कुहासा छँट गया Mamta द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कुहासा छँट गया



कुहासा छँट गया


सुनो ! पाँच बज गए ,अब तो चाय बना लो ।कब से इंतज़ार कर रहा हूँ और एक तुम हो कि .... तिवारी जी के स्वर की तल्ख़ी उभर कर बाहर आ गयी।

रमा ने पलट कर तिवारी जी को आग्नेय दृष्टि से देखा और खीज कर बोली ,हाँ हाँ ,मुझे तो बहुत शौक़ है तुम्हें परेशान करने का ,चाय -खाना कुछ भी समय पर ना देने का ।ऐसा करो ,नीचे जाओ ! ख़ुद बना लो या अपनी लाड़ली बहू रानी से कहो बनाकर देगी गरमा गरम चाय अपने सुकोमल हाथों से ।


अरे !तुम तो नाराज़ हो गयी ,मैंने तो ऐसे ही बोल दिया था ।श्याम तिवारी कुछ खिसिया से गए रमा के इस तरह टूट पड़ने पर, समझ गए कि आज फिर चोट खायी है इसने ।चालीस सालों से जानते है अपनी पत्नि को ,उसकी रग रग से परिचित है ।

उसके चेहरे पर बेबसी ,क्रोध दयनीय भाव उसे जैसे कचोट रहे थे ,आँखे थीं कि जैसे बरसने को आतुर !

तिवारी जी ने रमा का हाथ धीरे से अपने हाथ में लिया ,तुम परेशान ना हो ,थोड़े और दिनो की बात है जहाँ आठ महीने बर्दाश्त किया वहाँ कुछ दिन और सही ।इस विकराल त्रासदी का समाधान ज़रूर निकलेगा और हम जल्दी ही अपने घर वापस जाएँगे ।

ज़रा सी सहानुभूति का स्पर्श पाते ही रमा बिखर गयी ,रुँधे गले से बोली ,अपने ही बच्चों के घर में उनके लिए कितने पराए से बन गए ना हम ? ज़रूर हमारी परवरिश में ही कोई कमी रह गयी जो यह दिन देखना पड़ा ।

नहीं ऐसी बात नहीं है रमा जी ,तुम जानती तो हो बच्चे यहाँ व्यस्त रहते हैं ।अमेरिका की ज़िंदगी कोई आसान तो है नहीं बस दूर की चकाचौंध है ।असलियत तो यहाँ रहकर ही पता चलती है ।

रमा आज कुछ ज़्यादा ही आहत थी बोली, हम तो अपने घर इंडिया में ही अच्छे थे,बेकार ही यहाँ चले आये और फँस गए ।


आज पूरे आठ महीने हो गए थे तिवारी जी को रमा के साथ अमेरिका आए हुए । तिवारी जी तीन महीने के लिए अफ़्रीका एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में गए थे ,रमा भी साथ ही चली गयी थी । वहाँ से ही इंडिया लौट रहे थे ,सोचा कुछ समय बेटे के पास अमेरिका ही रह आयें ।कितने साल हो गए थे बच्चों को देखे,अब तो पोती भी आठ बरस की हो गयी थी ।पर तभी पूरे विश्व में करोना का ऐसा प्रकोप हुआ कि संसार ही थम गया ,जो जहाँ था वहीं का होकर रह गया ।

रमा और तिवारी जी सोचकर तो आए थे कि महीना भर बड़े बेटे के पास रहेंगे और एक महीना छोटे के पास फ़्लोरिडा में रहेंगे ।इतने समय से अपनी व्यस्तताओं में समय ही नही लगा था आने का ।बच्चों ने कई बार कहा भी पर ऐसे ही नौ साल गुज़र गए ।

रमा और तिवारी जी बुलाते रह गये पर हर बार बच्चों का कहना होता कि इतनी छुट्टी नहीं मिलती है ।

जब तक दोनों बच्चे एच वन बी वीज़ा पर थे ,हर समय सिर पर तलवार लटकी रहती थी कि जाने कब वापस इंडिया जाना पड़ जाये ।इसलिए इंडिया आने की नहीं सोचते थे ।

अब मधुर का ग्रीन कार्ड हो गया था तो निश्चिन्तता हो गई थी पर अब बिटिया की पढ़ाई का चक्कर था ।

रमा और तिवारी जी को लगता था की बच्चे जान बूझकर बहाना करते हैं आना ही नहीं चाहते ।ख़ैर वे दिनों तो माँ बाप थे ,कब तक अपने मन को समझाते आख़िर अब जाकर आने का तय कर ही लिया पर इस त्रासदी के कारण उनका प्रवास कुछ लम्बा ही खिंच गया ।

अपने दोनो बेटों मधुर और पराग की ज़िंदगी बनाने में तिवारी जी और रमा ने खुद को झोंक दिया था ।पर उनकी जीवन भर की मेहनत रंग लायी ।मधुर डॉक्टर बन गया ,उच्च स्तर की पढ़ाई करने अमेरिका तक गया और वहीं के एक बड़े अस्पताल में नौकरी भी करने लगा ।बाद में विवाह करके वहीं बस गया ।लड़की मधुर के साथ ही पढ़ती थी ,हिंदुस्तानी ही थी ,तिवारी जी और रमा को भी रिश्ता अच्छा लगा ,दोनो इंडिया आए और शादी के सूत्र में बांध गए ।

अग़ले वर्ष पोती के जन्म पर रमा और तिवारी जी एक महीने के लिए अमेरिका बेटे के पास आए थे ।समय अच्छा ही गुज़रा ,बहू तो बच्ची के साथ व्यस्त रहती थी ,रमा ने रसोई का काम सम्भाला हुआ था ।रमा और तिवारी जी पूरी तरह शाकाहारी थे, कभी जीवन में अंडे तक का स्पर्श भी नही किया था ।मधुर ने भी तब इस बात का ख़याल रखा कि घर में शाकाहारी खाना ही पके ।

ख़ुशी से दोनो समय बिता कर वापस चले आए ,क्यूँकि दोनो को ही नौकरी से अधिक छुट्टियाँ नही मिली थी ।उनके बाद बहू की माँ आ गयी थी वहाँ छः महीने के लिए तो बच्ची को सम्भालने की भी चिंता नही थी ।

उसके बाद काम काज के कारण आना ही नही हो सका ,अब रमा सेवा निवृत्त हो चुकी थी ,तिवारी जी एक प्राइवेट कम्पनी के प्रोजेक्ट लेते थे ।उसी सिलसिले में अफ़्रीका गए हुए थे वहाँ से लौटते हुए दोनो अमेरिका आए थे ।

इतने सालों बाद यहाँ आकर देखा तो बेटा बहू दोनो के रंग ही बदले हुए थे ।पंद्रह दिन तो सब ठीक चला पर फिर असली रंग सामने आ ही गया ।उनकी रसोई में मांसाहारी भोजन के अलावा कुछ ख़ास पकता ही नही था ।

बहू ने साफ़ स्पष्ट शब्दों में कह दिया ,घर मेरा है और मेरे तरीक़े से ही चलेगा ।आपको घास फूँस खाना हो तो ख़ुद पका लें पर मुझे जो खाना है वो मैं खाऊँगी ।मधुर भी अपनी पत्नी नव्या के आगे कुछ बोलता ही नही था ।बस माँ से कह देता ,माँ ,आप अपनी पसंद से बना लिया करे ।आप ही बताएँ ,नव्या को कैसे मना करूँ उसकी पसंद का खाना खाने से ?

रमा चुप लगा जाती ।रमा और तिवारी जी की स्तिथि बड़ी विकट हो गयी ।जब तक बहू अपनी पसंद का खाना पकाती दोनो ऊपरी मंज़िल के अपने कमरे को बंद करके बैठ जाते ।फिर रमा जाकर अपने दोनो के लिए दाल सब्ज़ी आदि बनाती।

रमा के लिए उस रसोई और उन्ही बरतनो में जिनमे माँस पकता था ,अपना खाना बनाना बड़ा मुश्किल लगता था पर करती भी क्या ।फ़्रिज तक को हाथ लगाने में उसे घिन आने लगती ,क्योंकि खोलते ही माँस मछली रखी जो दिखाई देती ।

अक्सर ही फल खाकर या दूध पीकर दोनो गुज़ारा करते । मधुर देखकर भी अनदेखा कर देता ।ऊपर से अचानक यह करोना का क़हर दुनिया पर छा गया ,और उनका जाने का टिकट भी दो महीने बाद का था ।उन्होंने सोचा भी कि परिवर्तित करा ले पर तब तक सारी फ़्लाइट बंद हो गयी ।अपने ही बेटे के घर में दोनो को जैसे क़ैद सी हो गयी थी ।रमा के इंडिया से लाए कपड़े तक अमेरिका के ड्रायर की बलि चढ़ चढ़ कर फ़ेड होने लगे थे ।वजन भी बुरी तरह गिर रहा था तो कपड़े ढीले भी हो गए थे ।

रमा अक्सर सोचती जब इंडिया में थे तो कितना खुश थे ,घर के काम काज के लिए भी कितनी ही मदद मिल जाती थी ।यहाँ महरी ,धोबी ,कुक ,सफ़ाई वाली सब ख़ुद ही बनना पड़ता है ।इंडिया में सब पड़ोसी, रिश्तेदार आस पास ही थे कभी अकेलापन ही नही लगता था ।यहाँ तो कोई दरवाज़े पर दस्तक ही नहीं देता , किसी से दो बोल भी बोलने को तरस गए ।

वहाँ थे तो बच्चों से हर सप्ताह बात हो जाती थी ,सब अपनी अपनी जगह खुश थे ।जब से यहाँ आए बच्चों को भी उनसे बात करने तक का समय नही मिलता था ।नव्या और मधुर दोनो का काम भी बढ़ रहा था इस करोना बीमारी के कारण और पोती का होम स्कूल चल रहा था ,उसकी ऑन लाइन क्लास चलती थी तो बस दोनो मुँह सिले बैठे रहते tv पर आ रहे कार्यक्रम में उनकी रुचि ना होती ,अब करें तो क्या करें सारा दिन ।

नव्या अस्पताल से आते ही माँस पकाना शुरू कर देती क्योंकि अब वे लोग बाहर का खाना नही खा रहे थे ।अजीब स्थिति हो गयी थी घर में ,ऊपर तक पूरे घर में मछली तले जाने की गंध से परेशान हो जाती रमा ,पर क्या करती ? तिवारी जी ख़ुद भी परेशान थे पर बोलते ही नही थे ।एक आध बार दबे स्वर में बेटे से बात करने की कोशिश भी की तो उसका जवाब सुनकर चुप लगा गए ।


नव्या की मानसिकता पूरी तरह बदली हुई थी ,ना किसी की भावनाओं का ख़याल ना अपने रीति रिवाजों और परंपराओं का आदर ।इतने रूढ़िवादी तो रमा और तिवारी जी भी नही थे पर फिर भी अपने संस्कार तो नही छोड़ सकते थे जिनके साथ वे पले बढ़े थे ।और हद तो तब हो गयी जब दीवाली के दिन भी नव्या ने माँस पकाया ,यह उन दोनो पति पत्नी के लिए असहनीय था और जब बोले तो घर में महाभारत मच गया ।


पहले जब इंडिया में थे तो सोचते थे जब दोनो बच्चे ही अमेरिका चले गए तो वो दोनो अकेले यहाँ रहकर भी क्या करेंगे ? मधुर ने भी कई बार कहा ,पापा अब इंडिया की प्रॉपर्टी बेच कर यहीं आ जाओ ।मैं आपका ग्रीन कार्ड अप्लाई कर देता हूँ ।पर उन्होंने हमेशा यही जवाब दिया कि अभी मेरे प्रोजेक्ट चल रहे हैं बस ख़त्म हो जायें तो सोचते है ।

पर अब जो इतने समय उन्हें साथ रहना पड़ा तो लगा उन्होंने अब तक यहाँ ना आने का जो निर्णय लिया था वह उचित ही था ।उन्होंने मन ही मन तय कर लिया कि कभी भी बच्चों के आश्रित होकर यहाँ नही आएँगे ।हालाँकि उन्होंने अपने मन की बात रमा तक से भी साझा नही की।

छोटे बेटे पराग ने भी अमेरिका से एम बी ए किया और फ़्लोरिडा में नौकरी करने लगा था ।एक ही देश में रहते हुए दोनो भाइयों के बीच भी बड़ा ही औपचारिक सा रिश्ता था ,शायद नव्या नही चाहती होगी और मधुर तो वही करता जो नव्या कहती ।पराग को रमा और तिवारी जी विवाह करने को मना मना कर थक गए थे पर उसने तय कर लिया था कि उसे विवाह नही करना ।

अब जब से यहाँ आए थे तो पराग की तरफ़ सभी उन्हें कोई ख़ास तवज्जो नही मिली ।रमा और तिवारी जी के लिए यह सब सहना आसान नही था ,जिन कलेजे के टुकड़ों को इतनी मेहनत करके आज इतना क़ाबिल बनाया वही दोनो इस तरह बदल जाएँगे उन्होंने कल्पना भी नही की थी ।

विदेश के प्रवास वे अपने संस्कार तक भूल गए थे , अगर वे यहाँ इतने लम्बे समय तक ना रहते तो शायद उनकी आँखो पर पर्दा पड़ा ही रहता ।अब तिवारी जी को लगने लगा कि कुछ ठोस कदम उठाना ही पड़ेगा ।

रमा की स्कूल की नौकरी से पेन्शन आ ही रही थी , तिवारी जी रिटायर होकर एक नामी फ़र्म में सलाहकार बन गए थे और उन्ही के प्रोजेक्ट कर रहे थे साथ ही सरकारी नौकरी की पेन्शन तो थी ही ।उन्हें आर्थिक रूप से बच्चों पर निर्भर होने की कोई आवश्यकता नही थी ,बस हर हिंदुस्तानी माता पिता की तरह मोह का बंधन था जो उन्हें जकड़े था ।

तिवारी जी ने तय कर लिया अब जैसे भी हो वापस जाना ही होगा ।दो बार मजबूरी में वीज़ा की अवधि बढ़वा ली थी अब और नही बढ़वाएँगे ।

उसी रात बड़े शांत भाव से उन्होंने मधुर से कहा ,बेटा हमारा वापसी का टिकट करवा दो अब हालात इतने भी बुरे नही है और हम पूरा ध्यान रखेंगे और जाते ही वैक्सीन भी लगवा लेंगे ।घर भी इतने दिनो से बंद पड़ा है उसे भी देखना है ।

मधुर कुछ नही बोला ,बोलता भी क्या ? अपनी आँखो से रोज़ देख ही रहा था बस चुपचाप इंडिया की टिकट करवा दी ।

पाँच दिनो के बाद इंडिया जाने वाले जहाज़ में बैठकर रमा को सुकून भी था और आँखे भी बरस रही थी ,उसे लग रहा था एक बार फिर से गर्भनाल काट कर अलग कर दिया उसने अपने बच्चे को ।आख़िर थी तो माँ ही ना !

तिवारी जी चुपचाप बैठे थे ,स्त्रियाँ तो आँसू बहाकर अपना दर्द अपनी पीड़ा अपना क्रोध अपनी ख़ुशी सब कुछ ज़ाहिर कर देती है पर बेचारे पुरुष ........ वो तो रोकर कमजोरी भी प्रदर्शित नही कर सकते ।

लम्बा सफ़र तय कर इंडिया पहुँच कर उन्हें कोरानटीन करना पड़ा, नियमानुसार दोनो एक होटेल में दस दिन तक रहे ।इस बीच उनके पड़ोसी और ख़ास मित्र शर्मा जी ने घर की साफ़ सफ़ाई करवा दी । मिथिला उनकी कामवाली बाई घर के पीछे बने सर्वेंट क्वॉर्टर में ही रहती थी ।उसने उनके आने तक घर पूरी तरह साफ़ कर चमका दिया था ।शर्मा जी ने उनके फ़्रिज में दूध सब्ज़ियाँ आदि भी लाकर रख दी थीं।

दोनो जब घर पहुँचे तो लगा ना जाने कितने बरसों का वनवास काट कर आए है ।रमा तो बच्चों की तरह उत्साहित होकर अपने घर के एक एक कोने ,एक एक कमरे को देखती घूम रही थी ।मिथिला के हाथों की गरमागरम चाय पीकर लगा ना जाने कितने समय बाद उन्हें ख़ुशी मिली है ।

मिथिला पिछले दो वर्ष से उनके साथ थी ।उसके पति का देहांत हो चुका था और उसकी दस वर्ष की एक बेटी थी ।हमेशा यही कहती ,दीदी मुझे अपनी बिटिया को बहुत पढ़ाना है ,इसके लिए मुझे चाहे कितनी भी मेहनत क्यों ना करनी पड़े ।रमा उन दोनो को बहुत प्यार से रखती थी बिल्कुल अपने परिवार के सदस्य की तरह ।

रात की तिवारी जी और रमा खाना खाकर जब अपने कमरे में आए तो अपने बिस्तर पर बैठकर रमा की आँखे फिर भर आयीं ।

सहसा तिवारी जी रमा का हाथ पकड़ कर बोले ,रमा ! कुछ दिनो से मेरे मन में कुछ घुमड़ सा रहा है ।

रमा ने हैरानी से पूछा ,क्या हुआ ,क्या बात है ?

रमा ! हमने इतने दिन अमेरिका में बच्चों के साथ रहकर ज़िंदगी को बहुत नज़दीक से और कुछ अलग ही तरह से देखा है ।इसलिए मैंने एक निर्णय लिया है जिसमें मुझे तुम्हारी सहमति चाहिए ? तिवारी जी बोले ।

कहिए ना ,मै तो हमेशा आपके हर फ़ैसले में आपके साथ हूँ ।रमा कुछ हैरान सी थी ।समझ नही पा रही थी कि उनके मन में कैसा द्वंद्व चल रहा है ?

मैंने सोचा है अपने इस घर को छोड़कर अपनी बाक़ी की सारी प्रॉपर्टी बेच दूँगा ।हमारे बच्चे समर्थ है अपना कमा खा रहे है ,अब उन्हें ना तो हमारी ज़रूरत है ना शायद हमारे पैसे की ।अगर अब हो भी तो अब मैंने तय कर लिया कि उनके प्रति जो हमारा कर्तव्य था उससे कहीं ज़्यादा हमने कर दिया ।

बच्चों को यह एहसास होना चाहिए कि माँ बाप अपनी इच्छाओं,अपनी ज़रूरतों को तिलांजलि देकर अपने बच्चों के भविष्य को बनाते हैं तो क्या बच्चों का कर्तव्य नही कि वे भी उनके लिए कुछ करे ? अरे करना तो बहुत दूर ,वे तो इतना भी नही सोचते कि हमारे माता पिता की भावनाएँ कितनी आहत होती होंगी ?

मधुर जानता था कि हम शाकाहारी है ,हमें परेशानी होती है तो क्या यह इतनी बड़ी समस्या थी कि इसका कोई समाधान ही ना निकलता ? तुम्हारे पास कपड़े तक ख़त्म हो गए ,क्या एक बार भी हमारे बेटा बहू को यह ख़याल आया कि माँ को कपड़ों की भी ज़रूरत होगी ?

मधुर एक बार तो कहता ,माँ, आप इंडिया में हमेशा इतने सुंदर कपड़े पहन कर तैयार होकर रहती थी ,चलो यहाँ से कुछ कपड़े ही ले लो ।

रमा नम आँखो से तिवारी जी की बात सुन रही थी ।उसे लगता था शायद वह इन बातों को ज़्यादा महसूस नही करते पर अब पता चला कि वह कितनी गहराई से सारी परिस्थिति को परख रहे थे ,और कितने आहत हो रहे थे ?

फिर वह बोले ,इसलिए अब मैं सारे पैसे से एक ट्रस्ट बना रहा हूँ ।हमारे देश में बहुत से ऐसे गरीब बच्चे है जो बहुत होनहार है परंतु पैसे के अभाव में पढ़ नही पाते ।यह ट्रस्ट उन बच्चों की आर्थिक मदद करेगा ।

रमा भाव विभोर हो उनकी बात सुन रही थी ,उसके भीतर भी बहुत कुछ उमड़ रहा था पर कुछ बोल ही नही पा रही थी ।पर मन ही मन वह भी दृढ़ निश्चय कर चुकी थी ।

तिवारी जी ने आगे कहा ,अब तो हमारी ज़रूरतें भी सीमित है इसलिए हमारी पेन्शन हमारे गुज़ारे के लिए बहुत है ।तुम्हें मेरे निर्णय पर कोई एतराज़ तो नही है ना ?

रमा भावुक होकर उनके गले से लग गयी बोली ,आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं ,इतना नेक काम तो हम कल से ही शुरू करेंगे ।और इसका सबसे पहला हक़ मैं मिथिला की बेटी को दूँगी ।

हाँ हाँ ज़रूर ! हम कल ही मिथिला से बात करके उसकी बेटी की उच्च शिक्षा का प्रबंध करेंगे ।

रमा और तिवारी जी दोनो मुस्कुरा रहे थे ।यह त्रासदी तो उन्हें बड़ा कुछ सिखा गयी ,जीवन का एक बड़ा सबक़ देकर अपने ही रक्त सम्बन्धों को एक नए दृष्टिकोण से परखना सिखा गयी ।मोह के बंधन से परे होकर लिए गए जीवन के इस इस महत्वपूर्ण निर्णय के बाद उन्हें लग रहा था मानो सारा कुहासा छँट गया और एक नयी रोशनी उनका स्वागत करने को आतुर हो रही है ।