भगवान्‌ के चौबीस अवतारों की कथा - 6 Renu द्वारा पौराणिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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भगवान्‌ के चौबीस अवतारों की कथा - 6

श्री परशुरामावतार की कथा—(वाल्मीकि रामायण के अनुसार)

साक्षात् ब्रह्माजी के पुत्र राजा कुश के चार पुत्रोंमें से कुशनाभ दूसरे पुत्र थे। राजा कुशनाभ ने पुत्र प्राप्ति के लिये पुत्रेष्टि यज्ञ किया, जिसके फलस्वरूप गाधि नामक परम धर्मात्मा पुत्र हुआ। राजा गाधि के एक सत्यवती नाम की कन्या थी, जो महर्षि ऋचीक को ब्याही गयी थी। एकबार सत्यवती और सत्यवती की माता ने ऋचीकजी के पास पुत्र-कामना से जाकर उसके लिये प्रार्थना की। ऋचीक ने दो चरु सत्यवती को दिये और बता दिया कि यह तुम्हारे लिये है और यह तुम्हारी माँ के लिये है, इनका तुम यथोचित उपयोग करना। यह कहकर वे स्नान को चले गये। उपयोग करने के समय माता ने कहा—बेटी ! सभी लोग अपने ही लिये सबसे अधिक गणवान पत्र चाहते हैं, अपनी पत्नी के भाई के गुणों में किसी की विशेष रुचि नहीं होती। अतः तू अपना चरु मुझे दे दे और मेरा तू ले ले; क्योंकि मेरे पुत्र को तो सम्पूर्ण भूमण्डल का पालन करना होगा और ब्राह्मणकुमारों को तो बल, वीर्य तथा सम्पत्ति आदि से लेना-देना ही क्या है? ऐसा कहने पर सत्यवती ने अपना चरु माता को दे दिया। जब ऋषि को यह बात ज्ञात हुई तब उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि तुमने यह बड़ा अनुचित किया। ऐसा हो जाने से अब तुम्हारा पुत्र घोर योद्धा होगा और तुम्हारा भाई ब्रह्म वेत्ता होगा। सत्यवती के बहुत प्रार्थना करने पर कि मेरा पुत्र ऐसा न हो, उन्होंने कहा कि अच्छा, पुत्र तो वैसा न होगा किंतु पौत्र उस स्वभाव का होगा। यही कारण है कि राजा गाधि की स्त्री ने जो चरु खाया उसके प्रभाव से विश्वामित्र जी हुए, जो क्षत्रिय होते हुए भी तपस्वी और ब्रह्मर्षि हुए और श्री ऋचीक जी के पुत्र श्री यमदग्नि जी तो परम शान्त, दान्त ब्रह्मर्षि हुए परंतु यमदग्नि पुत्र परशुराम बड़े ही घोर योद्धा हुए।

एक बार यमदग्नि ऋषि ने अपनी स्त्री रेणुका जी को नदी से जल लाने को भेजा। वहाँ गन्धर्व-गन्धर्विणी विहार कर रहे थे। ये जल लेने गयीं तो उनका विहार देखने लगीं। इसमें उन्हें लौटने में देर हुई। ऋषि ने देरी का कारण जान लिया और यह समझकर कि स्त्री को पर-पुरुष की रति देखना महापाप है, अपने पुत्रों को बुलाकर (एक-एक करके) आज्ञा दी कि माता को मार डालो। परंतु मातृ-स्नेहवश सातों पुत्रों ने इस काम को करना अंगीकार न किया। तब आठवें पुत्र परशुराम को आज्ञा दी कि इन सब भाइयों सहित माता का वध करो। इन्होंने तुरंत सबका सिर काट डाला। इस पर पिता ने प्रसन्न होकर इनसे वर माँगने को कहा। तब इन्होंने कहा कि मेरे सब भाई और माताजी जी उठे और इन्हें यह भी न मालूम हो कि मैंने इन्हें मारा था। हमको पाप का स्पर्श न हो। युद्ध में कोई मेरी बराबरी न कर सके, मैं दीर्घकालतक जीवित रहूँ। महातपस्वी यमदग्नि ने परशुराम को सभी वर दिये।

माहिष्मती नगरी का राजा सहस्रार्जुन भगवान् दत्तात्रेय जी से, युद्ध में कोई सामना न कर सके, युद्ध के समय हजार भुजाएँ प्राप्त हो जायँ, सर्वत्र अव्याहत गति हो आदि वरदान प्राप्तकर उन्मत्त हो गया। वह रथ और वर के प्रभाव से देवता, यक्ष और ऋषि सभी को कुचले डालता था। उसके द्वारा सभी प्राणी पीड़ित हो रहे थे। एकबार उसने केवल धनुष और बाणकी सहायता से, अपने बल के घमण्ड में आकर समुद्र को आच्छादित कर दिया। तब समुद्र ने प्रकट होकर उसके आगे मस्तक झुकाया और हाथ-जोड़कर कहा—वीरवर ! बोलो, मैं तुम्हारी किस आज्ञा का पालन करूं? उसने कहा—यदि कहीं मेरे समान धनुर्धर वीर मौजूद हो, जो युद्ध में मेरा मुकाबला कर सके तो उसका पता बताओ। फिर मैं तुझे छोड़कर चला जाऊँगा। तब समुद्र ने कहा—महर्षि यमदग्नि के पुत्र परशुराम युद्ध में तुम्हारा अच्छा सत्कार कर सकते हैं। तुम वहीं जाओ। यह सुनकर राजा ने वहीं जाने का निश्चय किया। अपनी अक्षौहिणी सेना सहित राजा सहस्रार्जुन श्रीयमदग्नि ऋषि के आश्रमपर पहुँचे।

ऋषि ने इनका यथोचित आतिथ्य-सत्कार किया, जिससे वह चकित हो गया कि वनवासी के पास ऐसा ऐश्वर्य कहाँ से आया? यह मालूम होने पर कि यह सब कामधेनु की महिमा है, उसने मुनि से गऊ माँगी, न देने पर जबर्दस्ती उसे छीन लिया और मुनि के प्राण भी ले लिये। उस समय परशुरामजी घर पर नहीं थे। घर पर आने पर उन्होंने माता को विलाप करते हुए पाया। कारण जानने पर उन्होंने पृथ्वी को निःक्षत्रिय करने का संकल्प किया। कहते हैं कि विलाप में माता ने २१ बार छाती पीटी थी, अतः इन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को नि:क्षत्रिय किया।

इक्कीसवीं बार क्षत्रियों का नाश करके परशुरामजी ने अश्वमेधयज्ञ किया और उसमें सारी पृथ्वी कश्यपजी को दान में दे दी। पृथ्वी क्षत्रियों से सर्वथा रहित न हो जाय—इस अभिप्राय से कश्यपजी ने उनसे कहा अब यह पृथ्वी हमारी हो चुकी, अब तुम दक्षिण समुद्र की ओर चले जाओ। चूँकि परशुराम जीके पूर्वजों ने भी यह संहार-कार्य अनुचित कहकर परशुराम जी को इससे निवृत्त होने का अनुरोध किया था और कश्यपजी ने भी पृथ्वी छोड़ देने को कहा, अतः परशुराम जी दक्षिण समुद्र की ओर ही चले गये। समुद्र ने अपने अन्तर्गत स्थित महेन्द्राचल पर इनको स्थान दिया। श्रीपरशुराम जी कल्पान्त-स्थायी हैं। किसी-किसी भाग्यशाली पुण्यात्माको उनके दर्शन भी हो जाते हैं।