग’ के नाम से जाना जाता है। यह वह काल था, जब पश्चिम-उत्तर भारत (इसमें वर्तमान पाकिस्तान के भी हिस्से शामिल हैं) क्षेत्र में गुर्जर-प्रतिहारों का वर्चस्व था, पूर्वी भारत पर बंगाल के पाल राजाओं का आधिपत्य था और दक्कन में राष्ट्रकूट राजा प्रभावशाली थे। इन तीनों राज्यक्षेत्रों के आपसी टकराव का बिंदु कन्नौज पर शासन था। इतिहासकार इसे कन्नौज त्रिकोण के नाम से भी बुलाते हैं। मिहिर भोज के आरंभिक समय में कन्नौज प्रतिहारों के आधिपत्य में नहीं था, अतः मिहिर भोज के वास्तविक शासनकाल की शुरुआत उसकी कन्नौज विजय से माना जाता है, जो कि 836 ई. में हुई। इसके पश्चात् उसने 885 ई. तक (49 वर्ष) यहाँ राज्य किया। एक इतिहासकार के अनुसार मिहिर भोज ने अपने पिता रामभद्र की हत्या करने के बाद नेतृत्व अपने हाथ में लिया और इसके उपरांत अपने राज्य के वे क्षेत्र पहले हस्तगत करने प्रारंभ किए, जो उस समय उनके हाथ से निकल गए थे या जिनपर नियंत्रण कमजोर हो चुका था। इसके उपरांत उसने कन्नौज पर आधिपत्य स्थापित किया और दक्षिण की ओर राज्य का विस्तार करना चाहा। दक्षिण विजय राष्ट्रकूट शासकों द्वारा विफल कर दी गई और उसके पश्चात् भोज ने पूर्व की ओर विस्तार करना चाहा, जिसे बंगाल के पाल शासक देवपाल ने रोक दिया। उमय्यद खिलाफत के नेतृत्व में होनेवाले अरब आक्रमणों का नागभट्ट और परवर्ती शासकों ने प्रबल प्रतिकार किया। कुछ इतिहासकार भारत की ओर इसलाम के विस्तार की गति के इस दौर में धीमी होने का श्रेय इस राजवंश की सबलता को देते हैं। दूसरे नागभट्ट के शासनकाल में यह राजवंश उत्तर भारत की सबसे प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गया था। मिहिर भोज और उसके परवर्ती महेंद्रपाल प्रथम के शासनकाल में यह साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा। इस समय इस साम्राज्य की सीमाएँ पश्चिम में सिंध से लेकर पूर्व में आधुनिक बंगाल तक और हिमालय की तलहटी से नर्मदा पार दक्षिण तक विस्तृत थीं। यह विस्तार मानो गुप्तकाल के अपने समय के सर्वाधिक राज्यक्षेत्र से स्पर्धा करता था। इस विस्तार ने तत्कालीन भारतीय उपमहाद्वीप में एक त्रिकोणीय संघर्ष को जन्म दिया, जिसमें प्रतिहारों के अतिरिक्त राष्ट्रकूट और पाल वंश सम्मिलित थे। इसी दौरान इस राजवंश के राजाओं ने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। यह काल विशेषकर शिल्पकला के लिए जाना जाता है। इनके शासनकाल में उत्कीर्ण पटलों वाले और खुले द्वारांगन वाले मंदिरों का निर्माण हुआ। इस शैली का चरमोत्कर्ष हमें खजुराहो के मंदिरों में देखने को मिलता है, जिन्हें आज यूनेस्को की विश्व विरासत में सम्मिलित किया जा चुका है। प्रतिहारों की शक्ति राज्य के लिए आपसी संघर्ष के चलते क्षीण हुई। इसी दौरान इनकी शक्ति और राज्यक्षेत्र में पर्याप्त ह्रास का कारण राष्ट्रकूट राजा इंद्र तृतीय का आक्रमण भी बना। इंद्र ने लगभग 916 में कन्नौज पर आक्रमण करके इसे ध्वस्त कर दिया। बाद में अपेक्षाकृत अक्षम शासकों के शासन में प्रतिहार अपनी पुरानी प्रभावशालिता पुनः नहीं प्राप्त कर पाए। इनके अधीन सामंत अधिकाधिक मजबूत होते गए और 10वीं सदी आते-आते अधीनता से मुक्त होते चले गए। इसके बाद प्रतिहारों के पास गंगा-दोआब के क्षेत्र से कुछ अधिक भूमि राज्यक्षेत्र के रूप में बची। आखिरी महत्त्वपूर्ण राजा राज्यपाल को महमूद गजनी के हमले के कारण 1018 में कन्नौज छोड़ना पड़ा। उसे चंदेलों ने पकड़कर मार डाला और उसके पुत्र त्रिलोचनपाल को एक प्रतीकात्मक राजा के रूप में राज्यारूढ़ करवाया। इस वंश का अंतिम राजा यशपाल था, जिसकी 1036 में मृत्यु के बाद यह राजवंश समाप्त हो गया।

कन्नड़-संस्कृत अमोघवर्ष का नीलगुंड अभिलेख (866 ई.), जिसमें उसने यह उल्लिखित किया है कि उसके पिता गोविंद तृतीय ने चित्रकूट के गुर्जरों को हराया। गुर्जर-प्रतिहार राजवंश की उत्पत्ति इतिहासकारों के बीच बहस का विषय है। इस राजवंश के शासकों ने अपने लिए ‘प्रतिहार’ का उपयोग किया, जो उनके द्वारा स्वयं चुना हुआ पदनाम अथवा उपनाम था। इनका दावा है कि ये रामायण के सहनायक और राम के भाई लक्ष्मण के वंशज हैं, लक्ष्मण ने एक प्रतिहारी, अर्थात् द्वार रक्षक की तरह राम की सेवा की, जिससे इस वंश का नाम ‘प्रतिहार’ पड़ा। कुछ आधुनिक इतिहासकार यह व्याख्या प्रस्तुत करते हैं कि ये राष्ट्रकूटों के यहाँ सेना में रक्षक (प्रतिहार) थे, जिससे यह शब्द निकला। इस साम्राज्य के कई पड़ोसी राज्यों द्वारा अभिलेखों में उन्हें ‘गुर्जर’ के रूप में वर्णित किया गया है। केवल एकमात्र अभिलेख एक सामंत मथनदेव का मिलता है, जिसमें उसने स्वयं को ‘गुर्जर-प्रतिहार’ के नाम से अभिहित किया है। कुछ अध्येताओं का मानना है कि ‘गुर्जर’ एक क्षेत्र का नाम था, जो मूल रूप से प्रतिहारों द्वारा ही शासित था और बाद में यह शब्द इस क्षेत्र के लोगों के लिए भी प्रयोग में आ गया। दूसरे मत के समर्थक यह मानते हैं कि गुर्जर एक जनजाति (ट्राइब) और प्रतिहार इसी गुर्जर जन का एक गोत्र था। गुर्जरों को एक जनजाति (ट्राइब) माननेवालों में विवाद है कि ये भारत के मूल निवासी थे अथवा बाहरी। बाहरी क्षेत्र से आगमन के समर्थक यह दावा करते कि छठी सदी के आसपास जब हूण भारत में आए, उसी समय ये भी बाहर से आए थे, जबकि इसके विपक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि ये स्थानीय संस्कृति के साथ पूरी तरह घुले-मिले थे, साथ ही यदि ये बाहरी आक्रांता के रूप में आए तो इन्होंने सिंधु-गंगा के उपजाऊ मैदान को बसने के लिए चुनने की बजाय अर्द्धशुष्क इलाके को क्यों चुना। पृथ्वीराज रासो की परवर्ती पांडुलिपियों में वर्णित अग्रिवंश सिद्धांत के अनुसार प्रतिहार तथा तीन अन्य राजपूत राजवंशों की उत्पत्ति अर्बुद पर्वत (वर्तमान माउंट आबू) पर एक यज्ञ के अग्निकुंड से हुई थी। अध्येता इस कथा की व्याख्या इनके हिंदू वर्ण व्यवस्था में यज्ञोपरांत शामिल होने के रूप में करते हैं, वैसे भी यह कथा पृथ्वीराज रासो की पूर्ववर्ती प्रतियों में नहीं मिलती और माना जाता है कि यह मिथक एक परमार कथा पर आधारित है और इसका उद्देश्य मुगलों के विरुद्ध राजपूतों को एकजुट करना था, इस दौर में वे अपनी उत्पत्ति के लिए महिमामंडित वंशों का दावा कर रहे थे।

नागभट्ट प्रथम (730-756 ई.) को इस राजवंश का पहला राजा माना गया है। आठवीं शताब्दी में भारत में अरबों का आक्रमण शुरू हो चुका था। सिंध और मुल्तान पर उनका अधिकार हो चुका था, फिर सिंध के राज्यपाल जुनैद के नेतृत्व में सेना आगे मालवा, जुर्ज और अवंती पर हमले के लिए बढ़ी, जहाँ जुर्ज पर उसका कब्जा हो गया, परंतु आगे अवंती पर नागभट्ट गुर्जर ने उन्हें खदेड़ दिया। अजेय अरबों की सेना को हराने से नागभट्ट का यश चारों ओर फैल गया। अरबों को खदेड़ने के बाद नागभट्ट वहीं न रुकते हुए आगे बढ़ते गए और उन्होंने अपना नियंत्रण पूर्व और दक्षिण में मंडोर, ग्वालियर, मालवा और गुजरात में भरूच के बंदरगाह तक फैला दिया। उन्होंने मालवा के अवंती (उज्जैन) में अपनी राजधानी की स्थापना की और अरबों के विस्तार को रोके रखा, जो सिंध में स्वयं को स्थापित कर चुके थे। अरबों से हुए इस युद्ध (738 ई.) में नागभट्ट ने गुर्जर-प्रतिहारों का एक संघीय नेतृत्व किया। यह माना जाता है कि वह राष्ट्रकूट शासक दंतिदुर्ग के साथ अरबों को हराने में शामिल हुए थे। एक विशेष ‘हिरण्यगर्भ-महादान’ अनुष्ठान समारोह का उल्लेख है (जिसमें स्वर्ग ‘ब्रह्म‍ांडीय अंड’ का भी उल्लेख है) इसमें कई राजाओं की उपस्थिति में और ऐसा लगता है कि संयुक्त रूप से उज्जयिनी में इसका आयोजन किया गया था, अरबों को पराजित करने और वापस भगाने के बाद नागभट्ट ने संभवतः इसमें भाग लिया था। एक राष्ट्रकूट रिकॉर्ड, संजय प्लेट्स, हमलावर अरबों के खिलाफ दंतिदुर्ग की भूमिका की प्रशंसा करता है। इस समारोह में प्रतिहार या प्रहरी (भी द्वारपाल या संरक्षक) का कार्य सौंपा गया था। दशरथ शर्मा सुझाव देते हैं कि—
“It was perhaps at the sacred site of Ujayani that the clans from Rajasthan, impressed by Nagabhata’s valour and qualities of leadership, decided to tender their allegiance to him.”

नागभट्ट प्रथम ने शीघ्र ही एक विशाल क्षेत्र पर अपना नियंत्रण स्थपित कर लिया, जिसमें, भीलमला, जालोर, आबू के आसपास के रास्ते और संक्षेप में लता, (दक्षिणी गुजरात) और मालवा आ जाते हैं। जालोर उनकी राजधानी बनी। नागभट्ट और उनके उत्तराधिकारियों के तहत जालोर एक संपन्न शहर के रूप में विकसित हुआ, जो मंदिरों और अमीरों के भवनों से सजी थी। नागभट्ट प्रथम विद्वानों, कलाकारों और ऋषियों का संरक्षक था। जैन विद्वान् यक्षदेव उनमें से एक थे, जिन्हें नागभट्ट ने अपना संरक्षण दिया था। प्रतिहार मालवा के कब्जे को अनिश्चित काल तक कायम नहीं रख सके, हालाँकि अपने पूर्व सहयोगी राजा दंतिदुर्ग राष्ट्रकूट ने इन क्षेत्रों को सफलतापूर्वक प्रतिहारों से कब्जे में लिया। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद कन्नौज को शक्ति निर्वात का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप हर्ष के साम्राज्य का विघटन होने लगा। जोकि अंततः लगभग एक सदी के बाद यशोवर्मन ने भरा, लेकिन उसकी स्थिति भी ललितादित्य मुक्तपीड के साथ गठबंधन पर निर्भर थी। जब मुक्तपीड ने यशोवर्मन को कमजोर कर दिया तो शहर पर नियंत्रण के लिए त्रिकोणीय संघर्ष विकसित हुआ, जिसमें पश्चिम और उत्तर क्षेत्र से गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य, पूर्व में बंगाल के पाल साम्राज्य और दक्षिण में आधारभूत राष्ट्रकूट साम्राज्य शामिल थे। वत्सराज ने कन्नौज के नियंत्रण के लिए पाल शासक धर्मपाल और राष्ट्रकूट राजा दंतिदुर्ग को सफलतापूर्वक चुनौती दी और पराजित कर राजछत्रों पर कब्जा कर लिया। 756 ई. के आसपास राष्ट्रकूट शासक ध्रुव धारवर्ष (780-793 ई.) नर्मदा नदी को पार कर मालवा पहुँचा और वहाँ से कन्नौज पर अधिकार करने की कोशिश करने लगा। लगभग 800 ई. में वत्सराज को ध्रुव धारवर्ष ने पराजित किया और उसे मरुदेश (राजस्थान) में शरण लेने को मजबूर कर दिया और उसके द्वारा गौंड़राज से जीते क्षेत्रों पर भी अपना कब्जा कर लिया। वत्सराज को पुनः अपने पुराने क्षेत्र जालोन से शासन करना पड़ा, ध्रुव के प्रत्यावर्तन के साथ ही पाल नरेश धर्मपाल ने कन्नौज पर कब्जा कर वहाँ अपने अधीन चक्रायुध को राजा बना दिया।

वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय (805-833 ई.) राजा बना, उसे प्रारंभ में राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय (793-814 ई.) ने पराजित किया, लेकिन बाद में उसने अपनी शक्ति को पुनः बढ़ाकर राष्ट्रकूटों से मालवा छीन लिया। तदुपरांत उसने आंध्र, सिंध, विदर्भ और कलिंग के राजाओं को हराकर अपने अधीन कर लिया। चक्रायुध को हराकर कन्नौज पर विजय प्राप्त कर लिया। आगे बढ़कर उसने धर्मपाल को पराजित कर बलपूर्वक आनर्त, मालव, किरात, तुरुष्क, वत्स और मत्स्य के पर्वतीय दुर्गों को जीत लिया। शाकंभरी के चाहमानो ने कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों की अधीनता स्वीकार कर ली। उसने प्रतिहार साम्राज्य को गंगा के मैदान में आगे पाटलिपुत्र (बिहार) तक फैला दिया। आगे उसने पश्चिम में पुनः अरबों को रोक दिया। उसने गुजरात में सोमनाथ के महान् शिव मंदिर को पुनः बनवाया, जिसे सिंध से आए अरब हमलावरों ने नष्ट कर दिया था। कन्नौज, गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का केंद्र बन गया, अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष (836-910 ई.) के दौरान अधिकतर उत्तरी भारत पर इनका अधिकार रहा। 833 ई. में नागभट्ट के जलसमाधि लेने के बाद उसका पुत्र रामभ्रद या राम गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का अगला राजा बना। रामभ्रद ने सर्वोत्तम घोड़ों से सुसज्जित अपने सामंतों के घुड़सवार सेना के बल पर अपने सारे विरोधियों को रोके रखा, हालाँकि उसे पाल साम्राज्य के देवपाल से कड़ी चुनौतियाँ मिल रही थी, लेकिन वह गुर्जर प्रतिहारों से कलिंजर क्षेत्र लेने में सफल रहा।

रामभद्र के बाद उसका पुत्र मिहिर भोज या भोज प्रथम ने गुर्जर प्रतिहार की सत्ता सँभाली। मिहिर भोज का शासनकाल प्रतिहार साम्राज्य के लिए स्वर्णकाल माना गया। अरब लेखक मिहिर भोज के काल को संपन्न काल बताते हैं। मिहिर भोज के शासनकाल में कन्नौज के राज्य का अधिक विस्तार हुआ। उसका राज्य उत्तर-पश्चिम में सतलज, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में पाल साम्राज्य की पश्चिमी सीमा, दक्षिण-पूर्व में बुंदेलखंड और वत्स की सीमा, दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र तथा पश्चिम में राजस्थान के अधिकांश भाग में फैला हुआ था। इसी समय पालवंश का शासक देवपाल भी बड़ा यशस्वी शासक था, अतः दोनों के बीच में कई घमासान युद्ध हुए। अंत में इस पाल-प्रतिहार संघर्ष में भोज की विजय हुई। दक्षिण की ओर मिहिर भोज के समय अमोघवर्ष और कृष्ण द्वितीय राष्ट्रकूट शासन कर रहे थे, अतः इस दौर में गुर्जर प्रतिहार-राष्ट्रकूट के बीच शांति ही रही, हालाँकि वारतो संग्रहालय के एक खंडित लेख से ज्ञात होता है कि अवंति पर अधिकार के लिए भोज और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय (878-911 ई.) के बीच नर्मदा नदी के पास युद्ध हुआ था। जिसमें राष्ट्रकूटों को वापस लौटना पड़ा था। अवंति पर गुर्जर प्रतिहारों का शासन मिहिर भोज के कार्यकाल से महेंद्रपाल द्वितीय के शासनकाल तक चलता रहा। मिहिर भोज के बाद उसका पुत्र महेंद्रपाल प्रथम नया राजा बना। इस दौर में साम्राज्य विस्तार तो रुक गया, लेकिन उसके सभी क्षेत्र अधिकार में ही रहे। इस दौर में कला और साहित्य का बहुत विस्तार हुआ। महेंद्रपाल ने राजशेखर को अपना राजकवि नियुक्त किया था। इसी दौरान ‘कर्पूरमंजरी’ तथा संस्कृत नाटक ‘बालरामायण’ का प्रणयन किया गया। गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य अब अपने उच्च शिखर को प्राप्त हो चुका था। गुर्जर प्रतिहार सम्राट् मिहिर भोज असीमित शक्ति के स्वामी थे। वे सामंतों, प्रांतीय प्रमुखों और न्यायधीशों की नियुक्ति करते थे। चूँकि राजा सामंतों की सेना पर निर्भर होता था, अतः राजा की मनमानी पर सामंत रोक लगा सकते थे। युद्ध के समय सामंत सैनिक सहायता देते थे और स्वयं सम्राट् के साथ लड़ने जाते थे। प्रशासनिक कार्यों में राजा की सहायता मंत्रिपरिषद् करता था, जिसके दो अंग थे। ‘बहिर उपस्थान’ और ‘आभयंतर उपस्थान’। बहिर उपस्थान में मंत्री, सेनानायक, महाप्रतिहार, महासामंत, महापुरोहित, महाकवि, ज्योतिषी और सभी प्रमुख व्यक्ति सम्मिलित रहते थे, जबकि आभयंतरीय उपस्थान में राजा के चुने हुए विश्वासपात्र व्यक्ति ही सम्मिलित होते थे। मुख्यमंत्री को ‘महामंत्री’ या ‘प्रधानमात्य’ कहा जाता था।

शिक्षा तथा साहित्य
शिक्षा का प्रारंभ उपनयन संस्कार से होता था। उपनयन के पश्चात् बालक को गुरुकुल भेजा जाता था। ब्राह्मण बालक को चौदह विद्याओं के साथ कर्मकांड का अध्ययन कराया जाता था। क्षत्रिय बालक को बहत्तर कलाएँ सिखाई जाती थी, किंतु उसे अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुणता प्राप्त करना आवश्यक होता था। विद्यार्थी को गुरुकुल में ही रहकर विद्या अध्ययन करना होता था। यहाँ आवास और भोजन की व्यवस्था निःशुल्क थी। अधिकांश अध्ययन मौखिक होता था। बड़ी-बड़ी सभाओं में प्रश्नोत्तरों और शास्त्रार्थ के द्वारा विद्वानों की योग्यता की पहचान की जाती थी। विजेता को राजा की ओर से जयपत्र प्रदान किया जाता था और जुलूस निकालकर उसका सम्मान किया जाता था। इसके अतिरिक्त विद्वान् गोष्ठियों में एकत्र होकर साहित्यिक चर्चा करते थे। पूर्व मध्यकाल में कान्यकुब्ज (कन्नौज) विद्या का सबसे बड़ा केंद्र था। राजशेखर ने कन्नौज में कई गोष्ठियों का वर्णन किया है। राजशेखर ने ‘ब्रह्म सभा’ की भी चर्चा की है। ऐसी सभा उज्जैन और पाटलिपुत्र में हुआ करती थी। इस प्रकार की सभाएँ कवियों की परीक्षा के लिए उपयोगी होती थी। परीक्षा में उत्तीर्ण कवि को रथ और रेशमी वस्त्र से सम्मानित किया जाता था। उपर्युक्त वर्णन से प्रमाणित होता है कि सम्राट् हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भी उत्तर भारत से विद्या का वातावरण समाप्त नहीं हुआ था। गुर्जर प्रतिहार शासक स्वयं विद्वान् थे और वे विद्वानों को राज्याश्रय भी प्रदान करते थे।

साहित्य के क्षेत्र में भिल्लमाल भीनमाल एक बड़ा केंद्र था। यहाँ कई महान् साहित्यकार हुए। इनमें ‘शिशुपालवध’ के रचयिता माघ का नाम उल्लेखनीय है। माघ के वंश में सौ वर्षों तक कविता होती रही और संस्कृत और प्राकृत में कई ग्रंथ रचे गए। विद्वानों ने उसकी तुलना कालिदास, भारवि तथा दंडी से की है। माघ के ही समकालीन जैन कवि हरिभद्र, सुरि हुए। उनके द्वारा रचित ग्रंथ ‘धुर्तोपाख्यान’ बहुत चर्चित रहा। इनका सबसे प्रसिद्ध प्राकृत ग्रंथ ‘समराइच्चकहा’ है। हरिभद्र के शिष्य उद्योतन सूरि ने 778 ई. में जालोन में ‘कुवलयमाला’ की रचना की। मिहिर भोज के दरबार में भट्ट धनेक का पुत्र वालादित्य रहता था। जिसने ग्वालियर प्रशस्ति, जैसे प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी। इस काल के कवियों में राजशेखर की प्रसिद्धि सबसे अधिक थी। उसकी अनेक कृतियाँ आज भी उपलब्ध हैं। कवि और नाटककार राजशेखर सम्राट् महेंद्रपाल प्रथम का गुरु था। राजशेखर बालकवि से कवि और फिर कवि से राजकवि के पद पर प्रतिष्ठित हुआ। इसी दौरान ‘कर्पूरमंजरी’ तथा संस्कृत नाटक ‘बालरामायण’ का प्रणयन किया गया। इससे पता चलता है कि प्रतिहार काल में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं में साहित्य की रचना हुई, किंतु प्राकृत दिनों-दिन कम होती गई और उसकी जगह अपभ्रंश लेती गई। इस काल में ब्राह्मणों की तुलना में जैनों द्वारा रचित साहित्य की अधिकता है। जिसका कारण जैन ग्रंथों का भंडार में सुरक्षित बच जाना, जबकि ब्राह्मण ग्रंथों का नष्ट हो जाना हो सकता है। सम्राट् मिहिर भोज भगवती के उपासक थे, लेकिन उन्होंने विष्णु के मंदिर का भी निर्माण करवाया। इनके समय में विष्णु के सभी अवतारों की पूजा की जाती थी।