अमावस्या में खिला चाँद - 12 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अमावस्या में खिला चाँद - 12

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       यूथ फ़ेस्टिवल सफलतापूर्वक निपटने के पश्चात् लगभग एक महीने की मानसिक तथा शारीरिक थकान उतारने के लिए शीतल के पास पूरा एक दिन उपलब्ध था। सुबह की अपनी दिनचर्या के विपरीत आज उसने तब तक बिस्तर नहीं छोड़ा जब तक कि बेडरूम की ग्लास विंडो पर लटकते पर्दे को भेदते हुए सूरज की किरणों ने उसके शरीर को स्पर्श करना आरम्भ नहीं कर दिया। उसने उठकर पर्दा सरकाया तो किरणों का सीधा स्पर्श उसे और भी सुखद लगा, क्योंकि सुबह के समय हल्की-हल्की ठंड पड़ने लगी थी। जाग तो वह काफ़ी पहले ही गई थी, लेकिन बिस्तर में पड़ी पिछले कुछ दिनों की घटनाओं का विश्लेषण करती रही थी। फ़ेस्टिवल से कुछ दिन पूर्व जिस दिन प्रिंसिपल ने उसे बुलाकर फ़ेस्टिवल की तैयारियों के बारे में पूछा था तो बातचीत करते हुए वे ‘शीतल मैम’ और ‘आप’ की बजाय ‘शीतल’ और ‘तुम’ कहने लगे थे। उसके बाद रिहर्सल देखने आए थे, तब भी अनौपचारिक ढंग से ही बुलाते रहे, लेकिन फ़ेस्टिवल के समय औपचारिक रूप से ही व्यवहार किया। हाँ, फ़ेस्टिवल से एक दिन पहले जब रिहर्सल के बाद मुझे अपने घर चाय पर बुलाया था, तब भी वे अनौपचारिक ढंग से ही बातचीत करते रहे थे। प्रवीर के साथ मेरे सम्बन्ध की जानकारी होते हुए भी उन्होंने मुझसे समापन सत्र का मुख्य अतिथि का नाम फ़ाइनल करते समय कोई ज़िक्र नहीं किया था; यह तो मुझे प्रवीर ने ही बताया था जिस दिन प्रिंसिपल ने उससे इस विषय में बात करके उसकी  स्वीकृति ली थी। मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लगने लगा है कि प्रिंसिपल मुझ में एक स्टाफ़ मेम्बर से अधिक रुचि लेने लगे हैं वरना मुझ अकेली को घर पर चाय के लिए बुलाने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। ठीक है कि उन्होंने चाय के दौरान कोई व्यक्तिगत बात नहीं की, केवल रिहर्सल को लेकर ही पूछताछ की, फिर भी उनकी बॉडी लैंग्वेज से कुछ और ही तरह का आभास होता रहा ….। क्या इस सम्बन्ध में प्रवीर से बात करनी चाहिए? कुछ क्षणों की अनिश्चय की स्थिति के बाद मन ने कहा - प्रवीर कितना भी तुम्हारा हितचिंतक क्यों न हो, ऐसे मामलों में जल्दबाज़ी करना ठीक नहीं।

        आख़िर उसने बिस्तर छोड़ा। दैनंदिन क्रियाओं से फ़ारिग हुई। अपने लिए चाय का कप बनाया और कमरे में आकर रज़ाई में बैठकर चाय का लुत्फ़ उठाने लगी। अभी दो-एक घूँट ही भरी थीं कि मोबाइल की रिंग बजने लगी। फ़ोन प्रवीर कुमार का था। नमस्ते के आदान-प्रदान के बाद उसने पूछा - ‘शीतल, क्या कर रही हो?’

         ‘अभी तो सुबह की चाय का कप हाथ में है।’

         ‘क्या बात, इतनी लेट? अब तक तो नाश्ता हो जाना चाहिए था!’

       ‘प्रवीर, यूथ फ़ेस्टिवल की तैयारियों और फिर दो दिन की फ़ुल टाइम ड्यूटी के कारण आज जल्दी उठने को मन नहीं किया। बताओ, कैसे फ़ोन किया?’

        ‘कल तो तुमसे अकेले में बात हो नहीं सकी थी और सबके सामने मैं तुमसे कोई बात करना भी नहीं चाहता था, क्योंकि सिवाय प्रिंसिपल के अन्य किसी को मैं हमारे बीच के सम्बन्ध के बारे में कुछ भी नहीं मालूम होने देना या इसे सार्वजनिक करना नहीं चाहता था।’

         ‘प्रवीर, मैं भी इसी कारण से तुम्हारे नज़दीक नहीं आई।’

    ‘शीतल, पहले तो तुम मेरी बधाई स्वीकार करो। कार्यक्रम बहुत ही अच्छा रहा। तुम्हारा आत्मविश्वास देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।’

       ‘प्रवीर, मुझमें आत्मविश्वास पुनः जागृत करने में तुम्हारी अहम भूमिका रही है वरना मैं तो निराशा का दामन थामे बैठी थी।’

        ‘ऐसा नहीं शीतल, मंच पर आने से पूर्व जब मैं प्रिंसिपल के साथ उनके रूम में बैठा था तो उन्होंने तुम्हारी भरपूर प्रशंसा की थी, जिसे सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा तथा अपनी मित्रता पर गर्व भी हुआ।’

      शीतल सोचने लगी, इसका मतलब तो यही निकलता है कि मैं बिस्तर में पड़ी प्रिंसिपल को लेकर जो सोच रही थी, वह ग़लत नहीं था। जब शीतल ने कुछ क्षणों तक प्रवीर कुमार की बात का जवाब नहीं दिया तो उसने पूछा - ‘क्या सोचने लग गई? प्रिंसिपल ने तुम्हारी प्रशंसा बेवजह नहीं की थी। मैंने स्वयं देखा था कि तुमने कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए बहुत परिश्रम किया था।’

         ‘प्रवीर, इस समय तुम अकेले ही हो?’

         ‘अरे भई, जब तुमसे बातें कर रहा हूँ तो अकेला ही हूँ। लेकिन तुम यह क्यों पूछ रही हो?’

       ‘प्रवीर, जब प्रिंसिपल ने तुम्हारे सम्मुख मेरी प्रशंसा की तो तुम्हें ऐसा आभास नहीं हुआ कि वे औपचारिकता से कुछ अधिक कह रहे हैं?’

        ‘मुझे तो ऐसा कुछ नहीं लगा, किन्तु तुम यह किस लिए पूछ रही हो?’

        तब शीतल ने अपने मन की आशंका प्रवीर कुमार को विस्तार से बताई। सुनकर उसे भी लगा कि शीतल की आशंका सही भी हो सकती है, क्योंकि प्रिंसिपल तलाकशुदा हैं। लेकिन, उसने यह कहकर फ़ोन बन्द कर दिया कि किसी वक़्त बैठकर इस विषय पर चर्चा करेंगे।

…….

        अवकाश के अगले दिन प्रिंसिपल ने शीतल के ख़ाली पीरियड में उसे अपने ऑफिस में बुला लिया। यूथ फ़ेस्टिवल की सफलता में उसके योगदान के लिए बधाई देने के बाद पूछा - ‘शीतल, तुम्हारे पिताजी कैसे हैं?’

         इस अप्रत्याशित प्रश्न से शीतल को अचम्भा हुआ। उसने जवाब देने की बजाय प्रतिप्रश्न किया - ‘सर, आप मेरे पिताजी को जानते हैं?’

           ‘केवल जानता ही नहीं, बहुत सम्मान है मेरे मन में उनके प्रति।’

         उपरोक्त जवाब सुनकर शीतल और अचम्भित हो उठी। जब वह कुछ देर तक नहीं बोली तो प्रिंसिपल ने पुनः प्रश्न किया - ‘शीतल, तुमने बताया नहीं कि कैसे हैं तुम्हारे पिताजी?’

         शीतल अभी भी असमंजस में थी कि प्रिंसिपल सर उसके पिताजी को कैसे जानते हैं, इसलिए उसने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया - ‘सर, पिताजी ठीक हैं। …... लेकिन सर, …’ 

         ‘यही जानना चाहती हो न कि मैं उन्हें कैसे जानता हूँ?’

         ‘सर,…..।’

      ‘शीतल , मैं उनका स्टूडेंट रहा हूँ। वे बहुत ही उच्च विचारों तथा संस्कारों के स्वामी हैं। उन्होंने अपने स्टूडेंट्स को भी अपने संस्कारों से अनुप्राणित किया है। उनके बहुत से स्टूडेंट्स आज बहुत  उच्च पदों पर आसीन हैं। मैं कभी उनके दर्शन करना चाहता हूँ।’

          प्रिंसिपल के मुख से अपने पापा की प्रशंसा में उनके मनोभावों को सुनकर शीतल अभिभूत हो उठी। उसने कहा - ‘सर, आपसे यह सब सुनकर मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है। मैं पापा को आपकी इच्छा से अवगत करवा दूँगी। आपके मनोभावों को जानकर उन्हें भी बहुत अच्छा लगेगा।’

           ‘शीतल, यदि तुम्हें एतराज़ न हो तो आज शाम को घर आना, डिनर इकट्ठे करेंगे।’

           अपने पापा के विषय में प्रिंसिपल के विचार सुनने के पश्चात् शीतल के मन का सारा संशय, सारा असमंजस दूर हो गया था। फिर भी उसने कहा - ‘सर, डिनर तो नहीं, शाम की चाय आपके साथ पीने के लिए आ सकती हूँ।’

          प्रिंसिपल ने भी डिनर के लिए और आग्रह करना उचित नहीं समझा और कहा - ‘मैं पाँच बजे इंतज़ार करूँगा।’

           ‘मेरा सौभाग्य सर,’ कहकर शीतल वापस स्टाफ़ रूम में लौट गई।

         प्रिंसिपल आवास कॉलेज कैम्पस में उत्तर दिशा में स्थित था। चारदीवारी के बीचोंबीच बने आवास के प्रवेश द्वार से घर के बरामदे तक कंक्रीट पथ को छोड़कर चारों तरफ़ विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों तथा क्यारियों में महक बिखेरते रंग-बिरंगे फूलों को देखकर शीतल को बड़ी प्रसन्नता हुई। शरद ऋतु की अल्पजीवी धूप के सिमटते सायों के कारण ड्राइंगरूम में कृत्रिम प्रकाश की अभी से आवश्यकता आन पड़ी थी। कुछ देर तक औपचारिक बातें करने के बाद प्रिंसिपल ने शीतल को बताया - ‘शीतल, मेरे सामने जब तुम्हारी नियुक्ति सम्बन्धी फाइल आई थी तो उसमें तुम्हारे पिताजी के नाम के आगे मुरलीधर नाम लिखा देखकर मुझे अपने स्कूल टाइम के मुरलीधर अध्यापक का स्मरण हो आया था। फिर मैंने तुम्हारे बारे में जानकारी एकत्रित की तो मेरा संशय दूर हो गया और तुम्हारे लिए आत्मीयता के भाव मन में जागृत होने लगे।’

           ‘सर, मैं हृदय से आभारी हूँ।’

          ‘शीतल, मुरलीधर सर हमें इंगलिश पढ़ाते थे। उनका पढ़ाने का ढंग सबसे जुदा था। यह उन दिनों की बात है जब मैं आठवीं में था। एक दिन उन्होंने ट्रांसलेशन करवाते समय क्लास में कहा - मैं उन विद्यार्थियों को अपनी तरफ़ से इनाम दूँगा जो मेरे हिन्दी बोलते-बोलते ही इंगलिश में ट्रांसलेशन कर लेंगे। जानती हो, उनकी इस चुनौती पर क्लास के केवल दो लड़के खरे उतरे थे … उनमें से एक आज तुम्हारे सामने बैठा है।’

           शीतल को यह क़िस्सा सुनकर बहुत अच्छा लगा। उसे अपने पापा और सामने बैठे प्रिंसिपल दोनों पर गर्व अनुभव हुआ। उसने कहा - ‘सर, मुझे यह सुनकर बहुत प्रसन्नता हो रही है। अपनी इसी विशेष योग्यता के कारण तो आज आप प्रिंसिपल का पद सुशोभित कर रहे हैं।’

          ‘शीतल, विद्यार्थी की अपनी योग्यता के अलावा शिक्षक का भी उसकी सफलता में बहुत बड़ा योगदान रहता है। शिष्य के प्रति प्रेम भाव होने पर ही शिक्षक के प्रयास में प्रेरणा का पुट आता है। एक व्यावसायिक शिक्षक तो केवल वेतनभोगी होता है। ऐसा शिक्षक न अपने शिष्य को प्रेरणा दे सकता है और न ही स्वयं अपने हृदय में कृतज्ञता का अनुभव कर सकता है, जोकि अध्यापन का वास्तविक पुरस्कार है। श्रेष्ठ शिक्षक अपने शिष्य की योग्यता को परखकर उसे तराशता है और सफलता की मंज़िल का रास्ता आसान बनाता है। मुरलीधर सर ने न जाने कितने विद्यार्थियों के जीवन को तराशा है, निखारा है! औरों का तो पता नहीं, मैं ताउम्र उनके योगदान को भूल नहीं सकता।’

          ‘सर, यह आपका बड़प्पन है। यह आपके व्यक्तित्व में स्पष्ट झलकता है।’

         विषयांतर करते हुए प्रिंसिपल ने कहा - ‘शीतल, एक बात कहना चाहता हूँ। एम.ए. में तुम्हारी फ़र्स्ट डिविज़न थी। तुम पी.एच.डी. क्यों नहीं कर लेती? दो साल के बाद या उससे पहले भी तुम्हें स्थाई प्राध्यापक का पद मिल सकता है।’

        ‘सर, इस दिशा में तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था। आपका सुझाव बहुत अच्छा है, मैं इसपर शीघ्र ही निर्णय लेती हूँ।’

         बातें करते हुए इन लोगों को समय का ध्यान ही नहीं रहा। बहादुर ने जब आकर पूछा कि सर, मैडम भी खाना खाएँगी क्या, तब जाकर उन्हें समय का भान हुआ। 

         शीतल से बिना पूछे ही प्रिंसिपल ने उसे खाना बनाने के लिए कह दिया और फिर शीतल को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘घर जाकर भी तो तुमने स्वयं ही खाना बनाना था। इसलिए यहीं खा लेना। तुम्हें देरी होने का डर है तो मैं तुम्हें छोड़ आऊँगा।’

         इसके पश्चात् यह अध्याय तो बन्द हो गया। फिर औपचारिक बातें होने लगीं। खाने के बाद प्रिंसिपल उसे उसके घर छोड़ने आए। विदा होने से पूर्व उन्होंने कहा - ‘शीतल, जब भी तुम्हारा मन करे, बिना किसी औपचारिकता के तुम यहाँ आ सकती हो।’ 

          शीतल ने बार-बार उनका धन्यवाद करते हुए नमस्ते तथा शुभ रात्रि कहा।

       प्रिंसिपल के जाने के बाद शीतल सोचने लगी, मैंने बेवजह प्रिंसिपल के व्यवहार को लेकर प्रवीर को भी चिंता में डाल दिया। मन ने कहा, अब फ़ौरन प्रवीर को फ़ोन करके वस्तुस्थिति से अवगत करवाओ। सो उसने कपड़े बदलने से पहले ही प्रवीर को फ़ोन मिलाया और बताया - ‘प्रवीर, प्रिंसिपल सर के व्यवहार को लेकर मैं बेवजह ही हाइपर हो गई थी और तुम्हें भी चिंता में डाल दिया।’ इसके बाद शीतल ने प्रवीर को आज शाम की मुलाक़ात के बारे में विस्तार से बताया। सुनकर प्रवीर ने कहा - ‘वास्तव में, तुम्हारी बातें सुनकर एक बार तो मुझे चिंता हो गई थी, किन्तु अब जब कि संशय के बादल छँट गए हैं तो अपना ध्यान अपने शोध-कार्य पर लगाओ। … शीतल, कभी एक रात के लिए मिलने आ जाओ, तुम्हारी भाभी और बच्चे, विशेषकर रिंकू तुम्हें बहुत याद करते हैं।’

       ‘मेरा भी मन करता है बच्चों और भाभी से मिलने को। जल्दी ही आती हूँ,’ कहकर उसने फ़ोन बन्द कर दिया।

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