चकल्स Ravindra Kant Tyagi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चकल्स

----------- चकल्लस ----------
“अरे नामाकूलो, मेरा चश्मा कहाँ मर गया” मां जी पूरी ताकत से चिल्लाईं।
“फिर ये शैतान की औलाद मेरा चश्मा उठाकर ले गए। मेरा तो इस घर में जीना मुहाल हो गया है। पता नहीं क्या खाकर पैदा किया है इन चुड़ैलों ने औलादों को। सारे दिन मेरे ही सामानों के पीछे पड़े रहते हैं। कभी कोई मेरा चश्मा उठाकर ले जाएगा तो कभी मेरी एक चप्पल कानपुर में मिलेगी तो दूसरी बरेली में। इस छोटे की औलाद तो इतनी अफलातून है कि शैतान भी शरमा जाय। लाख खिलौने बाप ने लाकर रख रखे हैं मगर इन्हे तो चाहिए बस मेरी छड़ी, मेरी चप्पलें और मेरा चश्मा। अरे एक दिन तो हद हो गई। बरसात होकर थम गई थी। बच्चे बाहर रेत में मिट्टी के घरौंदे बना रहे थे। देखूँ तो डिब्बी में से मेरे दाँत गायब हैं। छड़ी उठाकर बाहर गई तो देखा कि इन शैतानों की औलादों ने एक मिट्टी का पुतला बना रखा है और उसके मुंह में मेरे दांतों का सैट लगा रखा है।
मैंने भी कह दिया ‘अपनी मां चुड़ैलों की मूर्ती बना रहे हो क्या नालायको। नामुराद मुझे देखते ही दाँत वहीं छोड़कर रफूचक्कर हो गए। बड़ी मुश्किल से दांतों को पहले दो बार साबुन से धोया। फिर गंगाजल में डुबोकर रखा। अब बुढ़ापे में इतना भी कहाँ होता है। हाथ पाँव तो पहले ही काँपते हैं। ऊपर से इस गठिया की बीमारी ने जकड़ रखा है। फिर दुनिया के सब से शरारती बच्चों से सारे दिन की चिल्ल पों। अब देखो न। मेरे दोनों बेटे इतनी मेहनत करके अच्छी भली कमाई करते हैं। घर में फल चौकलेट और मिठाइयों से फ्रिज भरे पड़े रहते हैं मगर इन बंदर के बच्चों को देखो। स्टूल लगाकर मेरी आलमारी खोल लेंगे। पता चला कि मेरे बिस्किट चट्ट। खुद नहीं खाएँगे तो मुहल्ले के बच्चों को बाँट आएंगे। दो मिनट बारामदे में जा बैठूँ तो धमाचौकड़ी मचाने को इन्हे मेरा ही बिस्तर मिलता है। सुबह ही छोटी बहू से झाड़कर बिस्तर ठीक कराया था मगर नालयकों ने उसे खेल का मैदान बना दिया है।”
मांजी के कमरे से सारे दिन ऐसी आवाजें आती रहतीं। जब उनके स्वर में वास्तविक क्रोध सुनाई देता तो दोनों में से कोई एक बहू उनकी शिकायत सुनकर और माँजी की अनवरत झिड़कियाँ सुनते हुए व्यवस्था ठीक करके चली जाती।
शाम को जब बेटे काम से लौटते तो एक बार माँ के कमरे में जरूर जाते। माँजी का शिकायतों से भरा टेप फिर शुरू हो जाता। “बहुओं को शऊर नहीं है। बच्चे बिगड़ते जा रहे हैं। मेरी आलमारी खोलकर मेरे सारे बिस्किट चट कर जाते हैं या मुहल्ले के बच्चों में बाँट देते हैं। मेरा पानी का ग्लास झूँठा कर देते हैं।”
“अरे मां, क्यूँ चिंता करती हो। मैं लाया हूँ न आप के पसंद के बिस्किट।”
“अरे बुद्धू, यही तो मैं कह रही हूँ। ऐसे क्या घर चलते हैं। घर में रखी चीज तो मुहल्ले भर के बच्चों में बांटते फिरो और खरीद खरीद कर खर्चा करते रहो। तुम समझाते क्यूँ नहीं इन ...।”
दुनिया की हर बात खत्म हो सकती है किन्तु माँजी के ताने उलाहनों और शिकायतों का पिटारा नहीं।
गर्मियों के छुट्टियों के दिन थे। छोटी बहू के भैया माइके में छुट्टियाँ गुजरने के लिए बच्चों को लेने आ गए। तय हुआ कि चारों बच्चे छोटी बहू के साथ छुट्टी एंजोया करने चले जाएंगे और बड़ी बहू माँजी और घर की देखभाल करने के लिए यहीं रहेगी।
सोमवार का दिन था। दोनों बेटे अपने अपने काम पर चले गए थे और बहू रसोई के काम निपटाने में लगी थी। तभी माँजी के कमरे से आवाज आई “अरे नालयको, मेरा चशमा कहाँ है।”
बहू पल्लू से हाथ पौंछती हुई भागी चली आई।
“अरे बहू। देखना मेरा चशमा कहाँ गया। ये नालायक तो ...।”
“माँजी, चश्मा तो वहीं सामने मेज पर पड़ा है और बच्चे तो मामा के यहाँ गए हैं।”
“पता है। दिख रहा है। इतनी भी आँख नहीं फूट गई हैं मेरी। अच्छा है शरारती कुछ दिन मामा के यहाँ रहें। घर में शांति तो है। पूरे दिन धमाचौकड़ी मचाए रहते हैं।”
कुछ देर बीती थी कि माँजी के कमरे से दोबारा आवाज आई “अरे मेरे छड़ी कहाँ मर गई। अरे बहू, बहरी हो गई हैं क्या। मैं कितनी देर से गला फाड़ रही हूँ।”
“आई माँजी। आप की छड़ी तो वहीं दरवाजे के पीछे खड़ी है जहां आप रखती हैं। ठहरिए मैं देती हूँ।”
“अरे रहने दे। इतने भी हाथ पाँव नहीं टूट गए हैं मेरे। जरा सी आवाज मुंह से निकालो तो छाती पर आ खड़ी होती है। और देख ये खाने का सामान। अलमारी बिस्कुटों से भारी पड़ी है। भला सीलकर खराब नहीं हो जाएंगे। घर चलाने का शऊर तो है नहीं किसी को यहाँ। एक चीज मंगाओ, दस लाकर रख देंगे।”
थोड़ी ही देर में माँजी के कमरे से फिर आवाज आई “अरे बहू, जरा रेडियो ही चला दे। पता नहीं सारे दिन रसोई में घुसी क्या करती रहती है। इतना नहीं कि दो मिनट मेरे पास भी बैठ जाए। ये सन्नाटा तो मुझे खाये चला जाता है। सारा घर साँय साँय कर रहा है।”
शाम को बेटे घर लौटे तो माँजी का पारा सातवें आसमान पर था। दोनों को तुरंत हाजिर होने का आदेश दिया गया। माँजी के चेहरे पर क्रोध की रेखाएँ देखकर दोनों अपराधी की तरह चुपचाप बैठ गए।
“क्यों रे, तुम दोनों के दिल में माया ममता बिलकुल मर गई है क्या। बालक आठ दिन से दूसरे की देहरी पर पड़े हैं। तुम्हारे घर में रोटियों के लाले पड़े हैं क्या।” उन्होने रोष के साथ कहा।
“अरे माँजी, कुछ दिन और रहने दो शरारतियों को वही। आप को तो पूरे दिन परेशान करते हैं न।” छोटे ने शरारत से मुसकराकर कहा।
“अरे मुझे करते हैं न परेशान। उस से तुझे क्या। तड़के ही चला जा और बालकों को लिवा ला।”
दोनों बेटे मुस्कराते हुए अपने कमरों में चले गए।
रवीन्द्र कान्त त्यागी