अमावस्या में खिला चाँद - 7 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अमावस्या में खिला चाँद - 7

- 7 - 

        जब शीतल पी.जी. पहुँची तो मानसी अपनी ड्यूटी पर जाने के लिए तैयार हो रही थी। दोनों गले लगकर मिलीं। मानसी ने उससे कॉलेज में पढ़ाने के अनुभव पूछे। जब शीतल ने उसे बताया कि मैं पी.जी. छोड़ रही हूँ तो मानसी थोड़ी उदास हो गई। कहने लगी - ‘शीतल, तुम्हारे साथ रहते हुए समय गुजरने का पता ही नहीं चला। ऐसे लगता है जैसे कल की बात हो! …. आज तो रुकोगी ना? कल तो रविवार है, कल दिन में चली जाना।’

       ‘हाँ, आज की रात तो मैं यहीं रुकूँगी। रात को बातें करेंगे। अब तो खाना खाकर मैं होटल जाऊँगी अपना हिसाब-किताब करने।’

           पर्स उठाकर बाहर जाते हुए मानसी ने कहा - ‘बाय शीतल, रात को मिलते हैं।’

          खाना खाने के बाद शीतल ने प्रवीर कुमार को फ़ोन मिलाया, लेकिन बात नहीं हो पाई। उसने सोचा, हो सकता है, छुट्टी के कारण दिन में सो रहा हो! उसने व्हाट्सएप पर मैसेज छोड़ दिया और स्वयं होटल के लिए निकल ली। 

         नौकरी छोड़ने की औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद शीतल अकाउंट सेक्शन में पैसों का हिसाब-किताब कर रही थी कि पाँच बजे के क़रीब प्रवीर कुमार की कॉल आई। उसने क्लर्क को ‘एक्सूज मी’ कहा और बाहर आकर बातें करने लगी।

         ‘प्रवीर, प्रिंसिपल ने तो पहले पीरियड के बाद ही मेरे सामने मेरी परफ़ॉर्मेंस के बारे में तुम्हें सूचित कर दिया था। इसलिए मैंने फ़ोन नहीं किया। तीन दिन पढ़ाकर मैं घर चली गई थी। आज सुबह ही मैं परवाणू आ गई थी। पन्द्रह दिन की छुट्टी तो मैंने होटल में दे दी थी, लेकिन घर जाकर सोचा, अब कॉलेज से तो ब्रेक लेना उचित नहीं होगा, इसलिए एक महीने की सेलरी कटवाकर नौकरी छोड़ दी है। …. प्रवीर, यदि तुम्हारे पास कल समय हो तो मैं मिलकर कुछ व्यक्तिगत बातें करना चाहती हूँ।’

         ‘कोई इमरजेंसी आ गई क्या?’

         ‘नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। किसी दिन कॉलेज टाइम के बाद भी मिल सकते हैं,’ शीतल ने यह इसलिए कहा, क्योंकि वह प्रवीर को किसी उलझन में नहीं डालना चाहती थी। लेकिन, प्रवीर कुमार ने एक-दो पल सोचकर कहा - ‘अच्छा, कल मैं ग्यारह और बारह के बीच आता हूँ, लेकिन हम तुम्हारे रूम में नहीं, कहीं और बैठेंगे।’

           ‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्ज़ी, मुझे स्वीकार है।’

…….

          रविवार को ग्यारह बजे के अनुसार शीतल तैयार थी। उसे देखकर मानसी ने कहा - ‘शीतल चाहे तुम्हें बुरा लगे, लेकिन आज मैं कहे बिना नहीं रह सकती। आज तो तुम इस तरह इंतज़ार कर रही हो जैसे पहली बार ‘डेट’ पर जाना हो।’

          शीतल ने मन में सोचा, आज की रात इसके साथ आख़िरी रात होगी, फिर पता नहीं, कभी मिलना होगा भी या नहीं, इसलिए उसने मानसी की बात को हल्के में लेते हुए उसी के अंदाज में पूछ लिया - ‘तुम्हें अपनी पहली ‘डेट’ की याद आ गई क्या?’

        ‘हाय री, मेरी क़िस्मत ऐसी कहाँ? अभी तक किसी ने मेरी तरफ़ प्यार से देखा तक नहीं।’

        ‘क्या कमी है तुझ में, सुन्दर हो, जवान हो, नौकरी कर रही हो? या ऐसा तो नहीं कि तुम किसी राजकुमार को ढूँढ रही हो?’

      ‘पहले तो शायद तुम्हारी वाली ही बात थी, लेकिन अब शायद लोग मुझे ज़्यादा नख़रेबाज़ समझकर मेरी ओर देखने से भी कतराने लगे हैं ….।’

         ‘मानसी, निराश न हो। तेरा राजकुमार जल्दी ही तुझे मिलेगा।’

         ‘तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर। जिस दिन ऐसा हुआ, तुम्हें सबसे पहले बताऊँगी।’

         ‘गुड लक्क। अब मैं चलती हूँ, मेरा मित्र पहुँचने वाला ही होगा!’

         ‘तो क्या वे यहाँ नहीं आएँगे? मैं तो सोचती थी, ऐसे इंसान के दर्शन का मुझे भी सौभाग्य प्राप्त होगा।’

           ‘वापसी पर समय हुआ तो तुझसे मिलवा दूँगी।’

           ‘पक्का?’

           ‘हाँ, पक्का।’

……

          शीतल के कार में बैठने के बाद प्रवीर कुमार ने पूछा - ‘बडोग हाईट्स चलें? बडोग हाईट्स तो देखा होगा?’

        ‘प्रवीर, बडोग हाईट्स देखा तो नहीं, हाँ, होटल में काम करते हुए इसके बारे में जानती ज़रूर हूँ। … मैं कहीं भी चलने के लिए तैयार हूँ। बस मुझे तो एकान्त में तुम्हारे साथ कुछ नितान्त व्यक्तिगत बातें करनी हैं जो मैं किसी और के साथ नहीं कर सकती।’

          ‘ठीक है, बडोग हाईट्स ही चलते हैं। यदि तुम्हें एतराज़ नहीं होगा तो रूम लेकर भी एकांत में बातें कर सकेंगे।’

          ‘प्रवीर, तुम्हारे साथ होने पर किसी तरह के एतराज़ का प्रश्न कैसे उठ सकता है?’

          बडोग कालका-शिमला हाइवे पर पहाड़ी पर बसा एक छोटा-सा क़स्बा है जो सड़क और रेल दोनों से जुड़ा हुआ है। समुद्र तल से 1560 मीटर की ऊँचाई पर बसे इस क़स्बे में ‘बडोग हाईट्स होटल’ यहाँ की सबसे ऊँची पहाड़ी पर निर्मित एक प्राइवेट होटल है। इसके अलावा भी यहाँ कई होटल हैं। क्योंकि सोलन से पहले यहाँ की ऊँचाई सबसे अधिक है, इसी कारण यहाँ का प्राकृतिक वातावरण बहुत ही मन-भावना है और पर्यटकों को आकर्षित करता है। यहाँ पहुँचकर प्रवीर कुमार ने रूम बुक करवाया। कमरे में रखी इलेक्ट्रिक केटल में जब वह चाय बनाने लगा तो शीतल ने उसे रोकते हुए कहा - ‘प्रवीर, यदि तुम्हें चाय की तलब है तो मैं बना देती हूँ वरना सूप मँगवा लेते हैं, थोड़ी देर बाद खाने का ऑर्डर कर देंगे।’

        ‘अच्छा आइडिया है। कौन-सा सूप पसन्द है तुम्हें?’

        ‘आज तो तुम्हारी पसन्द ही मेरी पसन्द होगी।’

        ‘कहीं इसे नीता ने सुन लिया होता तो मुसीबत खड़ी हो जाती!’ प्रवीर कुमार ने हँसते हुए कहा।

        ‘नीता नाम है तुम्हारी पत्नी का?’

        ‘पूरा नाम तो नवनीता है, लेकिन ज़ुबान पर निकनेम ‘नीता’ ही चढ़ा हुआ है।’

        ‘दोनों ही रूपों में बड़ा प्यारा नाम है। …. क्या नीता को बिना बताए आए हो?’

        ‘नहीं, बताकर तो आया हूँ कि एक मित्र को मिलने जा रहा हूँ।’

        प्रवीर कुमार के कहने के अंदाज को लक्ष्य करते हुए शीतल ने पूछा - ‘शायद उस मित्र के जेंडर के बारे में नहीं बताया?’

         ‘हाँ, तुम्हारा अनुमान बिल्कुल ठीक है।’

         ‘प्रवीर, क्यों हम लोग स्त्री और पुरुष के बीच की मैत्री को सहज ढंग से नहीं ले पाते?’

       ‘सदियों से चली आ रही सोच के कारण। नहीं तो सत्संग-हाल तक में स्त्रियों और पुरुषों के बैठने की अलग-अलग व्यवस्था करने की क्या ज़रूरत है? …. सोच बदलने तो लगी है, लेकिन अभी समय लगेगा पूर्ण बदलाव आने में। मेरे जैसे पढ़े-लिखे व्यक्ति को भी तुमसे मिलने आने के लिए आधे झूठ का सहारा लेना पड़ता है, क्योंकि मुझे पता है कि नीता अभी तक पूरी तरह से पुरानी सोच नहीं छोड़ पाई है।’

         ‘इस लिहाज़ से मैं भाग्यशाली हूँ। मैंने जब पापा को तुम्हारे बारे में बताया तो उन्हें बहुत ख़ुशी हुई। उन्होंने तुम्हारा आभार प्रकट करने के लिए भी कहा।’

        ‘मुझे ख़ुशी हुई यह सुनकर। …. अब बताओ, किस प्रकार की व्यक्तिगत उलझन में फँसी  हो?’

         ‘प्रवीर, तुम मेरे सच्चे मित्र हो, इसलिए जो बात शेयर करने के लिए तुम्हें बुलाया है, वह मम्मी से भी नहीं कर पाई। …. बात ही कुछ ऐसी है कि शायद ही कोई स्त्री अपने पुरुष मित्र से इस तरह की बात कर पाए! लेकिन मुझे तुम पर नाज़ है, इसलिए बता रही हूँ ….,’ शीतल दुविधा में थी कि बात की शुरुआत कैसे करूँ, इसलिए बोलते-बोलते रुक गई थी।

          ‘शीतल, जब मुझ पर इतना भरोसा है तो कह डालो दिल की बात।’

        ‘प्रवीर, परसों जब मैं घर गई तो कॉलेज में मेरी नियुक्ति का समाचार सुनकर सबको बहुत ख़ुशी हुई। कान्हा ने भी ख़ुशी महसूस की और मुझे झप्पी में लेकर मेरा गाल चूम लिया ….’

         ‘यह तो अच्छा हुआ। कान्हा को अपनी बहन की सफलता पर ख़ुशी महसूस होना स्वाभाविक था।’

         ‘हाँ, एक लिहाज़ से तो उसकी प्रतिक्रिया सहज और स्वाभाविक थी, किन्तु …’

         ‘किन्तु क्या …?’

         ‘प्रवीर, तुम्हें तो पता ही है कि कान्हा मेरे से बारह-तेरह साल छोटा है। मेरे जन्म के इतने सालों बाद पैदा होने के कारण मम्मी-पापा शुरू से ही उसपर ज़्यादा प्यार उँड़ेलते रहे हैं। मम्मी-पापा ही क्यों, मैं भी दिलोजान से उसे प्यार करती रही हूँ। कुछ तो वह जन्म से मानसिक रूप से सामान्य नहीं था, कुछ हमारे ज़रूरत से ज़्यादा लाड़-प्यार ने उसको मानसिक रूप से विकसित नहीं होने दिया। अगर कहीं मम्मी-पापा ने उसे स्कूल में दाखिल करवा दिया होता तो शायद दूसरे बच्चों के साथ रहकर वह थोड़ा-बहुत चुस्त हो जाता, किन्तु पापा ने उसे स्कूल इस डर से नहीं भेजा कि कहीं दूसरे बच्चों के मज़ाक़ का पात्र बनकर वह कोई ग़लत कदम न उठा ले और उनकी इज़्ज़त को भी बट्टा लग जाए। मैं जब भी घर जाती तो कान्हा मेरे साथ खाने, मेरे साथ सोने की ज़िद करता और ऐसा होता भी। पिछले दो-तीन साल से मैंने मम्मी को कहकर उसकी अलग चारपाई लगवानी शुरू कर दी। …. प्रवीर, पहली बार मैंने कान्हा द्वारा झप्पी डालने पर अपनी छाती पर अस्वाभाविक-सा दबाव महसूस किया। मैंने स्वयं को झप्पी से मुक्त किया और रूटीन के कामों में लग गई। मुझे लगा कि यह मेरा भ्रम भी हो सकता है!…. रात को नॉर्मली कान्हा मम्मी-पापा के बेडरूम में ही सोता है। उसे अकेला नहीं सोने देते। परसों रात को कान्हा की चारपाई मेरे वाले कमरे में थी …..,’ शीतल फिर रुक गई।           

         प्रवीर कुमार के मन में जो आशंका उठी, वही थोड़ी देर बाद शीतल ने साहस बटोरकर बयान कर दी। 

       ‘प्रवीर, मैं गहरी नींद में सोई हुई थी। आधी रात के आसपास मुझे अपने उभारों पर किसी के हाथ का स्पर्श महसूस हुआ। मेरी आँख खुल गई। देखती हूँ कि कान्हा के हाथ मेरे शरीर पर मचल रहे थे। उसकी मानसिक अवस्था को ध्यान में रखते हुए मैं उसे डाँट भी नहीं सकती थी। मैंने इतना ही पूछा - ‘कान्हा, नींद नहीं आ रही क्या?’ वह बिना कोई जवाब दिए अपनी चारपाई की ओर लौट गया। …..’

         ‘यह तो वाक़ई डिस्टर्विंग डेवलपमेंट है।’

       ‘प्रवीर, उसके बाद मैं सारी रात सो नहीं पाई। इसीलिए सुबह नाश्ता करते ही पापा-मम्मी को होटल और पी.जी. का हिसाब चुकता करने का कहकर वहाँ से निकल आई। …. तुम क्या ‘सजेस्ट’ करते हो, इन हालात में मुझे क्या करना चाहिए? मम्मी को बताती हूँ तो उनको मानसिक आघात लगने का डर है, जो रिस्क मैं क़तई नहीं उठा सकती। पापा के साथ तो ऐसी बात शेयर करने का सोच भी नहीं सकती। क्या करूँ, क्या ना करूँ, की मन:स्थिति से निजात पाने के लिए ही तुम्हें कष्ट दिया है। तुम ही इस कठिन प्रमेय को सुलझा कर मेरे जीवन के दुःखों की तकसीम कर सकते हो, प्रवीर।’

        सारी बात सुनकर प्रवीर कुमार भी सोच में पड़ गया। कुछ देर तक दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। शीतल ने प्रवीर के चिंतन में विघ्न डालना उचित नहीं समझा, चाहे उसे गुजरता हुआ एक-एक पल युग समान लग रहा था। आख़िर चुप्पी तोड़ते हुए प्रवीर कुमार ने कहा - ‘शीतल, इसका तो एक ही हल है कि तुम विवाह कर लो।’

         ‘प्रवीर, विवाह को लेकर मेरी मन:स्थिति को जानते हुए भी तुम यह कह रहे हो!’

         ‘हाँ, यही एक हल है जिससे सभी सम्बन्धित पक्षों की इज़्ज़त बची रह सकती है।’

******