हॉस्टल लाइफ Jay Piprotar द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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हॉस्टल लाइफ


आंख पे पट्टी


कुछ साल पहले की बात है, लगभग रात के 12:00 बजे का समय होगा और हमारे कॉलेज में रीडिंग वैकेशन चल रहा था, इस वजह से हॉस्टल में हम सिर्फ सौराष्ट्र वाले बच्चे ही बचे हुए थे, और हम हर बार की तरह ब्लाइंड फोल्ड ( आंख पे पट्टी ) खेल खेलने निकल गए।
हमेशा की तरह एथलेटिक ट्रैक के बीच में जहां सॉफ्टबॉल का मैदान अंकित किया हुआ रहता था वही हमारे मैदान का दायरा रहता है। खेल में सबसे पहले ट्रेडिशनल तरीके से किसको दाव देना है वह निर्णय लिया जाता है, और अगर कोई उसके बाद आता है तो उसे दाव देना पड़ेगा ( नई घोड़ी का नया दाव ), जिसका भी दाव है उसको एक लकड़ी दी जाती थी वह उनका प्रयोग करके आउट कर सकता है और बाकी खिलाड़ियों को नियत किए हुए दायरे के बाहर जाना माना है वरना वह आउट दिए जाएंगे।
घनी काली अंधेरी रात थी, हम हर रात की तरह उस रात को भी खेल रहे थे लेकिन इतने में मेरा एक दोस्त प्रदीप वह खेल खेलने की रुचि दिखाता है और नियमों के तहत उसकी दाव देने की बारी आती है। मैं आपको बता दूं कि हम सब स्पोर्ट्स कॉलेज में पढ़ते थे, तो आसानी से तो कोई आउट नहीं होता था कितना भी अच्छा प्लेयर हो 15 – 20 मिनट दोड़ेगा तब जाकर बड़ी मुश्किल से कोई आउट होता था।
अब स्टार्ट होती है प्रदीप की बारी उसके आंखों पर पट्टी बांधी गई, हाथ में लकड़ी का सहारा दिया गया। प्रदीप ने शुरुआत के 10 – 15 मिनट तो खूब अफरा तफरी मचाए लेकिन उसके हाथ निराशा के अलावा और कुछ नहीं लगा धीरे-धीरे उसकी गति मंद होने लगी तभी हमारे वरिष्ठ खिलाड़ी देवांग भाई ने निर्णय लिया की कोई आवाज नहीं करेगा और चुपचाप एक जगह पकड़कर बैठ जाएगा। प्रदीप प्रयत्न करता रहता है लेकिन उसके हाथ कुछ नहीं लगता, धीरे-धीरे समय बीतने लगता है लगभग 1 घंटे जितना हो जाता है अब प्रदीप के चेहरे पर हताशा साफ दिखाई दे रही थी लेकिन खेल तो खेल होता है प्रदीप आउट करने के प्रयास में मैदान के बाहर जाने लगा लेकिन हमारे सबसे नटखट सहपाठी विनय ने निर्णय लिया कि कोई उसे इस बात से अवगत नहीं करेगा प्रदीप को दाव देते देते कम से कम 2 से 2.5 घंटे हो चुके थे।
अब प्रदीप ट्रैक के बीच में से मैदान को छोड़कर पवेलियन की ओर बढ़ रहा था धीरे-धीरे करके वह पवेलियन के समीप पहुंच जाता है तभी वहां पर विश्राम कर रहे कुत्ते उसे देखकर भोंकते हैं और प्रदीप समझ जाता है कि वह मैदान से बहुत दूर आ चुका है। वह अपनी आंखों पर बंधी पट्टी को हटाता है और हमारी तरफ गुस्से से आता है फिर भर भर के हम सबको गलियों का प्रसाद पिरोषता है और अपने दाव को बिना पूर्ण किए हॉस्टल चला जाता है। वह प्रदीप का पहला और आखिरी दिन था उसके बाद वह कभी भी खेलने नहीं आया।
आज भी जब हम यार साथ मिलते हैं तो वह बात को याद करके खूब हंसते हैं।
दुख तो इस दुनिया में हर किसी को होता है लेकिन कुछ यादें होती है यारों के संग जो जीवन की ज्योत में ईंधन का काम करती है।