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सम्राट् चंद्रगुप्त प्रथम


मौर्यों की ही भाँति गुप्त वंश में भी अनेक महान् वीर तथा पराक्रमी सम्राट् हुए, जिन्होंने इस वंश के प्रभुत्व एवं कीर्ति में अभूतपूर्व वृद्धि की। मौर्यों के पतन के पश्चात् भारत को पुनः राजनीतिक स्थिरता एवं संगठन प्रदान करने का श्रेय गुप्त शासकों को ही है। गुप्त शासकों ने भारतवर्ष को न केवल एक बार फिर एक सूत्र में बाँधा, वरन् उनका युग कला एवं संस्कृति के सर्वतोन्मुखी विकास का भी युग था, जिसके कारण इस युग को प्राचीन भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग की संज्ञा भी दी जाती है। गुप्तों के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी देनेवाले प्रामाणिक एवं विश्वसनीय स्रोतों का तो यद्यपि अभाव है, परंतु फिर भी उनके सिक्कों और अभिलेखों आदि से इस राजवंश के प्रारंभिक शासकों आदि के विषय में कुछ ज्ञान अवश्य हो जाता है। हरिषेण की प्रयाग-प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त श्रीगुप्त का प्रपौत्र महाराज घटोत्कच का पौत्र तथा महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्त का पुत्र था। इस अभिलेख से यह भी स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त से पूर्व क्रमशः श्रीगुप्त, घटोत्कच तथा चंद्रगुप्त प्रथम, गुप्त शासक हुए थे। इसी प्रशस्ति से यह भी पता चलता है कि प्रथम दो गुप्त नरेश संभवतः आधीन या सामंत शासक थे या पूर्णतः स्वतंत्र शासक नहीं थे, क्योंकि उन्हें केवल महाराज कहा गया है, जबकि चंद्रगुप्त ही उस वंश का सर्वप्रथम शासक था, जिसने 'महाराजाधिराज' की उपाधि धारण की।

गुप्त वंश का प्रथम तथा महान् शासक चंद्रगुप्त प्रथम था, जिसने अपने पूर्वजों से अलग महाराजाधिराज' की उपाधि धारण की। इसी आधार पर कुछ विद्वानों की यह धारणा रही है कि प्रारंभिक दोनों गुप्त शासकों की भाँति चंद्रगुप्त प्रथम कोई अधीनस्थ शासक न होकर एक स्वतंत्र सम्राट् था। इससे यह भी आभास होता है कि इस राजा ने अपने राज्य का भी विस्तार किया होगा। चंद्रगुप्त प्रथम के इतिहास की जानकारी हमें चंद्रगुप्त-कुमारदेवी शैली की स्वर्ण-मुद्रा, समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति तथा कुछ पुराणों से भी प्राप्त होती है। चंद्रगुप्त प्रथम के शासनकाल की घटनाओं की विस्तृत जानकारी तो उपलब्ध नहीं होती है, परंतु उसके शासनकाल की एक महत्त्वपूर्ण घटना, जो उसके जीवन की भी एक महत्त्वपूर्ण घटना थी, लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह था, जिससे उसकी शक्ति एवं प्रतिष्ठा दोनों में ही वृद्धि हुई। चंद्रगुप्त के कुछ सिक्के जिनके अग्र भाग पर चंद्रगुप्त और कुमारदेवी के चित्र तथा नाम हैं और पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी का चित्र अंकित है तथा लिच्छत्रयः लिखा हुआ है, इस विवाह की महत्ता के द्योतक हैं। इस विवाह की महत्ता अन्य बातों से भी स्पष्ट हो जाती है। पहली तो यह है कि प्रयाग प्रशस्ति के साथ अन्य गुप्त अभिलेखों में भी इस घटना को बार-बार दोहराया गया है। दूसरा एवं अधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्राचीन भारत में राजाओं के नाम के साथ उनकी रानियों का नाम उत्कीर्ण कराए जाने की परंपरा का प्रचलन न होने के बावजूद भी चंद्रगुप्त ने अपनी मुद्रा पर अपनी पत्नी कुमारदेवी का नाम अंकित कराया। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में भी समुद्रगुप्त को 'लिच्छवि - दौहित्र' कहा गया है। राजनीतिक दृष्टि से यह वैवाहिक संबंध अति महत्त्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि इसी के उपरांत ही गुप्त वंश के शौर्य एवं वैभव की वृद्धि हो सकी थी। डॉ. स्मिथ का कहना है कि लिच्छवि वंश के शासक पाटलिपुत्र में कुषाणों के सामंत के रूप में राज्य करते थे। चंद्रगुप्त ने उनसे वैवाहिक संबंध बनाकर अपनी पत्नी के संबंधियों का यह अधिकार प्राप्त कर लिया था तथा इसी के परिणामस्वरूप वह पाटलिपुत्र का शासक भी बना। डॉ. अल्तेकर के मतानुसार इस विवाह के कारण लिच्छवि और गुप्त राज्य संयुक्त हो गए तथा इससे लिच्छवियों को भी गुप्तों के समान प्रतिष्ठा मिली तथा उनकी राजकुमारी कुमारदेवी केवल चंद्रगुप्त की महारानी होने के कारण नहीं, वरन् राज्याधिकारिणी शासिका होने के कारण 'महादेवी' तक कहलाई, किंतु कुछ इतिहासकार इससे असहमत हैं। डॉ. श्रीराम गोयल का मत है कि कुमारदेवी लिच्छवि राज्य की उत्तराधिकारिणी नहीं थीं, अतः उसे संयुक्त राज्य की सहशासिका भी नहीं कहा जा सकता । लिच्छवि राज्य का विधिसम्मत् उत्तराधिकारी तो उसका पुत्र समुद्रगुप्त ही था, परंतु यह भी माना जा सकता है कि कुमारदेवी के पिता, जो घटोत्कच के समकालीन थे, की मृत्यु 319 ई. के आसपास ही हुई होगी। उस समय समुद्रगुप्त के अल्पायु होने के कारण लिच्छवि राज्य के शासक का दायित्वभार कानूनन नहीं तो कम-से-कम व्यावहारिक रूप में तो चंद्रगुप्त प्रथम ने ही सँभाला होगा।

विजय अभियान
चंद्रगुप्त प्रथम के विजय - अभियानों अथवा राज्य - विस्तार के संबंध में कोई निश्चित प्रमाण तो उपलब्ध नहीं है, परंतु पौराणिक तथा अन्यान्य साक्ष्यों के आधार पर कुछ विद्वानों ने उसके राज्य की सीमाएँ निर्धारित करने का प्रयास किया है। विन्सेंट स्मिथ के अनुसार चंद्रगुप्त प्रथम के अधिकार में तिरहुत, दक्षिणी-बिहार, अवध तथा समीपवर्ती सभी पर्वतीय प्रदेश थे। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने अपनी पुस्तक 'क्लासिकल एज' में यह कहा है कि संभवतः उसके राज्य में सारा बिहार तथा उत्तर प्रदेश और बंगाल के कुछ भाग शामिल थे। वायु पुराण में कहा गया है कि 'गुप्त वंशज अनुगंगा प्रयाग (गंगा के किनारे- किनारे प्रयाग), साकेत और मगध को भोगेंगे।' एलन महोदय के अनुसार यह वर्णन चंद्रगुप्त प्रथम के राज्य का है। विद्वानों ने अनुगंगा का अर्थ- गंगा के किनारे का बंगाल तक का प्रदेश' लगाया है। यदि इस आधार पर पुराणों की उक्ति को सही मान लिया जाए तो चंद्रगुप्त प्रथम के राज्य में पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और संभवतः बंगाल का कुछ भाग तो सम्मिलित था ही। कुछ विद्वानों का कथन है कि वैशाली भी चंद्रगुप्त के अधिकार में थी, परंतु प्रमाणों के अभाव में इसको स्वीकार कर पाना कठिन है। वस्तुतः वैशाली पर अधिकार सर्वप्रथम चंद्रगुप्त द्वितीय ने किया था। प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के द्वारा पद्मावती, मथुरा, अहिच्छत्र तथा कान्यकुब्ज प्रदेश को विजित करने का उल्लेख है। इससे यह सिद्ध होता है कि उसका पैतृक राज्य पश्चिम में उत्तर प्रदेश के मध्य तक फैला हुआ था तथा पूर्व में उसका समीपस्थ पड़ोसी संभवतः चंद्रवर्मा था, जो पश्चिमी बंगाल से प्राप्त एक अभिलेख का चंद्रवर्मा भी हो सकता है। यदि यह बात सत्य है तो पश्चिमी बंगाल के किसी भी क्षेत्र के गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित होने की संभावना ही नहीं रह जाती। मगध के उत्तर में समुद्रगुप्त अपने किसी भी विजय अभियान का उल्लेख नहीं करता, किंतु नेपाल को वह अपने अंतर्गत राज्य कहता है। दक्षिण में उसका विजय अभियान आटविको और कोशल नरेश महेंद्र पर किए गए आक्रमण से प्रारंभ होता है। डॉ. श्रीराम गोयल का मत है कि उसके पैतृक राज्य में (अर्थात् चंद्रगुप्त के साम्राज्य में) स्थूलरूपेण संपूर्ण बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं कुछ निकटवर्ती प्रदेश स्थूलतः प्राचीन मगध, वैशाली, वत्स और कोशल राज्य सम्मिलित रहे होंगे।

कुछ विद्वानों का मत है कि चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्यभिषेक की तिथि से प्राचीन भारत के एक नये एवं महत्त्वपूर्ण संवत्, अर्थात् गुप्त संवत् का प्रारंभ किया। विभिन्न गणनाओं के आधार पर यह माना गया है कि गुप्त संवत् 319-20 ई. से प्रारंभ हुआ था, जो चंद्रगुप्त प्रथम की तिथि है। इस संवत् का सर्वप्रथम प्रयोग चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने मथुरा स्तंभ लेख में किया है, जिसमें इस संवत् की 61वीं तिथि दी गई हैं, परंतु गुप्त संवत् किसने प्रारंभ किया, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों का यह विचार है कि गुप्त संवत् का संस्थापक समुद्रगुप्त था, क्योंकि इस संवत् की सर्वप्रथम दो तिथियाँ (5 गुप्त संवत् और 1 गुप्त संवत्) समुद्रगुप्त के क्रमशः नालंदा और गया ताम्रपत्रों पर उल्लिखित है, परंतु इस मत को इसलिए स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि अधिकांश विद्वानों ने इस दोनों ताम्रपत्रों की प्रामाणिकता को संदिग्ध माना है। डॉ. श्रीराम गोयल के अनुसार गुप्त संवत् का प्रवर्तक चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) था।

यद्यपि निश्चित रूप से तो यह कह पाना कठिन है, परंतु उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर संभावना इसी बात की है कि गुप्त संवत् का प्रारंभ चंद्रगुप्त प्रथम के द्वारा अपने राज्यारोहण के समय किया गया होगा। इस संबंध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य अल्बरूनी का है, जिसने लिखा है कि गुप्त संवत् का प्रारंभ शक संवत् (78 ई.) के 241 वर्ष बाद हुआ। इस प्रकार अल्बरूनी के वर्णन के अनुसार गुप्त संवत् का प्रारंभ 319 ई. में हुआ, जो चंद्रगुप्त प्रथम की तिथि है। गुप्त संवत् का प्रवर्तक चंद्रगुप्त प्रथम को सिद्ध करने के संबंध में अन्य और भी साक्ष्य उपलब्ध है। जैन आचार्य जिनसेन के हरिवंश पुराण तथा एक अन्य जैन आचार्य वृषण के तिलोयपण्णसि नामक ग्रंथ से भी 319 ई. से ही गुप्तवंश के उदय की पुष्टि होती है और इसी से गुप्त संवत् की स्थापना हुई होगी। मोखी के ताम्रपत्र में सूर्यग्रहण के वर्णन के आधार पर ज्योतिष के विद्वानों ने गुप्त संवत् की स्थापना 319-320 ई. में मानी है। वराहमिहिर की गणना के अनुसार भी शक संवत् एवं गुप्त संवत् में 241 वर्षों का अंतर है, जिससे अल्बरूनी के कथन की पुष्टि होती है और सिद्ध होता है कि गुप्त संवत् का प्रारंभ 319-20 ई. में ही हुआ होगा। मालवा के मंदसौर अभिलेख से भी गुप्त संवत् का प्रारंभ 319-20 ई. ही प्रतीत होता है। आधुनिक विद्वानों में फ्लीट ने भी इस मत को स्वीकार किया है। राजा शशांक के गंजाम पत्रों की तिथि से भी गुप्त संवत् की तिथि 319-20 ई. ही सिद्ध होती है। यद्यपि डॉ. श्याम शास्त्री और गोविंद पाई गुप्त संवत् का प्रथम वर्ष क्रमशः 200- 201 ई. एवं 272-73 ई. माना है, परंतु राधाकुमुद मुखर्जी का विचार है कि चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्यारोहण का सूत्रपात एक संवत् के प्रवर्तन के द्वारा किया, जिसका प्रथम वर्ष 319-20 ई. था। डॉ. आर.जी. भंडारकर ने भी स्पष्ट रूप से लिखा है कि अल्बरूनी द्वारा दी गई गुप्त संवत् की प्रथम तिथि के पक्ष में प्रमाण एकदम अकाट्य है।

उपर्युक्त समस्त मतों के आधार पर संभावना इसी बात की है कि गुप्त संवत् का प्रारंभ चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्याभिषेक (319-20 ई.) से ही किया था। हरिषेण की प्रयाग प्रशस्ति से पता चलता है कि चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने जीवन के अंतिम काल में अपने योग्यतम पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। इस प्रशस्ति में एक सभा के अधिवेशन का दृश्य प्रस्तुत किया गया है, जिसमें राजा, सभासद, समुद्रगुप्त तथा अन्य राजकुमार उपस्थित थे। प्रयाग प्रशस्ति में कहा गया है कि चंद्रगुप्त ने, जिसके रोम प्रसन्नता से खड़े हुए थे तथा नेत्रों में हर्ष के आँसू थे, 'तुम सर्वश्रेष्ठ हो', कहकर उसे गले से लगा लिया तथा उससे संपूर्ण पृथ्वी का पालन करने को कहा। इस कथा की पृष्टि एरण अभिलेख से भी होती है। इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन से पता चलता है कि चंद्रगुप्त प्रथम ही गुप्तवंश का प्रथम शक्तिशाली एवं प्रतापी सम्राट् था। उसने ही गुप्तों की राजनीतिक प्रतिष्ठा की स्थापना का सूत्रपात किया, जिससे कालांतर में समुद्रगुप्त एवं चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में यह वंश इतना अधिक शक्तिशाली बन सका ।

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