सम्राट् राजेंद्र चोल प्रथम Mohan Dhama द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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सम्राट् राजेंद्र चोल प्रथम


दक्षिण भारत में उदय होनेवाले राजवंशों में चोल राजवंश का प्रमुख स्थान है। इस वंश का उदय नवीं शताब्दी में हुआ तथा इसके अंतर्गत एक विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई। इस वंश के पराक्रमी शासकों राजराजा प्रथम एवं राजेंद्र प्रथम ने मालदीप द्वीप समूह तथा श्रीलंका को भी पराजित किया तथा कलिंग व तुंगभद्रा से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। चोलों का शासन साम्राज्य विस्तार के साथ ही साथ नौसैनिक शक्ति के विकास, प्रशासनिक दक्षता एवं स्वायत्त ग्राम प्रशासन के दृष्टिकोण से भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । चोल शासकों का शासनकाल दक्षिण भारत के चरमोत्कर्षं का काल था। इस काल में हुई सर्वतोमुखी उन्नति एवं विकास के कारण कुछ इतिहासकारों ने इसे दक्षिण भारत का 'स्वर्ण युग' कहा है। राजेंद्र चोल प्रथम राजराजा प्रथम के पुत्र तथा उनके उत्तराधिकारी थे। उन्हे अपने पिता से उत्तराधिकार में एक विस्तृत साम्राज्य प्राप्त हुआ था, जिसका विस्तार करके उन्होने उसे शक्ति एवं वैभव के चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया। राजराजा प्रथम ने अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र राजेंद्र को सन् 1014 ई. में युवराज घोषित कर दिया था। अपने पिता के ही समान 1017 ई. में लंका पर आक्रमण करके राजेंद्र ने वहाँ के शासक महेंद्र पंचम को परास्त किया और संपूर्ण लंका को उन्होंने चोल साम्राज्य का एक प्रांत बना दिया। इसके पश्चात् उन्होंने पांड्य और चेर राज्यों पर पुनः अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए उन्हें जीता और अपने साम्राज्य में मिला लिया तथा एक प्रांत के रूप में संगठित करके अपने पुत्र को इन प्रदेशों का प्रांतपति अथवा वाइसराय नियुक्त किया । चोल सेना ने वेंगी के चालुक्यों को भी पराजित किया तथा कलिंग पर आक्रमण करके उसे परास्त किया। इसके पश्चात् राजेंद्र चोल ने अपनी सेना के साथ उत्तर भारत की ओर प्रयाण किया। उनकी सेना गोदावरी पार करके उड़ीसा व मगध पार करती हुई गंगा तक पहुँची। पहले तो वहाँ उन्होंने बंगाल के पाल शासक महीपाल प्रथम को परास्त किया। इस विजय के उपलक्ष्य में उन्होंने गंगैकोण्ड चोल पुरम् नामक एक नई राजधानी की स्थापना की, वहाँ चोल गंगम् नामक एक विशाल झील का भी निर्माण करवाया, जिसकी लंबाई सोलह मील तथा चौड़ाई तीन मील थी । यह झील भारत के इतिहास में मानव-निर्मित सबसे बड़ी झीलों में से एक मानी जाती है। इस झील में बंगाल से लाकर गंगा नदी का पवित्र जल डाला गया था।

1025 ई. में राजेंद्र प्रथम ने शैलेंद्र राज्य के विरुद्ध शक्तिशाली सेना को भेजा, इस राज्य में मलाया प्रायद्वीप, जावा, सुमात्रा और दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ अन्य द्वीप भी सम्मिलित थे। इस राज्य के शासक से अच्छे संबंध होने के बाद भी राजेंद्र प्रथम ने इस पर आक्रमण किया, क्योंकि चीन और भारत के बीच सामुद्रिक मार्ग श्री विजय अथवा शैलेंद्र राज्य से होकर जाते थे। चोल अभिलेखों में वर्णन मिलता है कि राजेंद्र प्रथम की सेनाओं ने श्री विजय साम्राज्य की राजधानी कडारम, सुमात्रा तथा मलाया प्रायद्वीप के कई भागों पर विजय प्राप्त क। चोल शासकों के प्रभुत्व के कारण बंगाल की खाड़ी 'चोल झील' के नाम से जानी जाने लगी। राजेंद्र प्रथम की इन विजयों के फलस्वरूप भारतीय व्यापार के साथ-साथ दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में भारतीय संस्कृति का भी प्रचार-प्रसार हुआ। मध्य युग के समय के कई तमिल कवियों ने अपनी कविताओं में राजेंद्र चोल प्रथम के सफल सैनिक अभियानों का वर्णन किया है। मलेशिया तक अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद उन्हें 'काडारामकोझन' की उपाधि से विभूषित किया गया। अपने साम्राज्य को आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली करने के लिए चोलराज ने अन्य देशों के साथ व्यापार को बढ़ावा देने का निश्चय किया। उस समय चीन, जापान तथा अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ भारत का अधिकतर व्यापार होता था । बहुमूल्य सामग्री से लदे जहाज गंगा सागर (बंगाल की खाड़ी) और हिंद महासागर को पार कर यव द्वीप (जावा) होते हुए लव द्वीप ( लाओस ), चम्पा (वियतनाम ), अम्बुज (कंबोडिया) के बंदरगाहों पर माल उतारते थे। इसके बाद ये पोत चीन और जापान की ओर बढ़ जाते थे। इस समुद्री मार्ग की सुरक्षा के लिए राजेंद्र प्रथम ने अपनी नौसेना को और सशक्त किया और स्वयं लड़ाकू जहाजों पर सवार होकर महासागरों को नापने के लिए निकल पड़े। इतिहासकारों के अनुसार राजेंद्र प्रथम के इस नौसैनिक अभियान की योजना अभूतपूर्व व अद्वितीय थी। प्राचीन भारत के तब तक के सबसे बड़े इस नौसैनिक अभियान का उद्देश्य अन्य देशों से भारत के व्यापारिक मार्ग को सुरक्षित करने के साथ ही वैदिक धर्म की विजय पताका पुनः दक्षिण-पूर्व एशिया में फहराना था। दक्षिण-पूर्व एशिया के तत्कालीन श्री विजय साम्राज्य के साथ चोल राजवंश के मित्रता के संबंध थे, लेकिन वहाँ के सैनिकों ने भारत से माल लेकर आई नौकाओं को लूट लिया था, उसका दंड देने के लिए राजेंद्र प्रथम ने यह नौसैनिक अभियान प्रारंभ किया था। राजेंद्र प्रथम के पास आज के समान ही एक पेशेवर सेना थी, नौ सेना के अतिरिक्त उनके पास पैदल सेना, घुड़सवार सेना एवं हस्ति सेना भी थी। चोल सेना की ताकत उसके हाथी थे, जिन्हें विशेष प्रकार से प्रशिक्षित किया गया था। इतिहासकारों का मानना है कि इस चोल राजा ने विशाल समुद्री जहाजों में हाथियों की पूरी सेना ले जाकर श्रीलंका पर आक्रमण किया था। इस नौसेना ने कई ऐतिहासिक विजय प्राप्त की थी।

चोल नौसेना में आज की ही तरह अधिकारी थे । 'चक्रवर्ती' नौसेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था। यह पद सम्राट् के लिए होता था। 'जलाधिपति' नौसेना का प्रमुख होता था, 'दे वार' बेड़े का कमांडर, 'गणपति' फ्लैट स्क्वैड्रन का कमांडर मंडलाधिपति' ग्रुप कमांडर, 'कलापति' जहार का कमांडर, कापू जहाज के हथियारों का प्रभारी, सीवाई नाविकों का प्रभारी और एटिमार-मरीन युद्धपोत पर सवार सैनिकों का प्रभारी होता था। चोल सेना के जहाज भी कई प्रकार के होते थे, जैसे धरानी , आज के विध्वंसक के समान होता था। जिसका प्रयोग समुद्र में बड़े युद्धों के लिए होता था। लूला, आधुनिक कॉरपेट के समकक्ष होता था, जिसका प्रयोग छोटी लड़ाइयों तथा सुरक्षा संबंधी कार्य के लिए किया जाता था। वज्रा आजकल के फिग्रेट समान होता था। उसकी सेना में महिलाओं को भी शामिल किया गया था तथा वे लड़ाइयों में हिस्सा भी लेती थीं। इसी शक्तिशाली नौसेना के बल पर चोल शासकों ने बंगाल की खाड़ी पर अपना वर्चस्व कायम किया था। इस महान् विजेता ने अपने शासनकाल में अनेक जन-कल्याणकारी कार्य भी किए, जिससे दक्षिणापथ की जनता सुखी और समृद्ध थी। साहित्य, कला, स्थापत्यकला, मूर्तिकला, मंदिरों के निर्माण व शिक्षा आदि के क्षेत्र में राजेंद्र प्रथम के काल में उल्लेखनीय प्रगति हुई। वैदिक संस्कृति की शिक्षा के लिए प्रत्येक कुर्रम, अर्थात् ग्राम में श्रेष्ठ गुरुकुलों की स्थापना की गई। इनमें संस्कृति और तमिल में शिक्षा दी जाती थी। श्रीरंगम्, मदुरा, कुंभकोणम, रामेश्वरम् आदि प्रसिद्ध स्थलों पर राजेंद्र प्रथम ने भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया, जो आज भी अपनी स्थापत्य कला के अद्वितीय उदाहरण माने जाते हैं।