मैं तो ओढ चुनरिया - 54 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 54

54

फेरों का मुहुर्त आ गया था । वर पक्ष के लिए वेदी की दाई ओर गद्दे बिछाए गए । उस पर चादरे बिछाई गई । घर के लोगों के लिए बाईं ओर चादरें बिछी । सामने पंडित जी का आसन लगाया गया था । उसके ऐन सामने वर वधू के बैठने की व्यवस्था की गई थी । थोङी देर में ही वर पक्ष के लोग फेरों के लिए हाजिर हो गये । वर को हाथ पैर धुला कर आसन पर बैठाया गया । पंडित जी ने वर पूजा शुरु करवाई । पिताजी ने वर की पूजा की । फिर वर द्वारा देवताओं का आवाह्न किया जाना था । पंजाब से आए इन बारातियों ने इससे पहले भांवर होती देखी नहीं थी । इनके यहाँ आनंदकारज होते थे । श्री गुरु ग्रंथसाहब के सामने रागी द्वारा लावां नामक शबद पढे जाते । आनंद साहब की चौपाइयां पढ कर वर वधू और घर वाले एक रजिस्टर पर साईन करते । बाबा जी की हजूरी में मुख्य ग्रंथी द्वारा एक सर्टिफिकेट जारी किया जाता और प्रशाद लेकर शादी सम्पन्न हो जाती । सारी प्रकिया में चालीस मिनट से ज्यादा समय न लगता । यहाँ इन लोगों ने करीब एक घंटा इंतजार किया । अब इन लोगों में बेचैनी शुरु हुई । आखिर रहा नहीं गया तो बोल ही पङे – पंडित जी शादी अकेले इसी की होनी है क्या । लङकी को तो बुलवाओ । पंडित जी ने मुस्करा कर बोलने वाले की ओर देखा और जोर जोर से श्लोक पढने लगे । चार पाँच मिनट बाद तो दूल्हे महाश्य भी बोल पङे – पंडित जी अब तो उन्हें बुलवाइए । एक घंटा हो गया ।
बस बेटा , थोङा सा सब्र करो ।
भाभियों ने चिकोटियां काटना शुरु किया – बन्नो तेरा दूल्हा तो बङा बेसब्रा हो रहा है । बेचारा मिन्नतें कर रहा है , कोई तो बुला दो मेरी दुल्हनिया ।
मैं क्या कहती । चुपचाप नाखुन से धरती खुरचती रही ।
बस अब दो तीन मंत्र पढ कर बुलवाते हैं । पंडित जी ने तसल्ली दी ।
दो तीन क्या अब तक आठ दस मंत्र पढ चुके होंगे । मंत्र पढ कर अग्नि प्रज्वलित की गई । यज्ञ वेदी से धुँआ उठने लगा तब पंडित जी ने आदेश दिया – लाओ जजमान वधु को ले आओ ।
पिताजी ने वहीं बैठे बैठे पीछे मुङ कर देखा । मामियां घूंघट निकाले बैठी थी । मझली मामी उठी । भीतर आई और मेरा आंचल सैट किया । माथे के नीचे तक पल्ला खींचा और मुझे सहारा देते हुए मंडप तक ले आई । दूल्हे महाशय के साथ साथ बारातियों के भी लंबी सांस लेने की आवाजें सुनाई देने लगी । बेचारों ने मन ही मन शुक्र किया कि दुल्हन आई तो सही । भांवर पङी । सिंदुर दान हुआ । ध्रुवतारा दिखा कर अटल सुहाग का आशीर्वाद देते हुए पंडित जी ने सारी क्रिया समाप्त की ।
उसके बाद कोहबर की रस्म हुई । हम दोनों को पितरों के सामने बैठा कर पूजा करवाई गई । दूल्हे को मट्ठियाँ नमकीन और मीठी दोनों खिलाई गई । सारी औरतें दूल्हे से छंद सुनना चाहती थी और इनका नींद के मारे बुरा हाल हुआ जा रहा था । आखिर मौसी ने कहा – मैं सिखाती हूँ छंद । तेरी तीन तीन भाभियों ने तो नहीं सिखाया कुछ । अब मेरे पीछे पीछे बोलो – छंद बिरागे आइए जाइए, छंद के ऊपर केसर ।
सास मेरी पार्वती और ससुरा परमेशर ।।
छंद बिरागे आइए जाइए छंद के ऊपर खुरमा ।
बेटी तुम्हारी यूं रखूंगा , ज्यों आँखों में सुरमा ।।
वर ने पीछे पीछे दोहराया । बदले में सबने शगुण में रुपए दिए । हाथ पर शगुण की मेंहदी लगा कर इन्हें विदा किया गया । तब तक सुबह के पाँच बज गए थे । छ बजे गाङी छूटने का समय था । विदा की तैयारी होने लगी ।
बङे भाई रजबाहे के पुल तक जा कर रिक्शा ले आए । मामा देख कर चौंके ।
वह टैक्सी कहाँ गई जो मैंने करके दी थी ।
वह , वह तो शाम को ही चला गया यह कह कर कि उसके पैसे और टाईम पूरा हो गया ।
तो आप लोग और पैसे देकर उसे रोक लेते या हमें ही बता देते , हम कर देते । कम से कम इस वक्त तो बुला ही लेनी थी । अब जैसा वक्त तो था नहीं कि सबके हाथ में मोबाइल हो । उस जमाने में तो पूरे शहर में आठ दस से ज्यादा लैंडलाईन भी नहीं होते थे । वह भी दो चार वकीलों या दो चार डाक्टरों के पास । किसी से बात करने पर ट्रंककाल बुक करवानी पङती थी तो अब कार मिलने की तो संभावना ही नहीं थी । कई तरह की रस्में निभा कर हमें रिक्शा पर सवार करवाया गया ।
पिताजी तो बेहद भावुक किस्म के थे । बात बात में आँसू बहाने वाले तो उनका रोना तो जायज ही लगा पर मेरे मझले और छोटे मामा तो चट्टान जैसे मजबूत थे । उन्हें मैंने पहली बार रोते देखा । पता नहीं मुझे इस तरह विदा करने का दुख था या मेरे इतना दूर जाने का । वे दीवार की ओर मुँह किए रो रहे थे । बङे मामा एक कुर्सी पर आँखें बंद किए बैठे थे । पक्का आँसुं को बीतर रोकने की कोशिश कर रहे होंगे । रिक्शा वाले ने रिक्शा बढाया । बाकी बराती पैदल ही स्टेशन की ओर भाग लिए । मैं तीन तीन दुपट्टों में उलझी सिमटी सी बैठी थी कि अचानक इन्होंने पीछे मुङ कर देखा । दूर दूर तक कोई बराती दिखाई नहीं दिया । अब ये घबराए – सुन तुझे स्टेशन का रास्ता पता है ।
मैं रोते रोते चौंकी । ये कैसा सवाल है । भला स्टेशन का रास्ता क्यों नहीं पता होगा ।
अभी मैं सोच ही रही थी कि क्या जवाब दूँ कि दूसरा सवाल आया – घर का पता है कहाँ है
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इन सवालों का क्या मतलब है । कि इन्होने रिक्शा वाले से कहा – भइया जित्थों ल्याया , वापस ले चल ।
रिक्शेवाले को पिछले बोल समझ आए । बिना कुछ पूछे रिक्शा घर की तरफ मुङ गया और पाँच मिनट में हम घर पहुँच गए । हमें वापस लौटा देख कर घर के लोग हैरान हो गए । माँ ने तेल ढाल कर हमें घर के भीतर लिया । मिठाई से मुँह जुठाया । पानी पिलाया फिर से रिक्शा पर सवार होकर हम चले । इस बार दोनों मामा अपने राजदूत पर हमारे साथ चले ।
स्टेशन पर सब लोग हमारा इंतजार कर रहे थे । गाङी आने वाली थी । हमें गाङी में बैठा कर मामा वापस लौट गये ।
गाङी चलते ही ससुर जी मेरे पास आए – लो अपनी चाबियाँ । उन्होंने मौली , कलावे से बंधी तीन चार चाबियां मेरी ओर बढाई । मैंने हैरानी से देखा । ये मेरे संदूक पेटी और दोनों अटैचियों की चाबियाँ थी । पर अगर ये मुझे देनी होती तो माँ मुझे देती । ससुरजी को दी तो किसी कारण से ही न दी होंगी । मैं असमंजस में थी कि बङे ननदोई लपकते हुए आए – कहीं गिर जाएंगी । इसलिए संभाल कर अपने पर्स में डाल कर रख ले । पकङ ले चुपचाप ।
मैंने चाबियां लेकर पर्स में डाल ली ।
ननदोई ससुर जी को वहाँ से हटाकर ले गए । मुझे लगा कि वे कुछ बोल रहे हैं पर क्या कहा , किसने कहा , ये मुझे कुछ समझ नहीं आया । थोङी देर में डिब्बे में शांति हो गई फिर खर्राटों की आवाजें आने लगी । सारे बराती रात के थके हुए थे । सब सो गए । मैं अपनी नजरें खिङकी के बाहर टिका दी । गाङी अपनी रफ्तार से नई मंजिल की ओर जा रही थी । आसमान में लाली दिखने लगी थी ।

बाकी फिर ...