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ठंडी सड़क (नैनीताल) - 11

ठंडी सड़क( नैनीताल):-11

मेरे मन में बूढ़े को बताने के लिए बहुत कुछ है। जो ठंडी सड़क के आसपास घटित हुआ। मन कितनी बार दोहराता है सब, जैसे दिन- रात अपने को दोहराते हैं, ऋतुएं अपने आप बार-बार आती-जाती हैं। बूढ़ा बोला कुछ और सुनाओ। मैंने झील को देखा और लम्बी साँस ली और बोला-
"मुझे उसका चालीस साल पहले का पहनावा याद है।क्यों ऐसा है पता नहीं! हल्के पीले रंग की स्वेटर। खोजी सी आँखें और गम्भीर चेहरा। मुस्कान अछूती। एक अज्ञात स्पर्श। जगमगाते हावभाव।
अपने अन्य दोस्तों का पहनावे का कोई आभास नहीं हो रह है। यहाँ तक की अपने कपड़ों का भी रंग याद नहीं है। लेकिन अपना कोट याद है। वही कोट जिसकी जेब में लिखित और अलिखित प्रेम पत्र रखता था।
दोस्त अजनबी बन जाते और अजनबी दोस्त।
एक बार एक दोस्त को फोन किया। बातें होती रहीं जैसे कोई नदी बह रही हो, कलकल की आवाज आ रही थी, पुरानी बातों की। वह डीएसबी, नैनीताल पर आ पहुँचा। बीएससी प्रथम वर्ष की यादें उसे झकझोर रही थीं। गणित वर्ग में हम साथ-साथ थे पर दोस्ती के समूह तब अलग-अलग थे। उस साल बीएससी गणित वर्ग का परिणाम लगभग बीस प्रतिशत रहा था। वह बोला," आप तो अपनी मन की बात कह देते थे लेकिन मैं तो किसी को कह नहीं पाया। दीक्षा थी ना।" मैंने कहा ," हाँ, एक मोटी-मोटी लड़की तो थी,गोरी सी।" वह बोला," यार, मोटी कहाँ थी!" मैं जोर से हँसा। फिर वह बोला," उसने बीएससी पूरा नहीं किया। वह अमेरिका चली गयी थी।" मैंने कहा," मुझे इतना तो याद नहीं है और मैं ध्यान भी नहीं रखता था तब।" मेरे भुलक्कड़पन से वह थोड़ा असहज हुआ।मैंने किसी और का संदर्भ उठाया, बीएससी का ही। वह विस्तृत बातें बताने लगा जो मुझे पता नहीं थीं। उसने कहा तुम्हें वह किस्सा याद है जो डीएसबी को जाने वाले रास्ते और ठंडी सड़क के मिलन स्थान के ठीक आगे घटित हुआ था। पाण्डे जी एक खातेपीते घर की अपेक्षाकृत मोटी लड़की को सुनाते हुये बोले थे," किस चक्की का आटा खाती हो?" उसने पलट कर कहा था," तेरे बाप की।" पाण्डे बोला," ससुर को गाली देती हो?" सुना था आठ साल बाद दोनों की शादी हो गयी थी।
फिर उसने कहा कभी मिलने का कार्यक्रम बनाओ। दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर ही मिल लेंगे एक-दो घंटे। मैंने कहा तब तो मुझे एअरपोर्ट से रेलवे स्टेशन आना पड़ेगा या फिर रेलगाड़ी से आना पड़ेगा। उसने कहा," एअरपोर्ट पर ही मिल लेंगे।" मैं सोचने लगा मेरा दोस्त ऐसा क्यों बोल रहा है? प्रायः, हम किसी परिचित को घर पर मिलने को कहते हैं। संन्यस्थ मिलाप की अनुगूँज थी, उसकी बातों में।
सोचते-सोचते सो गया।रात सपने में यमराज आये। बोले, मुझे एक सूची बना कर दो।मैं उन्हें देखकर पहले तो बिहोश होने वाला था पर फिर संभला और पूछा कैसी लिस्ट। वे बोले उसमें केवल नाम होने चाहिए, स्वर्ग में कुछ जगह रिक्त हैं। मैंने उन्हें चाय के लिये पूछा। वे कुछ दोस्ताना दिखाने लगे। मैंने उन्हें चाय दी। चाय पीकर वे चले गये। मैं तैयार हुआ और जो मिलता उससे पूछता," स्वर्ग जाना है क्या?" जिससे भी पूछता वह मुझ पर नाराज हो जाता। जब थक गया तो अपने मन से सूची में नाम डालने लगा। नाम इस प्रकार थे-गंगा,यमुना, सरस्वती, गोदावरी, नन्दा देवी, हिमालय, प्रेम, कमल, धवल आदि। नींद टूटी तो सोचने लगा-
"सपना देखना चाहिए
मनुष्य बनने का,
यदि मनुष्य ही न बन पाये
तो राष्ट्र कैसे बनेगा?
राम बने थे
तभी राम राज्य आया था।"
एक बार महाविद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रम में नाटक होना था। लोकेश उस नाटक को निर्देशित कर रहा था। मल्लीताल में उसका घर था। नाटक के सिलसिले में एक-दो बार मैं उसके घर भी गया था।उसे नाटकों का बहुत शौक था। उन दिनों लड़कियों का अभिनय लड़के भी कर लेते थे क्योंकि लड़कियां अभिनय करने को प्रायः तैयार नहीं होती थीं। उस नाटक में एक लड़की का भी किरदार था,उर्वशी। उस समय तक मैंने दिनकर जी की "उर्वशी" नहीं पढ़ी थी। बहरहाल, लोकेश ने मुझे एक सूची दी और कहा लड़कियों से ये सामान लेना है। मैं लिस्ट लेकर लड़कियों के पास गया। लिस्ट एक -एक कर वे देखने लगीं और आँखें नीचे करती गयीं। मुझे सूची में लिखे सामान( वस्त्रों) के बारे में पता नहीं था क्योंकि मैंने सूची को पढ़ा नहीं था। मैं बिना उनकी सहमति के लौट आया। बाद में मेरे एक दोस्त को उनमें से एक लड़की ने सभी परिधान देने की सहमति जतायी, लेकिन बोली थी कि किसी को नहीं बताना। उसने यह भी बताया कि एक लड़की बोल रही थी," मैं तो नहीं दूँगी।" हम लोग शाम को छात्रावास गये और उससे सामान लिया और नाटक का सफल मंचन किया।
कार्यक्रम देखते-देखते बहुत देर हो गयी थी। लगभग रात का एक बज गया था। मैं हाँल से निकला और तेज कदमों से अपने आवास की ओर चलने लगा। मन में डर घर कर रहा था,अंधेरे का, भूतों का।बचपन के भूत ऐसे समय ही याद आते हैं। और हर ऊँचा पत्थर व झाड़ियां भूत जैसे दिखते हैं।नैनीताल की ठंड बदन को कंपकंपा रही थी।आधे रास्ता तय हो चुका था। एक कोठी मुझे दिखायी दी, उसमें एक लालटेन जल रही थी। मुझे आगे जाने का साहस नहीं हुआ। मैं उस कोठी की ओर बढ़ा और दरवाजा खटखटाया। एक बुढ़िया अम्मा ने दरवाजा खोला। मैंने उनसे पूछा," रात बीताने के लिए जगह मिल सकती है, अम्मा।" बुढ़िया खुश होकर बोली क्यों नहीं बेटा। अपना ही घर समझो। मैं अन्दर गया। उसने मेरे सोने के लिए मखमली बिस्तर तैयार कर दिया। और स्वंय बगल के कमरे में बिना बिस्तर के लेट गयी। मैं बिस्तर में करवटें बदल रहा था। बुढ़िया बीच-बीच में पूछती," बेटा सो गया?" मैं कहता नहीं, नींद नहीं आ रही है। एक घंटे बाद वह फिर बोली,"बेटा सो गया?" मैं चुप रहा। तो मैंने देखा वह मेरी ओर आ रही है। जैसे ही नजदीक पहुंची मैंने कहा नहीं अभी नहीं आयी है। यह सुनते ही वह झट से लौट गयी। मेरे अन्दर डर बैठने लगा। लगभग सुबह पाँच बजे वह फिर बोली,"बेटा सो गया?" मैंने कहा नहीं। सबेरा होने वाला है अतः चलता हूँ। वह मेरे पास आयी और अपने हाथ से मेरे हाथ को पकड़ने लगी। मुझे लगा जैसै हड्डियां ही हड्डियां मेरे हाथ को जकड़ रही हैं। मैंने हाथ खींचा और घर की ओर तेज कदमों से निकल पड़ा। दूसरे दिन रात की बात मैंने अपने पड़ोसियों को बतायी तो वे बोले वह भूतुआ कोठी है।कहते हैं वहाँ एक बुढ़िया रहती है जो नींद में लोगों को मार देती है। मैं उनकी बातें सुन पसीना-पसीना हो गया। फिर बोला," ऐसा कैसे हो सकता है?" दूसरे दिन दो घंटे ही कार्यक्रम देखा।एक नाटक देखा जिसमें महिला का पति युद्ध में शहीद हो जाता है और महिला को सरकार से बहुत रुपये मिलते हैं और वह अपने सास-ससुर को छोड़ दूसरी शादी कर लेती है।दूसरी शादी के बाद भी वह पेंशन लेती रहती है। नाटक चल रहा था लेकिन मेरे मन में गत रात की घटना घूम रही थी कि कोई बोल रहा है," बेटा, नींद आ गयी?" "
बूढ़ा उठा और ठंडी सड़क को दूर तक टटोलने लगा। लेकिन सड़क पर उसे अपना कोई नजर नहीं आया।

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