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उलझन - भाग - 20 (अंतिम भाग)

कुछ ही दिनों में निर्मला और बुलबुल को अस्पताल में भरती कर दिया गया। पहले निर्मला की डिलीवरी हुई और उसने बहुत ही प्यारे बेटे को जन्म दिया। उसके दो दिनों के बाद बुलबुल की भी डिलीवरी हो गई और उसने भी एक बहुत ही प्यारे से बेटे को जन्म दिया। यह दोनों डिलीवरी रुचि ने अपने अस्पताल पर ही की थी ताकि किसी और को कुछ भी पता ना चल सके। दोनों बच्चों को जब एक साथ बिस्तर पर लिटाया तो वह सब देखकर हैरान हो गए कि दोनों बिल्कुल एक जैसे दिख रहे थे। मानो किसी एक को आईने के सामने लिटा दिया गया हो।

आरती ने आज अपने घर पर फ़ोन लगाया और धीरज से कहा, “निर्मला को जुड़वां बच्चे हुए हैं, दोनों ही लड़के हैं और बुलबुल …,” इतना कह कर वह चुप हो गई।

“क्या कह रही हो आरती? खुल कर कहो? बुलबुल को क्या …?”

“उसने जिस बच्ची को जन्म दिया वह …”

“वह क्या आरती?”

“वह होने के वक़्त ही यह दुनिया छोड़ गई।”

धीरज के हाथों से फ़ोन छूट गया उसके बाद आरती ने गोविंद और प्रतीक को बारी-बारी से फ़ोन करके बताया।

गोविंद ने अपनी माँ से पूछा, “माँ क्या था बेटा या बेटी?”

“बेटी थी गोविंद लेकिन बहुत कमजोर थी। यहाँ बच्चों के बहुत बड़े डॉक्टर भी थे। उन्होंने कहा बच्ची को बचा पाना असंभव है क्योंकि वह हद से ज़्यादा कमजोर हुई है।”

गोविंद की आँखें आँसुओं से भीग गईं। उसने कहा, “माँ पहले क्यों नहीं बताया?”

“गोविंद हिम्मत ही नहीं हो रही थी बेटा। मैं बुलबुल को संभालने में कुछ सोच ही नहीं पा रही थी कि क्या करूँ? कैसे बताऊँ?”

उसने कहा, “माँ मैं मिलने आ रहा हूँ बुलबुल से।”

“ठीक है गोविंद आ जाओ।”

गोविंद और प्रतीक दोनों ही गाँव पहुँचे। प्रतीक अपने जुड़वां बच्चों को देखकर बहुत ख़ुश था लेकिन गोविंद और बुलबुल की बच्ची के लिए बहुत दुखी भी था।

उसने आरती से पूछा, “माँ यदि शहर में रहते तो पहले ही सोनोग्राफी से मालूम हो जाता कि दो बच्चे हैं।”

“हाँ बिल्कुल पता चल जाता। मुझे भी पता था पर निर्मला ने तब मना किया था, तुम्हें बताने के लिए। तुमसे नाराज़ थी ना, शायद अभी भी है जाओ उसके पास।”

प्रतीक निर्मला के पास गया और गोविंद बुलबुल के पास।

अपने बच्चों को देखकर ख़ुश होते हुए प्रतीक ने निर्मला से कहा, “माफ़ कर दिया ना तुमने मुझे।”

निर्मला ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया।

उधर गोविंद ने प्यार से बुलबुल को अपनी बाँहों में समेट कर कहा, “बुलबुल रो मत, हमारे भाग्य में नहीं था इसीलिए ऐसा हुआ। तुम दुखी मत हो भगवान चाहेंगे तो फिर से तुम्हारी गोद भर जाएगी।”

बुलबुल की आँखों में आँसू थे लेकिन सुकून के। उसका बच्चा वहीं उसकी आँखों के सामने उन्हीं के परिवार में सबके बीच था। वह सोच रही थी अबॉर्शन करके यदि वह उसे ख़त्म कर देती तो वह हत्या के पाप के बोझ से कभी ख़ुद को मुक्त नहीं कर पाती। लेकिन माँ के कारण आज सब कुछ ठीक हो गया है। माँ ने तो गोविंद की नज़रों में गिरने से उसे बचा लिया। उसका जीवन बर्बाद होने से भी बचा लिया और उसके बच्चे को भी बचा लिया। गोविंद आज भले ही दुखी हो रहा है पर वह जल्दी ही उसे वह ख़ुशी देगी जो उसे चाहिए। वह गोविंद की बाँहों में बहुत ख़ुश थी।

यह एक कर्म युद्ध था जो आरती ने जीत लिया था। निर्मला की गोद में दो बच्चे थे। प्रतीक के बार-बार माफ़ी मांगने से निर्मला ने उसे माफ़ कर दिया। उसकी माँ भी तो यही चाहती थी ना। निर्मला ने अपने भाई की ख़ुशी और अपने परिवार की इज़्जत बचाने के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी ताउम्र निभाने के लिए कमर कस ली। अपनी माँ के इस निर्णय को स्वीकार करके उसने अपने भाई गोविंद और बुलबुल के रिश्ते को टूटने से बचा लिया। इस कर्म युद्ध में उसकी माँ की बनाई रणनीति काम कर गई और एक ऐसी उलझन सुलझ गई जिसे सुलझाना आसान नहीं था।

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
समाप्त

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