भगवान्‌ के चौबीस अवतारों की कथा - 7 Renu द्वारा पौराणिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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भगवान्‌ के चौबीस अवतारों की कथा - 7

जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
करहिं अनीति जाई नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥


अपनी इस प्रतिज्ञा के अनुसार अकारण करुण, करुणावरुणालय भक्तवत्सल भगवान् श्रीरामचन्द्र जी चार रूप धारण करके श्रीअयोध्यापति चक्रवर्ती महाराजाधिराज श्रीदशरथजी के पुत्ररूप में चैत्र शुक्ल ९ रामनवमी को अवतरित हुए। महारानी श्रीकौशल्याजी की कुक्षि से श्रीराम, श्रीकैकेयी जी की कुक्षि से श्रीभरत, श्रीसुमित्रा जी की कुक्षि से श्रीलक्ष्मण और शत्रुघ्न प्रकट हुए।

यथासमय जातकर्म, नामकरण, चूड़ाकरण, यज्ञोपवीतादि संस्कार सानन्द सम्पन्न हुए। श्रीराम किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं और ‘जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा।..... ॥ आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥’ इसी हर्षोल्लास के बीच एक दिन श्रीविश्वामित्र जी आते हैं और श्रीदशरथ जी महाराज से अपने यज्ञरक्षणार्थ श्रीराम जी एवं श्रीलक्ष्मणजी को माँग ले जाते हैं। यज्ञ में विघ्न डालने वाले ताड़का, मारीच, सुबाहु आदि असंख्यों राक्षसों का सहज ही श्रीराम और लक्ष्मण ने वध कर डाला। यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुआ। फिर श्रीविश्वामित्र जी के साथ जनकपुर में श्री सीता जी का स्वयंवर देखने के निमित्त जाकर विशाल शम्भु-धनु, जिसे त्रैलोक्य के भटमानी वीर डिगा भी न सके थे, उसे श्रीराम ने मध्यसे ऐसे तोड़ डाला, जैसे मतवाला हाथी कमलनाल को तोड़ डालता है। पश्चात् यह शुभ समाचार श्रीअयोध्या भेजा गया और श्रीदशरथ जी आये तो बारात लेकर श्रीराम के ब्याह के लिये, परंतु ब्याह हो गया चारों राजकुमारों का।

अपनी वृद्धावस्था का आभास पाकर श्री दशरथजी महाराज ने उत्तम गुणों से युक्त और सत्य पराक्रम वाले सद्गुणशाली अपने प्रियतम, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ पुत्र श्रीराम को, जो प्रजा के हित में संलग्न रहने वाले थे, प्रजावर्ग का हित करने की इच्छा से प्रेमवश युवराज-पदपर अभिषिक्त करना चाहा। तदनन्तर श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ देखकर रानी कैकेयी ने जिसे पहले ही वर दिया जा चुका था, देवमाया से मोहित होकर, मन्थरासे उकसायी जाकर, राजा से यह वर माँगा कि श्रीराम का निर्वासन (वनवास) और भरत का राज्याभिषेक हो। कैकेयी का प्रिय करने के लिये, पिता की आज्ञा के अनुसार इनकी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए वीर श्रीराम वन को चले। विदेहवंशवैजयन्ती मिथिलेशराजनन्दिनी श्रीरामप्रिया श्रीजानकी एवं श्रीसुमित्रानन्दन लक्ष्मण भी प्रेमवश प्रभु के साथ चल दिये। उस समय पिता श्रीदशरथजी ने अपना सारथि भेजकर एवं पुरवासियों ने स्वयं साथ जाकर दूर तक उनका अनुसरण किया। श्रीश्रृंगवेरपुर में गंगातट पर अपने प्रिय सखा निषादराज गुह के पास पहुँचकर धर्मात्मा श्रीराम ने सारथि (सुमन्त्रजी) को अयोध्या के लिये विदा कर दिया। निषादराज गुह, लक्ष्मण और सीता के साथ श्रीराम मार्ग में बहुत जल वाली अनेकों नदियों को पार करके एक वन से दूसरे वन को गये। महर्षि भरद्वाजजी का दर्शनकर गुह को वापस कर उन्होंने महर्षि वाल्मीकि जी का दर्शन किया और उनकी आज्ञा से, चित्रकूट पहुँचकर वहाँ वे तीनों देवता और गन्धर्वो के समान वन में नाना प्रकार की लीलाएँ करते हुए एक रमणीय पर्णकुटी बनाकर उसमें सानन्द रहने लगे।

पुत्र शोक में श्रीदशरथजी के स्वर्गगमन के पश्चात् श्रीवसिष्ठ आदि प्रमुख ब्राह्मणों द्वारा राज्य-संचालन के लिये नियुक्त किये जाने पर भी महाबलशाली वीर भरत ने राज्य की कामना न करके, पूज्य श्रीराम को प्रसन्न करने के लिये वन को ही प्रस्थान किया और वहाँ पहुँचकर ज्येष्ठ भ्राता श्रीराम से यों प्रार्थना की—धर्मज्ञ ! आप ही राजा हों। परंतु महान् यशस्वी श्रीराम ने भी पिता के आदेश का पालन करते हुए राज्य की अभिलाषा न की और भरत के माँगने पर उन भरताग्रज ने राज्य के लिये न्यास (चिह्न) रूप में अपनी खड़ाऊँ भरत को देकर उन्हें बार-बार आग्रह करके लौटा दिया। श्रीभरत ने श्रीराम के चरणों का स्पर्श किया और श्रीराम के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए वे नन्दिग्राम में रहकर राज्यकार्य सँभालने लगे। श्रीभरत के लौट जाने पर सत्यप्रतिज्ञ श्रीराम ने, वहाँ पर नागरिकों का पुनः आना-जाना देखकर उनसे बचने के लिये दण्डकारण्य में प्रवेश किया। उस महान् वन में पहुँचने पर महावीर श्रीराम ने विराध नामक राक्षस को मारकर श्रीशरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि मुनियों का दर्शन किया। श्रीराम ने दण्डकारण्यवासी अग्नि के समान तेजस्वी उन ऋषियों को राक्षसों के मारने का वचन दिया और संग्राम में उनके वध की प्रतिज्ञा की।

इसके पश्चात् वहाँ ही रहते हुए श्रीराम ने इच्छानुसार रूप बनाने वाली जनस्थाननिवासिनी सूर्पणखा नाम की राक्षसी को लक्ष्मण के द्वारा उसके नाक-कान कटाकर कुरूप कर दिया। पश्चात् सूर्पणखा के द्वारा प्रेरित होकर चढ़ाई करने वाले खर, दूषण, त्रिशिरादि चौदह हजार राक्षसों को श्रीराम ने युद्ध में मार डाला। तदनन्तर राक्षसेन्द्र रावण ने प्रतिशोध की भावना से मारीच की सहायता से श्रीजानकीजी का अपहरण कर लिया और श्रीजानकीजी को लेकर जाते समय मार्ग में विघ्न डालने के कारण श्रीजटायुजी को आहत कर दिया। पितृवत् पूज्य जटायु के द्वारा ही श्रीरामजी को श्रीजानकीजी का पता मिला। तब अपनी गोद में प्राण त्यागे हुए श्रीजटायुजी का अग्नि-संस्कार कर वन में श्रीसीताजी को ढूँढ़ते हुए उन्होंने कबन्ध नामक राक्षस को देखा तो उसे भी तत्काल मारकर शुभ गति प्रदान की। कबन्ध के द्वारा संकेत पाकर श्रीराम परम भागवती शबरीजी के यहाँ गये। उसने इनका पूजन किया। श्रीराम ने शबरी का मातृवत् सम्मान किया। उत्तम गति प्रदान की। फिर शबरी के संकेतानुसार श्रीहनुमान्जी से मिलकर सुग्रीव जी से मित्रता की और सुग्रीव के कथनानुसार संग्राम में बाली को मारकर उसके राज्य पर श्रीराम ने सुग्रीव को ही बिठा दिया।

तब उन वानरराज सुग्रीव ने भी सभी वानरों को बुलाकर श्रीजानकीजी का पता लगाने के लिये भेजा। सम्पाती नामक गृध्र के पता बताने पर महाबलवान् श्रीहनुमान्जी सौ योजन विस्तार वाले क्षारसमुद्र को कूदकर लाँघ गये। वहाँ रावणपालित लंकापुरी में पहुँचकर उन्होंने अशोक-वाटिका में श्रीसीताजी को चिन्तामग्न देखा। तब उन विदेहनन्दिनी को पहचान (मुद्रिका) देकर श्रीराम का सन्देश सुनाया और उन्हें सान्त्वना देकर उन्होंने वाटिका का विध्वंस कर डाला, साथ ही अक्षयकुमारादि असंख्य राक्षसों का संहार कर डाला, इसके बाद में वे जान-बूझकर पकड़ में आ गये। श्रीब्रह्माजी के वरदान से अपने को ब्रह्मपाश से छूटा हुआ जानकर भी वीर हनुमान्जी ने अपने को बाँधने वाले उन राक्षसों का अपराध स्वेच्छानुसार सह लिया। तत्पश्चात् मिथिलेशकुमारी सीता के स्थान के अतिरिक्त समस्त लंका को जलाकर वे महाकपि श्रीहनुमान्जी, श्रीराम को प्रिय सन्देश सुनाने के लिये लंका से लौट आये और श्रीरामजी की प्रदक्षिणा कर श्री जानकी जी का पता बताया। इसके अनन्तर असंख्य वानर सेना को साथ लेकर श्रीराम ने महासागर के तट पर सूर्य के समान तेजस्वी बाणों से समुद्र को क्षुब्ध किया। तब नदीपति समुद्रने अपने को प्रकट कर दिया, फिर समुद्र के ही कहने से श्रीराम ने नल-नील से पुल का निर्माण कराया। उसी पुल से लंकापुरी में जाकर रावण को सदल-बल मारकर भगवान् राम ने श्रीजानकी जी को प्राप्त किया।

साध्वी सीता ने अपनी अग्निपरीक्षा दी। इसके बाद अग्नि के कहने से श्रीराम ने श्रीसीता को निष्कलंक माना। महात्मा श्रीरामचन्द्र के इस कर्म से देवता और ऋषियोंसहित चराचर त्रिभुवन सन्तुष्ट हो गया। फिर सभी देवताओं से पूजित होकर श्रीराम बहुत प्रसन्न हुए और राक्षसराज विभीषणजी को लंका के राज्य पर अभिषिक्त करके तथा स्वयं देवताओं से वर पाकर और मरे हुए वानरों को जीवन दिलाकर अपने सभी साथियों के साथ पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या के लिये प्रस्थित हुए। भरद्वाजमुनि के आश्रम पर पहुँचकर सबको आराम देने वाले सत्य-पराक्रमी श्रीराम ने भरत के पास हनुमान्जी को भेजा, पुनः श्रीहनुमान्जी से श्रीअवध का समाचार पाकर भरद्वाज-आश्रम से अयोध्या के लिये प्रस्थित हुए। श्रीअयोध्या पहुँचकर श्रीअवधवासियों के उमड़ते हुए अनुराग को देखकर ‘अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथा जोग मिले सबहिं कृपाला॥’ पश्चात् श्रीवसिष्ठजी के आदेशानुसार शुभघड़ी में श्रीरामभद्रजू राज्यसिंहासनासीन हुए। श्रीरामजी के सिंहासन पर बैठते ही त्रैलोक्य परम आनन्दित हो गया। भगवान् श्रीराम ने सुदीर्घकाल तक पृथ्वी पर अभूतपूर्व सुशासन स्थापित किया, उनके राज्य में प्रजामात्र तापत्रय से सर्वथा मुक्त थी, आज भी रामराज्य को आदर्श माना जाता है।