नि:शब्द के शब्द - 28 Sharovan द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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नि:शब्द के शब्द - 28

नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक

अट्ठाइसवां भाग


कहाँ गए वह दिन

मोहिनी के कितने ही दिन इसी उहापोह में व्यतीत हो गये. रोनित के 'रिसोर्ट' पर रहते हुए अब तक उसे दो महीने से अधिक बीत चुके थे और किसी को भी नहीं मालुम था कि, वह यहाँ पर एकांत में एक गुमनामी की ज़िन्दगी बिता रही है. हांलाकि, रोनित से बात करने के पश्चात मोहित अब जैसे शांत हो चुका था, परन्तु फिर भी रोनित किसी भी तरह का जोखिम मोहिनी के जीवन के लिए नहीं लेना चाहता था. उसने यूँ तो मोहित को काफी-कुछ डरा-धमका दिया था, फिर भी वह उसकी एक-एक गति-विधियों पर अपनी नज़र रखे हुए था. उसके अपने खुफिया आदमी अभी-भी मोहित की तमाम गति-विधियों पर अपनी पैनी दृष्टि लगाये हुए थे.

एक दिन मोहिनी ने रोनित को फोन किया और पूछा कि, 'ऐसा कब तक चलेगा? वह यहाँ 'रिसोर्ट' पर एकान्तमयी ज़िन्दगी बिताते हुए जैसे उकता गई है.' तब रोनित ने उसे फिर से समझाया और कहा कि, वह कुछ दिन और सब्र कर ले. जैसे ही सब कुछ सामान्य हो जाएगा और कहीं से कोई भी खतरे वाली बात जब नहीं रहेगी तब वह पहले के समान अपने काम पर वापस, अपने कार्यालय में आ सकेगी.'

मोहिनी बेचारी क्या करती? कोई दूसरा विकल्प भी उसके सामने नहीं था, सिवा इसके कि, वह रोनित जैसा कहता है, वैसा ही करती भी रहे. और वह कर भी रही थी. कभी वह अपने बारे में सोचती- अपने दोबारा इस संसार में आने के बारे में विचार करती तो यही सोचकर उसका कलेजा दहल जाता कि, यदि किसी भी संयोग से उसे रोनित नहीं मिलता तो फिर इस क्रूर ज़माने में उसका न जाने क्या हश्र होता? लोग तो उसका जीना दुश्वार कर देते. उसे कहीं का भी नहीं छोड़ते. उसने जब वह अपने आत्मिक संसार में थी और एक भटकी हुई आत्मा के समान अपनी बची हुई उम्र के दिन पूरे करने पर मजबूर थी तो उसने आत्माओं के संसार में जितनी भी समय से पहले ही अपना शरीर छोड़ने पर मजबूर आत्माओं को देखा था, उनका भी ऐसा ही हश्र हुआ था. किसी की अस्मत लूटी गई थी, किसी का दानवी कितने ही दुष्ट लोगों ने बलात्कार करके, बेहद क्रूरता से उनकी हत्या कर दी थी. कितनी ही नव-नवेली दुल्हनों को बड़ी निर्ममता से मिट्टी का तेल डालकर उनके ही पतियों ने जला दिया था. न जाने कितनी ही ऐसी थीं कि, दहेज न लाने के कारण उन्हें आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ा था. कितनों ही ने फंसी लगाई थी, कितनी ही कुएं में डूब मरी थी, कित्ब्नों ही ने ज़हर खा लिया था- कहने का आशय है कि, इस संसार में क्या स्त्री ही मात्र ऐसा जीव है कि जिस पर सदा ही यातनाएं होती रहती हैं? क्या क्लेशों में हे जीवित रहने के लिए इस संसार में जन्म लेती हैं? इनके साथ ये ज़माना क्या-क्या जुल्म नहीं करता है? कोई कोठे पर बिक जाया करती हैं, कोई देह व्यापार की मंडी में नीलाम कर दी जाती हैं, कोई-कोई तो होटलों की चमक-धमक बनकर भी नहीं जी पाती हैं और किसी को अपना पेट पालने के लिए 'कॉल गर्ल' बनकर जीना तो पड़ता है मगर कोई नहीं जानता है कि, उनका सुंदर शरीर कभी-भी, किसी गली के अंधकार में पड़ा हुआ मिल जाए?

मोहिनी कभी-कभी ऐसा ही सब कुछ अपने बारे में सोचा करती थी और फिर परेशान होती थी. वह सोचती रही कि, इस संसार का मनुष्य चाहे कितना ही धर्मी क्यों न बन जाए, मगर जब भी कोई उसी के समान ईश्वर की दुनियां से वापस आता है और जब वहां के बारे में बताता है तो पता नहीं क्यों, इस संसार का रहनेवाला मनुष्य विश्वास नहीं करना चाहता है? विश्वास करना तो बहुत दूर की बात हो जाती है, लोग ऐसी बातों को सुनकर उपहास उड़ाते हैं. खिल्लियाँ करते हैं. और जब ऐसा करते हैं तो तो मोहिनी सोचने पर विवश हो जाती कि, धर्म-ग्रंथों में जो भी बातें ईश्वर के बारे में लिखी गई हैं, वे सब तो झूठ हैं, मिथ्या हैं- सच तो वह है जो वह खुद अपनी आँखों से देख रही है- अपने जीवन में भुगत रही है. और अब सच यही है कि, वह एक लावारिस, अनजान, अनाथ ऐसी लड़की है कि जो यह भी नहीं बता सकती है कि, वह कौन है? कहाँ की रहनेवाली है? उसे किसने जन्म दिया है? उसका अस्तित्व क्या है? उसकी पहचान क्या है? क्योंकि, इस संसार की दृष्टि में वह मर चुकी है- जीवित है, मगर मर चुकी है. वक एक ऐसी जीवित लाश है जो न दफनाई जा सकती है और न ही पंचतन्त्र में फिर से विलीन ही की जा सकती है. वह तो केवल अपने लिए सिर्फ और सिर्फ मोहिनी है. दूसरों के लिए एक आश्चर्य, एक अजूबा, एक बकवास, एक दिमाग खराब लड़की और अविश्वास की वह नारी कि जिस पर कभी भी कोई विश्वास नहीं करेगा. लोग तो उसके बारे में यही कहते आये हैं कि, यह कैसी चले हुए दिमाग की लड़की है कि, जो न जाने क्या बोलती है? क्या सोचती है और कौन जाने किस देश-दुनियां की बातें किया करती है? इस प्रकार की अपने बारे में बातें सुन-सुनकर मोहिनी का मानो दिल-दिमाग थक चुका था.

सो, मोहिनी जब भी अपने बारे में इस तरह से सोचती थी तो सिवा उसकी आँखों में आंसू भर आयें, वह जी भरकर रो ले, अपने नसीब की बिगड़ी हुई लकीरों को देख-देखकर अपना सिर पीटती फिरे; उसे कोई दूसरा विकल्प दिखाई नहीं देता था. और आज भी वह कमरे से बाहर बैठी हुई थी. एक अंग्रेजी की पत्रिका उसके सामने पड़ी हुई थी. उसे उसने खोलकर भी नहीं देखा था. आज उसने कॉफ़ी न बनाकर चाय बनाई थी, मगर वह भी उसके दो घूंट भरकर जैसे छोड़ चुकी थी और चाय का प्याला जैसे अपने फूटे मुकद्दर पर अब आंसूं बहा रहा था.

मोहिनी, अपनी आँखें बंद किये, इसी तरह से बैठी हुई सोच रही थी. आकाश पर सूर्य का मुख किसी बादल के टुकड़े ने आकर ढक लिया था. रात में हल्की-फुल्की बारिश हो गई थी, शायद इसीलिये आज आकाश बादलों के साथ उनके काफिलों को ठहराए हुए था. इसी बीच मोहिनी को एहसास हुआ कि, उसके सामने कोई खड़ा हुआ है. उसने तुरंत ही अपनी आँखें खोल दीं- सामने उसके किसी झोपड़-पट्टी का रहनेवाला, अपने फटे हुए, मैले-मिट्टी में सने हुए वस्त्रों के साथ, एक चार-पांच साल का लड़का, अपने दोनों हाथों में एक अल्युमीनियम कटोरा लिए हुए मूक खड़ा था.

'?'- मोहिनी ने उसे बगैर कुछ भी खे हुए गौर से देखा.

हांलाकि, वह उस नादाँ गरीब बच्चे का यूँ उसके सामने आने का आशय तो समझ गई थी, फिर भी उसने उससे पूछा कि,

'क्या भूखे हो तुम?'

- क्रमश: