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सूर्यास्त से सूर्योदय तक हिन्दी नाटक

द्रश्य – सूर्यास्त का समय। समुद्र का तट । तट पर जन भीड़। भीड़ के कोलाहल द्वारा भीड़ का अनुभव कराना ।
[यह द्रश्य पीछे परदे पर दिखा सकते हैं] [मंच पर एक कोने में एक समुद्री खड़क की आकृति, नीचे श्वेत रेत, पार्श्व में भीड़ का कोलाहल, समुद्री हवा की ध्वनि तथा समुद्र की तरंगों का स्वर]
[पुरुष- निवृत्त हो चुका- मंच की रेत पर प्रवेश करता है, समुद्र को देखते देखते। कुछ पग आस पास देखता देखता चलता रहता है।]
[एक कोने में ठहर जाता है, समुद्र की तरफ दृष्टि रखकर बोलत है]
पु – कितनी भीड़ है! कितना कोलाहल है! लोग इतना कोलाहल क्यों करते हैं?
[तभी उसके समीप एक सिंग बेचने वाला आता है]
सिंग वाला- सिंग ले लो, गरम गरम सिंग ले लो। [पुरुष को ] सिंग खाओगे, श्रीमान?
[पुरुष कुछ क्षण उसे देखता रहता है।]
सिंग वाला- सिंग दूँ क्या?
पु- दे दो। पर एक प्रश्न पूछूँ?
सी- पूछिए जी। सब प्रश्न के उत्तर रखता है यह सिंगवाला।
पु- आप यहाँ वर्षों से आते रहते होंगे।
सी- तब मैं सात वर्ष का था। मेरे पिताजी के साथ आया था। तब से आता हूँ यहाँ।
पु-[सिंगवाले को देखकर विचार करते हुए] तब तो तीस से भी अधिक वर्ष से आप यहाँ से परिचय रखते हो।
सी- आप इतना सत्य आकलन कैसे कर लेते हो?
पु- इस तट पर आते लोग तब भी इतना कोलाहल करते थे?
सी- आपने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया।
पु- कभी कभी तुक्का काम कर जाता है। खास कुछ नहीं भैया।
सी- तुक्के अच्छे लगा लेते हो।
पु- आप मेरे प्रश्न का उत्तर दोजीए।
सी- नहीं। उस समय इतनी भीड़ नहीं होती थी। पिताजी साढ़े तीन किलो सिंग लेकर आते थे, कभी खतम नहीं हुई। थोड़ी कुछ बच ही जाती थी।
पु- आप अब कितनी लेकर आते हो?
सी-आठ किलो। घर लौटते समय पूरी बिक जाती है।
पु- दो प्रश्न पूछूँ?
सी- और दो प्रश्न? पूछिए श्रीमान। आज वर्षों बाद किसी ने मुझ से इतनी बातें की है। पूछिए जीतने प्रश्न पूछने हो।
पु- पिताजी के साढ़े तीन किलो और आपके आठ। ऐसा क्यों? कभी इससे अधिक लाने की मनसा नहीं हुई?
सी- परिवार का पेट भर जाता है। और क्या चाहिए।
पु- [कुछ बोलने की चेष्टा करते हुए]
सी- संतुष्ट हूँ। अधिक की लालसा नहीं है। और कुछ पूछना है?
पु- हाँ। किन्तु पहले यह लो [रुपये देते हुए] और सिंग बांध दो। साथ साथ उत्तर भी देते रहना।
[सिंगवाल रुपया ले लेता है, सिंग बांधने लगता है]
पु- इतनी भीड़, इतने कोलाहल से दूर कोई ऐसा स्थान बात दो जहां जाकर मैं शांत चित्त से सूर्यास्त को देख सकूँ। कोई ऐसा स्थान जहां अस्त होते सूर्य और मेरे मध्य कोई व्यवधान न हो, कोई ध्वनि न हो। केवल सूर्य, मैं, समुद्र की तरंगें, समुद्र की ध्वनि, यह मधुर पवन और शांति। क्या है कोई ऐसा स्थान इस तट पर?
[सिंगवाला सारे तट पर दृष्टि घूमाता है, पुरुष की तरफ मुड़कर]
सी- है,श्रीमान। मैं आपको वह स्थान दिखाता हूँ। वहाँ दूर देखो [कोने में पड़े समुद्री पत्थर [खड़क] की तरफ संकेत करते हुए] वह एक काला पत्थर दिख रहा है?
पु- [ पत्थर की तरफ देखते हुए ] वह पत्थर?
सी- हाँ। वही। उस पर बैठकर आप अस्त होते सूर्य को देखोगे तब सूर्य होगा और आप होंगें। वहाँ न कोई जाता है न कोई उसे देखता है। आपका और सूर्य का तादात्म्य हो जाएगा।
पु- क्या हो जाएगा? पुन: एक बार कहो।
सी- तादात्म्य हो जाएगा।
पु- यह शब्द कहाँ से सीखा? और इतनी शुद्ध हिन्दी भी आप बोल लेते हो?
सी-आप जैसे किसी व्यक्ति की संगति का प्रभाव है। अब विलंब न करें और उस पत्थर तक जाइए। सूर्य की गति अस्त होने के समय तीव्र हो जाती है। जाइए।
[पुरुष जाने लगता है]
सी- श्रीमान, यह सिंग तो लेते जाइए । [सिंगवाल सिंग देता है, पुरुष लेता है] और एक बात। आज तक किसी ने मुझे ‘आप’ कहकर संबोधित नहीं किया। आपका धन्यवाद, श्रीमान।
पु-[स्मित के साथ] मुझे भी आजतक किसीने श्रीमान कहकर संबोधित नहीं किया है। आपका भी इसलिए धन्यवाद॥
सी- तो आपको क्या कहते हैं लोग?
पु- कभी मिस्टर, तो कभी जेन्टलमेन। [पुरुष मुक्त मन से हंस देता है, सिंगवाल भी]
[पुरुष उस पत्थर की तरफ चलने लगा है।]
[मंच पर थोड़ा चलकर वह उस पत्थर के समीप आ जाता है। जैसे जैसे वह पत्थर के समीप आता है वैसे वैसे भीड का कोलाहल मंद होता जा रहा है, समुद्र तरंगों की ध्वनि बढ़ती जाती है। वहाँ से अस्त हो रहे सूर्य की दिशा में देखता है]
पु-[स्वगत] हाँ, यह स्थान ठीक है। यहाँ से सूर्यास्त देखने में कोई व्यवधान नहीं आएगा। यहाँ कोलाहल की ध्वनि भी कितनी मंद मंद सुनाई दे रही है। नहीं, नहीं। अब तो यह ध्वनि भी समुद्र की तरंगों की ध्वनि में समाहित हो जाती है। सूर्यास्त दर्शन के लिए इससे अधिक उपयुक्त स्थान कदाचित कोई नहीं होगा। मैं यहाँ बैठ जाता हूँ।
[वह पत्थर पर बैठने जाता है किन्तु रुक जाता है]
यहाँ थोड़ा पानी है। जूते निकाल लेता हूँ। पानी का स्पर्श पैरों को रॉमचित कर देगा। [वह जूते निकाल लेता है, मौजे भी] [पत्थर पर चड़ता है और एक चीस के साथ पैर खींच लेता है।]
यह पत्थर तो नुकीला है। [पैर को देखता है] पीड़ा देता है यह पत्थर। कहीं अन्यत्र चलना चाहिए। [चारों तरफ दृष्टि डालता है] सूर्यास्त दर्शन के लिए अन्य कोई स्थान .. .. नहीं दिख रहा। यहीं ठीक रहेगा। जूते पहन लेता हूँ। [जूते लेने झुकता है] नहीं। भले थोड़ी पीड़ा होगी पर जब पैरों को पानी का स्पर्श होगा तो पीड़ा को भूल जाऊंगा। [नंगे पैर वह पत्थर पर बैठ जाता है।] आहा हा। समुद्र का स्पर्श कितना मधुर है! ऊपर से यह पवन, समुद्र की ध्वनि, रंग बदलता आकाश और अस्त होता सूर्य। कितना अनुपम दृश्य है यह। अब मैं मौन हो जाता हूँ। केवल इन क्षणों को सुनता हूँ।
[एक गहन श्वास लेकर वह मौन हो जाता है। समुद्र की ध्वनि का स्वर, मंद मंद पवन का स्वर]
[सहसा एक युवती सादी किन्तु सुंदर रूप से पहनी हुई साडी के साथ मंच पर प्रवेश करती है। थोड़ा टहलकर उस पत्थर के समीप आ जाती है जहां वह पुरुष बैठा है।]
युवती- यहाँ तो कोई बैठा है। आज कौन यहाँ आ गया? [पुरुष को संबोधित करते हुए] क्या आप कहीं अन्यत्र बैठ सकते हैं? [पुरुष ने उसको देखा। कोई उत्तर नहीं दिया। मौन हो गया । सूर्यास्त देखता रहा] यह पत्थर मेरा है। मैं यहाँ ही बैठती हूँ। डूबते सूरज को यहीं से देखती रहती हूँ।
कब से? यही पुछ रहे हो ना? मैं जानती हूँ तुम्हारे मन ने यही प्रश्न किया है। मैं ठीक कह रही हूँ न? मैं कब से यहाँ बैठती हूँ यह तो मुझे भी ठीक ठीक स्मरण नहीं है। कदाचित कल से ही .. कदाचित महीने भर से.. कदाचित पिछली वर्षा से। तुम यह समय जानकार क्या करोगे? मैं कहती हूँ न कि मैं यही बैठती हूँ, यह पत्थर मेरा है। बस इतना पर्याप्त है। मैं इतना जानती हूँ कि आज भी मैं सूर्यास्त का दर्शन यहीं से ही करूंगी। आप कहीं चले जाइए।
चलिए उठिए। [पुरुष उसकी तरफ शून्य दृष्टि से देखता है।] ऐसे क्या देख रहे हो? चलो उठो। [पुरुष ने उस स्थान से उठने का कोई संकेत नहीं दिया।] चलो विलंब न करो। अभी सूरज डूब जाएगा। जब सूरज डूब जाए, अवनी पर तमस उतार आए तब मैं चली जाऊँगी। तब आप यहाँ बैठ जाना। कल सूर्यास्त से पूर्व तक आप बैठ सकते हो। किन्तु अभी तो चलो। [पुरुष युवती को देखता है। वह थोड़ा पीछे हट जाता है। पत्थर पर थोड़ा स्थान रिक्त हो जाता है। संकेतों से युवती को वहीं बैठने को कहता है।]
तो आप उठाने वाले नहीं हो। ठीक है। अभी सूर्यास्त होने वाला है इसलिए आपसे चर्चा में लग गई तो विलंब हो जाएगा। आज तो बैठ जाती हूँ, कल यह नहीं चलेगा। [युवती पुरुष के समीप पत्थर पर बैठ जाती है। पुरुष की तरफ देखते हुए ] मैंने जो कहा वह स्मरण रखना। कल मुझे यह स्थान खाली चाहिए। [सूर्य की दिशा में देखती है]
[कुछ क्षण में सूर्यास्त हो जाता है.। पुरुष उस स्त्री को देखता है, स्थान से उठता है, गहन श्वास लेता है।]
पु- तुम बोलती अधिक हैं।
यू- और तुम देखने के स्थान पर सुनते अधिक हैं। [पुरुष युवती की तरफ प्रश्न भरी दृष्टि से देखता है।] तुम मुझे सुन रहे थे या सूर्यास्त देख रहे थे? तुम्हारा ध्यान मेरे शब्दों पर था, दृष्टि भले ही सूर्य की तरफ थी।
पु- तो तुम भी सूर्य के स्थान पर मुझे देख रही थी? तब तो तुमने भी सूर्यास्त के क्षण व्यर्थ ही नष्ट कर दिए।
यु – इसका अर्थ यह है कि तुम स्वीकार करते हैं तुमने इन क्षणों को नष्ट कर दिया?
पु- तुम भी स्वीकार कर लो।
यु – मैं तो स्वीकार कर लेती हूँ। इससे मुझे कोई अंतर नहीं पड़ेगा। किन्तु तुम्हें अवश्य पड़ेगा।
पु- वह कैसे?
यु- मैं तो प्रतिदिन इस घटना को देखती रहती हूँ। केवल आज को छोड़कर।
पु- कब से?
यु- कब से? पुन: वही प्रश्न? मुझे उस तिथि का यथार्थ ज्ञान नहीं रहा है। किन्तु उससे मुझे कोई अंतर नहीं पड़ेगा। किन्तु तुम तो आज प्रथम बार ही इस घटना को देखने आए हो। तुम्हारे लिए तो यह व्यर्थ हो गया।
पु- तुम यह कैसे जानती हो?
यु- मैं व्यक्ति को देखकर सब जान लेती हूँ।
पु- तुम कौन हो?
यु- मैं कौन हूँ?[वह मुक्त मन से हंसने लगती है। हँसना रुकने पर] यदि मैं मेरा नाम बात दूँ तो मेरे विषय में कितना जान सकोगे?
पु- मैं नहीं जानता।
यु- मेरा व्यवहार ही मेरा परिचय है। क्या यह पर्याप्त नहीं है?
पु- वह तो देख ही रहा हूँ।
यु- अभी तो देखा ही क्या है? आगे आगे देखो, देखते रहो। [पुरुष उसे प्रशनार्थ दृष्टि से देखता है] आज सूर्यास्त छूट गया तो क्या हुआ? कल सूर्योदय देख लेना। हाँ, सूर्योदय देखने के लिए यह पत्थर काम नहीं आएगा। यहाँ से सूर्यास्त देखना अच्छा है किन्तु यहाँ से सूर्योदय नहीं दिखेगा। [वह थोड़ा टहलती है] वहाँ देखो[ पूर्व (सूर्यास्त की विपरीत)दिशा में संकेत करती है] सूरज वहाँ से निकलेगा। तुम उस तरफ कहीं भी जाकर देख सकते हो। हाँ, सूर्योदय के समय कोई व्यवधान नहीं होगा, कोई कोलाहल नहीं होगा। तुम अच्छी तरह से सूर्योदय का आनंद ले सकते हो।
पु- क्यों? क्या उस समय भीड़ नहीं होगी? कोलाहल नहीं होगा?
यु – नहीं। कुछ भी नहीं होगा।
पु- ऐसा क्यों?
यु- डूबते सूरज में ही सब रुचि रखते हैं, उगते सूर्य में कोई नहीं।
पु- क्या तुम्हें उगते सूर्य में रुचि रही है?
यु- दोनों सूर्य में मेरी रुचि रही है।
पु- अर्थात तुम प्रतिदिन सूर्योदय भी देखती हो।
यु- अवश्य। किन्तु कल मैं नहीं आऊँगी।
पु- क्यों नहीं आओगी?
यु- कल तुम जो आनेवाले हो।
पु- तो क्या हुआ?
यु- बहुत कुछ हो जाएगा, श्रीमान।
पु- जैसे?
यु- मैं आऊँगी तो तुम्हारे निकट बैठूँगी। मैं मेरी बातें बोलती रहूँगी। तुम दृष्टि तो सूर्य पर रखोगे किन्तु कान मेरी बातों पर रखोगे। मेरी बॅक बॅक सुनते रहोगे। इसमें तुम्हारा ध्यान सूर्य पर न होकर मेरे पर केंद्रित रहेगा। तुम विचलित हो जाओगे और इतने में सूर्योदय हो जाएगा। तुम्हारा सूर्योदय भी आजके सूर्यास्त की भांति नष्ट हो जाएगा। आज का दोष तो मेरे माथे पर लग गया, कल का दोष मैं नहीं उठा सकती।
पु- तब तो मेरे कारण तुम्हारा सूर्योदय छूट जाएगा। यह पाप तो मैं भी अपने माथे पर नहीं ले सकता। मैं नहीं आनेवाला कल सूर्योदय दर्शन करने के लिए। तुम अपना नित्यक्रम भंग न करना।
यु- नहीं, नहीं। कल तो तुम्हें ही आना है। मैं नहीं आऊँगी यह निर्णय हो गया।
पु- किन्तु मैंने यह निर्णय स्वीकार नहीं किया है। तुम मेरे लिए अपना नित्यक्रम भंग नहीं करोगी।
यु- मेरी तथा मेरे नित्यक्रम की आप चिंता न करें।
पु- क्यों न करूँ?
यु- इतने सारे सूर्योदय देख लिए हैं तो ... ।
पु- [यूवती की बात को काटते हुए] कितने सारे?
यु - बहोत सारे।
पु- बहोत सारे अर्थात कितने?
यु- ऐसी बातों की गिनती नहीं करनी चाहिए। छोड़ो इन बातों को। यह निर्णय रहा कि कल तुम सूर्योदय दर्शन करोगे। अकेले ही। बिना भीड़ के, बिना व्यवधान के, बिना कोलाहल के। और बिना मेरी बक बक सुने।
पु- क्या यह आदेश है? मैं नहीं माननेवाला किसी अज्ञात युवती के आदेश को।
यु- यह आदेश मेरा नहीं है। यह आदेश नहीं, तुम्हारी नियति है। नियति को कौन टाल सकता है?
पु- यदि यही नियति है तो मिथ्या है।
यु- क्यों?
पु- मैं कभी सूर्योदय से पूर्व जागा ही नहीं। सूर्योदय के समय भी नहीं। तो सूर्योदय से पूर्व जागकर यहाँ आना और सूर्योदय देखना मेरी नियति नहीं हो सकती। तुम को कहीं कोई भ्रम तो नहीं हो गया?
यु- मुझे कभी कोई भ्रम नहीं होता। मैं नियति को भली भांति जानती हूँ, देख लेती हूँ, पढ़ लेती हूँ। किन्तु प्राय: किसी को नहीं बताती।
पु- तो मुझे क्यों बताया जा रहा है?
यु- यह भी नियति ही है।
पु- मैं नहीं मानता ऐसी नियति को जिसे यह भी ज्ञात नहीं है कि सूर्योदय से पूर्व जागना मेरा चरित्र नहीं है।
यु - नियति सब के चरित्र को बड़ी गहनता से जानती है। वही सब के चरित्र का निर्माण करती है। कोई नहीं जानता कि नियति कब किसे कौन से चरित्र में ढाल दे।
पु- जो भी हो, मैं सूर्योदय से पूर्व जागनेवाला नहीं हूँ।
यु- जागते तो वह हैं जो सो जाते हैं। जिन्हें निद्रा नहीं आती वह जागेगा भी कैसे?
पु- क्या तात्पर्य है?
यु- सूर्योदय से पूर्व क्यों नहीं जागते हो? भय लगता है?
पु- किसका भय?
यु- अंधकार का।
पु- कैसा अंधकार?
यु- जिस मार्ग पर हम कभी नहीं चले वह मार्ग हमें अज्ञात लगता है, अंधा लगता है। हम कल्पना कर लेते हैं कि उस मार्ग पर प्रकाश नहीं है। तमस की वह कल्पना हमें भयभीत कर देती है। किन्तु एक बार उस मार्ग तक जाना चाहिए। उस मार्ग को देखना चाहिए। वहाँ भी प्राणी रहते हैं, मनुष्य रहते हैं। वह भी तो जीवन जीते हैं। वहाँ भी प्रकाश होता है। वहाँ भी लक्ष्य होते हैं। बिना वहाँ गए, बिना उसे देखे भय और अंधकार को स्वीकार कर लेना भीरुता है। यही कारण है कि सूर्योदय का दर्शन करने के लिए इस तट पर कोई नहीं आता। सभी डूबते सूरज को देखने आते हैं। जानते हो क्यों?
पु-[नकार में सिर हिलाता है]
यु- सूर्यास्त से पूर्व प्रकाश होता है। इस प्रकाश में मनुष्य स्वयं को सुरक्षित मान लेता है और निर्भय होकर चला आता है इस तट पर। किन्तु .. [युवती बोलते बोलते रुक जाती है। दूर क्षितिज में व्याप्त तमस की तरफ देखती रहती है। कुछ क्षण वह स्थिर मुद्रा में रहती है]
पु- किन्तु क्या? रुक क्यों गई?
यु-[एक गहन श्वास लेती है] वहाँ देखो। वह तमस दिख रहा है?
पु- [युवती जहां संकेत करती है वहाँ देखता है।] दिख रहा है।
यु- प्रत्येक सूर्यास्त के पश्चात तमस उतर आता है। गहन तमस। प्रलंब तमस। उस तमस को दूर करने के लिए दूसरे दिन के सूर्योदय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। तथापि मनुष्यों को सूर्यास्त पसंद आता है। जब कि सूर्योदय स्वयं प्रकाश लेकर आता है जो स्थायी होता है। किन्तु किसी को सूर्योदय नहीं देखना। कैसी विचित्रता में जी रहा है यह मनुष्य!
पु- तुम्हारी बात सत्य है किन्तु सूर्योदय मेरे लिए अज्ञात मार्ग है।
यु- कभी तो अज्ञात पगडंडी पर चलने का साहस करो। कभी तो जाने पहचाने मार्ग को भूलने का प्रयास करो। पर्वत पर से जब नदी निकलती है तो वह अज्ञात मार्ग पर चल पड़ती है। तुम भी कभी तो पहाड़ से नदी की भांति निकलो। परिणाम क्या होगा? मार्ग भूल जाओगे यही ना? किन्तु कहीं तो अवश्य पहुँचोगे। मार्ग को भूल जाने का सामर्थ्य है ?
पु- मैं नदी नहीं हूँ।
यु- बंध तालाब भी नहीं रहे हो अब।
पु- अर्थात?
यु- निवृत्त जो हो चुके हो।
पु- मेरे विषय में सब कुछ कैसे जानती हैं?
यु- वह सब छोड़ो। जाओ। कल लौटकर समय पर आना है तुम्हें। कल का सूर्योदय तुम्हारे स्वागत को उत्सुक है।
[द्रश्य समाप्त]

[रात्री का समय। शयन कक्ष में पुरुष सोने की चेष्टा करता है किन्तु निंद्रा नहीं आती है इसलिए वह टहेलता रहता है। वातायन को खोल देता है। बाहर देखता है]
पु- [स्वगत] कितना गहन तमस है! सारा संसार सो चुका है। नीरव शांति है। किन्तु मेरी आँखों में निद्रा क्यों नहीं है? क्या मैं सोना नहीं चाहता?
[पुरुष की परछाई] तुम सोना तो चाहते हो किन्तु एक बार सो गये तो नींद इतनी लंबी ना हो जाए कि सूर्योदय से पूर्व जाग ही न सको।
पु- मैं सूर्योदय देखने नहीं जानेवाले हूँ।
[पुरुष की परछाई] तुम सूर्योदय देखने अवश्य जाओगे।
पु- नहीं। यह संभव नहीं है।
[पुरुष की परछाई] क्यों?
पु- यह मेरा चरित्र नहीं है तो सूर्योदय क्यों देखूँगा?
[पुरुष की परछाई] सूर्योदय के नाम पर उस युवती से पुन: मिलन की अपेक्षा है तुम्हें।
पु- उससे? कैसी कैसी बातें करती रहती है? कितनी बक बक भी करती है। कल वह ना आए तो अच्छा होगा।
[पुरुष की परछाई] क्या अच्छा होगा?
सूर्योदय दर्शन में वह व्यवधान तो नहीं बनेगी।
[पुरुष की परछाई] क्या तुम यही चाहते हो? वास्तव में तुम कुछ और ही चाहते हो।
चुप हो जाओ । चलो भागों यहाँ से। मुझे सोना है।
[पुरुष की परछाई] सोना है? [पुरुष की परछाई अट्टहास्य के साथ विलुप हो जाती है]
[द्रश्य समाप्त]
[वही समुद्र तट। सूर्योदय से पूर्व का काल। तट पर पुरुष प्रवेश करता है। पार्श्व में समुद्र की मंद मंद शांत ध्वनि हो रही ही। पूर्व दिशा में दृष्टि कर खड़ा रहता है]
पु- कुछ ही क्षणों में सूर्योदय होगा। तमस का अंत होगा। प्रकाश से पूर्व का यह तमस, मंद मंद प्रकाश से मिश्रित तमस। इस तमस में कोई तो आकर्षण है जो मुझे अपनी तरफ आकृष्ट कर रहा है। न पूर्ण प्रकाश न पूर्ण तमस। हे तमस, है शर्वरी। अब तक तुम कहाँ थे ? वैसे तो हमारा यह प्रथम मिलन है किन्तु प्रतीत होता है कि मैं तुमसे और तुम मुझसे अनंत काल से परिचय रखते हैं। अनंत काल से।
[चलते चलते रुक जाता है, गहन श्वास लेता है।]
पु- यह गंध? कैसी है यह गंध? गंध है या सुगंध? सुगंध ही प्रतीत हो रही है। किसी पुष्प की सुगंध है यह। [पुन: गहन श्वास से सुगंध को भीतर लेता है।]
पुष्प की सुगंध के साथ कोई और सुगंध भी है! दूसरी सुगंध ? किसकी है यह सुगंध? भीनी भीनी धरती की सुगंध जैसी लग रही है। किन्तु अभी तो न वर्षा हुई है न अवनी तप्त है। तो कैसी है यह सुगंध?
[चारों तरफ देखता है। जैसे सुगंध के उद्गम बिन्दु को खोज रहा हो। क्षणभर वहीं ठहर जाता है। विचार मुद्रा में रहता है।]
ओह, यह तो समुद्र की तरफ से आ रही है। समुद्र.. हाँ, यह सुगंध समुद्र की हो सकती है। [वह नीचे झुकता है। भीगी रेत को अपनी मुट्ठी में लेता है। नाक से सूँघता है।] ओह, भीगी रेत
[रेत को देखता है।]
इस रेत में यह प्रतिबिंब कैसा? यह प्रकाश कैसा? अरे यह तो चंद्र का प्रतिबिंब है। और यह धवल चाँदनी।
[वह पश्चिम आकाश में देखता है। वहाँ चंद्र अस्त होने जा रहा है।]
सूर्योदय से पूर्व चंद्रास्त का दर्शन! [वह चंद्र को देखता रहता है] यह तो सूर्यास्त से भी सुंदर है। अनुपम है।
[दूर कहीं समुद्र से किसी नाविक का गीत सुनाई देता है]
[गीत – ओ सागर, ओ सागर।
भीतर तेरे कितने मोती,
कोई ना जाने।
उस आँख के मोती को
तू भी कहाँ जाने?
ओ सागर, ओ सागर। ]
[किसी वृक्ष पर से अभी अभी जागे पक्षी के पंख की ध्वनि होती है। उसे सुनकर दूसरे, तीसरे और अनेक पक्षी के पंख की ध्वनि होती है। वृक्ष की लताओं का स्वर होता है। पुरुष उसे ध्यान से सुनता है।]
नाविक का गीत सुनकर यह भी जाग गए!
आहा हा। कितनी मनमोहक ध्वनि है यह?
[पंखी के कलरव की ध्वनि होती है। कोई कोयल, कोई पपीहा बोलते हैं]
तुम सब तो गाने भी लगे। यह ध्वनि मधुर भी है। जैसे संगीत।
सूर्य उदय हो रहा है। धीरे धीरे अपना रूप प्रकट कर रहा है। तमस का अंत हो रहा है। दीशाएं नए नए रंग ओढ़ रही हैं। व्योम रंगीन हो रहा है। [हाथ से संकेत करता हुआ] वह बिन्दु पर, हाँ, ऊसी बिन्दु से अभी सूर्य नीकल आएगा। तमस पूर्ण रूप से विलीन हो जाएगा।
[सूर्य उदय होता है। मंच का प्रकाश सूर्योदय जैसा हो जाता है। वह पूर्व दिशा में देखता रहता है, अपलक, निश्चल।]
[कुछ क्षण पश्चात भ्रमर का गुंजन उसके कानों पर पड़ता है। उसका ध्यान उस ध्वनि पर केंद्रित होता है]
यह तो भ्रमर का गुँजारव है। निश्चय ही कोई पुष्प निकट है, जिसके पाश से मुक्त हुआ भ्रमर मुक्ति गीत गा रहा है। कहाँ होगा वह पुष्प? मैं पुष्प को खोजता हूँ। किन्तु कैसे खोओजूँगा इतने बड़े समुद्र तट पर?
[विचार करता है। गहन श्वास लेता है।]
सुगंध। पुष्प की सुगंध मुझे पुष्प तक ले जाएगी। [पुष्प को खोजने चल पड़ता है। एक कोने में खिला हुआ पुष्प रखा होता है उस पर प्रकाश किया जाता है। मंच के शेष भाग को प्रकाश मुक्त कर दिया जाता है। उसकी दृष्टि उस पुष्प पर पड़ती है।]
तो यह है वह पुष्प! [पुष्प को स्पर्श करने के लिए वह झुकता है। उसके हाथ को पानी का स्पर्श होता है।]
यह तो भीग गया है। ऑस के बिन्दु है। इस पुष्प पर ऑस को देखकर लगता है जैसे भ्रमर रातभर रोया हो। उसके अश्रु बिन्दु इस पुष्प पर छोड़ गया हो। [पुन: पुष्प को स्पर्श करता है।]
हे पुष्प! भ्रमर के अश्रुओंको मैं पोंछ देता हूँ।
यु- [आकाशवाणी के स्वर में, बिना प्रकट हुए] रुक जाओ। उसे मत पोंछो।
पु-[स्वर की दिशा में देखते हुए, पुष्प से कुछ ही अंतर पर हाथ रखे हुए] कौन? कौन है यहाँ?
यु- इतनी शीघ्रता से तुम मेरा विस्मरण कर दोगे ऐसा मेरा अनुमान नहीं था। अभी कल संध्या तो हम मिले थे।
पु- ओह, तो यह आकाशवाणी तुम्हारी है? प्रकट हो जाओ। आवरण छोड़कर आ जाओ।
यु- अभी नहीं। अभी तो तुम पुष्प को स्पर्श नहीं करोगे। भ्रमर के अश्रुओंको वहीं रहने दोगे।
पु- क्यों?
यु- यह अश्रु ही पुष्प की शोभा है। भ्रमर से पुनर्मिलन की आश है। उसे नष्ट मत करना।
पु- ऐसा है क्या? यह तो अद्भुत है।
यु- आज तुमने इतने सारे आश्चर्यों को देखा किन्तु अब जाकर यह उद्गार तुम्हारे कंठ से निकला।
पु- कौन सा उद्गार?
यु- अद्भुत शब्द का उद्गार।
पु- अद्भुत। अद्भुत। इन आश्चर्यों से परिचय करवाने का श्रेय तुम्हें जाता है।
यु – इसका अर्थ है कि ..
पु- क्या अर्थ है ? शीघ्र कहो।
यु- ध्यान से सुनो। इसका अर्थ है कि तुम अब अपने उचित स्थान पर आ गए हो।
पु- उचित स्थान? कौन सा स्थान? कहाँ है वह स्थान?
यु- कल संध्या जिस पत्थर पर तुम बैठे थे वह स्थान नहीं हैं तुम्हारा। इस समय तुम जिस स्थान पर हो वही तुम्हार उचित स्थान है।
पु- अर्थात?
यु- उदय ही तुम्हारा उचित स्थान है, अस्त नहीं।
पु- मुझे मेरा स्थान बतानेवाली, मेरे उचित स्थान पर पहुंचाने वाली तुम अपना रूप प्रकट करो। अब तो अपना परिचय दो। अपना नाम बताओ। आ जाओ। प्रकट हो जाओ। मैं तुम्हारा आव्हान करता हूँ।
यु- [अट्टहास्य]
पु- [व्याकुलता से ] प्रकट हो जाओ। प्रकट हो जाओ।
यु- [ अट्टहास्य करती हुई ध्वनि धीरे धीरे मंद हो जाती है और अंत में शांत हो जाती है।]
पु- [चारों दिशाओं में उस ध्वनि को ढूँढता रहता है] [मंदिर की आरती का घंटारव गूंजने लगता है। उस ध्वनि के साथ धीरे धीरे पट बंद हो जाते हैं]
समाप्त

अंत वाक्य-
वस्तु अथवा स्थिति वही रहती है, तथापि वह भिन्न दिखती है। इसमें वस्तु अथवा स्थिति का क्या दोष?

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