आज फिर मुझे नज़र आई वो... Utpal Tomar द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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आज फिर मुझे नज़र आई वो...

~उनसे बिछड़ना था~

तन्हा होना था, सुकून पाना था
खुद से मिलना था, सो उनसे बिछड़ना था l

आवारा फिर ना था, गिर के संभालना था
सबसे लड़ना था ,सो उनसे से बिछड़ना था l

याद करना था, वह क्या था जो,
भूल जाना था, सो उनसे बिछड़ना था l

किसी को बांधना था, कहीं बंध जाना था
दुख पाना था, सो उनसे बिछड़ना था l

आंसू पीने थे, नैनो से लड़ना था
गले लगाना था, सो उनसे बिछड़ना था l

मंजिलें लांघनी थी, हजारों मिल जाना था
मुसाफत में रहना था, सो उनसे से बिछड़ना था l

जल्दी सोना था ,सवेरे उठना था
काम पर जाना था, सो उनसे बिछड़ना था l

गर्मी से जलना था, सर्दी में जमना था
फिर बागों में खिलना था, सो उनसे बिछड़ना था l

भंवरों से उलझना था, माली से बचाना था
कलियों को चुना था, सो उनसे बिछड़ना था l

अब ना डरना था हिम्मत से लड़ना था
आगे बढ़ना था, सो उनसे बिछड़ना था l

और न सहना था , सच सुनाना था
दर्पण बना था, सो उनसे बिछड़ना था ll

उनसे बिछड़ना था, उनसे बिछड़ना था....
उत्पल तोमर

~आज फिर मुझे नज़र आई वो~

आज फिर मुझे नजर आई वो,
जैसे बरसात लौट आई हो

वो हमें नहीं मिली, शायद
खुदा ने किसी और के लिए बनाई हो।

साथ रहती हो और चुप हो तुम,
तुम क्या मेरी परछाई हो

दहलीज पर आकर यह आंसू और मुस्कान,
क्या बहुत दिन बाद घर आई हो।

दिल ने बहुत चाहा सालों पहले आती तुम,
खैर चलो छोड़ो अब तो आई हो

क्यों नहीं रखती नीचे यह पुराना सा थैला,
इसमें क्या चांद सितारे भर लाई हो।

बहुत नुस्खे बताएं जमाने ने,
इन्हें क्या मालूम मेरी बस तुम दवाई हो

थक गए हकीम नब्ज़ टटोलकर मेरी,
क्या धड़कन वापस लेकर आई हो।

कोशिश मेरी सब नाकाम हुई, नहीं समझी तुम
फिर यहां क्या समझाने आई हो

कल तक नागवारा था मैं, मेरा हर फैसला,
फिर आज हक जताने आई हो।

खफा रहती थी तुम, तुम्हारी बेरुखी हमें
मारे जाती थी ,फिर आज क्यों प्यार दिखाने आई हो।

दिल की शेर, वार की तेज, ज़बान की कतार थी तुम,
ऐसा क्या हुआ जो इस कदर घबराई हो।

थक गया हूं मैं, बहुत दूर तक आ चुका हूं,
की मुझको, तुम कहीं दिखाई दो।

बेनकाब आओ कभी, तो करें इज़हार ,
इन पर्दों में कैसे किसी जंग की अगुवाई हो।

नरम हथेली और भोली सूरत वाली यह बताओ,
कितने मासूमों का कत्ल करके आई हो।

बेहद सर्द हवाओं सा कहर बरपाने लगी हो हो तुम,
हमारा ख्याल था की ठंडी पुरवाई हो।

तुम्हें अपने घर कैसे बुलाए वो,
जिसके घर में बस एक टूटी चारपाई हो।

यह मर्ज मोहब्बत का, बढ़ने लगा जमाने में,
इसका मरहम बने कोई या कोई दवाई हो।

जख्म गहरे हैं तूने लगाए जो
कि उनकी इस दौलत से कहां भर पाई हो।

तेरे छोड़ जाने पर कैसे रोता मैं
नहीं छलकता वो दरिया ,जिसमें गहराई हो,
नहीं छलकता वो दरिया, जिसमें गहराई हो।।

आज फिर मुझे नजर आई वो........
उत्पल तोमर