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अंतर्मन (दैनंदिनी पत्रिका) - 5

प्रिय डायरी अंतर्मन

आज जब सुबह स्कूल काल का एक संस्मरण याद आया सोचा यहां साझा करूँ, डायरी के पन्ने के रूप मे। आज किसी खास विषय के बजाय संस्मरण पर लिखना चाहूँगा।

संस्मरण स्कूल का किस्सा 2002


चर्चा का विषय - स्कूल मे घटी घटना जो आज भी मुझे गुदगुदाती है?
आज का प्रश्न मन मे गुदगुदी कर रहा है। आज स्कुल का वो किस्सा साझा करने जा रहा हूँ, जिससे आज तो मुस्कराहट आ रही है किन्तु उस समय चेहरा धुआं धुआं सा था।

बात कक्षा 9 की है लंच के पश्चात इतिहास की कक्षा का समय था। इतिहास विषय श्री राजेन्द्र प्रसाद शुक्ला सर पढ़ाते थे।
वो बड़ी तेज बोल कर लिखवाते थे।


काफी देर लिखा पर आगे पीछे होने लगा। ऐसा मैं ही नहीं अन्य भी कई छात्र छात्राएं भी मेरे जैसे ही अनुभूति कर रहे थे।
जब कई बार छूट रहा था तो मन ही लिखने से उचट गया।
प्रश्न यह था कि उन्हें यह ना दिखे की कलम रुक कर आराम फरमाने लगी।


मैं एक चित्र (कार्टून) बनाता रहा , ताकि सर को लगे कि हम लिख रहे है। क्लास इंड होने के पांच मिनट पहले गडबड हो गई।


साथ बैठे बड़े ताऊ के लड़के मेरे बड़े भाई धर्मेंद्र सिंह ने मेरी कॉपी छीन उस चित्र पर "दलकच गुरुजी " लिख दिया। और यह उनका यह नाम नाम शुक्ला सर के पीठ पीछे बच्चों ने रखा था।
छीना झपटी देख चुके थे शुक्ला सर।


बोले क्या हो रहा है।
मैंने सकपका कर कहा - सर कुछ नहीं थोड़ा छूट गया था, इस लिए इन्होंने कॉपी छीनी थी।


अच्छा दोनों लोग यहां आओ।


हम उठे धड़कने हार्ट अटैक की ओर बढ़ने लगी थी बेतहाशा।
पांव ऐसा लगता था कि हाथी पांव सरीखा भारी लग रहा था। मन आगे क्या होना है इसकी कल्पना कर चुका था।


खैर "अब पछतावे का होत है जब चिड़िया चुग गई खेत "
मेरी हालत कालिंदी के कालिया नाग सरीखी थी, हालाँकि रंग तो गुरुजी का भी सांवला था।

किन्तु नाग स्थिति मे मैं था उन्हें तो कृष्ण जी जैसा सर पर तांडव करना था।
लाओ कॉपी दिखाओ।


अब तो हमारी बची खुची हिम्मत भी जवाब दे गई, आसान शब्दों मे फटी पड़ी थी हमारी (मेरी और भाई की)।


खैर उसे इशारा किया भाई दे अपनी कॉपी गुरु जी को!
मेरा सोचना था तब तक समय समाप्त हो जाएगा और वो चले जाएंगे।


किन्तु ऐसा ना हो सका।
शुक्ला सर ने हम दोनों के मंसूबों पर पानी फेरते हुए दोनों की कॉपी ले ली।


हमे काटो तो खून नहीं। चेहरे की रंगत बदल गई थी। उनका अमरीश पुरी वाला रूप नयनो के आगे घूमने लगा।


उनकी पिटाई का लल्लनटॉप तरीका विस्मृत हो उठा, अभी तक दूसरों को कूटते देखा आज स्वअनुभव की बारी लगभग सम्मुख खड़ी थी शुक्ला जी के रूप मे मात्र दो फिट की दूरी पर।


और मैं इतना सौभाग्यशाली था कि मेरा नंबर पहले ही आया।
कॉपी मे चित्र... और "चित्र " का नामकरण "दलकच गुरु जी " आज मुझे दिन मे ब्रह्मांड दर्शन कराने के लिए पर्याप्त था।
फिर होना क्या था !!!!


प्रलय... प्रचंड कुटाई बिल्कुल मैं मिट्टी का घड़ा और गुरु जी कुम्हार।


सब बच्चों को कॉपी दिखाते हुए हमारी श्रेष्ठ शिक्षा प्रयासों का प्रदर्शन और एक हाथ से कान ऐसा मसला जा रहा था लगा कि अभी ज्यूस निकल जाएगा।


अगले पल कान पकड़े हुए हमे झुका दिया उन्होंने।
हमे भी अह्सास हो गया कि कान के बाद अगला पड़ाव हाड़ मांस से बने इस नश्वर शरीर का अभिन्न हिस्सा ' पीठ ' ही होगी।
फिर उनका घन सरीखा प्रचंड हाथ का एक वार पीठ पर मिला।
कसम से बता रहा हूँ आंखे धुँधला गई थी।


पीठ सीधी कर खड़ा होना चाहा, पर हो नहीं सका, प्रहार तगड़ा था।


वैसे ही झुके हुए अपने स्थान तक पहुंच सका था।
कमोवेश हालात भाई के भी यही थे। बस एक्स्ट्रा था तो गाल पर उभरी चार मोटी उँगलियों की छाप।


तब रुलाई आई थी, पर बाद मे अक्सर चर्चा कर हंसते है अब भी हम।


शुक्ला सर मुझे इस बात पर इंटरमीडिएट तक हास्य मे कहते - अभी भी बनाते हो चित्र


मैं हंस कर कहता, चित्र बनाता हूँ सर पर वैसा नहीं, अब ठीकठाक


ये यादे हमे जिंदगी की किताब के सुनहरे मोती सरीखे महसूस होते है।

अभी, आज डायरी मे अंतर्मन के साथ इतना ही....


संदीप सिंह " ईशू "

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