चाणक्य और चन्द्रगुप्त Arvend Kumar Srivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चाणक्य और चन्द्रगुप्त

 

चाणक्य और चन्द्रगुप्त

भारत - 362 ईसा पूर्व लगभग 

प्राचीन मगध राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना - बिहार प्रांत) के मुख्य चौराहे के एक ओर एक ऊंची दुकान के चबूतरे के नीचे बह रही नाली के पास अपने आप को भीड़ से छुपाकर किसी तरह बैठा चौदह वर्ष का बालक चाणक्य, सुबक - सुबक कर इस प्रकार से रो रहा था कि उसकी आवाज बाहर कहीं सुनाई न दे और ठीक चौराहे के बीचों बीच में एक बड़े से बाँस के ऊपर टंगे अपने पिता ’चणक’ के कटे हुए सिर की ओर अपलक देखे जा रहा था, उदास और उद्विग्न किन्तु क्रोध के अथाह सागर से भरा हुआ असहाय और संतप्त भी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उसके पिता को ऐसा क्रूर राजदण्ड क्यों दिया गया।

सूर्य की अनंत रश्मियों ने अपना धवल प्रकाश अभी चारों ओर फैलाया ही था, और पाटलिपुत्र के मुख्य चौराहे पर अभी इक्का - दुक्का लोग ही इधर - उधर आ - जा रहे थे। चारों ओर मरघट सी नीरवता और उदासी फैली हुई थी। बीच चौराहे पर एक बांस के ऊपर टंगे कटे हुए सिर की ओर लोगों का ध्यान कम ही जा रहा था, क्योंकि अब तो रोज का यह क्रम सा हो गया था। शक्तिशाली और निंरकुश राजशाही व्यवस्था में इस प्रकार के राज दण्ड का होना सामान्य सी बात समझी जाती है। राज तंत्र की व्यवस्था का स्वरूप कुछ ऐसा ही हो जाता है जिसमें राज सत्ता के शिखर पर आसीन कुछ लोग बड़े व्यापारियों और सामंतों के साथ मिलकर राज्य के आम नागरिकों का अपमान और तिरस्कार करते रहते हैं और असंगठित आम लोग अपने विरुद्ध हो रहे इस प्रकार के अन्याय को चुप - चाप सहने करने के सिवा और कुछ भी करने का साहस और शक्ति नहीं जुटा पाते। सामान्य जन का चुप रहना सत्ता के केन्द्र में बैठे निरंकुश शासक को और भी अधिक क्रूर बना देते हैं जिसके कारण वह मनमाने ढंग से किसी को भी दण्डित करता रहता है, जिसमें कभी - कभी उसके खास और शक्तिसम्पन्न लोग भी शामिल हो जाते है, क्योंकि शासकों की निरंकुशता अपने विरुद्ध कुछ भी स्वीकार करने का सहस नहीं रखती फिर चाहे वह कोई बात हो या वारदात अथवा राज्य के हितों में कही गयी भी किसी बात को अहंकारी शाशक स्वीकार नहीं कर पाते जो कि भविष्य में न केवल उनके लिये अपितु राज्य के लिये भी हानिकारक होती ही है, मगध में कुछ ऐसा ही हो चूका था, जिसकी ज्वाला में अब मगध को जलना ही था।

जैसे - जैसे सूरज ऊपर की ओर चढ़ता जा रहा था, मुख्य चौराहे पर भी लोगों की हल - चल उनका आना - जाना बढ़ने लगा था। एक - दो दुकानदारों ने अपनी - अपनी दुकान खोल दी थी । कुछ दुकानदार अपनी दुकानों को खोलकर समान को सजाने में लगे थे। कुछ लोगों ने अपनी दुकानों को खोलने से पहले बीच चौराहे पर गड़े हुए बांस जिसके शिखर पर एक कटा हुआ सिर टंगा था के बीच में लगभग पांच फुट की ऊंचाई पर बांस पर ही लगी हुई एक पत्रिका को पढ़ा था जिस पर लिखा था –

’’मगध राज्य के महामात्य (महामंत्री) ’राक्षस’ के विरुद्ध षडयन्त्र रचने वाले आमात्य (मंत्री) ’चणक’ को मृत्युदण्ड, और इस षडयन्त्र में उसका साथ देने के लिये अमात्य ‘शकटार’ को पत्नी और उनके छः पुत्रों को एक साथ, अजीवन कारावास का दण्ड दिया जाता है।“आज्ञा से घनानंद, दण्डाधिकारी मगध नरेश, घनानंद।

शकटार की बड़ी पुत्री ‘सुवासनी’ को राजदण्ड से अलग रखा गया था जिसपर मगध का राजा घनानंद स्वयं भी आशक्त था और विवाह करना चाहता था।

दिन भर नगर के इस मुख्य बाजार में अधिक चहल - पहल नही रहीं थी। लोग छुप कर इस अत्याचार और अन्याय के लिये बातें तो कर रहे थे किन्तु आवाज उठाने का साहस किसी में न था। राज्य में अत्याचार और अन्याय की यह कोई पहली घटना नहीं थी, ऐसा आये दिन होता ही रहता था।

धीरे - धीरे करके नगर का यह मुख्य व्यावसायिक केन्द्र रात के सन्नाटे में डूबता जा रहा था किन्तु चाणक्य उसी प्रकार बिना कुछ खाये - पिये सन्नाटे के होने की प्रतीक्षा में बैठा रहा। मध्य रात्रि का समय बीतते - बीतते चारों ओर गहन अंधकार और सन्नाटा हो गया था, कहीं दूर - दूर किसी - किसी के घरों के झरोखों से हल्का सा प्रकाश छनकर आता हुआ दिखाई देता था।

चाणक्य ने बाहर निकलकर अपने चारों ओर देखा, कहीं दूर- दूर तक भी कोई आहट नही थी । वह धीरे - धीरे रेंगते हुए बिना कोई आवाज किये उस बांस के पास तक आया, अपने पिता के सिर को उतारा एक सफेद कपड़े में लपेटा और तेजी से गंगा के तट की ओर दौड़ने लगा।

गंगा के किनारे एक निर्जन स्थान पर पहुंच कर उसने पिता के कटे हुए सिर को गंगा के तट पर सम्मान के साथ रखा। तट के पास लगे पेड़ों पर चढ़ कर सूखी आम की लकड़िया तोड़ी और जब प्रयाप्त लड़कियाँ एकत्र हो गयी तो अग्नि को प्रज्वलित कर उसने पिता के कटे हुए सर को धधकती हुई अग्नि की ज्वाला को समर्पित कर दिया।
दिन निकलने से पहले ही धू - धू कर जल रही अग्नि शान्त हो कर सुलगने लगी थी। चाणक्य ने गंगा नदी में पहले स्नान किया फिर गंगा जल को सुलग रही अग्नि पर डाल कर ठंडा किया उसमें से अपने पिता की अस्थियां निकाल कर अपनी अँजुली  में ले कर गंगा नदी के मध्य में जा कर अस्थियों को गंगा के पवित्र जल को सादर समर्पित कर दिया।

गंगा नदी के जल पर तैरती हुई अस्थियां बहते हुए जब उसकी दृष्टि से ओझल हो गयी तो उसने अपने सिर को एक बार फिर से गंगा जल से भिगोया और उन पर उगे हुए एक - एक बाल को उखाड़ - उखाड़ कर उसी जल में विसर्जित करता रहा जब तक सर के सारे बाल केवल चोटी को छोड़ कर जल में विसर्जित नहीं हो गये।

उसके सिर से खून बह रहा था। चाणक्य ने एक बार फिर गंगा में डूबकी लगाई । अपने सिर के खून को साफ किया। चोटी के बन्धन खोले। पूर्व दिशा की ओर जिधर से सूर्य निकलने की तैयारी कर रहा था, उस ओर मुंह करके वह सीधा खड़ा हो गया। अपनी चोटी को एक बार फिर से पकड़ कर ऊंचा किया, हाथ जोड़े और शपथ लेते हुए प्रतिज्ञा ली।

’’मैं चणक पुत्र चाणक्य अपने पिता की शपथ लेकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि यह शिखा (चोटी) नन्दकुल की काल - सर्पणी बनेगी और तब तक न बंधेगी जब तक नन्द कुल निःशेष, समाप्त न होगा।’’

अभी तक सूर्य छितेज से उग कर अपनी अरूणिमा नहीं बिखेरी थी। चाणक्य ने तैर कर नदी को पार किया, दूर सामने जंगल दिखाई दे रहा था, वह सूर्य की रश्मियों को फैलने से पहले जंगलो में पहुंच जाना चाहता था अतः उसने उस ओर बेतहासा दौड़ लगा दी।

मगध के राजा घनानंद के क्रोध और दण्ड से बचने के लिये यह अनिवार्य हो गया था कि वह अपने आप को छुपाकर रखे, क्योंकि राजदण्ड के नियमों के अनुसार दण्डित किये गये व्यक्ति को किसी भी प्रकार से की गयी सहायता भी राजा की आज्ञा का उलंघन माना जाता था और राजा की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला भी उसी प्रकार के दण्ड का भागीदार होता था।

चाणक्य घने और निर्जन जंगल की पगंडडियों पर भागा जा रहा था, दिशाहीन, उद्देश्यहीन, बिना कुछ खाये – पिये। वह तब तक भागता रहा जब तक उसका शरीर साथ देता रहा और अंनतः वह मुर्छित होकर गिर गया।

चाणक्य की मूर्छा टूटी तो उसने अपने चारों ओर देखा, वह किसी ग्राम के एक छोटे से गुरूकुल में था और सामने गुरूकुल के आचर्य ’राधामोहन’ बैठे हुए थे। बालक को जागा हुआ देख कर उन्होंने स्नेह से कहा,
“पुत्र, तुम मुझे मगध के सुदूर जंगल में मुर्छित अवस्था में मिले थे तो मैं तुम्हें यहां ले आया, तुम कौन हो पुत्र अपना परिचय दो।’’

’’मैं कौन हूँ मुझे नहीं मालूम।’’ चाणक्य ने अपना भेद खुल जाने के डर से अपने वास्तविक परिचय को न बताना ही उचित समझा।

’’पुत्र, मैं समझ सकता हूँ भय के कारण तुम्हारी स्मृति जाती रही है। इस गुरूकुल को ही तुम अपना घर समझो। यहां मेरा कोई नहीं है, मैं अकेला रहता हूँ। आज से तुम मेरे साथी हुए, तुम्हारा नाम रहेगा ’विष्णुगुप्त’।’’

’’जैसी आप की आज्ञा आचार्य।’’ चाणक्य स्वयं को छुपा कर रखने में सफल हो गया और अब तो उसका नाम भी बदल गया था।

विष्णुगुप्त दस वर्षों तक आचार्य राधामोहन के साथ रहा। वह अत्यन्त प्रतिभाशाली था। उसकी प्रतिभा से आचार्य काफी प्रसन्न थे तो अन्य साथी, शिक्षार्थी हतप्रभ। उसका ज्ञान और कुशलता उसकी उम्र से कहीं बहुत अधिक थी। केवल शास्त्र विद्या में ही नहीं वरन शस्त्र संचालन में भी वह काफी निपुण हो गया था। ‘भाला’ चलाना उसका प्रिय खेल और प्रिय अस्त्र था जिसमें उसे निपुड़ता प्राप्त थी । यदपि अन्य प्रकार के अश्त्रों और शस्त्रों का चलाना और उनका निर्माण करने की कला भी वह सीख गया था।

सीखने की क्षमता, अध्ययन की लगन, मेहनत करने में उत्साह एवं निरन्तर सफल होने की आस्था रखने के कारण एक दिन आचार्य ‘राधामोहन’ ने उसे अपने पास बुला कर कहा।

’’विष्णुगुप्त, मैं समझता हूँ यहां तुम्हारी शिक्षा अब पूर्ण हो गयी है। तुम मेरे सहपाठी आचार्य ’पुण्डरीकाक्ष’ के पास उच्च शि़क्षा के लिये ‘तक्षशिला’ चले जाओ। मैं पत्र लिख देता हूँ। तुम्हारे पास प्रतिभा, लगन और उत्साह की कोई कमी नहीं है तो तुम्हारा चयन तक्षशिला में अवश्य हो जायेगा।’’

’’यह तो आप की उदारता होगी आचार्य, मैं अपने आप को धन्य समझूंगा।’’ विष्णु गुप्त ने श्रद्धा से अपना सिर आचार्य के चरणों में रख दिया।

तक्षशिला में विष्णुगुप्त के ’नीतिशास्त्र’ और ’अर्थशास्त्र’ मुख्य विषय रहे थे। उच्च शिक्षा पूरी हुई तो उसे वहीं तक्षशिला में ’नीतिशास्त्र’ विभाग में ही ’शोध’ करने का अवसर मिला और आचार्य का पद भी।

तक्षशिला के प्रागंण में विष्णुगुप्त के अध्यापन की ख्याति दिन - प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। गहन अध्ययन और शोध के बाद उसके द्वारा लिखे जा रहे ग्रन्थ ’नीतिशास्त्र’ को तक्षशिला के विद्यानो के द्वारा मान्यता मिलनी शुरू हो गयी थी। धीरे - धीरे उसका ग्रन्थ एक कालजयी रचना बनती जा रही थी। विष्णुगुप्त अब तक्षशिला में शिक्षार्थियों के बीच एक लोकप्रिय और विद्वान आचार्य माना जाने लगा था।

आठ वर्ष बीत गये थे उसके ’नीतिशास्त्र’ ग्रन्थ को तक्षशिला की मान्यता मिल गयी थी । उसका शोध पूरा गया था और अब वह तक्षशिला का एक महत्वपूर्ण और विख्यात आचार्य था। विष्णुगुप्त की ख्याति अब केवल तक्षशिला तक ही सीमित नहीं रही थी वह पूरे गांधार राज्य में जाना और पहचाना जाने लगा था। गांधार राजमहल में राजा अम्भी, राजकुमार ’अम्भिक’ और राजकुमारी ’अलका’ के द्वारा भी वह सम्मानित किया जा चुका था।

विष्णुगुप्त के हृदय में मगध के राजा घनानंद के प्रति धधक रही ज्वाला तक्षशिला में मिल रहे आदर और सम्मान के पश्चात् भी बुझने का नाम नहीं ले रही थी। वह अपने जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिये किसी भी सीमा तक जाने या फिर किसी भी सीमा को तोड़ डालने के लिये तत्पर हो गया था। तक्षशिला में विष्णुगुप्त के आठ वर्ष भी हो गये थे। यह वह समय था जब भारत में ‘जैन’ और ‘बौध’ धर्म का विस्तार बहुत तेजी से होने लगा था और अधिकांश राजाओं ने इन धर्मों को स्वीकार कर अहिंसावादी हो रहे थे। जिस कारण भारत की सैन्य शक्ति का ह्रास धीरे - धीरे होने लगा। केवल पंजाब और मगध को छोड़ कर अन्य कोई भी राज्य इतना सक्षम नहीं था कि वह किसी भी विदेशी आक्रमण से अपने आप की और प्रजा की सुरक्षा कर पाने में सफल हो सकें।

विष्णुगुप्त अपने निजी आकंक्षाओं की पूर्ति से पहले अपने देश की सुरक्षा को प्राथमिकता देने लगा। वह चाहता था कि पंजाब के राजा ‘पर्वतेश्वर’ जिसे ग्रीस साहित्य में ‘पोरस’ और भारतीय साहित्य में ‘पुरु’ लिखा गया है वे और मगध के राजा ‘घनानंद’ आपस में मिल सकें तो भारत पर आक्रमण करने की योजना बना रहे ग्रीस के प्रशासक ‘सिकन्दर’ को झेलम नदी के उस पार ही रोका जा सकता है।

सिकंदर जिसे फारसी में ‘एस्कंदर-ए-मक्दुनी’, मेसेडोनिया का ‘अलेक्जेंडर’ और हिन्दी में अलक्ष्येन्द्र कहा गया है। सिकंदर सम्भवतः एस्कंदर का ही अपभ्रंश शब्द है।

विष्णुगुप्त जानता था कि विश्व विजय की कामना से एक बहुत बड़ी सेना लेकर आगे बढ़ने का प्रयास करता हुआ सिकंदर इरान, सीरिया, मिस्र, मसोपोटामिया, फिनीशिया, जुदेआ, गाझा, और बैक्ट्रिया पर विजय प्राप्त करने के बाद वह गांधर की ओर से पंजाब पर विजय पाने के लिए आक्रमण करेगा। गांधार और पंजाब के बीच सहयोग हो पाना सम्भव नहीं था। इसके दो कारण थे एक गांधार गण राज्य था और पंजाब था राजतंत्र। गणतंत्र राज्य और राजतंत्र राज्य एक दूसरे के घुरु विरोधी थे, उनके बीच आपस में कोई भी राजनैतिक सन्तुलन सम्भव नहीं था और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि पंजाब का राजा पर्वतेश्वर गांधार के गणतंत्र प्रमुख अम्भी की पुत्री अलका से विवाह करना चाहते थे जिसे राजकुमार अम्भिक बिल्कुल भी पसन्द नहीं करते थे।

विष्णुगुप्त को तो यह भी सम्भावना हो रही थी कि यदि सिकंदर गांधार से हो कर पंजाब पर आक्रमण करता है तो गांधार का राजकुमार अम्भिक अपने स्वार्थसिद्धि और पंजाब पर अधिपत्य जताने के लिये उसका सहयोग कर सकता है। इस कारण से विष्णुगुप्त को गांधार से मदद की कोई उम्मीद नहीं थी।

भारत को विदेशी आक्रमण से बचाने के लिये विष्णुगुप्त ने मगध के राजा घनानंद के प्रति अपनी कटुता को भुला कर उनसे पंजाब का सहयोग करने के लिये आग्रह और निवेदन करने का विचार किया। वह केवल इसी प्रकार अपने प्रिय भारत की रक्षा कर सकता था और यही उसके जीवन की पहली प्राथमिकता भी थी। विष्णुगुप्त अपने पिता के पद चिन्हों पर था, उसके पिता चणक भी मगध को विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित करने हेतु राज्य की सैन्य शक्ति को ओर बढ़ाना चाहता था, किन्तु राज्य में जैन और बौद्ध अनुयायों के बढ़ते प्रभाव के कारण मगध का महामंत्री ’राक्षस’ राज्य में सैन्य विस्तार के पक्ष में नहीं था। चणक और मगध के दूसरे मंत्री शकटार के इस विरोध को ही राजद्रोह मान कर सजा दी गयी थी।

सभी तथ्यों और संभावनाओं पर अत्यन्त सजगता के साथ विचार कर लेने के पश्चात् विष्णुगुप्त ने अपने राष्र्ट्र के व्यापक हितों के लिये मगध के राज दरबार में जा कर राजा घनानंद से पंजाब के राजा पर्वतेश्वर (पोरस) के लिये सहायता मागने का निर्णय लिया। यद्यपि विष्णुगुप्त अच्छी तरह जानता था कि यह कार्य हैं अत्यन्त दुष्कर।

विष्णुगुप्त को मगध में अपने पहचाने जाने की कोई सम्भावना अब नहीं थी क्योंकि जब उसने मगध का त्याग किया था तब चौदह वर्ष का एक किशोर बालक था और अब चालीस वर्ष का युवा । उसकी शारीरिक संरचना और कद काठी में काफी परिवर्तन हो चुका था। यही नहीं उसका नाम भी अब पूरी तरह बदल चुका था, अब वह तक्षशिला का नीतिशास्त्र में दक्ष आचार्य ’विष्णुगुप्त’ था।

विष्णुगुप्त ने अपने साथ ‘नीतिशास्त्र’ पुस्तक की पाण्डुलिपियां लीं जिन्हें उसके शिष्यों ने पुर्नलेखन कर तैयार किया था और वे प्रतियां तक्षशिला के कुलाधिपति द्वारा प्रमाणित की गयी थी। जिससे उसके शोध ग्रन्ध को भारत वर्ष में सर्वत्र मान्यता मिल सकें। वह भारत भू - भाग की रक्षा का उद्देश्य, संकल्प और विश्वास लेकर मगध की ओर निकल पड़ा।

तीन माह की यात्रा के बाद विष्णुगुप्त मोरियों के नगर ‘पिप्पली कानन’ में था। वर्तमान समय में यह स्थान नेपाल की सीमा पर ‘उत्तर प्रदेश’ राज्य के ‘बस्ती’ जिले में स्थित है और इसे अब ‘पिपरिहाकोट’ के नाम से जाना जाता है।

पिप्पली कानन एक नगर और छोटा सा स्वंतत्र गण राज्य था, यहां मोर पक्षी अधिकता से पाये जाते थे इस कारण यहां के निवासी अपने घरों की दीवारों पर मोर पक्षी के चित्र उकेरते थे। जिस कारण उन्हें मोरियों या मौर्य कहा जाता था । किन्तु वास्तव में ये लोग शाक्य वंशीय क्षत्रीय थे जो आपसी संघर्ष और लगभग दो शताब्दी पूर्व कौशल की राजधानी ‘श्रावस्ती’ के राजा ‘प्रसन्नजीत’ के साथ हुए युद्ध के पश्चात् अपने मूल स्थान ‘कपिलवस्तु’ नेपाल से विस्थापित हो कर नेपाल के सीमावर्ती जनपदों में अपनी मूल पहचान को छुपा कर रहने के लिये बाध्य हुये  थे।शाक्य अपनी वीरता और अदम्य साहस के कारण सारे भारत में जाने जाते थे किन्तु अनवरत संघर्षों ने उनके  स्वरूप को मिटा तो दिया था किन्तु मूल रूप से वे अब भी साहसी वीर क्षत्रीय थे।

‘पिप्पली कानन’ में अपने निवास के समय विष्णुगुप्त ने देखा कि बारह वर्ष का बालक एक बड़े विशाल वृक्ष की फैली हुई एक शाखा पर मछली को टांग कर उसकी आंख पर अपने धनुष बाण से निशाना लगाने का अभ्यास अपनी पूरा निष्ठा और लगन से कर रहा था। उसका तीर कभी मछली के शरीर को चीरता हुआ उस पार निकल जाता कभी फंसकर रह जाता या नीचे गिर जाता। कई बार उसका निशाना बिल्कुल ठीक लगा था। विष्णुगुप्त काफी देर तक उस बालक को निरन्तर अभ्यास करते हुए देखता रहा। धीरे - धीरे वह बालक की एकाग्रता पर मुग्ध

होता जा रहा था।

चलते - चलते विष्णुगुप्त उस बालक के ठीक पीछे पहुँच गया। वह उसकी प्रतिभा और एक निष्ठता से हतप्रभ था।

बालक के कंधे पर स्नेह से हाथ रखकर उसने कहा, ’’अद्भुत, उत्कृष्ट!’’

बालक ने पीछे मुड़ते हुए देखा और आश्चर्य से देखते हुए पूछा ’’आप कौन है महात्मन? आपको पहले कभी देखा नहीं।’’
’’मैं तक्षशिला का आचार्य विष्णुगुप्त हूँ और अभी वही से आ रहा हूँ तो तुम मुझे पहले कैसे देखते।’’
’’प्रणाम आचार्य।’’ बालक ने अपने सिर को झुकाते हुए विनम्रता से कहा।

विष्णुगुप्त ने आशीर्वाद की मुद्रा में अपने हाथों को उठा कर उसके सिर पर रखते हुए स्नेह से पूछा,’’तुम्हारा नाम क्या है?’’

’’चन्द्रगुप्त!’’

’’तुम्हारे माता - पिता कहां है?”

’’मेरी मां घर में है और पिता मगध राज्य के कारावास में।’’

’’कारावास में क्यों पुत्र?’’ विष्णुगुप्त के हृदय में बालक के प्रति और अधिक स्नेह उमड़ आया था।

’’मेरे पिता पिप्पली कानन के सेनापति थे और किसी राजकीय कार्य से मगध की राजधानी पाटिलपुत्र गये हुए थे। वहीं राजा घनानंद के आठ पुत्रों जिनके अत्याचार और अन्याय से मगध के लोग भी काफी त्रस्त हैं, से कुछ विवाद हुआ और आठ वर्षों से वे उनके बन्दी गृह में है। यह मां ने बताया है।’’

“तो तुम अपने पिता को मुक्त कराने के लिये अस्त्र - शस्त्रों का अभ्यास कर रहे हो।“

’’नहीं!” उसने दृणता से कहा, “मैं घनानंद के कुल का सर्वनाश करने के उद्देश्य से अभ्यास कर रहा हूँ।“

’’यह इतना आसान न होगा, इसके लिये तुम्हें मेरे साथ चल कर तक्षशिला में अस्त्र - शस्त्रों के संचालन, नीति, राजनीति और कूटनीति की भी उच्च शिक्षा प्राप्त करनी होगी। क्या तुम मेरे साथ चल सकोगे?’’

’’मां से अनुमति लेनी होगी।“

’’ठीक है, इस समय मैं एक विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये मगध जा रहा हूँ, वापस लौटने पर तुम्हारी माँ से मिलूँगा और उनसे तुम्हें अपने साथ ले जाने का आग्रह करूंगा।’’

’’जैसा आप का आदेश आचार्य! मैं अपनी ओर से आप की सेवा में प्रस्तुत हूँ।’’चन्द्रगुप्त ने विष्णुगुप्त के चरणों पर अपना सिर रखा तो उसने कहा ’’कल्याण हो वत्स।’’ और अपने मार्ग की ओर वह कुछ और अधिक उत्साह और विश्वास से वह बढ़ चला।

मगध के राजदरबार में विष्णुगुप्त ने अपना परिचय तक्षशिला के आचार्य के रूप में दिया, और अपना लिखा ग्रन्थ 'नीतिशात्र' मगध नरेश के सामने ससम्मान प्रस्तुत किया, जिसे मगध नरेश घनानंद ने श्रद्धा से स्वीकार किया। राजकीय औपचारिकताओं को पूर्ण करने के बाद घनानंद ने विष्णुगुप्त को पांच सौ स्वर्ण मुद्रायें दान स्वरूप देने का आदेश दिया। घनानंद ने सोचा था कि तक्षशिला का यह ब्राह्मण आचार्य अपने ग्रन्थ के बदले उनके पास दान मिलने की अभिलाषा में आया है।

विष्णुगुप्त ने अपने स्थान पर खड़े हो कर सम्मान से कहा - ’’महाराज, मुझे धन की कोई अवश्यकता नहीं है, इस लिये मैं आप की इन स्वर्ण मुद्राओं को स्वीकार नहीं कर सकता।’’

’’विष्णुगुप्त…..!’’ अत्यन्त क्रोध से घनानंद ने कहा, “तुम इस प्रकार से मेरा तिरस्कार नहीं कर सकते, यह मेरा अपमान है।’’

’’महाराज…!” विष्णुगुप्त ने आपने आप पर नियंत्रण और संयम रख कर फिर कहा, ’’मेरी जानकारी के अनुसार ग्रीक का प्रशासक ‘सिकंदर’ विश्व विजय की कामना से सीमावर्ती राज्यों को जीतते हुए आगे बढ़ रहा है और ‘गांधार’ इसमें उसकी मदद कर सकता है। यदि ‘मगध’ ‘पंजाब’ का साथ दे तो सिकन्दर को झेलम नदी के उस पार ही रोका जा सकेगा।’’

’’मगध अकेला ही सक्षम है ब्राह्मण।’

’’’सिकन्दर के पास एक बहुत विशाल सेना है।“

’’तुमने फिर मेरा और मेरी शक्ति का अपमान किया है ब्राह्मण!’’ घनानंद क्रोध में आगे कहता गया, “सुरक्षा प्रहरियों, इस मूर्ख की शिखा (चोटी) को पकड़ कर घसीटते हुए राज दरबार से बाहर निकल दों।’’

’’ठहरो घनानंद..!’’ विष्णुगुप्त का भी पुराना घाव हरा हो गया था उसने चीखते हुए कहा, ’’मैं स्वयं यहां से जा रहा हूँ घनानंद, और देख लो मेरी खुली हुई शिखा तुम्हारे कुल के सर्वनाश के बाद ही बंधेगी।’’

’’ब्राह्मण, मैं तुमको मेरे कुल के सर्वनाश का स्वप्न देखने के लिये मुक्त करता हूँ। शीघ्र ही मेरे राज्य की सीमाओं से बाहर निकल जाओं।’’

क्रोध और संताप की पीड़ा से धधकता हुआ विष्णुगुप्त राज दरबार से बाहर निकल गया।राज दरबार से अपमानित विष्णुगुप्त ने निश्चित कर लिया था कि वह अब किसी से सहायता मांगने नहीं जायेगा । वह जानता था कि सिकन्दर को अभी ईरान, सीरिया, मिस्र, मसोपोटामिया, पिनीशिया, जुदेआ, गाझा और बैक्ट्रिया को ही विजित करने में आठ से दस वर्ष का समय लग जायेगा क्योंकि किसी देश को विजित करना फिर उसकी शासन व्यवस्था को अपने हितों के अनुसार बनाना, स्वयं के सेना की हुई क्षति को पूरा करना, नये सैनिकों की भर्ती उनके प्रशिक्षण और अस्त्र - शस्त्रों का निमार्ण कर फिर किसी दूसरे देश पर आक्रमण करना कोई इतना सरल काम नहीं है। इसमें समय तो लगता ही है और विष्णुगुप्त के लिये यह समय प्रयाप्त था और अब उसका साथी भी मिल गया था।

विष्णुगुप्त एक बार फिर पिप्पली कानन में था। उसने अपने शिष्य को देखा वह उसी प्रकार मछली की आंख पर निशाना साध रहा था। अपने आचार्य को सामने देख कर चन्द्रगुप्त ने प्रणाम किया । उसने चन्द्र गुप्त के सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा, ’’पुत्र, तुम अपनी मां को बुलाओ उनसे अनुमति लेनी है, तुम्हें ले जाने के लिये।’’

चन्द्रगुप्त शीघ्र ही अपनी मां को बुला लाया।

विष्णुगुप्त ने चन्द्रगुप्त से पिता का नाम पूछा तो उसने कहा ’’मेरे पिता का नाम ’सूर्यगुप्त स्वार्थसिद्ध मौर्य’ और मां का नाम ’मुरा’ है।’’

’’आचार्य!’’ मुरा ने कहा, ’’ चन्द्र ने मुझे आप का प्रयोजन बता दिया है किन्तु मैं कैसे मान लूँ कि मेरा पुत्र आप से शिक्षा प्राप्त करके मगध जैसे विशाल और शक्ति सम्पन्न राज्य को जीत सकने में सफल होगा।’’

’’तो तुम मेरी परीक्षा लेनी चाहती हो।’’ इतना कहकर विष्णुगुप्त ने अपना भाला उठाया पन्द्रह कदम पीछे हटा और दौड़ते हुए सामने वृक्ष पर बंधी हुई मछली की आंख पर निशाना साधते हुए फेंक दिया। उसका भाला ठीक मछली की आंख पर लगा था। वह मुरा की ओर घूमा और आदर से कहा, ’’अब तो तुम को विश्वास हो गया होगा कि मैं तुम्हारे पुत्र को मगध के राजसिंहासन पर बैठाने की क्षमता और सामर्थ्य रखता हूँ।“ थोड़ा रूक कर उसने फिर कहा,

’’यद्यपि तुम्हारा पुत्र स्वयं भी अत्यन्त सक्षम, समर्थ और कुशल है किन्तु तक्षशिला का प्रशिक्षण उसे इस योग्य बना देगा कि वह मगध क्या सारे भारत को जीत सके।’’

’’मुझे विश्वास हो गया आचार्य, मैं उसे आपके साथ जाने की अनुमति देती हूँ। मैं प्रतीक्षा कर लूंगी, परन्तु इतना याद रखना आचार्य कि मेरा पुत्र ही मेरे जीने का एक मात्र सहारा है।’’

’’आप का पुत्र आप को निराश नहीं करेगा, मेरा विश्वास करें, एक दिन तुम मगध के राज सिंहासन पर अपने पुत्र का राजतिलक करोगी।’’

’’इसी आशा से मैं आज उसका हाथ तुम्हारे हाथों मैं सौंपती हूँ।’’ यह कहकर मुरा ने अपने पुत्र चन्द्रगुप्त का हाथ विष्णुगुप्त के हाथों में दे दिया।

तक्षशिला में चन्द्रगुप्त को उच्चशिक्षा के साथ - साथ युद्ध विद्या और कला का अध्ययन करने और उसमें प्रवीणता प्राप्त करने का अवसर मिला तो विष्णुगुप्त को कुलाधिपति की आज्ञा से अर्थशास्त्र पढ़ाने और उस पर अपना शोध प्रबन्ध प्रस्तुत करने का आदेश।

आठ वर्ष यूँ ही व्यतीत हो गये चन्द्रगुप्त अब बीस वर्ष का युवा था और विष्णुगुप्त नीतिशास्त्र के साथ अर्थशास्त्र का भी ज्ञाता, विद्वान और आचार्य भी।

तक्षशिला गुरूकुल के मठ में ’मालव’ (उज्जैनी) गण राज्य प्रमुख का पुत्र राजकुमार ’सिंहरण’ और चाणक्य बैठ कर चर्चा कर रहे थे, चाणक्य ने कहा। ’’सिंहरण इस वर्ष के स्नातकों को अर्थशास्त्र पढ़ा कर मैं अपनी गुरूदक्षिणा को चुका दूंगा तो आचार्य से मुझे गृहस्थ जीवन में प्रवेश की अनुमति मिल जायेगी।’’

’’आचार्य, मुझे कुलाधिपति से तक्षशिला में रूक कर यहां की राजनीति पर दृष्टि रखने की आज्ञा मिली है।“
’’तो तुम जानते हो यवन (विदेशी) दूत यहां क्या कर रहे हैं?

’’आचार्य, आर्यावर्त इस समय आपसी मतभेदों से ग्रसित हैं तो यवन दूत यहां अपना कुचक्र रचने आये होगें, शीघ्र ही कोई विस्फोट हो सकता है।“

’’किस विस्फोट की बात कर रहे हो युवक। मेरे राज्य के विरूद्ध यह कुचक्र स्वीकार न होगा।’’ मठ में प्रवेश करते समय ‘अम्भिक’ ने सिंहरण से विस्फोट शब्द को सुन लिया था, उसके साथ ‘अलका’ भी थी।

’’कुचक्र रचने के लिये मेरे पास कोई अधिकार नहीं है राजकुमार, विदेशियों और यवनों के लिये उत्तरापथ (तक्षशिला) का द्वारा खोल कर कुचक्र तो पूरे आर्यावर्त के लिये रचा जा रहा है।’’

’’तुम कौन हो युवक?’’

’’एक ‘मालव’ कुमार और तक्षशिला गुरूकुल का छात्र।’’

आम्भिक ने क्रोध से विष्णुगुप्त की ओर देखते हुए कहा ’’तक्षशिला के गुरूकुल में शिक्षा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी उचित नहीं है, आप यहां के छात्रों को राज्य के विरूद्ध विस्फोट करना सिखाते हैं।’’

’’यहां कोई कुचक्र नहीं रचा जाता कुमार, चलो यहां से।’’ अलका ने कहा, परन्तु अम्भिक ने क्रुध हो कर तलवार निकाल ली ।

’’जाने दो भाई।’’ अलका अम्भिक को बाहर ले जाने का प्रयास करने लगी ।

’’चुप रहो अलका, इस बात को मैं यूं ही नहीं छोड़ सकता, इसमें कुछ रहस्य है।’’

’’हां,रहस्य तो है कुमार! भारत वर्ष के विनाश हेतु यवन आक्रमणकारियों के लिये तक्षशिला के द्वार को अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं के लिये खोल देने का रहस्य।’’ चन्द्रगुप्त ने प्रवेश करते हुए कहा और आम्भिक की तलवार को अपनी तलवार से रोक लेता है ।

अम्भिक के हाथ से तलवार छूट कर गिर जाती है।

’’अलका, मैं गुरूकुल का अधिकारी हूँ तुम कुमार को लेकर यहां से जाओं। गुरूकुल शिक्षा के लिये है यहां द्वंद्वयुद्ध की अनुमति नहीं है। ध्यान रखना कुमार के इस दुर्व्यवहार का समाचार महाराज को न प्राप्त हो।’’ चाणक्य ने कहा।
अलका अम्भिक को लेकर चली जाती है। अलका के जाने के बाद विष्णुगुप्त ने कहा।

’’आज का काण्ड तक्षशिला के लिये असाधारण है तुम दोनों यहां से शीघ्र ही चले जाओ, तथा ‘मालव’ और ‘मगध’ को भूलकर समस्त आर्यावर्त की रक्षा के लिये काम करो। आज की घटना गंधार नरेश के हृदय में शूल सी चुभेगी। यह अम्भिक अपने तुच्छ उद्देश्यों के लिये पंजाब के राजा पर्वतेश्वर का विरोध करेगा और यवनों का स्वागत करेगा जिससे आर्यवर्त का सर्वनाश होगा।“

’’गुरूदेव, विश्वास रखिये, चन्द्रगुप्त आपके चरणों की शपथ लेकर प्रतिज्ञा करता है कि यवन यहां कुछ नहीं कर सकेंगे।’’
’’चन्द्रगुप्त, तुम्हारी प्रतीज्ञा सफल हो परन्तु इसके लिये तुम मगध जा कर पहले साधन - सम्पन्न बनों। यहां अब समय बिताने का कोई उद्देश्य नहीं है। मैं भी पर्वतेश्वर से मिलते हुए मगध आऊँगा और सिंहरण तुम भी सावधान रहना।’’
विष्णुगुप्त पंजाब प्रान्त के नरेश पर्वतेश्वर से मिल कर मगध पहुंचा तब तक चन्द्रगुप्त ने पिप्पली कानन में मौर्या की सेना का गठन कर उसका सेनापति बन चुका था।

विष्णुगुप्त के मगध में प्रवेश की सूचना तत्काल ही मगध के महामंत्री राक्षस को अपने गुप्तचरों से मिल गयी। राक्षस ने विष्णुगुप्त को बन्दी बना कर कारागार में डाल दिया, जिसकी सूचना चन्द्रगुप्त को हुई तो चन्द्रगुप्त ने अपनी सेना की एक टुकड़ी के साथ रात्रि में ही ‘मगध’ के कारावास पर सैन्य कार्यवाही कर विष्णुगुप्त को कारागार से मुक्त करा लिया, किन्तु अब मगध के आस - पास होना उन दोनों के लिये सुरक्षित नहीं रह गया था अतः वे दोनों रात्रि में मगध की सीमा रेखा से बाहर निकल गये।

उन दोनों को तक्षशिला में गांधार के नरेश ‘अम्भी’ और राजकुमारी ‘अलका’ का ही सहयोग मिलने की आशा थी अतः वे दोनों फिर तक्षशिला की ओर चल दिये।

तक्षशिला में राजकुमार अम्भिक के सहयोग से सिकन्दर को अपना शिविर बनाने की अनुमति मिल गयी थी। सिकन्दर ने पंजाब पर आक्रमण करने के उद्देश्य तथा अपनी विशाल सेना को सिन्धु नदी को पार करने के लिये सिन्धु नदी पर पुल बनाने का काम प्रारम्भ करवा दिया था।

सिकन्दर की सेना में उसका विश्वासपात्र सेनापति ’फिलिप्स’ और ’सिल्यूकस’ के अतिरिक्त दो लाख पैदल सैनिक, साठ हजार घुड़सवार और नौ हजार हथियों की सेना थी। ’सिल्यूकस’ के साथ उसकी पुत्री कार्नेलिया और उसकी सहेली ’एलिस’ भी थी। सिकन्दर एवं उसके विश्वासपात्र सेनापति पहले ही सिन्धु नदी को पार कर तक्षशिला में सिन्धु नदी के तट पर अपना शिविर बना चुके थे जिसमें आम्भिक ने अपना पूरा सहयोग किया था।

‘कार्नेलिया’ तक्षशिला की हरी - भरी वादियोँ, दूर तक फैले घास के मखमली हरे मैदान, पहाड़ियां, झरने, सर्प के आकार में टेढ़ी - मेढ़ी बहती नदियां और बर्फ से अच्छादित दूर दिखाई देते हिमालय पर्वत की माला पर सहज ही इस प्रकार से मुग्ध हो चुकी थी कि वह अब यहीं रह जाना चाहती थी, उसे विश्वास भी था कि पंजाब पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् सिकन्दर उसके पिता ‘सिल्यूकस’ को ही पंजाब का क्षत्रप (राज्य का प्रमुख प्रशासक) बना देगा । इस प्रकार उसे भारत में ही रह जाने का अवसर प्राप्त हो जायेगा।

विष्णुगुप्त और चन्द्रगुप्त को तक्षशिला में गांधार के महाराज अम्भी और राजकुमारी अलका का सहयोग प्राप्त था।इस कारण उन्हे वहां अपनी सुरक्षा की कोई चिन्ता नहीं थी और राजकुमार आम्भिक भी जानता था कि वे दोनों उसके मार्ग के बाधक नहीं बनेंगे और वह पंजाब के राजा पर्वतेश्वर को सिकन्दर की सहायता से परास्त कर सकेगा।

सिन्धु नदी के तट पर एक भारतीय योगी ‘दाण्डायन’ के आश्रम में विष्णुगुप्त, चन्द्रगुप्त, अलका और सिन्धु राजकुमारी मालविका बैठे थे।

“मैं गांधार छोड़कर जाना चाहती हूँ।’’ अलका ने योगी के चरणों में अपना सिर रखते हुए कहा।

’’क्यों? पुत्री अलका, तुम गांधार की राजलक्ष्मी हो।’’ योगी ने कहा।

’’ऋृषि, यवनों के हाथों अपनी स्वाधीनता को ले कर मुझ में जीने की शक्ति नहीं है।’

’’’तुम अपने प्राण बचा कर कहां जाओगी? यहां तुम्हारी आवश्यकता है। किन्तु जब तुम्हारी इच्छा हो तो निःसंकोच चली जाना।’’

’’मुझे सन्देह हैं देव।’’

’’किस पर?’’

’’इन दोनों पर जो आपके सामने बैठे हैं । पहले मुझे इन पर पूरा विश्वास था परन्तु अब ये दोनों भी यवनों से मिले हैं।’’

योगी ने ‘विष्णुगुप्त’ और ‘चन्द्रगुप्त’ की ओर देखा।

’’देवी, तुम्हारा सन्देह निर्मूल है। तुमने मुझे यवन सेनापति सिल्यूकस के साथ देखा था, वह मात्र एक संयोग था।
इस समय यवन आप के राज्य के अतिथि हैं और मैं आप के राज्य के गुरूकुल का आचार्य, इस कारण से हमने यवन सेनापति के साथ मित्रवत व्यवहार किया था।’’ विष्णुगुप्त ने कहा।

’’तुम्हारा मत हो तो मैं अभी यवन सेनापति सिल्यूकस को द्वंद्वयुद्ध की चुनौती दे सकता है किन्तु यह राज्य के नियमों के विपरीत होगा।’’ चन्द्रगुप्त ने अलका की ओर देखते हुए कहा।

’’इस समय तुम सभी के हृदय में हलचल मची है इस कारण कुछ दिन यहां रूको।’’ योगी ने कहा।

एक यवन दूत ने सहसा सामने आकर योगी को प्रणाम किया ।

’’तुम कौन? पहले अपना परिचय दो।’’ योगी ने कहा।

’’देव पुत्र! मैं जगत विजेता सिकन्दर का सहचर ‘एनीसाक्रीटोज’ हूँ।’’

’’क्या कहना चाहते हो।’’

’’देव, सिकन्दर ने आप का स्मरण किया है । आपका यश सुनकर आपसे उपदेश सुनने की उनकी प्रबल इच्छा है।’’

’’तुम्हारा राजा अभी झेलम नदी को भी पार नहीं कर सका है और तुम उसे जगत विजेता समझते हो। मैं किसी लोभ से, सम्मान से या भय से किसी के पास नहीं जाता।’’

’’महात्मन! आप के न जाने पर यदि आप को दण्डित किया जाये तो।’’

’’मेरी सभी आवश्यकता यह प्रकृति और ईश्वर की विभूति पूरी करती है, उसके होते मैं किसी का शासन और आदेश नहीं मानता।’’

’’बहुत हठी हो, मैं जा कर यहीं कह दूंगा।’’

कहकर ‘एनीसाक्रीटोज’ चला गया।

योगी के आश्रम में विष्णुगुप्त, चन्द्रगुप्त, अलका, सिंहरण और मालविका बैठे हुए भविष्य में घटने वाली घटनाओं और उनकी सम्भावानाओं पर चर्चा कर रहे थे। एक यवन सैनिक ने आकर कहा, ‘‘देव! सम्राट सिकंदर आपकी सेवा में आना चाहते हैं आपकी अनुमति हो तो।’’

‘‘मेरी अनुमति की आवश्यकता नहीं है। यह आश्रम एक खुला मन्दिर है यहां जो भी आना चाहे उसका स्वागत है और जो जाना चाहता है उसे कोई रोक भी नहीं है।’’

सैनिक चला गया।

थोड़ी देर बाद सिकन्दर, सिल्यूकस, कार्निलिया, एनसीक्रेटोज अपने कुछ अन्य सहचरों और सैनिकों के साथ आकर आश्रम में योगी के सामने बैठ जाते हैं।

‘‘स्वागत है अलक्ष्येन्द्र! ईश्वर तुम्हें बुद्धि प्रदान करें।’’ योगी ने कहा।

‘‘अनुग्रहीत हुआ महात्मन किन्तु मैं किसी और आर्शीवाद की अभिलाषा में आया था।’’ सिकन्दर ने विनय पूर्वक कहा।
‘‘इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी आशीर्वाद आप के लिये शुभ नहीं होंगे ‘अलक्ष्येन्द्र’।”

‘‘मैं आप से यहां भारतवर्ष के विजय का आशीर्वाद लेने आया हूँ।”

‘‘राज सत्ता सुव्यवस्था से बढ़े तो ठीक है, मैं रक्तपात में विश्वास नहीं रखता, केवल विजय ही महत्वपूर्ण नहीं है, अलक्ष्येन्द्र, जन कल्याण और उसकी सेवा में लगो।’’

सिकन्दर ने चन्द्रगुप्त की ओर देखकर पूछा, ‘‘यह तेजस्वी युवक कौन है?’’

“मगध का एक निर्वासित राज कुमार ‘चन्द्रगुप्त’।’’ सिल्यूकस ने विनम्रता से उत्तर दिया।

‘‘चन्द्रगुप्त मैं तुम्हें शिविर में आने का निमन्त्रण देता हूँ।‘‘

‘‘अनुग्रहीत हुआ। आर्य किसी का निमंत्रण अस्वीकार नहीं करते।’’ चन्द्रगुप्त ने आदर से कहा।
‘‘क्या तुम चन्द्रगुप्त से पहले मिल चुके हो।’’ सिकन्दर ने सिल्यूकस से पूछा।

‘‘हां, चन्द्रगुप्त से मैं तक्षशिला के प्रांगण में मिल चुका हूँ।’’

‘‘फिर तो शिविर में चन्द्रगुप्त के स्वागत की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर रही।’’

‘‘जो आज्ञा सम्राट!’’ सेल्युकस ने कहा।

‘‘महात्मन,’’ सिकन्दर ने योगी से कहा, ‘‘भारत विजय करने के पश्चात वापस लौटने पर फिर आपके दर्शन करने हेतु आऊँगा।’’

‘‘सावधान अलक्ष्येन्द्र!‘‘ चन्द्रगुप्त की ओर संकेत करते हुए योगी ने कहा, ‘‘भारत का भावी सम्राट यह देखो तुम्हारे सामने बैठा है।’’

भारत के इस महान तपस्वी की बातों पर कोई भी अविश्वास नहीं कर सकता था। सभी स्तब्ध होकर चन्द्रगुप्त की ओर देखने लगे और चन्द्रगुप्त कौतूहल से कर्निलिया की ओर तब तक देखता रहता है जब तक सभी आश्रम से उठकर चले नहीं गए ।

’’देव!’’ अलका ने कुछ सकुचाते हुए कहना चाहा परन्तु कह न सकी।

’’अलका, मैं तुम्हारी ओर से कहती हूँ।’’ मालविका ने अलका की झुकी हुई आँखों को देखते हुए कहा।
’’हाँ! तुम निःसंकोच कहो अलका क्या कहना चाहती है।’’

’’देव! ‘अलका’ ’मालव’ राजकुमार ‘सिंहरण’ से विवाह करने की आपसे अनुमति चाहती है।’’

’’यह तो शुभ है,इसमें संकोच कैसा? ‘सिंहरण’ को यही बुला लो, सिन्धु नदी के तट पर ही मैं तुम्हारा विवाह आयोजित करता हूँ।’’

’’सिंहरण को बुलाने के लिये दूत भेजे जा चुके हैं ।’’ अलका ने फिर उसी संकोच से कहा।

’’यह तो प्रसन्नता की बात है। आप का आश्रम ‘अलका’ और ‘सिंहरण’ के विवाह का मंडप बनेगा और हमारे गुरूदेव विवाह के आचार्य।’’ चन्द्रगुप्त ने कहा।

’’पुत्री अलका, तुम अपने पिता भाई और माता को भी यहीं बुलाने का उपक्रम करो और चन्द्रगुप्त तुम यवनों को भी निमंत्रित करो जिससे वे भी यहां के हमारे विवाह संस्कार के साक्षी बन सकें।’’ चाणक्य ने कहा।

’’जो आज्ञा आचार्य।’’ अपने सिर को झुकाते हुए चन्द्रगुप्त ने कहा।

‘अलका’ और ‘सिंहरण’ का विवाह वैदिक मंत्रोचार के साथ सम्पन्न हुआ। समारोह में अलका के परिवार वालों के साथ यवन सेना के प्रमुख सेनापति, ‘कार्नेलिया’ और ‘एलिस’ उपस्थित रही थी।

प्रातः काल का समय था, सिन्धु के तट पर कार्नेलिया अपने शिविर से कुछ दूरी पर प्रकृति के खुले आंगन में एक शिला पर बैठी पूर्व में उगते हुए अरूण की सुषमा पर मुग्ध, कोई गीत गुन - गुना रही थी।

’’कितना मधुर गाती हो कार्नेलिया, हमें भारत पर विजय प्राप्त करने में भले ही विलम्ब हो किन्तु आप ने भारतीय संगीत में निपुणता प्राप्त कर ली है।’’ यवन सेना पति फिलिप्स ने उसके सामने की शिला पर बैठते हुए कहा।

’’फिलिप्स, आज इतनी सुबह अपना शिविर छोड़ कर प्रकृति के अंगान में कैसे।’’

’’मेरा प्रणय मुझे अनायास यहां तक ले आया।’’

’’कैसा प्रणय फिलिप्स? तुम मेरा अपमान तो नहीं कर रहे हो।’’

’’मैं और तुम्हारा अपमान! कभी सोच भी नहीं सकता, किन्तु यह सच है कार्नेलिया, मैं तुम से प्रेम करता हूँ।’’ फिलिप्स अपनी शिला से उठ कर और नजदीक आ गया।

’’मुझ से दूर रहो फिलिप्स, अन्यथा उचित नहीं होगा।’’

’’युद्ध की बेला है ‘कार्नेलिया’, जाने फिर मिलना हो या न हो ।’’

’’मैंने कहा न मुझसे दूर रहो फिलिप्स।’’

’’मैं अब तुम से और अधिक दूर नहीं रह सकता। कम से कम एक बार अपने इन हाथों को चुमने का अवसर तो दो, फिर चला जाऊंगा।’’

फ़िलिप्स आगे बढ़ कर कार्नेलिया का हाथ पकड़ने की कोशिश करने लगा । कार्नेलिया चीखने लगी, ’’कोई मेरी रक्षा करो...।’’ पीछे से चन्द्रगुप्त आकर फिलिप्स की गर्दन पकड़कर गिरा देता है।

’’धन्यवाद आर्यवीर।’’ कार्नेलिया ने कहा, उसकी आँखों में स्नेह की चमक थी।

’’मुझे क्षमा कर दो कार्नेलिया।’’ फिलिप्स ने कहा तो चन्द्रगुप्त ने उसे छोड़ दिया।

खड़े होकर फिलिप्स ने अपनी तलवार निकल ली तो चन्द्रगुप्त ने भी अपनी तलवार निकाली।

’’चन्द्रगुप्त तुम्हें मुझसे द्वंद्वयुद्ध करना होगा।’’

’’फिलिप्स यह युद्ध का समय नहीं है, तुम जाओ यहां से।’’ कार्नेलिया ने अपने आप को शान्त रखते हुए कहा।

’’फिलिप्स, मैं तुम से द्वंद्व युद्ध के लिये प्रस्तुत हूँ। तुम अपने समय, स्थान और इच्छा के अनुसार जब चाहो कर सकते हो।’’

क्रोध से अपने पैरों को पटकता हुआ फिलिप्स वहाँ से चला गया।

’’चलिये, मैं आपको शिविर तक छोड़ दूँ।’’ चन्द्रगुप्त ने विनम्रता से कहा।

शिविर में पहुंच कर कार्नेलिया ने कहा, ’’इस घटना के बारे में पिता जी को बताना होगा।’’

’’ओह। तुम्हारे पिता ने मुझे अपने शिविर में बुलाया था।’’

’’ठीक है, तुम जाओ पिता जी से कह देना। मैं भी अभी वहीं आती हूँ।” चन्द्रगुप्त सिल्यूकस के शिविर की ओर चला जाता है।

फिलिप्स सिकन्दर के साथ सिल्यूकस के शिविर में पहुँचता है तो वहां चन्द्रगुप्त और कार्नेलिया पहले से थे और आज की घटना के विषय में उसे बता दिया था।

चन्द्रगुप्त को सिल्यूकस के शिविर में देख कर फिलिप्स ने सिकन्दर से कहा,’’सम्राट, मैंने कहा था न कि चन्द्रगुप्त और सिल्यूकस मिल कर आप के साथ विद्रोह कर रहे है।’’

’’मेरे विषय में कुछ भी कहने से पहले क्या तुमने अपने बारे में बताया है, सम्राट को।’’ सिल्यूकस ने सिकन्दर को आज की घटना के बारे में विस्तार से बता दिया।

’’तुम दोनों के बारे में तो मैं बाद में निर्णय लूंगा किन्तु ‘चन्द्रगुप्त’ को तो उस योगी ने पहले ही भारत का भावी सम्राट घोषित कर दिया है। ‘सिकन्दर’ ने ‘चन्द्रगुप्त’ की ओर देखते हुए कहा।

’’हमारे रहते यह कदापि नहीं हो सकेगा सम्राट।’’ फिलिप्स ने कहा।

’’तुम ठहरो फिलिप्स।’’ चन्द्रगुप्त की ओर देख कर सिकन्दर ने पुनः कहा, ’’सुना है मगध का शासक बहुत क्रूर है और तुम उसे हस्तगत करना चाहते हो।’’

’’हस्तगत नहीं मैं मगध का उद्धार करना चाहता हूँ।’’

’’केवल उस ब्राह्मण ‘विष्णुगुप्त’ के कहने पर तुम्हें विश्वास हो गया।“

‘‘मुझे आचार्य के दिशा निर्देश और अपने साहस पर विश्वास है।’’

‘‘मैं ‘सिकंदर’ इसमें तुम्हारी सहायता कर सकता हूँ और मेरी सहायता से तुम्हारा यह काम सरल हो जायेगा।’’

‘‘मुझे यवनों की सहायता से कुछ भी प्राप्त नहीं करना है,’सिकंदर’।’’

‘‘मेरी शिविर में तुम मुझे ही आंखें दिखा रहे हो।’’

‘‘नहीं, मैं केवल आपको अपना सच बता रहा हूँ, मुझे यवनों की सहायता से कुछ भी नहीं चाहिए।’’

‘‘यह मेरा अपमान है चन्द्रगुप्त।’’

‘‘सत्य कहना हमारे आर्यावर्त की परम्परा है और मैं उसी का पालन कर रहा हूँ।’’

‘‘मैं तुम्हें बन्दी बना सकता हूँ।’’ सिकन्दर ने कहा, “प्रहरी।“चार प्रहरी शिविर के द्वार पर खड़े हो गये।

फिलिप्स ने तलवार निकल ली तो चन्द्रगुप्त ने भी अपनी तलवार निकाल ली, "यह शिविर द्वंद्वयुद्ध के लिये नहीं है ।" सिल्यूकस ने फिलिप्स को रोकते हुए कहा।

‘‘फिलिप्स तुम्हारे साथ मेरा द्वन्दयुद्ध तो पहले से ही तय हो चूका है और तुम्हारे प्रहरी मुझे रोक न सकेंगे।’’

चन्द्रगुप्त चारों प्रहरियों को घायल करता हुआ शिविर से बाहर निकल गया।‘कार्नेलिया’ अपलक चन्द्रगुप्त को जाते हुए दूर तक देखती रही।

आश्रम में पहुंचकर चन्द्रगुप्त ने शिविर में घटी घटना के बारे में विस्तार से बताया तो विष्णुगुप्त ने कहा “अब हम सब का यहां रहना बिल्कुल भी उचित नहीं है।“ चन्द्रगुप्त की ओर देखते हुए विष्णुगुप्त ने फिर कहा ‘‘चन्द्रगुप्त, तुम जानते हो गढ़वाल के दक्षिण में एक छोटा सा सम्पन्न और शक्तिशाली राज्य है ‘‘छम्ब’’। छम्ब के राजा ‘रूद्रेश’ की मृत्यु हो गयी है, तो घनानन्द उस पर आक्रमण करने की योजना बना रहा है और छम्ब का महामंत्री ‘समरेश’ जिसका प्रभाव पूरे राज्य पर है वह भी छम्ब की राजकुमारी “पुष्पावती” से विवाह करके छम्ब पर अपना आधिपत्य स्थपित करना चाहता है। किन्तु छम्ब की रानी जो तुम्हारे मां की बचपन की सहेली है उन्हें यह स्वीकार नहीं है, और वे अपनी पुत्री का विवाह तुमसे करना चाहती हैं। यह सन्देश छम्ब की रानी ने अपने एक विशेष दूत से तुम्हारी मां के पास भेजा था और तुम्हारी मां ने यह सब एक पत्र से मुझे सूचित किया है। तुम्हारी मां का आदेश है तुम शीघ्रता से जाकर ‘पुष्पावती’ से विवाह करो।’’

‘‘लेकिन गुरूदेव, जिसे जानता नहीं उससे विवाह।’’

‘‘यह समय के अनुसार राजनैतिक आवश्यकता है और फिर पुष्पावती तुम्हारे लिये सब प्रकार से योग्य है। वह सुन्दर, सुशील, कुलीन और एक सम्पन्न - समर्थ राज्य की राजकुमारी है। तुम्हारे विवाह से कई लाभ होंगे । एक तो तुम्हें छम्ब की शक्तिशाली सेना मिल जायेगी दूसरे अपनी सैन्य शक्ति का विस्तार करने हेतु धन भी उपलब्ध हो जायेगा, साथ ही छम्ब राज्य किसी अन्य के हाथों में जाने में बच जायेगा।’’

‘‘जैसी आप की आज्ञा।’’

‘‘शीघ्रता करो चन्द्रगुप्त, पुष्पावती से विवाह के बाद छम्ब की सेना के साथ वापस ‘‘पिप्पली कानन’ के मौर्यों की सेना को संगठित करो, और ‘मालव’ कुमार ‘सिंहरण’ तुम भी शीघ्र ‘मालव’ लौटकर मालवों की सेना का विस्तार करो। पंजाब के नरेश ‘पर्वतेश्वर’ सिकन्दर की सेनाओं को रोकने में पूरी तरह सक्षम हैं और वे सब प्रकार से तैयार भी हैं। मुझे विश्वास है सिकन्दर यदि विजयी भी होता है तो भी पंजाब से युद्ध के बाद इतना सक्षम नहीं रहेगा कि आगे बढ़ सके। मैं स्वयं भी अपना भेष बदल कर ‘मगध’ जाता हूँ और मगध को अन्दर से कमजोर करने का प्रयास करता हूँ।’’

‘‘आचार्य आप का पुनः मगध जाना सुरक्षित नहीं है।’’

‘‘तुम मेरी चिन्ता न करो पुत्र, इस बार मैं एक ज्योतिषाचार्य के रूप में ‘चंचरीक’ के नाम से मगध में रहूँगा और जब तक तुम लोग अपनी - अपनी तैयारी को पूरा कर मगध पर आक्रमण करोगे तब तक मैं मगध को अन्दर से इतना कमजोर कर दूंगा कि तुम्हें कोई कठिनाई न हो। घनानंद के अपने पुत्रों में आपस में बनती नहीं है जिसका लाभ तो मिलेगा ही साथ ही आम जनता पर धनानंद और उसके पुत्र द्वारा किया जाने वाले अन्याय और अत्याचार का लाभ भी मिलेगा।’’

‘‘आपके आदेश का पालन किया जायेगा।’’ चन्द्रगुप्त और सिंहरण ने एक साथ कहा।

‘‘एक बात और ध्यान रखना ‘सिकन्दर’ और ‘पर्वतेश्वर’ के बीच होने वाले युद्ध की समाप्ति के बाद और सिकन्दर के अगले कदम के देख लेने के पश्चात् ही हम मगध पर आक्रमण करेंगे।’’

‘‘ठीक है गुरूदेव।’’

‘‘चन्द्रगुप्त तुम्हारे लिये एक तीव्रगामी अश्व की व्यवस्था कर दी गयी है, तुम शीघ्रता करो।’’

सभी अपने - अपने लक्ष्यों की ओर निकल जाते हैं।’’

विष्णुगुप्त मगध में ज्योतिषाचार्य ‘चंचरीक’ के रूप में जम गया था। उसकी चर्चा दूर - दूर तक होने लगी थी। ज्योतिष विद्या दो रूपों में कार्य करती है एक गणित दूसरे फलित । फलित विद्या की सफलता का प्रतिशत कम से कम पचास तो रहता ही है जो किसी को भी ज्योतिषाचार्य के रूप में सहजता से स्थापित कर सकता है, इसी का लाभ विष्णुगुप्त को मिला था।

मगध की आन्तरिक स्थित ठीक नहीं थी। करागार से ‘शकटार’ भागने में सफल हो गया उसकी पत्नी और पुत्रोँ की हत्या कर दी गई थी किन्तु नगर में ‘शकटार’ की भी बन्दीगृह में मारे जाने की सूचना फैल गयी। जिसके कारण ब्राह्मणों ने विरोध के अपने स्वर को तेज किया तो घनानंद ने अपनी शक्ति का प्रयोग कर दबाने की कोशिश की किन्तु इसमें उसे पूरी सफलता नहीं मिली थी।

मगध की केवल आन्तरिक स्थिति ही अस्थिर नहीं हुई थी राजमहल भी अंतरकलह से व्यथित हो रहा था। घनानन्द के आठ पुत्रों में से पाँचवे और छठे नं0 के पुत्र श्वेतकमल और नीलकमल का विवाह कश्मीर के राजा की पुत्रियों ‘शोभना’ एवं ‘कामना’ से हो गया था और सबसे बडे़ पुत्र ‘पद्ममकमल’ का विवाह नेपाल नरेश की पुत्री ‘मधुलिका’ से हुआ।

‘मधुलिका’ का जन्म एक मंगोल परिवार में हुआ था। वह रूपवती थी किन्तु उसका मनोविज्ञान काफी उलझा था कभी - कभी वह काफी शान्त और स्निग्ध लगती और कभी - कभी भयानक रूप से दहकती हुई अंगार सी। मधुलिका नेपाल नरेश की इकलौती पुत्री थी इस कारण वह राज्य की उत्तराधिकारी भी थी। वह स्वतंत्र थी, यौवन के आवेग और मादकता में अपने उलझे हुऐ मनोविज्ञान के कारण उसका बहक कर बह जाना स्वाभाविक था, इसे वह अपनी जीत समझती थी।

विवाह के बाद मधुलिका मगध आयी तो उसके साथ उसकी मुंह लगी दासी ‘वीथिका’ भी थी। कुछ दिन तो मधुलिका अपने पति ‘पद्ममकमल’ के प्रति एकनिष्ठ रही फिर वह ‘पद्मकमल’ के दूसरे और तीसरे नम्बर के भाई के साथ सम्पर्क में रहने लगी।

घनानंद को अपने महल के अन्तःपुर में चलने वाले नाटक के बारे में कुछ पता नहीं था, किन्तु बातें कहां छुपती हैं! दास और दासियों के माध्यम से सब बातें नगर में फैलने लगी थी।

दासी होने के कारण वीथिका का सम्बन्ध अन्तःपुर के साथ - साथ बाहरी दुनिया से भी था। उसने चंचरीक की ज्योतिष विद्या के बारे में सुना रखा था और कई बार ‘चंचरीक’ से मिल भी चुकी थी। चंचरीक ने भी उसे काफी महत्व दिया था क्यों की वह राजमहल के सबसे बड़े राजकुमार के पत्नी की मुँहलगी दासी थी, और वीथिका नगर में ‘चंचरीक’ की ख्याति से प्रभावित थी, चंचरीक को वीथिका से राजमहल के कई बड़े राज मालूम हो चुके थे।

वीथिका से विचार विमर्श करने के बाद मधुलिका ने चंचरीक से मिलकर अपनी समस्या का समाधान करने का निश्चिय किया । उसकी समस्या थी कि ‘पद्ममकमल’ अपना दूसरा विवाह रचाने जा रहा था। भाइयों में सबसे बड़ा होने के कारण ‘पद्ममकमल’ राजा का उत्तराधिकारी था। ‘पद्ममकमल’ के राजा बनने पर ‘मधुलिका’ राज्य की सम्रागी बनने वाली थी, किन्तु दूसरे विवाह के बाद जाने उसकी स्थित क्या होगी इस बारे में वह असमंजस में रहने लगी थी और इसका स्थायी समाधान करना चाहती थी। वीथिका के कहने पर ही उसने ‘पद्ममकमल’ के दूसरे विवाह को रोकने के लिये उसने ज्योतिषशास्त्र का सहारा लेने का निश्चय किया।

मगध की भावी सम्रागी का अपने कुटी में स्वागत करते हुए चंचरीक ने कहा, ’’आपने इस आंकिचन को दर्शन देने की कृपा की, कारण जानने को मैं उत्सुक हूँ।’’

उत्तर ‘वीथिका’ ने दिया,“सम्रागी जी के पति अपना दूसरा विवाह कर रहे हैं, क्या इस विवाह को रोकने का कोई उपाय है?’’

चंचरीक ने देखा कि मधुलिका के चेहरे पर गहरा तनाव है उसकी आंखें जल रही हैं। चंचरीक ने ज्योतिष के हथकंडों को अपनाते हुए शान्त भाव से उत्तर दिया, ‘‘विश्व में जो कुछ भी है वह सब अनिश्चित है । मगध की भावी सम्रागी, आप अपने हृदय की उथल - पुथल को समाप्त कर अपनी समस्या कहे, समाधान अवश्य मिलेगा।’’

मधुलिका के संकेत पर वीथिका कुटी के बाहर चली गयी।

वीथिका के जाने के बाद मधुलिका ने औपचारिकताओं के सारे वस्त्र उतार फेंक दिये और राजमहल में चल रहे अन्तर्कलह की सब बातें निःसंकोच उसने बता दी। अपनी उंगुलियों पर कुछ गणना करके चंचरीक ने कहा,”पद्ममकमल का दूसरा विवाह अवश्य रुकेगा, किन्तु कैसे यह अभी कह नहीं सकता।’’

‘‘उसकी मृत्यु से उसका दूसरा विवाह रूकेगा।’’ मधुलिका के चेहरे पर अजीब सी कठोरता उभर आयी थी, वह गहरे तनाव में थी, चेहरे पर क्रोध और घृणा के भाव भी सहज रूप से देखे जा सकते थे।

‘‘क्या आप ने विचार किया है कि ‘पद्मकमल’ की मृत्यु के बाद ‘चन्द्रकमल’ राज्य का उत्तराधिकारी होगा और उसकी पत्नी मगध की सम्रागी?’’ चंचरीक ने उसे और अधिक कुरेदने के उद्देश्य से पूछा।

‘‘चन्द्रकमल का विवाह नहीं होगा वह पूरी तरह से मेरे वश में है।’’

चंचरीक को अपने उद्देश्य में सफलता मिलती दिखाई देने लगी थी, वह राजमहल में भी विद्रोह की अग्नि जलाना चाहता था, चंचरीक अपने उद्देश्य में सफल हो गया था, मधुलिका वापस लौट गयी।

कुछ ही दिनों बाद चंचरीक को समाचार मिला कि पद्ममकमल बीमार रहने लगा है, औषधियों का उस पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा था।

सब बातें पूरी तरह छिपायी नहीं जा सकती। ‘पद्ममकमल’ को मधुलिका के षड़यंत्र का पता लग गया, तो ‘पद्ममकमल’ ने अपनी तलवार उठाई और उसके एक ही बार से मधुलिका का सिर काट दिया। इसे चन्द्रकमल ने अपनी हार समझी, उसे लगा कि उसके और मधुलिका के बीच के सम्बन्धों का पता पद्ममकमल को चल गया है इस कारण ही पद्ममकमल ने मधुलिका की हत्या की है,राजमहल में विद्रोह की ज्वाला जल चुकी थी।

वीथिका अब राज महल में अकेली हो गयी थी। नगर में केवल चंचरीक को ही वह ठीक से जानती थी। अपनी पूर्ण युवा अवस्था में भी वीथिका में बाल सुलभ कोमल भावनायें थी। वीथिका ने एक दिन राज महल से अपना सामान लिया और चंचरीक की कुटी में आ गयी शरण मांगने।

चंचरीक ने वीथिका को अपने कुटी में रहने के लिए एक स्थान दे दिया।

झेलम नदी के तट पर ‘पर्वतेश्वर’ ने ‘सिकन्दर’ का बहुत वीरता से सामना किया और सिकन्दर को किसी भी प्रकार झेलम नदी के पार उतरने का अवसर नहीं दिया । अन्ततः युद्ध में सिकन्दर बुरी तरह घायल हुआ फिर भी उसने ‘पर्वतेश्वर’ को बन्दी बना लिया।

बन्दी ‘पर्वतेश्वर’ को घायल ‘सिकन्दर’ के सामने प्रस्तुत किया गया तो सिकन्दर ने पूछा।

‘‘तुम्हारे साथ कैसा व्यवाहर किया जायें।’’

‘‘वही जो एक राजा दूसरे राजा से करता है ।’’

‘सिकन्दर’ ‘पर्वतेश्वर’ के उतर से हतप्रभ हो गया । उसे ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी। सिकन्दर ने ‘पर्वतेश्वर’ को मुक्त कर दिया। फिलिप्स को उसने पंजाब का क्षत्रप (प्रशासक) नियुक्त किया। सिकन्दर के घायल और युद्ध में बुरी तरह टूट चुके सैनिकों ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया। सिकन्दर में भी घायल अवस्था में आगे बढ़ने की शक्ति नहीं थी, अतः वह वापस ‘बाबुल’ वर्तमान ‘ईरान’ लौट गया।

दो वर्ष पश्चात् ही घायल सिकन्दर प्राचीन मेसोपोटामिया के एक नगर बेबीलोन वर्तमान ईराक में ‘नेबुचिनिज्जर द्धितीय’ के महल में बत्तीस वर्ष की उम्र में अपने जीवन की अन्तिम सांस ली।

सिकन्दर की मृत्यु के बाद फिलिप्स ने चन्द्रगुप्त को अपने साथ द्वंद्वयुद्ध करने के लिये निमंत्रित किया। चन्द्रगुप्त ने द्वंद्वयुद्ध में फिलिप्स को मार कर पंजाब पर अपना राज्य स्थापित किया और ‘पर्वतेश्वर’ से सन्धि कर उसे पंजाब का क्षत्रप (प्रशासक) बना दिया।

चन्द्रगुप्त के अधीन अब मौर्य, छम्ब, मालव, तक्षशिला और पंजाब की सेनाओं के साथ मगध के तटवर्ती प्रान्तों में भील जन - जाति की भी एक बड़ी सेना थी।

मगध का आन्तरिक विद्रोह भी दिन - प्रतिदिन बढ़ता गया था। चंचरीक अपनी ज्योतिष विद्या और नीति विशेषज्ञता का सहारा लेकर ‘शकटार’ जो मगध के बन्दी गृह से भाग निकला था और राज्य में अपने आप को छिपाते हुए घुम रहा था उसकी बड़ी पुत्री ‘सुवासिनी’ जिस पर ‘घनानंद’ और उसका महामंत्री ‘राक्षस’ दोनों मुग्ध थे से ‘राक्षस’ का विवाह करवा देता है। जिससे महामंत्री और राजा दोनों एक दूसरे के विरोधी हो जाते हैं।

यह उचित समय था, चाणक्य ने अपने ज्योतिषाचार्य होने को चोला उतार फेंका और चन्द्रगुप्त को आक्रमण करने की अनुमति दे दी।

केवल दो दिन के युद्ध में चन्द्रगुप्त ने मगध की सेनाओं को तहस - नहस कर दिया। तीसरे दिन चन्द्रगुप्त मगध की राजधानी पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) में प्रवेश कर नगर पर अपना आधिपत्य स्थापित करता उसके पहले अपनी अंतरात्मा में धधक रही ज्वाला के कारण चाणक्य ने अपना भाला उठाया और राजमहल में घुसकर महल के एक - एक प्रहरी, सुरक्षा दल और घनानंद के पूरे परिवार को चाहे वह छोटा हो या बड़ा, स्त्री हो या पुरूष सभी को समाप्त कर दिया, नन्द वंश पर विजय के आवेश में अपनी कटुता को समाप्त मान कर चाणक्य ने वर्षों से खुली हुई  शिखा को बांध लिया।लगातार आठ घन्टे तक महल में ताण्डव मचाने के बाद, और शरीर पर लगीं चोटों के कारण वह वही गिर कर अचेत हो गया।

दो दिन के बाद चाणक्य की आंख खुली तो उसका सिर ‘वीथिका’ की गोद में था।वीथिका का सहारा लेकर वह उठकर बैठ गया,‘‘मुझे क्या हो गया था वीथिका?’’

‘‘आप राजमहल में अचेत हो गये थे। आप को ढ़ूढ़ने मैं राजमहल गयी तो आप को अचेत देखकर वहाँ से ले आयी। आप की सेवा और देखभाल के बीच मुझे इतना समय नहीं मिला कि मैं किसी वैद्य को बुला कर आप का उपचार करती।’’

‘‘अच्छा, किया तुमने वीथिका, किन्तु लगता है तुम दो रात सो नहीं पाई हो ।’’ चाणक्य ने उसकी लाल आँखें देखी तो पूछा।

संकोच और चेहरे पर लज्जा का भाव रखते हुए वीथिका ने कहा,‘‘जब मेरे देवता का यह हाल था तो मैं कैसे सो सकती थी?”

चाणक्य के हृदय में भरी हुई हिंसा, क्रोध, और संताप का पागलपन पिघल कर बह गया तो सामने बैठी हुई वीथिका उसे देवी स्वरूप में दिखाई दी। काफी देर तक यूँ ही अपलक वह वीथिका को देखता रहा तो उसके हृदय में प्रेम के बीज का अकुरण होने लगा।अचानक उसने वीथिका को अपने अंक में भर कर चूम लिया।

वीथिका उसके चुम्बन की मादकता से स्फुरित हो कर प्रेम के आवरण से भर उठी तो वह अपने ईष्ट, प्रेमी चाणक्य के चरणों पर गिर पड़ी। उसके आँसुओं से चाणक्य के कठोर हो चुके पैर धुल गये। उसने वीथिका को उठाकर फिर से अपने अंक में भर लिया। वीथिका और चाणक्य के लिए जीवन का यह एक अदभुत और नया अनुभव था।

चाणक्य के आदेश और निर्देश पर चन्द्रगुप्त की मां ‘मुरा’ ने अपने पुत्र चन्द्रगुप्त का मगध के राज सिहासन पर राजतिलक किया। सबसे पहले चन्द्रगुप्त ने मगध के कारागार में बन्दी अपने पिता और अन्य युद्ध बन्दियों को सम्मान से मुक्त करने का आदेश दिया।चन्द्रगुप्त ने अपने पिता ‘सूर्यगुप्त स्वार्थसिद्ध मौर्य’ को मगध का नया सेनापति नियुक्त कर दिया। 

शुभ मूहर्त देखकर चाणक्य ने वीथिका के साथ विवाह कर लिया। उसके इस विवाह समारोह में चन्द्रगुप्त, उसके माता - पिता, राक्षस, सुवासिनी और शकटार के अतिरिक्त पाटिलपुत्र के सभी गणमान्य व्यक्ति शामिल हुए थे।

‘चाणक्य’ मगध का महामंत्री था तो राक्षस और शकटार को भी राज्य में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गयी थी।

सिकन्दर से पर्वतेश्वर के युद्ध के बाद भारत में वैचारिक आधार में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए एक भारत में राजनैतिक एकता की आवश्यकता महसूस हुई दूसरे व्यापार, वाणिज्य, कला संस्कृत के विकास के साथ विदेशी आक्रमणों ने भारतीय उप महाद्वीप में राजनैतिक एकीकरण में मदद की।

मगध राज्य को संगठित कर पुनः सम्पन्न और शक्तिशाली राष्ट्र बनाने एवं एक प्रशिक्षित विशाल सेना के पुर्नगठन करने में ‘चन्द्रगुप्त’ को पांच वर्षों का समय लगा था। पांच वर्ष बाद चन्द्रगुप्त अपने भारत विजय के अभियान पर निकला।

सिकन्दर की मृत्यु के सात वर्ष बाद ‘सिल्युकस’ ने ‘बेवीलोन’ में अपने साम्राज्य की स्थापना की और शीघ्र ही ‘सीरिया’ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।

चन्द्रगुप्त ने ‘स्वर्णगिरि’ अरूणांचल प्रदेश के सुवनसिरि नदी के तट से सौराष्ट्र वर्तमान गुजरात, यौधेय पाकिस्तान में बहावलपुर से लेकर बीकानेर राजस्थान तक के भू - भाग पर अपना राज्य स्थापित किया। इसके अतिरिक्त उत्तरापथ तक्षशिला एवं अन्य प्रमुख गणराज्य मालव, (मध्यप्रदेश) एवं पंचनद, (पजांब) उसके अधीन पहले ही हो चुके थे।

चन्द्रगुप्त विजय प्राप्त करने हेतु ‘कलिंग’ वर्तमान उड़ीसा की और बढ़ रहा था कि रास्ते में उसे सूचना मिली कि ‘सिल्यूकस’ एरिया, (काबुल) आराकोलिया, (कांधार, अफगानिस्तान), जेट्रोलिया, (मकराजा) परीपेमिसदाई (हेरात) पर विजय प्राप्त कर भारत पर आक्रमण करने हेतु सिन्धु नदी की ओर बढ़ रहा है। चन्द्रगुप्त, सिल्यूकस का सामना करने के उद्देश्य से सिन्धु नदी की ओर मुड़ गया।

सिल्युकस को उम्मीद थी कि इस बार भी सिन्धु नदी के उस पार आम्भिक उसका स्वागत करने को तैयार होगा और उसे भारत में प्रवेश करने में कोई परेशनी का सामना नहीं करना पड़ेगा, किन्तु अब यह विखंडित भारत नहीं था। चन्द्रगुप्त राजनैतिक एकता स्थापित करने में सफल हुआ था।

सिन्धु नदी के तट पर आम्भिक और पर्वतेश्वर सिल्युकस के सामने अपनी - अपनी सेनाओं को लेकर सामना करते हुए चट्टान की तरह खड़े थे। सिल्युकस को सिन्धु के पार एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने दिया गया। चन्द्रगुप्त भी अपनी सेना के साथ वहां पहुंच गया। भीषण युद्ध हुआ।

आम्भिक और पर्वतेश्वर मारे गये। सिल्युकस और उसके बहुत से सेनानायक बन्दी हुए। सिल्युकस की सेनाएं सिन्धु के तट से भाग खड़ी हुई उसके बहुत से सैनिकों और सेनानायकों ने अपने प्राण बचने के लिये सिन्धु नदी में कूद गये थे, उनमें से अधिकांश नदी में डूब कर मारे गये तो कुछ नदी को तैर कर अपने प्राण बचने में सफल हो गये, और अंततः सिल्युकस को चन्द्रगुप्त से सन्धि करनी पड़ी।

चाणक्य ने सन्धि की शर्तें निर्धारित की।

1. सिल्युकस यवनों के कब्जों वाले सारे भारतीय क्षेत्र काबुल, कांधार, अफगानिस्तान, ब्लूचिस्तान छोड़ देगा।

2. सिल्युकस अपनी पुत्री कार्नेलिया (हेलेन) का विवाह चन्द्रगुप्त से करेगा किन्तु उसका पुत्र राज्य का     उत्तराधिकारी नहीं होगा।

सन्धि पत्र पर दोनों पक्षों ने विधि सम्मत हस्ताक्षर कर दिऐ।

आठ वर्षों तक भारत के बहुत बड़े भू - भाग पर राज्य करने के पश्चात् चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन भिक्षु ‘भद्रभाहु’ से दीक्षा ग्रहण की और कर्नाटक प्रान्त के ‘श्रवणबेलगोला’ नामक स्थान पर लगातार कई दिनों तक उपवास करने के बाद अपने प्राण त्याग दिये।

‘पुष्पावती’ का एक अन्य नाम (दुर्धरा या भद्रा) भी था । उसका और चन्द्रगुप्त का पुत्र ‘बिन्दुसार मौर्य’ मगध की राजगद्दी पर आसीन हुआ तो उसने ‘सुबंध’ को अपना महामंत्री नियुक्त किया। ‘सुबंध’ पहले से ही चाणक्य की हत्या करने का कुचक्र रच रहा था।

चाणक्य वीथिका के साथ जिस रात के दूसरे पहर में मगध को छोड़कर भागने में सफल रहा उसी रात के मध्य में ‘सुबंध’ ने उसकी कुटी में चारों ओर से आग लगवा दी किन्तु चाणक्य अपनी लिखी हुई पुस्तकों की पाण्डुलिपियां, आवश्यक स्वर्ण मुद्रायें और पत्नी वीथिका के साथ पाटिलपुत्र नगर की सीमा से बाहर निकल गया था।

गंगा के किनारे - किनारे चलते हुए चाणक्य वर्तमान काशी से आगे और प्रयागराज से पहले एक ऐसे स्थान पर जहां युद्ध में विस्थापित हुए लोग आकर बसे थे वहीं अपनी एक छोटी - सी कुटी बनाकर रहने लगा।

मनुष्य जन्म - मरण, आदि - अन्त की सीमाओं में जकड़ा है। शरीर की भांति उसके कर्मक्षेत्र की भी सीमाएं हैं।
पाटलीपुत्र में भयानक रूप से व्यस्त अपनी दीनाचर्या से वह मुक्त हुआ तो उसका अंहकार और नंद वंश के प्रति हृदय में धधक रही ज्वाला भी शान्त होकर तिरोहित हो गयी।

गृष्म ऋतु समाप्त हो गयी थी आषाढ़ मास के प्रथम दिन आकाश में बादलों के छोटे - छोटे युग्म आपस में जुटकर सूर्य के प्रकाश की तीव्रता को धीरे - धीरे कम कर रहे थे। गर्मी काफी कम हो गयी थी। पुरवैया हवाओं के मन्द - मन्द झोंके से पूरे वातावरण में मादकता बढ़ रही थी और चाणक्य के ऊपर पागलपन का नशा छाता जा रहा था। वीथिका अपने दैनिक कार्य समाप्त कर चाणक्य के सामने आकर बैठ गयी, तो अचानक से उसे लगा कि वह युवा हो गया है केवल शरीर से ही नहीं मन से भी।वीथिका की ओर जी भर कर देखा तो लगा उसके अन्दर असीम सौन्दर्य भरा है। अभी तक वह उसके रूप सौन्दर्य से अन्जान कैसे रहा, उसका ह्रदय प्रेम की उन्मुक्त मादकता से भर उठा तो उसे अपने अन्दर उत्साह और उमंग की धरा बहती हुई महसूस हुई, अब वह नया चाणक्य था सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त केवल अपने अन्दर से विकसित और जागृत, जीवन की नवीनता और नये पन की ओर बढ़ने के लिये आकर्षित और आतुर। अभी तक उसने वीथिका के साथ जो भी किया था वह सब केवल औपचारिक ही रहा था।

चाणक्य का यौवन लौट आया, रक्त का संचार उसकी नसों में गर्म हो कर कुछ अधिक उत्तेजना और जोश से बहने लगा तो उसे लगा कि वीथिका के यौवन की सरल मुस्कुराहट और मुद्रा उसे अपनी ओर आकर्षित करते हुऐ उसे अपने बाहुपाश में बांधने के लिये निमंत्रित कर रही है। चाणक्य ने अनायास वीथिका को अपने आलिंगनपाश में जकड़ लिया किन्तु उसे लगा वह स्वयं वीथिका के आलिंगन में धीरे - धीरे जकड़ता जा रहा है। धीरे - धीरे उन दोनों की सक्रियता बढ़ती रही और सारे बन्धन एक - एक करके खुलते रहे और दोनों उन्माद से भर कर एक - दूसरे में किसी मुधर संगीत की लय की तरह उलझे पड़े रहे।

तीन दिनों तक धीरे - धीरे वर्षा होती रही और वे दोनों मादकता से भरे हुए उन्माद में जकड़े प्रेम की अजस्र धारा में निर्वाध गति से बढ़ते रहे। सारी दुनिया से बेखबर केवल एक दूसरे के साथ और एक दूसरे के आलिंगन में जकड़े हुए।

तीन दिन बाद धूप निकली तो चाणक्य अपने दैनिक कार्यों से निवृत हो कर अपनी लेखनी और भोज पत्रों का एक बण्डल उठाया, एक चटाई पर अपना आसन लगाया और सामने एक चौकी रखी। वीथिका सामने बैठी थी, किन्तु उसे क्या पता था कि आज और अनंतकाल तक के भविष्य की मानवता के लिये दाम्पत्य जीवन के श्रृगांर का महाकाव्य रचने जा रहा है,जिसकी वह प्रत्यक्ष गवाह है। चाणक्य ने पहला श्लोक लिखा “धर्मार्थकामेभ्यो नमः।“

अर्थात मैं धर्म, अर्थ और काम को नमस्कार करने के बाद इस ग्रन्थ का प्रारम्भ करता हूँ।

वीथिका अब उसकी प्रेमपूर्ण जीवन सहचारी थी। दाम्पत्य जीवन के श्रृंगार का अनुभव जैसे - जैसे बढ़ता जा रहा था उसका ग्रन्थ भी धीरे - धीरे आगे बढ़ता रहा। ग्रन्थ के सात अध्याय पूरे हुए तो ग्रन्थ के ऊपर उसने ग्रन्थ का नाम लिखा ‘काम सूत्र’! उसे याद आया कि उसने वात्स्यायन गोत्र में जन्म लिया है अतः लेखक के स्थान पर उसने लिखा ‘वात्स्यायन’। यह ग्रन्थ केवल एक शास्त्र ही नहीं है, काम विज्ञान पर भारत में रचित एक प्रमाणिक और अनूठा ग्रन्थ है।

चाणक्य ने अपने लकड़ी के सन्दूक को खोला जहां उसके लिखे अन्य ग्रन्थों की पाण्डुलिपियां रखी हुई थी। उसने एक - एक पाण्डुलिपि को उठाकर फिर से निरीक्षण किया। उसने पुनः सबसे पहले सन्दूक में रखा ‘‘नीतिशास्त्र’’ लेखक ‘विष्णुगुप्त’ फिर ‘अर्थशास्त्र’ लेखक ‘कौटिलल्य’, ज्योतिष विधा पर लिखा ग्रन्थ ‘विष्णुगुप्त सिद्धान्त’, आयुर्वेद विज्ञान पर लिखा ग्रन्थ ‘वैद्यजीवन’ और सबसे ऊपर रखा ‘वात्स्यायन काम सूत्र’। चाणक्य ने अपनी सन्दूक को बन्द कर दिया।

अपने लिखे ग्रंथों की पांडुलिपियां चाणक्य ने अपने साथ रह रहे लोगों से तैयार करा कर काशी और प्रयागराज के बाजारों में बिक्री करने हेतु प्रस्तुत कीं जिससे युद्ध में विस्थापित हो कर उसके साथ बसे लोगों को और उसे भी थोड़ी आय तो प्राप्त हुई ही साथ ही उसके ग्रन्थ काशी और प्रयागराज के विद्वानों और आम जनों के बीच लोकप्रिय होने के साथ - साथ देश के अन्य भागों में भी लोकप्रिय होने लगे। चाणक्य के लिखे ग्रन्थ, विष्णुगुप्त,कौटिल्य और वात्स्यायन के नाम से प्रयागराज और कशी के विद्वानों के बीच अत्यंत लोकप्रिय होने के बाद उनकी ख्याति पूरे भारत में फैलने लगी। चाणक्य का कौटिल्य नाम से लिखा ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र' एवं विष्णुगुप्त के नाम से लिखा ग्रन्थ ‘नीतिशास्त्र’ सबसे अधिक लोकप्रिय था तो 'वात्स्यान काम सूत्र' ग्रन्थ भी धीरे - धीरे जन मानस एवं विद्वानों के बीच लोकप्रिय होता जा रहा था, ‘विष्णुगुप्त सिद्धान्त’ तथा ‘वैद्यजीवन’ ग्रन्थ भी जन सामान्य और विद्वानों के बीच काफी लोकप्रिय हो चुके थे।

चाणक्य के जीवन की गति को जहां तक बहना था, एक दिन वह वहां तक बहकर पहुँच चुका था। काल, समय कब, कहाँ और किसके लिये रुका है, यह प्रकृति का नियम है जो आया है एक दिन वापस जायेगा भी। चाणक्य की मृत्यु के बाद उसके ग्रन्थ पूरे भारत में केवल लोकप्रिय ही नहीं वरन पूजनीय भी हुए, और आज भी हैं।

‘वीथिका’ जीवन पर्यन्त ‘चाणक्य’ की और फिर उसके बाद उसके प्रतिमा की पुजारन बनी रही।

 

इतिहास के पन्नो से

376 BC           चाणक्य का जन्म।

358 BC           सिल्युकस का जन्म मकदूनिया में हुआ।

356 BC           सिकंदर का जन्म।

346 BC           चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म।

326 BC           तक्षशिला में सिकन्दर और कार्नेलिया से चन्द्रगुप्त की मुलाकात।

325 BC           सिकन्दर का पर्वतेश्वर (पोरस या पुरू) पर आक्रमण।

323 BC           सिकन्दर की बेबीलोन में मृत्यु।

321 BC           चन्द्रगुप्त ने मगध पर अपना राज्य स्थापित किया।

316 BC           सिकन्दर के सेनानायक सिल्युकस ने बेबीलोन और सीरिया पर अपना राज्य      स्थापित किया।

306 BC           सिल्युकस ने भारत पर आक्रमण किया।

305 BC           सिल्युकस और चन्द्रगुप्त की सन्धि।

297 BC           चन्द्रगुप्त की मृत्यु।

283 BC           चाणक्य की मृत्यु।

281 BC           दक्षिण - पूर्वी यूरोप के देश थ्रेश में सिल्युकस की मृत्यु।