उलझन - भाग - 14 Ratna Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उलझन - भाग - 14

प्रतीक निर्मला जीजी के पति हैं यह पता चलते ही को बुलबुल को तो मानो सांप सूंघ गया। यह क्या अनर्थ हो गया। हे भगवान यह क्या कर दिया तूने? अब क्या होगा? यह एक गंभीर प्रश्न था। वह उसकी ननंद का ही घर …! वह सोच रही थी कि अच्छा हुआ जो उसने अपने पापा मम्मी की बात मानकर अपने कदम पीछे खींच लिए।

तब तक धीरज भी वहाँ आकर बैठ गए। उन्हें देखते ही प्रतीक ने उनके पाँव छूते हुए पूछा, “कैसे हो बाबूजी?”

“मैं ठीक हूँ बेटा, तुम्हारी बड़ी कमी लगी शादी में।”

“हाँ बाबूजी आ ना पाया, काश आ गया होता,” ऐसा उसने बुलबुल की तरफ़ देखते हुए कहा।

तभी आरती ने कहा, “अरे बुलबुल पाँव छुओ, तुम्हारे जीजा हैं यह और प्रतीक यह देखो गोविंद की पत्नी।”

बुलबुल ने उसकी ओर पाँव छूने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया, प्रतीक ने कहा, “नहीं-नहीं यह सब नहीं करो।”

प्रतीक और बुलबुल की आँखें एक दूसरे से मिलकर नीचे झुक गईं। दोनों को यह बहुत ही ज़ोर का झटका था जो बहुत ही ज़ोर से लगा था। बुलबुल को काटो तो खून नहीं, ऐसी हालत हो रही थी।

खैर सब अपने-अपने काम में लग गए। प्रतीक और गोविंद एक साथ बैठे बातें कर रहे थे।

बुलबुल और प्रतीक को लग रहा था कि यह राज़ केवल उन दोनों तक ही सीमित है लेकिन वह नहीं जानते थे कि निर्मला तो सब कुछ जानती है।

अगले दिन का कार्यक्रम होने के बाद प्रतीक वापस जाने वाला था।

मौका मिलते ही उसने बुलबुल से कहा, “बुलबुल यह क्या हो गया है? अनजाने में हम तो बहुत बड़ी उलझन में फंस गए हैं, समझ नहीं आ रहा है क्या करें? देखो हम दोनों के सिवाय कोई और कुछ भी नहीं जानता। मुझे लगता है इस राज़ को हमेशा के लिए हमें अपने सीने में दफ़न कर लेना है। हमारे बीच जो भी था उसे भूलना मेरे लिए आसान नहीं था लेकिन इन हालातों को जानने के बाद मैं मेरे जीवन की डायरी का वह पन्ना फाड़ कर जला रहा हूँ ताकि इसकी आँच हमारे परिवार पर ना पड़े। काश हम यह जानते तो ऐसा कभी भी नहीं होने देते। तुम्हारी छवि को आज मैं मेरे मन से हमेशा-हमेशा के लिए मिटा रहा हूँ। तुम तो पहले ही मिटा चुकी हो यह मैं जानता हूँ, कल मैं चला जाऊंगा।”

“जीजी को अपने साथ …”, बुलबुल ने पूछा।

“किस मुँह से कहूँ उसे? उसका तो मैंने इतना तिरस्कार कर दिया है कि माफ़ी मांगने के लायक भी नहीं बचा हूँ।”

उसके बाद दूसरे दिन प्रतीक सबसे मिलकर जाने लगा। जाते समय उसने निर्मला की तरफ़ देखा लेकिन निर्मला ने अपनी आँखों को पलकों के पर्दे से ढक लिया।

आरती ने कहा, प्रतीक बेटा निर्मला को तो मैं डिलीवरी के बाद ही वापस भेजूंगी।

यह शब्द सुनते ही प्रतीक के क़दम रुक गए। आँखें निर्मला की तरफ़ देखने लगीं। इन आँखों में उम्मीद थी कि शायद निर्मला उसकी आँखों की प्यास बुझाएगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। निर्मला नीचे ज़मीन की तरफ़ देखती रही।

तब प्रतीक उसके पास आया और कहा, “मुझे बताया तक नहीं तुमने?”

निर्मला कुछ कहती उससे पहले आरती उसके पास आकर खड़ी हो गई और कहा, “प्रतीक बिल्कुल चिंता मत करना। तुम्हारी मम्मी ने बताया था कि डॉक्टर ने आराम करने को कहा है। यहाँ उसे भरपूर आराम मिलेगा।”

“ठीक है माँ,” कहते हुए प्रतीक निकल गया।

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः