Kalvachi-Pretni Rahashy - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

कलवाची--प्रेतनी रहस्य - (अन्तिम भाग)

सारन्ध जैसे ही राजमहल के द्वार पर पहुँचा तो उसकी दयनीय स्थिति को देखकर द्वारपाल शीघ्रता से गिरिराज के पास पहुँचा और उससे बोला....
"महाराज! राजमहल के मुख्य द्वार पर राजकुमार सारन्ध खड़े हैं",
"सारन्ध...मेरा पुत्र सारन्ध आ गया,ये अत्यधिक प्रसन्नता की बात है,मैं स्वयं ही उसे लेकर आऊँगा"
और ऐसा कहकर गिरिराज प्रसन्नतापूर्वक राजमहल के मुख्य द्वार पर भागा और अपने पुत्र सारन्ध को उसने हृदय से लगा लिया,उसकी दयनीय स्थिति को देखकर उससे बोला....
"उन पापियों ने कैसी दशा बना दी मेरे पुत्र की",
तब सारन्ध बोला....
"हाँ! पिताश्री! उन्होंने मुझे अत्यधिक प्रताड़ित किया,मुझे भोजन नहीं दिया,मैं किस प्रकार उनकी पकड़ से निकल भागा,ये केवल मैं ही जानता हूँ,कितनी कठिनाइयों के साथ मैं वहाँ रहा,मैं हर दिवस वहाँ से भागने का प्रयास करता रहा किन्तु भागने में असमर्थ रहा",
"मेरे पुत्र! तुम्हें ज्ञात नहीं कि आज मैं कितना प्रसन्न हूँ,अन्ततोगत्वा तुम मेरे सामने हो,चलो तुम अपने कक्ष में चलकर स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहन लो,तब तक मैं तुम्हारे भोजन की व्यवस्था करता हूँ", गिरिराज बोला....
"नहीं! पिताश्री! मेरे पास विश्राम करने का समय नहीं है,आप शीघ्रता से सैनिकों के साथ उस स्थान पर मेरे साथ चलिए,ताकि हम उन्हें बंदी बना सकें,नहीं तो हम पुनः उन सभी को बंदी नहीं बना सकेगें",सारन्ध बोला....
"हाँ! यही उचित रहेगा",गिरिराज बोला...
और इसके पश्चात गिरिराज ने सेनापति बालभद्र को आदेश दिया कि शीघ्रता से सैनिकों को लेकर राजकुमार सारन्ध के साथ चलें,ताकि उन सभी शत्रुओं को बंदी बनाया जा सकें और बालभद्र गिरिराज के आदेश का पालन करते हुए शीघ्र ही सैंनिकों को और सारन्ध के साथ उस स्थान पर चल पड़ा,गिरिराज भी अपने रथ पर सवार होकर उन सभी के पीछे पीछे चल रहा था,कुछ समय पश्चात ही वे सभी वहाँ पहुँच गए,चूँकि वे सभी गहरी निन्द्रा में लीन थे इसलिए सैनिकों और अश्वों का स्वर सुनकर शीघ्रता से जाग ना सके,जब तक उन्होंने वहाँ से भागने का प्रयास किया तो सैनिकों ने उन सभी को बंदी बनाकर वृक्षों से बाँध दिया,अग्निशलाकाओं के प्रकाश में जब त्रिलोचना ने अपने विश्वासघाती भाई सारन्ध को देखा तो क्रोध से बोल पड़ी....
"सारन्ध! तुमसे ऐसी आशा कदापि नहीं थी,तुमने वचन दिया था ना कि तुम महाराज कुशाग्रसेन को उनका राज्य वापस करवाने में हम सभी की सहायता करोगे,क्या वो आश्वासन झूठ था",
"ये कैसीं बात कर रही हो त्रिलोचना बहन! मैं पहले अपने पिता का पुत्र हूँ और तुम्हारा भाई बाद में,मैं भला अपने पिता के विरुद्ध कैसें जा सकता था और वो आश्वासन भी सब छल था,मुझे तो यहाँ भागना था इसलिए मैंने वो झूठा अभिनय किया था"सारन्ध बोला....
"सारन्ध! ये तुम्हें भाई क्यों कह रही है?",गिरिराज ने पूछा...
"क्योंकि! ये आपकी वही पुत्री है जिसे आप वन में छोड़ आए थे",सारन्ध बोला....
"तो क्या ये अब तक जीवित है",गिरिराज बोला....
"तुझ जैसे पापी ने इसे मारने का प्रयास तो किया था लेकिन ईश्वर ने इसे बचा लिया और अब ये मेरी शरण में है और कदाचित तुमने ध्यान नहीं दिया,तनिक उस वृक्ष पर अपनी दृष्टि डालो,वहाँ तुम्हारी पत्नी धंसिका भी बँधी है",कुशाग्रसेन के पिता प्रकाशसेन बोले...
इसके पश्चात गिरिराज ने उस वृक्ष की ओर ध्यान से देखा तो वहाँ सच में धंसिका बँधी थी,किन्तु उसे देखकर गिरिराज के मन में कोई करूणा ना जागी और वो प्रकाशसेन से बोला....
"मुझे ऐसी विश्वासघाती पत्नी और पुत्री की कोई आवश्यकता नहीं,इन्हें भी तुम लोगों के संग मृत्युदण्ड मिलेगा",
"तू कितना निर्दयी और निर्लज्ज है गिरिराज! इतने वर्षों के पश्चात तुझे तेरी पत्नी और पुत्री मिली है और तू इन्हें अपने हृदय से लगाने के बजाय इन्हें मृत्युदण्ड देने की बात कर रहा है",महाराज कुशाग्रसेन बोले....
"शत्रुओं से मित्रता ये बात मैं कभी भी सहन नहीं कर सकता",गिरिराज बोला....
और तब सेनापति बालभद्र गिरिराज से बोला....
"महाराज! सर्वप्रथम आप उस कालवाची को उस पिंजरें में डालिए,क्योंकि उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता",
और अब कालवाची मुस्कुराते हुए गिरिराज से बोली....
"महाराज!मुझे आपका हर दण्ड स्वीकार है"
ये बात गिरिराज को कुछ अटपटी सी लगी कि एक प्रेतनी स्वयं को उसके आधीन कर रही है,उसने कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी,किन्तु उस समय गिरिराज ने अत्यधिक सोच विचार करना उचित नहीं समझा और कालवाची को पिंजरें में डाल दिया,वातावरण में भय था कि अब गिरिराज क्या करने वाला है और तभी उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि कुशाग्रसेन को उसके सामने लाया जाएँ,सैनिकों ने उसके आदेश का पालन करते हुए कुशाग्रसेन को उसके समक्ष लाकर खड़ा कर दिया और तब गिरिराज बोला....
"सर्वप्रथम इसे ही समाप्त करता हूँ,इसके पश्चात इन सभी को तो मैं कैसा भी दण्ड दे सकता हूँ"
ऐसा कहकर गिरिराज ने अपनी खड़ग(तलवार) निकाली और जैसे ही उसने कुशाग्रसेन की ग्रीवा पर प्रहार करने का प्रयास किया तो तभी सारन्ध ने उसकी खड़ग पकड़ते हुए कहा...
"पिताश्री! यदि आपको आपत्ति ना हो तो ये कार्य मैं करना चाहूँगा",
"हाँ! पुत्र! भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती?है", गिरिराज बोला....
और जैसे ही सारन्ध ने खड़ग हाथ में पकड़ी तो उसने सर्वप्रथम कुशाग्रसेन के हाथ पैरों में बँधी रस्सियाँ काट दीं और उसने वो तलवार कुशाग्रसेन के हाथों में दे दी,तब गिरिराज ने सारन्ध से पूछा....
"पुत्र! ये तुमने क्या किया"?
"क्योंकि मैं सारन्ध नहीं कालवाची हूँ",
कालवाची ने सारन्ध के रुप को त्यागकर अपना रुप ग्रहण करते हुए कहा....
"इतना बड़ा छल किया तुम लोगों ने मेरे साथ,तो मेरा पुत्र कहाँ है?",गिरिराज ने पूछा....
"मैं यहाँ हूँ पिताश्री! मैं कालवाची नहीं सारन्ध हूँ" पिंजरे के भीतर से कालवाची बने सारन्ध ने कहा....
"पुत्र! तुमने भी मेरे साथ छल किया",गिरिराज ने पूछा....
"और जो आपने मेरी माता और बहन त्रिलोचना के साथ किया,वो क्या था",सारन्ध बोला....
अब कालवाची सारन्ध को उसका रुप दे चुकी थी और इधर कुशाग्रसेन ने बिलम्ब ना करते हुए सभी की रस्सियों को खड़ग से काटना प्रारम्भ कर दिया था और उधर कालवाची उड़ उड़कर सैनिकों को समाप्त करती जा रही थी,अब सभी के बंधन खुल चुके थे और सभी के हाथों में अस्त्र थे,उस स्थान पर अब घमासान युद्ध प्रारम्भ हो चुका था और तभी कालवाची ने सेनापति बालभद्र की हत्या करके उसका हृदय निकालकर ग्रहण कर लिया,उस बीभत्स दृश्य को देखकर सभी सैनिक भयभीत हो उठे और वहाँ से भागने का प्रयास करने लगे,क्यो उन्हें अपने प्राण प्यारे थे...
इसलिए कालवाची ने उन सैनिकों को भागने दिया,वो निर्दोष लोगों की हत्या नहीं करना चाहती थी,उसने अपना बीभत्स रुप इसलिए दिखाया था ताकि सभी सैनिक भयभीत होकर भाग जाएँ,जो सैनिक नहीं भागे तो उन्हें अचलराज,कुशाग्रसेन और व्योमकेश ने मृत्यु के घाट उतार दिया,कुछ समय के पश्चात वहाँ अब एक भी सैनिक कुशलतापूर्वक नहीं रह गया,कुछ भाग चुके थे और कुछ मूर्छित होकर धरती पर पड़े थे,अब केवल गिरिराज बचा था और उसकी स्थिति भी दयनीय थी,उसके हाथ में ना तो खड़ग थी और ना ही सिर पर मुकुट और तब राजा कुशाग्रसेन ने उसके हृदय पर खड़ग से प्रहार करने प्रयास किया तो तभी धंसिका जोर से चीखकर बोली.....
"नहीं! महाराज! ऐसा मत कीजिए! छोड़ दीजिए मेरे स्वामी को,मैं आपको वचन देती हूँ कि ये आपका राज्य आपको सौंप देगें,बस आप इनके प्राण मत लीजिए,मैं इनकी ओर से आपसे क्षमा माँगती हूँ,दया करें मुझ पर,आपका ये उपकार मैं जीवन भर नहीं भूलूँगीं",
जब धंसिका के मुँख से स्वर फूट पड़े तो सब आश्चर्यचकित हो उठे और तब कुशाग्रसेन की माँ मृगमालती बोली....
"देख! पापी! अपनी पत्नी को देख,तूने जीवनपर्यन्त इसके संग दुर्व्यवहार किया,तेरे व्यवहार के परिणामस्वरूप ही ये मूक और बधिर हो गई थी,किन्तु जब इसने तुझ पर संकट देखा तो ये तेरे शत्रु से तेरे प्राणों की भीख माँगने लगी और तू निष्ठुर कभी इसका प्रेम ना समझ पाया,कभी इसके हृदय में विराजमान अपार दया को ना समझ पाया,धिक्कार है तुझ पर",
इसके पश्चात धंसिका का प्रेम देखकर गिरिराज की आँखें द्रवित हो उठीं और वो धंसिका के चरणों पर गिरकर बोला....
"मुझे क्षमा कर दो धंसिका! मैं तुम्हारा अपराधी हूँ"
गिरिराज के क्षमा माँगते ही धंसिका की आँखों से झरझर आँसू बहने लगे और वो बोली....
"स्वामी! मैं आपसे कभी घृणा नहीं कर सकतीं,मैं तो केवल आप के आचरण से घृणा करती थी,मैं आपसे पहले भी प्रेम करती थी और अब भी करती हूँ और सदैव करती रहूँगी,बस आप महाराज कुशाग्रसेन से क्षमा माँगकर उनका राज्य उन्हें सौंप दीजिए और वत्सला से भी क्षमा माँगिए,क्योंकि जो आपने उसके संग किया था वो अत्यधिक क्रूरतापूर्ण था",
इसके पश्चात गिरिराज ने सबसे क्षमा माँगी और वत्सला के चरणों पर अपना मस्तक रखते हुए बोला....
"वत्सला! तुम मुझे जो भी दण्ड दोगी,वो मुझे स्वीकार होगा",
"मैं आपको क्या दण्ड दूँ!आपकी आँखों के अश्रुओं ने आपके सारे पाप धो दिए,अब मैं कालवाची के संग चामुण्डा पर्वत पर चली जाऊँगी और वहीं रहूँगीं",
"नहीं! तुम्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है,मैं तुम्हें तुम्हारा राज्य सौंपता हूँ और तुम्हारा विवाह भी कराऊँगा",गिरिराज बोला....
"पिताश्री! यदि आपको आपत्ति ना हो तो मैं वत्सला से विवाह करना चाहता हूँ",सारन्ध बोला....
"यदि वत्सला को आपत्ति नहीं है तो मुझे भी कोई आपत्ति नहीं है",गिरिराज बोला....
"हाँ! यही उचित रहेगा",धंसिका बोली....
इस प्रकार प्रातःकाल तक सभी के मध्य वार्तालाप चलता रहा,इधर कुशाग्रसेन पुनः वैतालिक राज्य के राजा बन गए और उन्होंने अचलराज और भैरवी का विवाह करवाकर अचलराज को वैतालिक राज्य सौंप दिया,इधर वत्सला का विवाह सारन्ध से हो गया और वत्सला ने सारन्ध को अपने राज्य का राजा बना दिया,कुछ समय पश्चात कालवाची ओर कौत्रेय चामुण्डा पर्वत से लौट आएँ,उन्हें महातन्त्रेश्वर ने अपनी सिद्धियों द्वारा पूर्ण मनुष्य बना दिया,इसलिए कौत्रेय का विवाह त्रिलोचना से हो गया और कालवाची का भूतेश्वर से,धंसिका और कुमुदिनी अब अच्छी सखियाँ बन चुकीं थीं,कुशाग्रसेन और गिरिराज में भी अब मित्रता हो चुकी थी, गिरिराज ने अपनी माता चन्द्रकला देवी को भी आश्रम से बुलवा लिया,इस प्रकार अब सबका जीवन सुखमय हो चुका था.....

समाप्त....
सरोज वर्मा....


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