डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा की लघुकथाएँ - 2 Dr. Pradeep Kumar Sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा की लघुकथाएँ - 2

डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा की तीन लघुकथाएँ

गले की फाँस

"ये क्या मिश्रा जी, अगले महीने सेवानिवृत्त होने के बाद आप फिर से इसी ऑफिस में संविदा नियुक्ति चाहते हैं ? लगता है चालीस साल की नौकरी करने के बाद भी आपका मन भरा नहीं..." डायरेक्टर साहब ने मिश्रा जी से मजकिया अंदाज में पूछा।

"सर, दरअसल मुझे नौकरी की सख्त जरूरत है क्योंकि अपने परिवार में कमाने वाला मैं अकेला ही ही हूँ।" मिश्रा जी ने अपनी मजबूरी बताई।

"क्या... ? मैंने तो सुना है कि आपका बेटा रमेश तो बहुत होनहार स्टूडेंट है। क्या वह कुछ नहीं करता ?" डायरेक्टर साहब ने आश्चर्य से पूछा।

"सिर्फ होनहार होने से ही कहाँ नौकरी मिलती है सर। कई प्रकार के आरक्षण, प्लेसमेंट एजेंसी और संविदा के बाद वैकेंसी बचती ही कहाँ है..." कहते-कहते बात उनके गले में अटकती-सी महसूस हुई क्योंकि वे भी तो किसी होनहार रमेश की सीट पर कब्जा जमाने की ही तो कोशिश कर रहे हैं।
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नई परंपरा

"बेटा, अब अपने दाहिने पैर से इस कलश को ठोकर मारकर लुढ़काओ और गृह-प्रवेश करो।" नवविवाहित पुत्र और पुत्रवधू की आरती उतारने के बाद निर्मला जी ने अपनी बहू से कहा।
"माँ जी, इजाजत हो तो आपसे एक बात पूछनी है।" सकुचाते हुए नववधू नेहा ने कहा।
"हाँ हाँ, जरूर पूछो। क्या पूछना चाहती हो ?" निर्मला जी ने कहा।
"माँ जी, क्या इस चावल से भरे हुए कलश को पैर से ही लुढ़काना जरूरी है ?" नववधू नेहा ने पूछा।
"हाँ बेटा, सदियों से यह परंपरा चली आई है।" निर्मला ने बताया।
"माँ जी, यह कैसी परंपरा है जिसमें नवागंतुक गृहलक्ष्मी अन्न को पैर से ठोकर मारकर गृह प्रवेश करे ? यह तो कलश और उसमें भरे अनाज का निरादर हुआ न ? यदि आपकी इजाजत हो, तो मैं इसे बिना लुढ़काए अपने हाथों में पकड़ कर गृह प्रवेश करना चाहूँगी। या फिर लुढ़काना ही है तो पहले इसके नीचे कागज या कपड़ा बिछाकर लुढ़काऊँगी, ताकि उसे फिर से आसानी से उठा सकें।" नेहा ने कहा।
आसपास की औरतें खुसुरफुसुर करने लगीं, पर बहू की बात सुनकर निर्मला जी का हृदय गदगद हो गया। उन्होंने अपनी बहू को बाहों में भरकर कहा, "जरूरत बेटा, तुम इसे अपने हाथों में पकड़ कर गृहप्रवेश कर सकती हो। परंपरा का क्या है, वह तो नई भी बनाई भी जा सकती है।"
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वेलेंटाइन डे

"हेलो..."
"कैसी हो जानू ?"
"मैं ठीक हूँ, आप आ रहे हैं न आज ?"
"सॉरी मेरी जान ! एक जरूरी मिटिंग अटैंड करनी है। मैं परसों लौटूँगा। आज की टिकट कैंसिल करानी पड़ी।"
"पर आप तो आज आने वाले थे। फिर ये मीटिंग वह भी यूँ अचानक…. ?"
"सॉरी डियर। मैं समझ सकता हूँ तुम्हारी स्थिति। मजबूरी है वरना शादी के बाद पहली वेलेंटाइन डे पर हम यूँ दूर नहीं होते। अच्छा ये बताओ, वेलेंटाइन डे पर मेरी भिजवाई डायमण्ड नेकलेस वाली गिफ्ट तुम्हें कैसी लगी ?"
"खोला नहीं है मैंने अब तक। सोच रही थी तुम्हारे सामने ही खोलूँगी। पर..."
"सॉरी यार मधु। देखो मेरी मजबूरी समझने की कोशिश करो। अच्छा परसों मिलते हैं। अब फोन रखता हूँ। बाय, लव यू डार्लिंग। ऊँ... आँ..."
उधर से फोन कट गया। उसकी नई खूबसूरत स्टेनो, जो सज-धज कर आ गई थी। वह बिना देर किए उस नवयौवना के कमर में हाथ में डालकर शॉपिंग कराने ले गया।
"मेमसाहब, आज आधे दिन की छुट्टी चाहिए थी।" इधर दोनों हाथ जोड़े ड्राईवर खड़ा था।
"क्यों ?"
"ऐसे ही मालकिन कुछ काम है।"
"कुछ काम है मतलब ? क्यों चाहिए छुट्टी ?"
"वो क्या है ना मैडम जी, हमारी शादी के बाद की आज 25 वीं वेलेंटाईन डे है और हम पति-पत्नी... आज... पिक्चर देखने जाना चाहते हैं." बहुत मुश्किल से कह सका।
उसकी मनोदशा और पच्चीस साल बाद भी अपनी पत्नी के प्रति प्रेमभाव को देख वह भला कैसे मना कर सकती थी।
-डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़