बुलबुल के जाने के बाद निर्मला अपने बिस्तर पर लेट कर करवटें बदल रही थी। आज तो उसकी आँखों से नींद कोसों दूर थी। यदि कुछ था तो बेचैनी थी। एक बहुत बड़ी उलझन सामने दिखाई दे रही थी और इस उलझन की गुत्थी को सुलझाना इतना आसान नहीं था।
रात के लगभग दो बजे वह उठी और अपनी माँ के कमरे में जाकर उसने धीरे से उन्हें आवाज़ लगाई, “माँ …”
आरती ने एक ही आवाज़ में आँखें खोल दी और पूछने के लिए जैसे ही मुँह खोला; निर्मला ने उनका मुँह बंद करते हुए इशारा करके उन्हें अकेले में आने को कहा।
आरती भौंचक्की-सी उठी और फिर वह निर्मला के साथ उसके कमरे में आ गई और पूछा, “क्या हुआ निर्मला? इतनी रात गए इस तरह मुझे चोरी छिपे यहाँ क्यों …”
“अरे माँ बात ही कुछ ऐसी है। आप पहले आराम से बैठो,” ऐसा कहते हुए निर्मला ने उनका हाथ पकड़ कर उन्हें पलंग पर बिठाया।
फिर निर्मला ने कहा, “माँ बहुत बड़ी अनहोनी हो गई है।”
“क्या हुआ …?”
“पहले प्रॉमिस करो नाराज नहीं होगी और शांति से समझोगी बात को। क्या हुआ? कैसे हुआ? क्यों हुआ? यह सब मत सोचना क्योंकि यह हमारे भाग्य में था,” कहते हुए निर्मला ने सारा किस्सा, सारे हालात से आरती को रूबरू करा दिया।
अपनी बेटी का दर्द, अपनी बहू का इस सबसे अनजान होना, प्रतीक की बेवफाई और गोविंद की ख़ुशी। इस पूरी सच्चाई को सुनकर उसके इन सारे पहलुओं को आरती समझ गई। वह शांत थी बिल्कुल गंभीर होकर उन्होंने सब सुन लिया और फिर चुपचाप खड़ी होकर वापस अपने कमरे में जाने लगीं।
निर्मला ने आवाज़ लगाते हुए कहा, “माँ …”
तब उन्होंने जाते-जाते अपना एक हाथ ऊँचा कर दिया कि बस अभी कुछ मत पूछना।
निर्मला भी समझ रही थी कि यह कोई छोटी-मोटी बात तो है नहीं। माँ को ज़ोर का सदमा लगा है लेकिन वह यह भी जानती थी कि उसकी माँ में बहुत हिम्मत और बहुत सारी समझदारी भरी है। वह ज़रूर कोई ना कोई रास्ता तो निकाल ही लेंगी।
उधर बुलबुल की आँखों में भी नींद कहाँ थी। वह जानती थी कि आज रात को माँ को भी सब कुछ मालूम हो जाएगा।
सुबह ने दूसरे दिन फिर रोज़ की तरह अपनी हाज़िरी दिखा दी।
आरती उठी और सबके लिए चाय बनाने रसोई में गई तो बुलबुल भी उठकर आई और कहा, “माँ मैं बनाती हूँ चाय,” कहते हुए उसने आरती की तरफ़ डरते हुए देखा।
आरती की आँखों में इस समय ना क्रोध दिख रहा था ना ही डर। उन्होंने प्यार से बुलबुल के सर पर हाथ फिराते हुए कहा, “ठीक है बनाओ, घबराना नहीं बेटा अपना ख़्याल रखना।”
इन शब्दों को सुनकर बुलबुल की बेचैनी को थोड़ा-सा चैन मिला। उसे लगा माँ नाराज नहीं है। तभी निर्मला भी उठकर वहाँ आ गई। उसने आरती की तरफ़ देखा वह एकदम शांत लग रही थीं।
उसने कहा, “माँ …”
बीच में टोकते हुए आरती ने कहा, “तुम दोनों नहा कर तैयार हो जाओ, हमें मंदिर चलना है।”
दोनों ने एक साथ कहा, “ठीक है माँ।”
नहा कर तीनों तैयार हो गए।
गोविंद और धीरज को चाय नाश्ता देकर आरती ने कहा, हम लोग मंदिर जा रहे हैं।
तब धीरज ने कहा, “अरे वाह आरती क्या बात है, आज सुबह-सुबह मंदिर जा रही हो?”
“हाँ मैंने माना था कि मेरी बेटी और बहू दोनों को लेकर मंदिर जाऊंगी।”
“अच्छा-अच्छा ठीक है।”
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः