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अंगद - एक योद्धा। - 1

~आरंभ~
पतझड़ के दिन अभी अभी खत्म हुए थे, अब मौसम का सफर बसंत ऋतु की सुगंध सेमहकती हवाओं की रवानगी की और बढ़ रहा था | यह कहानी भी कई सौ साल पहले इन्हीं दिनों शुरू हुई थी | यह वह समय था जब सेनापति भानसिंह आर्य का लाडला बेटा अपने बचपन के आखिरी पडाव पर था | भानसिंह को सर्वाधिक प्रिय था अपना सबसे छोटा बेटा, अंगद | अभी बाल-अवस्था समाप्त भी नहीं हुई थी और अंगद के चेहरे पर अल्हड युवक सा तेज आ गया था |
भान सिंह अपने पुत्रों के साथ अक्सर युद्ध-अभ्यास करते थे| अंगद अभी से युद्ध कला में निपुण हो गया था, अधिकांश युद्ध नीतियों में उसने कौशल प्राप्त कर लिया था| सेनापति भान सिंह के दोनों बड़े पुत्रों को युद्ध कला में ज्यादा रुचि न थी, यह बात भान सिंह को प्राय सताती थी, परंतु अंगद का युद्ध कौशल देख उनकी आंखों को बड़ी ठंडक मिलती| अपने आप को बहुत भाग्यशाली मानते थे कि उन्हें ऐसा तेजस्वी और आज्ञाकारी पुत्र प्राप्त हुआ|
राज्य की राजनैतक व सैन्य शक्ति मज़बूत थी, तो स्वाभाविक था कि राजा अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाने का विचार करते| कुछ छोटे राज्य तो स्वेच्छा से शेरगढ़ की छत्रछाया में आ गए, कुछ को बलपूर्वक सम्मिलित कर लिया गया और कुछ बड़े राज्यों से संधि करके उन्हें मित्र बनाया गया। राजा स्वयं इन सब कार्यों में बहुत कम प्रतिभा करते थे, अधिकांश अवसरों पर सेनापति भान सिंह ही राजा की अनुपस्थिति में नेतृत्व किया करते थे। अब शेरगढ़ एक अति संपन्न राज्यों में गिना जाने लगा सीमा से लगे सभी राज्यों से अधिक व्यापार, बड़ी सेना व ज्यादा आयात निर्यात अब शेरगढ़ में होने लगा।
यह उन्नति व संपन्नता देख एक पड़ोसी राज्य के राजा वज्रपाल को ईर्ष्या होने लगी उसके मन में शूल की भांति शेरगढ़ की प्रगति रह रहकर प्रहार करती थी और सबसे अधिक उसके कानों में सेनापति भान सिंह का नाम खटकता था। बहुत सोच विचार करने के बाद उसने शेरगढ़ पर आक्रमण करने की योजना बनाई, कई राज्यों को अपने साथ लेकर वह दिन-रात नई-नई युद्ध नीति बनाता रहता। पूरा एक वर्ष उसने योजनाएं बनाई और अगले छः माह युद्ध-अभ्यास किया। अब उसे बस उचित समय का इंतजार था।
इधर अंगद ने अपनी दीक्षा व युद्ध कला का संपूर्ण अध्ययन पूर्ण कर लिया था। इतनी कम आयु में इतना कुशल योद्धा स्वयं भान सिंह ने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था। घुड़सवारी हो या तलवारबाजी, भाला चलना हो या तीरंदाजी, सभी में अंगद की बराबरी करना कोई खेल नहीं था।
राजा जयसिंह महारानी के साथ कुछ दिनों से राज्य से बाहर भ्रमण पर गए हुए थे और भान सिंह को भी अपने साथ ले गए। राजा और भान सिंह व उनके विशेष सिपाही दल का राज्य से दूर होना वज्रपाल को उचित समय लगा शेरगढ़ पर आक्रमण के लिए।
अपने पीछे सेनापति भान सिंह पूर्व सेनापति मनपाल सिंह को अपनी जिम्मेदारी सौंप कर गए थे। मनपाल उनसे पहले सेनापति रह चुके थे और उन्होंने स्वेच्छा से अपना पद त्याग कर भान सिंह को दिया था। इस समय आक्रमण हो सकता है, किसी को भनक भी न थी।
उसे दिन, योजना अनुसार शाम होते ही अपने सारे बाल के साथ वज्रपाल ने शेरगढ़ की ओर कूच किया।
मनपाल अभी संध्या कर के लौट रहे थे तभी एक घुड़सवार ने आकर आक्रमण का समाचार सुनाया...

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