आ गले लग जा Ravindra Kant Tyagi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आ गले लग जा

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“सुनो माला, यार कल तुमने खाने में मिर्ची बहुत डाल रखी थीं। मिर्ची ज्यादा हो तो सुबह को टॉयलेट में भी झेलना पड़ता है ना।” सुदर्शन ने हँसते हुए शेव बनाने के बाद चेहरे पर लगे साबुन के झाग पौंछते हुए कहा।
“आज कम डाल दूँगी।” किचन में सुदर्शन का लंच बॉक्स तैयार करती हुई पत्नी माला ने ठंडा सा उत्तर दिया।
“आज क्या बना रही हो लंच में। वैसे भी तुम्हारे हाथ का बना खाना तो मुझ से ज्यादा मेरे दोस्त खा जाते हैं ऑफिस में।” सुदर्शन ने रसोई में बीवी से सटते हुए स्नेह से कहा।
“हटो जी। काम करने दो। गरम घी का छींटा पड़ जाएगा। तुम्हें तो इस उम्र में भी...” और वो तेजी से भिंडी की कढ़ाही में कड़छी चलाने लगी।
“इतना घी। ये मेरी तोंध देख रही हो। इसकी गुनहगार तुम ही हो। सुनो, बिटिया का फोन आया था क्या पुणे से। सब ठीक है न।”
“जी हाँ। वहाँ सब ठीक है। कुछ पैसे भिजवाने के लिए कह रही थी। कोई टूअर जा रहा है। ऊटी या जाने कहाँ। उसी की फीस जमा करानी है कॉलेज में।”
“तुम कुछ परेशान सी लग रही हो माला। कई दिनों से देख रहा हूँ। कुछ उदास सी रहती हो। तबियत तो ठीक है। अरे बात क्या है जानू। मुझे भी नहीं बताओगी क्या।” सुदर्शन ने उसी जौली मूड से कहा।
“नहीं जी। ऐसा तो कुछ नहीं है। वहम है आप का। सब ... सब ठीक है। और हाँ, शाम को लौटते हुए चाय की पत्ती और हैण्ड्वॉश लाना मत भूलना। कई दिन से कह रही हूँ।”
शाम को सुदर्शन ने फ्लैट की बैल बजाई तो माला ने झुकी नजरों से दरवाजा खोला। सुदर्शन के हाथ से बैग और सामान का थैला लिया और चुपचाप चाय बनाने चली गई।
शाम की चाय माला और सुदर्शन ड्राइंग रूम में बैठकर एक साथ पिया करते थे। सुदर्शन इस बीच अपने ऑफिस के सारे दिन के अनुभव और किस्से माला को सुनाता और माला, कामवाली बाई के सूचना केन्द्र से मिलीं पड़ौस की चटपटी मसालेदार खबरें। उनकी शादी को पच्चीस साल गुजर गए थे फिर भी गृहस्थी की छोटी मोटी नोकझोंक के अलावा दोनों एक दूसरे से बेहद प्यार करते थे। इन दोनों की जोड़ी को भगवान के द्वारा बनाई एक सफल जोड़ी कह सकते थे। मगर न जाने क्यूँ आज एक चुप सा आकर दोनों के बीच बैठ गया था।
“क्या बात है माला। कुछ तो परेशानी है तुम्हें। इस चेहरे को देखते देखते पच्चीस साल गुजर गए हैं यार। इसकी एक एक शिकन से मेरी दोस्ती है। तुम कितना भी छुपाओ हाले दिल मगर, आँखों की उदासी बयां कर देगी। तुम तो बहुत उदास दिखाई दे रही हो। किसी पड़ौसन या रिश्तेदार से कुछ बातहुई क्या। मुझे भी नहीं बताओगी।” सहानुभूति के दो शब्द सुनकर माला की आँखों में एक जल दर्पण सा तैर गया मगर वो अपने चेहरे के भाव छिपाने के लिए तेजी से उठकर किचिन की ओर चली गई।
बचपन में ही एक दुर्घटना में माता पिता के वात्सल्य से विहीन मामा के यहाँ पले बढ़े सुदर्शन त्रिपाठी के रूखे से जीवन में माला के आते ही मानो मुहब्बत का सैलाब आ गया था। वो अपनी समर्पिता बीवी को बेहद प्यार करते थे। माला ने भी अपनी शिक्षा, संस्कार और सारी नैसर्गिक विधाएँ अपनी छोटी सी गृहस्थी को समर्पित कर दी थीं। कहते हैं कि गृहलक्ष्मी जिस घर को अपना मंदिर समझती है उस घर का कोना कोना खुशियों से भरा रहता है। मगर आज एक अदृश्य सी शंका की दरार सुदर्शन का मन व्यथित किए डाल रही थी।
रात के दो बजे थे मगर सुदर्शन की आँखों में नींद का नाम नहीं था। नाइट लैंप की मद्धिम रोशनी में गहरी नींद में सो रही अंकशायनी माला के इस उम्र में भी खूबसूरत चेहरे पर एक निष्पाप मासूमियत के बीच चिंता और तनाव के भाव परिलक्षित होकर सुदर्शन के दिल में एक शूल की तरह चुभ रहे थे। आखिर वो क्या कारण हो सकता है जो माला इतनी उदास और चिंतित दिखाई दे रही है। क्या उसे कोई असाध्य रोग हो गया है जिसे वह छिपाना चाहती है या उसके जीवन में अतीत ... ओह। कहीं ऐसा तो नहीं कि जिंदगी की किताब के बरसों पहले पलट चुके अतीत के कुछ पन्ने खुलकर सामने आ गए हों।
अचानक उसके दिमाग में एक विचार कौंध गया। इस मोबाइल नाम की जादू की पुड़िया में आजकल बहुत कुछ छिपा होता है। हो सकता है कहीं न कहीं, किसी न किसी को तो उसने अपनी परेशानी बताई हो। क्या पता उसकी उदासी का रहस्य मोबाइल से ही खुल जाये।
नैतिक मूल्यों का पालन करते हुए वो कभी अपनी बीवी का मोबाइल नहीं छेड़ते थे मगर उसे माला के दिल में धँसे हुए दंश को निकालने की उत्कंठा इतनी थी कि सुदर्शन ने दबे पाँव उठकर मला का मोबाइल खोल लिया।
वाटसप .... गुड मॉर्निंग और फूलों के गुलदस्तों के अनावश्यक मैसेज। फिर ... पुणे में पढ़ रही बेटी के साथ चैट। अमेरिका में रहने वाले भाई के साथ वीडियो कॉलिंग। कुछ खास तो मिला नहीं। फिर मैसेंजर और टैक्स्ट मैसेज यहाँ तक कि फेसबुक भी छान मारा। फोन रखने ही वाले थे कि सोचा चलो स्क्रीन पर पड़े ढेर सारे एप भी चैक कर लेते हैं।
गहरी निगाह डालने के बाद एक अनजाना सा मैसेज एप दिखाई दिया ‘हैंग आउट’। अरे ये क्या बाला है। इसमें तो कई मैसेज भरे पड़े हैं।
“कब मिलोगी” -वीआरएस-
कब मिलोगी? वीआरएस। मतलब। ये क्या संदेश हुआ भला।
“वो बाहों में बाहें डालकर बागों में घूमना। क्लास बंक करके सीनेमा देखना। लच्छू के गोलगप्पे खाने के वक्त तुम्हारी बड़ी बड़ी आँखों में तैर जाने वाली लालिमा।” -वीआरएस-
“किताबों में मिलने वाले तुम्हारे शायरी भरे प्रेम पत्र जिनमें तुम्हारी खुशबू और सूखी हुई गुलाब की पंखुड़ियाँ।” -वीआरएस-
“मुझे ब्लॉक मत करना अन्यथा ये दुखी उदास अकेली भटकती आत्मा तुम्हें कहीं न कहीं ढूंढ ही लेगी।” -वीआरएस-
“अनायास ही बाहों में लेकर जब मैंने तुम्हें चूम लिया था तो तुम्हारा चेहरा लज्जा से रक्तिम हो गया था। वैसा रोमांचक एहसास मुझे जिंदगी में दोबारा कभी नहीं हुआ। जब तुम स्वयं को मुझ से छुड़ाकर हया के मारे आँखें मिलाने का ताव भी नहीं ला पायीं थीं और शरमा कर घर भाग गई थीं तो मैं उस गुलाब की पंखुड़ी सी नाजुक भावना को दिल में सँजोये घंटों पार्क की उसी बैंच पर बैठा रहा।”- वीआरएस-
“एक युग बीत गया उन बातों को। अब मेरी नई जिंदगी है राज, जिसमें उस अतीत का कोई स्थान नहीं है। प्लीज, मेरी शांत और सुखी जिंदगी में दखल मत दो।”- माला-
“जिंदगी के तीसरे पहर में, एक बार, सिर्फ एक बार दोबारा उन पलों को जीना चाहता हूँ। बस तुम्हारा साथ चाहिए। एक बार चली आओ मेरी माला। सिर्फ एक बार।” -वीआरएस-
“वो कॉलेज की दुनिया थी राज। अब ... प्लीज अब ऐसा कुछ संभव नहीं है। मेरी गृहस्थी है। प्रेम करने वाले पति हैं और एक बेटी है हमारी।”-माला-
“एक आग है जो बुझती नहीं। एक प्यास है जो मिटती नहीं। शहर इतना बड़ा भी नहीं है कि तुम्हें ढूंढ न पाऊँ। एक बार ... बस एक बार चली आओ।” -वीआरएस-
ओह माय गॉड। तो ये कुछ अलग ही कहानी है। क्या इसी लिए मेरी माला इतनी परेशान है। मगर ... कौन है ये वीआरएस। माला का कोई पुराना आशिक। कॉलेज का कोई दोस्त। आखिर कौन है। और… ये साला तो सरेआम ब्लैकमेल सा कर रहा है।” सोचते हुए सुदर्शन माथे पर हाथ रखकर बैठ गए। फिर उन्होने कंप्यूटर से हैंगआउट पर मैसेज करने वाले वीआरएस का फोन नंबर हासिल किया और अपने फोन के ट्रयूकॉलर पर डालकर देखा तो एक नाम उभर आया। ‘वन राज शंडिल्य’।
वन राज ... वन राज शंडिल्य’। कुछ सुना हुआ सा नाम है। इस शहर में इस नाम के कई लोग तो होंगे नहीं। नाम ही ऐसा है। मगर ये नाम सुना हुआ सा क्यूँ लगा रहा है।
सुबह की चाय तक सुदर्शन इसी नाम के बारे में सोचते रहे। तभी अचानक उनकी आँखों के सामने अपने ऑफिस में लगभग एक साल साल पहले इंश्योरेंस क्लेम के लिए आई एक फाइल नाच गई। ये एक महिला शीला शंडिल्य के दुर्घटना में गुजर जाने के क्लेम की फाइल थी जो काफी जद्दोजहद के बाद पास हो पायी थी। उसी के पति का नाम था वनराज शंडिल्य।
सुदर्शन एक सुलझे हुए आदमी थे और अपनी पच्चीस साला सफल वैवाहिक जिंदगी में तनिक सी भी खरोंच आने देने को तैयार नहीं थे। ऊपर से प्यारी बीवी के चेहरे का तनाव उनके हृदय में शूल सा चुभ रहा था। उन्हे रह रहकर जिंदगी के गुजरे हुए लमहे याद आ रहे थे। जब उनकी नई नई नौकरी थी और वो एक सड़क दुर्घटना में घायल हो गए थे। तब माला सुदर्शन को बिना बताए चुप चाप अपना एक एक गहना, यहाँ तक कि अपना मंगलसूत्र भी बेचकर इलाज का खर्चा चुकाती रही। विक्षिप्तों की तरह हर समय हस्पताल के जनरल वार्ड की बेंच पर बैठी आँसू बहाती रहती।
अनेक चिकित्सीय प्रयासों के बाद और शादी के छह साल बाद जब बेटी निशा चार महीने के गर्भ में थी तो डॉक्टर ने गर्भ की स्थिति कुछ असामान्य दर्शाई थी। डॉक्टर ने बताया कि बच्चे के पूर्ण विकसित होकर डिलीवरी होने में, मां के जीवन को खतरा हो सकता है। इस लिए अभी अबौर्शन सरल समाधान हो सकता है। तब माला रात भर सुदर्शन से लिपटकर रोती रही। बार बार कहती कि मेरा जीवन रहे या न रहे, तुम्हारे वंश को इस दुनिया में आने से नियति भी नहीं रोक सकती और उसने असहनीय दर्द और मृत्यु का भय झेलकर भी बालिका को जन्म दिया था। पच्चीस साल से जो औरत मेरी अंकशाइनी है। अगर मैं बिस्तर पर तनिक सी भी असहज करवट बदलूँ तो पूछती है कि तुम ठीक तो हो। कुछ चाहिए क्या। वो पकाती है जो मुझे पसंद है और खुद भी वही खाती है। मेरा चेहरा देखकर मेरी जरूरतें पढ़ लेती है। मुझे अपटुडेट और स्मार्ट रखने के लिए मेरे कपड़ों का चयन करती है। मेरी उदासी में उसकी उदासी और मेरी खुशी में उसकी खुशी दिखाई देती है। वैवाहिक जीवन का इतना लंबा समय गुजर जाने के बाद क्या मेरा दायित्व नहीं है कि उसके जीवन पथ में आए हर कंटकगाछ को उखाड़ फेंकूँ। उसके प्रेम और समर्पण के आगे उसका कोई भी कैसा भी अतीत का दाग धूमिल कर दूँ।
इंटरनैट से आए कमेन्ट या बरसों पुरानी माला के कॉलेज के समय की किसी घटना के कारण इस घर में बरसों से फैली माला के प्रेम की सुगंधी को तनिक सा भी प्रदूषित नहीं होने दूँगा।
किन्तु ऐसी समर्पिता प्रेम पुजारिन के माथे पर शिकन भी तो नहीं देख सकता। उसके उन्नत भाल पर कोई आत्महीनता या हृदय में कोई अपराधबोध भी तो नहीं देख सकता। इस संदर्भ का पटाक्षेप करने में यदि कुछ भी ऐसा हुआ, जिस से मेरी माला को तनिक सा भी आघात लगे या आत्मग्लानि हो मुझे कतई स्वीकार नहीं है। अगर इस शिल्प को अनाड़ी हाथों से सँवारने का प्रयत्न किया तो बनी बनाई तस्वीर खंडित भी हो सकती है। कारीगर की छेनी के एक गलत वार से गढ़ा गढ़ाया प्रस्तर शिल्प तनिक भी चटख जाए तो उस क्षति की पूर्ति असंभव होती है। एक गलत कदम हमारे पच्चीस साल के बंधन की गांठें ढीली कर सकता है। किन्तु ... कुछ तो करना होगा। कुछ ऐसा, जो मक्खन से बाल निकालने जैसा सरल और दंशहीन हो। जो उसके चेहरे की हर शिकन को स्लेट पर लिखी इबारत की तरह पौंछ कर मिटा दे। मगर ... करूँ तो क्या करूँ।”
पूरे दिन सुदर्शन के मस्तिष्क में मंथन चलता रहा। आज ऑफिस की फाइलों में भी मन नहीं लग रहा था। बार बार माला का उदास और चिंतित चेहरा सामने आ जाता। कॉलेज में उसका किसी लड़के से अफेयर था भी तो इस में कौन से अजीब बात हो गई। उस उम्र में हर लड़के और लड़की का विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण होता ही है। तो क्या इसके लिए एक नारी से जीवन भर मिले अतुल्य प्रेम को भूल जाऊं। अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लूँ।
शाम को ऑफिस बंद होने से पहले अनमने से मन से वनराज शंडिल्य की फाइल निकलवाई और पन्ने पलटने लगे।
इस फाइल में पत्नी की मौत के कुछ दिन बाद मिस्टर शंडिल्य की अत्महत्या के प्रयास की एक पुलिस रिपोर्ट भी लगी हुई थी जिसके आधार पर डिपार्टमेन्ट ने इसे अवसाद में पत्नी की साजिशन हत्या और उसके बाद अत्महत्या का केस बनाने का प्रयास किया था जिस के कारण ही ये केस उलझ गया था और क्लेम मिलने में देरी हुई थी। यहाँ तक कि अपनी बात साबित करने के लिए विभाग ने मिस्टर शंडिल्य की गमगीन शायरी को भी प्रमाण बनाने का प्रयास किया था और उसके प्रमाणस्वरूप उनके हाथ के लिखे कई पन्ने लगा रखे थे।
“दिल में चुभे तेरी जुदाई के शूल ने, आँखों को खारे पानी का समंदर बना दिया है। कि दूर धुंध में डूबे जज़ीरे पर खड़ी मुझे पुकार रही है तू, और घाटियों में प्रतिध्वनित हो रही है तेरी आवाज़। चली आओ, चली आओ, जहां हो चली आओ।”
कुछ भी हो, आदमी तो दिलचस्प है। एक साल पहले किसी सामान्य क्लाइंट की तरह देखा होगा तो शक्ल याद नहीं।
मगर ... मगर जब वो अपनी पत्नी को इतना प्रेम करता था तो अपने चौथाई शताब्दि पुराने प्रेम से क्या चाहता है। सदी का एक हिस्सा गुजर गया और आज अचानक उसे याद आई है अपने कॉलेज के जामने की प्रेम कहानी। मानव मस्तिष्क का भी कोई ओर छोर नहीं।
शाम के छह बजे थे। सुदर्शन के स्टाफ के अधिकतर लोग अपने घर जा चुके थे मगर सुदर्शन कुछ सोचते से मिस्टर शंडिल्य की फाइल के पन्ने पलट रहे थे।
अचानक उन्होने कुछ सोचते हुए मिस्टर शंडिल्य का नंबर डायल कर दिया।
“हॅलो” उधर से नशे में डूबी सी आवाज आई।
“कैन आई स्पीक टु मिस्टर वी आर शंडिल्य”।
“स्पीकिंग” रूखी सी घरघराती आवाज़।
“एक्चुयली मिस्टर शंडिल्य, मैं आप की इंश्योरेंस कंपनी से सुदर्शन बात कर रहा हूँ। कंपनी के औडिट में पिछले साल फाइनल हुई आप की क्लेम फाइल में कुछ सिग्नेचर रह गए हैं। सो...।”
“ये आप का हैडेक है। पहले ही आप ने ऑफिस के चक्कर लगवा लगवाकर मेरे पसीने छुड़ा दिये थे। अब मैं आप के ऑफिस की सीडियों पर कदम भी... ।”
“ओ नो मिस्टर शंडिल्य। आप की फाइल मेरे सामने खुली पड़ी है। आप तो इंदौर के रहने वाले हैं। इत्तेफाक से मेरा भी मूल निवास इंदौर ही है। बाय द वे कौन से कॉलेज से आप ने ...।” उन्होने बातचीत का वातावरण हल्का करने के लिए कहा।
“इट इस नन ऑफ यौर बीजिनस। आय हेट यौर कंपनी।” और फोन कट गया।
सुदर्शन जी ने निराश होकर फाइल बंद की और ऑफिस की लिफ्ट की ओर बढ़ गए। बड़ा खडूस आदमी है। बात ही करने को तैयार नहीं।
सुदर्शन जी की कार धीरे धीरे अपने घर की ओर बढ़ रही थी कि फोन की घंटी बजी।
“आय एम सौरी मिस्टर ... आ क्या नाम बताया था आप ने। मुझे आप से इस तरह से बात नहीं करनी चाहिए थी। आय एम रीयली सौरी। मैं तो नाइनटी टू में देवी अहिल्या बाई यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। और आप?” उधर से मिस्टर शंडिल्य की आवाज सुदर्शन की कार के ब्लूटूथ में गूँजती सी आ रही थी।
“अरे शंडिल्य साहब। आप से बात करके तो अपने शहर की गलियां, बाजार, पोहा, नमकीन और कॉलेज लाइफ सब की यादें ताजा हो गई थीं। जब घर से इतनी दूर कोई अपने शहर का मिलता है तो बड़ा अपनत्व का सा अहसास होता है।”
“वो तो है ही। तो फिर आइये न किसी दिन। एक कप कॉफी पर पुरानी यादें ताजा करते हैं। और हाँ। वो फाइल भी लेते आयेगा जिस पर मुझे साइन करने हैं। क्या उस में कोई इश्यू है।”
“श्योर श्योर शंडिल्य साहब। जी नहीं। फाइल में कुछ खास नहीं है। बस कुछ फोर्मेलिटीज़। दो मिनट का काम है। वीकएण्ड पर आप को फोन करके आप के दर्शन करता हूँ। बड़ा अच्छा लगा अप से बात करके।”
दोस्ती ने जड़ें जमा लीं थीं। मात्र दस दिन के बाद मिस्टर शंडिल्य सुदर्शन जी के घर डिनर पर आमंत्रित थे। मला को सिर्फ इतना पता था कि सुदर्शन जी के कोई बालसखा खाने पर आ रहे हैं। वे तल्लीनता के साथ रसोई में लगी हुई थीं।
नवंबर का महीना था। दिन भर बादल घिरे रहे। शाम के समय हल्की बूँदाबाँदी होने लगी। ठंड बढ़ गई थी। सूरज अस्थाचल को चला गया था और अंधेरे ने पाँव पसार लिए थे। किन्तु सुदर्शन के घर पर चहल पहल थी। एक ओर खाने पर आने वाले मेहमान के स्वागत की तैयारी चल रही थी तो इत्तेफाक से सुदर्शन की बिटिया को बारह बजे की फ्लाइट पकड़नी थी।
लगभग साढ़े सात बजे एक कार सुदर्शन जी के घर के सामने आकर रुकी। मिस्टर शंडिल्य लंबा ओवर कोट पहने हुए, आँखों पर मोटे फ्रेम का काला चश्मा और सर पर फ़ैल्ट कैप लगाए हुए गाड़ी से उतरे। एक वर्ष में उनके व्यक्तित्व में बड़ा परिवर्तन आ गया था। खिचड़ी दाढ़ी और माथे पर तनाव की गहरी सी खाइयाँ। सुदर्शन जी ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया और ड्राइंग रूम के सोफ़े तक ले गए। सांडिल्य से जेब से रुमाल निकालकर चश्मे के ऊपर जमी हुई पानी की बूंदें साफ कीं और लंबी सांस लेकर कमरे का निरीक्षण करने लगे। घर में चारों तरफ सुगढ़ गृहणी के सुरुचिपूर्ण कलात्मकता की सुगंधि फैली थी।
तभी घर के भीतर से एक लड़की के गुस्से से ज़ोर से बोलने की आवाज आई “पापा, आप ने फिर मेरे फोन का चार्जर लिया। सारा घर छान मारा कहीं नहीं मिल रहा है।”
“अरे यहीं कहीं होगा बिट्टो। जरा ठीक से देखो।”
“सब जगह ढूंढ लिया। पापा आप का चार्जर है तो ... ओफ़्फ़ सौरी अंकल। आ आ नमस्ते अंकल। मुझे पता नाही था आप बैठे हैं। सौरी। फिर अपने पापा के कंधों पर हाथ रखकर बोली “पापा आप मेरा चार्जर कहीं ऑफिस तो नहीं ले गए थे। पापा नया फोन क्यूँ नहीं लेते जो जल्दी जल्दी डिस्चार्ज न हो।” लाड़ली बेटी ने वात्सल्यपूर्ण रोष के साथ कहा।
“अरे हाँ। याद आया। मेरे लैपटॉप बैग में है। शरारती लड़की।”
पिता पुत्री का संवाद चल रहा था मगर मिस्टर शंडिल्य एक टक लड़की की तरफ देख रहे थे।
“आ आ ये मेरी एकमात्र बेटी है मिस्टर सांडिल्य। बड़ी लाड़ली है हम दोनों की।”
“हाँ मगर ... ये कैसे हो सकता है।” सांडिल्य ने अनमने से ढंग से कहा।
“क्या नहीं हो सकता? कहाँ खो गए वन राज जी।”
“नहीं नहीं। कुछ नहीं। बिटिया की शक्ल न जाने क्यूँ मुझे पहले देखी सी लगती है। न जाने क्यूँ ... हूबहू ...।”
“कभी कभी ऐसे इत्तेफाक होते हैं।” सुदर्शन ने हँसते हुए कहा।
“मम्मी, मेरा खाना रख दिया न। इस फ्लाइट में फूड फ़ैसिलिटी नहीं है।” कहते हुए लड़की किचन की ओर बढ़ गई।
“जब तक निकलेगी, पूरा घर सर पर उठाकर रखेगी। हंगामा कहीं की।” कहते हुए माला ने प्रवेश किया। गौरवर्ण परिपक्व से चेहरे पर व्यस्तता का सा तनाव और एक गरिमापूर्ण गृहणी की गौरवमायी आभा। बेतरतीबी से पीछे बंधे हुए अधपके बाल। मेकअप के नाम पर माथे पर चौड़ी बिंदी। बस।
“जी नमस्ते। आप लोग पहले चाय कॉफी वगहरा कुछ लेंगे या सीधे डिनर लगा दूँ।”
मला ने प्रवेश करते ही अपने पति के मित्र के अजीब से व्यक्तित्व को देखकर सहमा सा सवाल किया। अधपकी हल्की सी दाढ़ी। सर पर नीचे तक झुकी हुई कैप और रात में भी कला चश्मा। दोस्त हैं या कोई डिटेक्टिव। बड़े रहस्यमई से इंसान हैं।
“अरे आओ माला। थोड़ी देर बैठो न हमारे साथ। मैं अपने दोस्त से तुम्हारा परिचय कराता हूँ।”
आगंतुक लगभग अभद्रता की सीमा तक लगातार माला को घूर रहा था।
माला तेजी से निकट रखे ड्रॉअर की तरफ घूमी और रैपर खोलकर एक टेबलेट पति को देते हुए बोली “आज फिर आप ब्लडप्रेशर की गोली खाना भूल गए न। आप को तो आज भी उंगली पकड़कर...।”
“अरे यार माला। पहले तुम मेरी बीवी थीं। अब माँ बन गई हो। बच्चे की तरह जो पाल रही हो मुझे।” उन्होने हँसते हुए कहा।
फिर आगंतुक वन राज शंडिल्य की ओर मुखातिब होकर बोले “शंडिल्य साहब, ये मेरी बीवी हैं, माला त्रिपाठी। और ये मेरे मित्र...।”
“जी मुझे बनराज कहते हैं और कॉलेज के जमाने में कुछ लोग मुझे बनमानुस कहकर चिढ़ाया करते थे। हा हा। और... और उन चिड़ाने वालों में तुम भी थीं माला पांडे... जो अब मिसेज़ माला त्रिपाठी बन गई हो।” शंडिल्य ने मुस्कराते हुए कहा।
माला जो पच्चीस साल पहले के कॉलेज के छात्र को उसके अजीब से बहरूप के कारण पहचान नहीं पा रही थीं विस्फरित नेत्रों से उस आवाज का पीछा करते हुए एक पल में बरसों पहले के कौलेज के प्रांगण में पहुँच गई। उसके चेहरे पर न जाने कितने भाव आए और चले गए।
“तुम... मेरा मतलब... आप मिस्टर बनराज।” उनके मुंह से इतना ही फूट पाया।
“हाँ, देखिये न मिसेज़ त्रिपाठी। कैसा अजीब संयोग है। मिले भी तो कहाँ मिले।”
तभी व्यस्तता सी प्रदर्शित करती उनकी बेटी ने प्रवेश किया।
“मैं निकल रही हूँ पापा। सौरी अंकल मेरी फ्लाइट छूट जाएगी। मुझे निकलना होगा।”
“अरे बिट्टो, अभी तो टाइम है। और तुम्हारा चार्जर मिल गया था न। टिकिट वगरह संभालकर रख लिए हैं। हर बार कुछ न कुछ भूल जाती हो।” कहते हुए सुदर्शन सोफ़े से उठ खड़े हुए। उन्होने जेब से कुछ नोट निकाले और दरवाजे तक बेटी के पीछे पीछे चले गए।
“ये रख ले बिट्टो। काम आएंगे।”
“क्या पापा। कल से तीन बार आप मुझे ऐसे ही बोलकर पैसे दे चुके हैं। भूल जाते हैं क्या। और एकाउंट में हैं तो पैसे।”
“रख ले बेटा शगुन होता है। तू घर में रहती है तो ये घर मानो चिड़ियों की चहक, कोयल की कुहूक और चाँद की धवल चाँदनी से भरा रहता है। अपना ध्यान रखना मेरी बच्ची।”
बिटिया तेजी से मुड़ी और पापा के सीने से लग गई। दोनों की आँखें नाम थीं। तभी माला भी उन से जा मिली। देर तक तीनों एक दूसरे से आलिंगन बद्ध रहे। फिर भीगे नेत्रों से उन्होने बेटी को विदाई दी।
वनराज गौर से देख रहे थे कि इन तीनों के बीच में तो एक तिल के बराबर भी स्पेस नहीं है। मैं कहाँ बीच में घुसा जा रहा था।
“क्या बिटिया लंबे समय तक के लिए बाहर जा रही है त्रिपाठी जी।”
“नहीं... बस एक आध महीने में आ जाएगी मगर... हम तीनों ही एक दूसरे के पूरक हैं इस दुनिया में वनराज जी। और कौन है इस जहां में हमारा। बिटिया जाती है तो घर एकदम सूना सूना हो जाता है।” उत्तर माला ने दिया।
“मिष्टर त्रिपाठी आ आ आ... आप अपने परिवार से पूर्ण रूप से संतुष्ट हैं। मेरा मतलब है कि वो गाना है न ‘कभी किसी को मुकम्मिल जहां...।”
“संतुष्ट नहीं, सम्पूर्ण संतुष्ट। बड़े सौभाग्य से माला जैसी बीवी मिलती है मिष्टर शंडिल्य और हम दोनों की जान हमारी बिट्टो। हसरतों की कोई सीमा तो नहीं होती मगर... मगर इस से ज्यादा और क्या चाहिए दुनिया में। मेरे इंतजार में द्वार की ओर निहारती हुई मेरी मला और वात्सल्य की प्रतिमूर्ती हमारी बिट्टो।”
“आय एम सौरी मिसेज त्रिपाठी। आय एम वैरी सौरी।”
“सौरी... सौरी फॉर व्हाट मिस्टर सांडिल्य?” सुदर्शन ने आश्चर्य से कहा।
“नहीं वो... कुछ नहीं। आ... इनके टेबल क्लौथ पर थोड़ी चाय छलक गई है।”
फिर उन्होने एक लंबी सांस ली और धीरे से कहा “बहुत देर हो गई है। मुझे समय का अंदाज ही नहीं रहा।”
“अभी तो आठ भी नहीं बजे वनराज जी। खाना जल्दी लगवा देता हूँ।”
“जी... मगर मुझे अब चलना होगा। अचानक कुछ काम याद आ गया है। सौरी अगेन मिष्टर सुदर्शन। आज डिनर साथ नहीं कर पाएंगे। फिर कभी सही।” और वनराज जी तेजी से बाहर निकल गए।
उनके जाते ही मला अपने पति से लिपट गई। दो आँसू उसकी आँखों से बहकर सुदर्शन के वस्त्रों में लीन हो गए थे।
रवीन्द्र कान्त त्यागी