चुनावी वर्ष bhagirath द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चुनावी वर्ष

 

चुनावी वर्ष         

यह चुनावी साल है। राजनीतिक हलकों में अफरा-तफरी मची है। अखबार चाटने वाले, टीवी न्यूज से चिपके लोग, बहस-मुबाहिसे में उलझे लोग, चुनावी चर्चा में व्यस्त है। राजनीतिक दल के निचले कार्यकर्ताओं में बहसें चल रही है। सब अपने-अपने दृष्टिकोण से जय-पराजय तय कर रहे हैं। एक तबका कह रहा है सरकार रिपिट होगी तो दूसरे का कहना है कि सरकार बदलेगी इस राज्य की यही परंपरा है। एक बार इसे तो दूसरी बार उसे। दो ही दल तो इस राज्य में सक्षम है। देखें राजनीति क्या करवट लेती है?

अखबार वालों के तो मजे ही मजे हैं रोज एक-एक पेज के विज्ञापन राजनीतिक दल दे रहे हैं। पेड़-न्यूज  छिपे तौर पर खूब दी जा रही है। संभावित उम्मीदवार पत्रकारों की चिरौरी कर रहे हैं, “हमारी भी भैया न्यूज अखबार में डाला करो। डाल तो देंगे पर अखबार में विज्ञापन भी देना होगा।”

“कैसा विज्ञापन?”

“क्षेत्र के लोकप्रिय विद्यार्थी नेता, युवाओं की आकांक्षाओं के प्रतिनिधि फिर अपने फोटो के साथ युवाओं के फोटो, इससे न्यूज लगाने में आसानी होगी।”

पान की दुकानें तो करीब-करीब गायब हो गई है लेकिन चाय घरों में बहसें चल रही है, शर्तें लग रही है, चुनौती दी जा रही है, और दांव लगाए जा रहे हैं। भड़ास निकाली जा रही है, फलां दल को ठिकाने लगाने की बात की जा रही है। चुनाव की बारात में सब चलने को तैयार बिना निमंत्रण के, चुनाव के बहाने अपनी-अपनी पालिटिक्स चला रहे हैं, कोई अपना ज्ञान बघार रहा है, कोई फलां दल या नेता की हवा की बात कर रहा है। इस बार हवा चरखे की है, नहीं इस बार हवा भगवे की है। ये जो चर्चा करनेवाले लोग हैं इन्हें कुछ नहीं मिलना मगर सबसे ज्यादा ये लोग ही उत्साहित है।

प्रत्येक दल के विद्यार्थी संगठन और किसान संगठन ऐक्टिव हो गए हैं।  वे अपने नेताओं के लिए टिकट चाहते हैं। सीनियर नेताओं तक सिफारिश हो रही है कई तो दिल्ली की राह पकड़ रहे हैं अपने समर्थकों के साथ। कई थैलियों पर भरोसा कर रहे हैं, तो कईयों को अपने उच्च पद का भरोसा है। इन सबसे आगे जाति संगठनों के नेता है जिनका अपने क्षेत्र में दबदबा है। बीस प्रतिशत तक उनके वोटर है। ज्यादा जनसंख्या वाली जातियाँ राजनीतिक दलों को भी प्रभावित कर लेती है। जाट, मीणा, गूजर, भील ब्राह्मण, आदि। राजपूत संख्या में अधिक नहीं है लेकिन जनता में प्रभाव ज्यादा रखते हैं। जमींदारी चले जाने के बावजूद जनता में सामंती सोच बनी हुई है, अभी भी उन्हें इज्जत और भय की मिलीजुली  नजर से देखा जाता है। अभी भी ‘हाँ हुकुम’ कहने वाले लोग है। जमींदारी का ठसका अभी तक बचा  हुआ है। दबंगाई अपनी जगह है ही, प्रशासन में उनके अपने लोग है जो इन्हें प्रोटेक्शन देते है। जनसंख्या के मुकाबले इनके विधायक अपेक्षाकृत ज्यादा है। ओबीसी की कुछ जातियों का प्रतिनिधित्व काफी कम है। एक ही जाति के कई फिरके राजनीतिक लाभ के लिए इकट्ठा हो रहे है ताकि संख्या बल बढ़े तो राजनीति में पूछ बढ़ेगी।  

जातियों को लुभाने के लिए एक राजनेत्री  का यह कथन जगत प्रसिद्ध है, ‘मैं जाटों की बहू हूँ, राजपूतों की बेटी हूँ और गुर्जरों की समधिन हूँ।’ राजनीति में प्रभाव रखने वाली तीन जातियों को एक ही वाक्य में समेट लिया। राजनीति वोटरों को साधने की कला का नाम ही तो है।

सब जानते हैं कि शेखावाटी क्षेत्र जाट बहुल है, दक्षिणी राजस्थान गुर्जर और मीणा बहुल है, हाड़ौती क्षेत्र ब्राह्मण, वैश्य और जैन बहुल है, मेवाड़-वागड़ क्षेत्र आदिवासी बहुल क्षेत्र है, इस तरह हर क्षेत्र में कौन-कौन सी जातियाँ प्रमुख है उसका गणित सबके पास है इसी को दृष्टि में रखकर टिकट आवंटित किए जाते हैं। 

कॉंग्रेस संगठन के मामले में बीजेपी से पिछड़ जाती है क्योंकि कॉंग्रेस के पास पार्टी संगठन के अलावा ‘कॉंग्रेस सेवा दल’, ‘भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन’, भारतीय महिला काँग्रेस राष्ट्रीय मजदूर कॉंग्रेस, किसान और खेत मजदूर काँग्रेस, भारतीय यूथ काँग्रेस नाम के केवल छः ही संगठन है वह भी नाममात्र के। जबकि बीजेपी के पास सैकड़ों ऐक्टिव संगठन और उनके कार्यकर्ता है जैसे विश्व हिन्दू परिषद, भारत विकास परिषद, विद्या भारती के हजारों स्कूल और उनके अध्यापक और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को फ़ीड करनेवाले विद्यार्थी, वनवासी परिषद, साहित्य परिषद, बजरंग दल, भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संगठन, संस्कार भारती, स्वदेशी जागरण मंच, सेवा भारती, दुर्गा वाहिनी इत्यादि।     

मौजूद विधायक अपनी विधायकी बचाने के चक्कर में प्रदेशाध्यक्ष और मुख्यमंत्री की गुड बुक्स में रहने के लिए सब कुछ करने को तैयार इतने पर भी तसल्ली न हुई तो केन्द्रीय चुनाव समिति तक अप्रोच भिडाने की जुगत कर रहे है। चाहे मंत्री न बने फिर भी मलाईदार और सम्मानीय माननीय विधायक है। अपने क्षेत्र में चलती है ट्रांसफर पोस्टिंग ठेकादारी अपने क्षेत्र की नगरपालिकाओं के बजट ठिकाने लगाने का काम तो उनके पास रहता ही है फिर विधायक कोश है, सत्ता का चस्का है ही बुरा, एक बार लग गया तो फिर छूटता नहीं है।

ऐसी स्थिति में एक नगरपालिका की अध्यक्ष ने विधान सभा चुनाव लड़ने कि ठानी। वेरी हार्ड नट टू क्रेक, लेकिन वह तो आत्मविश्वास से भरी थी अब पीछे मुड़कर देखने का कोई मतलब नहीं था, साथी पार्षदों ने खूब ऊंची दी कि मैडम आपके मुकाबले में कोई बैठ नहीं पायगा।  चयन कमेटी जो प्रश्न पूछेगी उसकी तैयारी पूरी होनी चाहिए। मौजूदा विधायक को छोड़कर आपको क्यूँ टिकट दिया जाय? अपने बल पर कितने वोट ले पायगी?

चुनावी फंड कि व्यवस्था कैसे होगी? किन वर्गों का सपोर्ट आपका मिलेगा? अपनी जाति के वोट हासिल कर पायगी? भाषण दे पाएगी 12 घंटे का चुनावी दौरा कर पायेगी? घरवाले तुम्हारे साथ हैं? गणमान्य व्यक्तियों से आपके संपर्क है? संगठन के कार्यकर्ता आपको सपोर्ट करेंगे? महिलाओं को मोबीलाइज कर पाएगी? और भी कठिन सवाल पूछ सकते हैं राज्य स्तर के नेता क्या तुम्हारी चुनावी सभाओं को संबोधित करेंगे? ऐसे कौन-कौन नेता है? चुनावी कमान कौन संभालेगा? छात्र नेता, महिला नेता, किसान नेता, मुस्लिम नेता, मजदूर नेता अनु सूचित जाति के नेता सबको चुनावी रण में झौंक पायगी?

टिकट तो जीतनेवाले उम्मीदवार को ही मिलेंगे। चाहे यह पार्टी हो या वो। जीतनेवाले का पता कैसे लगे? तमाम समीकरणों में जो आगे हो वही टिकट प्राप्त करेगा। कोई सेलेब्रिटी को तो टिकट आसनी से मिल जाता है चाहे वे बॉलीवुड के हों या क्रिकेट जगत के। आईएएस और आईपीएस रहे उम्मीदवार जिन्होंने अपने कार्यकाल में ख्याति अर्जित की हो। पार्टी की सेवा करनेवाले अक्सर पीछे रह जाते हैं क्योंकि उनमें जीतने कि सम्भावना कम होती है। ऐसे में नगरपालिका अध्यक्ष को टिकट मिलना मुश्किल है। फिर भी कोशिश तो की ही जा सकती है।

 महिला नेता है उम्मीद तो बनती है फिर नगरपालिका अध्यक्ष रहते जो कमाई की है उससे वे आत्मविश्वास से भरी है पैसा ऐसा मोटिवेशन है जो कार्यकर्ता को रात दिन दौड़ने पर मजबूर कर देगा जरा एंटी ढीली करो और संगठन का सपोर्ट भी मिलेगा जिला कमेटी और ब्लॉक कमेटी का भी। पहले वाले एमएलए को मात देना मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं है। वैसे भी उनका कार्यकाल बोदा ही गया है। लोगों की नाराजगी को विरोध में बदलना पड़ेगा तथा विरोध को एक जुट करना होगा।

विपक्षी पार्टी की इस विधानसभा क्षेत्र में पैठ नहीं है पिछले तीन चुनाव से वे जीत नहीं पाए हैं सो टिकिट मिल जाए तो समझो जीत पक्की। सुनहरे सपने देखते-देखते पहुँच गई पार्टी अध्यक्ष जी के पास अध्यक्ष जी बड़ा सा आश्वासन दिया और सपोर्ट भी। ऐसा सपोर्ट तो वे हरेक उम्मीदवार को देते हैं असली है सिंबल किसे मिलता है।

घरवाले सोच रहे हैं कि जीत गई तो महिला कोटे से मंत्री भी बन सकती है लेकिन घरवाला बहुत उदास था। वह तो पहले से ही उदास था प्यार मुहब्बत तो जैसे भूल ही गई रात दिन राजनीति की ऊहापोह में लगी रहती है; उद्घाटन करना है, पार्षदों को पटाना है, कलेक्टर से मिलना है, महिला मोर्चा निकालना है, ठेके बांटने हैं, एसडीओ और इओ को राजी रखना है। धार्मिक उत्सवों की अगवानी करनी है ऐसे में प्यार मुहब्बत का दम घुटना लाजमी है। घरवाला दुआ करता कि टिकिट मिले ही नहीं मिले तो हार जाए।        

जन संपर्क शुरू कर दिया गाँव-गाँव होर्डिंग लग गए उसका मानना था कि तेजी से चलने से मंजिल जल्दी मिल जाती है। अपने ब्लॉक में तो प्रचार अभी से सघन होना चाहिए बाकी के दो ब्लॉक को बाद में देखेंगे अखबार में रोज कोई न कोई खबर छप जाती फ़ोटो के साथ। इनके चुनाव लड़ने की चर्चा पूरे विधान सभा क्षेत्र में चल रही थी।  

 जिला कमेटी ने तीन नामों की अनुशंसा की थी जिसमें इनका भी  नाम था पहला किला तो फतह हो गया अब राज्य कमेटी क्या करती है? चर्चा है कि एक नाम ड्रॉप हो जायगा,  किसका होगा? कहीं इनका न हो जाए तो किया कराया धरा रह जायगा। अब उन्होंने जयपुर में ही डेरा डाल दिया। रोज किसी न किसी से मिलना चयन कमेटी के मेंबरों से भी मिली। पैनल के उम्मीदवार मिलने आए कुछ पैसे की पेशकश की कि अपना नाम वापस ले लो। उन्होंने डबल राशि औफ़र की कि आप अपना नाम वापस ले लो।

महत्वाकांक्षा जब किसी व्यक्ति पर छा जाती है तो वह बड़े से बड़ा दांव लगाने को तैयार हो जाता है। एमएलए और मंत्री बनने का सपना उसकी पूरी चेतना पर छाया था अतः पीछे हटने का तो कोई सवाल ही नहीं था। एंटी इनकुंबेन्सी    एमएलए के विरुद्ध कार्य कर रही थी सो उन्होंने नए पेंतरे फेंके उन्होंने तीनों ब्लॉकों में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए जातिवार संगठनों को पैसे बांटने शुरू किये ये पैसे कोई उनके घर से नहीं आए थे बल्कि सरकार का विधायक फंड ही था जो 80%बचा हुआ था पहले ब्राह्मणों को छात्रावास बनने के लिए भूमि और 11 लाख की घोषणा की ब्राह्मणों ने उनका भव्य स्वागत किया फिर नाई धोबी दर्जी अग्रवाल समाज को सामुदायिक भवन बनाने के लिए जमीन और 11 लाख की घोषणा। अब हर समाज उनके स्वागत में लहालोट हुआ जा रहा था। युवाओं के खेल क्लब को खेल प्रतियोगिता के लिए राशि दी, महिलाओं के पानी कि समस्या का समाधान किया, कई बस्ती में नई टंकी बनवाई गई और एक घंटे की बजाय दो घंटे पानी की सप्लाई बढ़ाई। एससी एसटी के छात्रावास पहले से थे उन्होंने धर्मशाला की माँग रखी जिसे उन्होंने मंजूर कर लिया कहने का मतलब कोई वर्ग नहीं छूटा जिसे भरपूर नहीं दिया गया। लोगों में उनकी सकारात्मक चर्चा होते देख बहनजी के पाँवों तले जमीन खिसक गई।

जो लोग उनके गुणगान कर रहे थे वे ही अब एमएलए के पक्ष में हो गए। पार्टी तो दोनों की एक ही थी जब इन सबकी रिपोर्ट ऊपर गई तो उनका पलड़ा भारी हो गया।

तो इन्होंने विपक्षी पार्टी से संपर्क साधा। पुराने हरे नेता को टिकिट देने की बजाय नये चेहरे पर दांव लगाना ठीक रहेगा यह सोचकर विपक्षी पार्टी ने टिकट दे दिया। सरकार बनी तो वारे न्यारे हो जाएंगे नहीं तो माननीय विधायक तो बने ही रहेंगे। उन्होंने विपक्षी पार्टी से लड़ने का फैसला किया। और चुनाव मैदान में डट गई। उन्होंने जुआरी की तरह ब्लाइन्ड दांव लगाये पूरी कोथली खाली कर दी।   

चुनाव परिणाम अनपेक्षित थे नगरपालिका अध्यक्ष पाँच हजार वोट से जीत गई। पूर्व एमएलए की एंटी इनकुंबेन्सी भरी पड़  गई। जनता ने मालाओं से लाद दिया। लुटने के बाद भी उनका चेहरा चमक रहा था। पति आशा-निराशा के मकड़जाल में फंसा जीत की खुशी में उसे बाहों में भर कर उठा लिया।