मुसद्दी - एक प्रेम कथा - 3 संदीप सिंह (ईशू) द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुसद्दी - एक प्रेम कथा - 3

3️⃣

मुसद्दी के ठेले पर भी विकास दिखा... अब तरबूज के साथ साथ फलो के राजा आम और नारियल (हरा) भी आ गया था ।

पर ठेला अब भी नीम की शीतल छांव मे रुकता। पड़ोसी आनंदित की निठल्ला सुधर गया और अम्मा खुश कि अब लल्ला जम गयो ।

इधर लॉक डाउन 3.0 भी आ गया। मुसद्दी फूला नहीं समा रहा था।
कम से कम 48°C की तपती दोपहर के तापमान मे प्रेयसी दिख भर जाए, मन स्वयं कालिदास हो जाता है।

जिस बखत (वक़्त) मुसद्दी का चारपहिया (ठेला) नीम की शीतल छांव मे रुकता, और मुसद्दी दो घूंट जल बोतल से पी कर, काजू पिस्ता को पछाड़ता क़ीमती सुपाड़ी जर्दा का रेडीमेड वर्जन गुटखा मे जर्दा मिला पाउच को स्टाईल से हिलाते... गुरु गर्दा उड़ा देते।

मुँह मे गुटखे का लबाब बना कर 'पुच्च' से थूक, "आम " तौलते मुसद्दी " खास " हो जाते।
कमाल उस दिन हो गया जब ' कन्या ' ठेले पर पहुँची , मुसद्दी का हृदय बाग बाग हो गया।

लगा कृतार्थ हो गया मुसद्दी का जीवन। आज तपती सड़क पर घूमना , तपस्या पूर्ण। इष्ट देव के सम्मुख मुसद्दी गुटखा चबाना भूल गए।

लबाबयुक्त शब्दों मे तनिक घबराते हुए पूछा -' का दै दे बोलो। '
लगा मुसद्दी सीना चीर के अपने दिलवा को सम्मुख खड़ी गौरवर्ण शहरी सुकन्या के हाथ मे दे देगा।

मुसद्दी का मन मयूर मस्त मगन हो नाच उठा। दिल के तार झंकृत हो उठे ।
जल्दी -2 सब ग्राहक निपटा , मौन खड़ी कन्या को देख मुसद्दी का हृदय मृग की भाँति कुलांचे भर रहा था।

अब शहरी मृगनयनी सुंदरी ने आम के ढेर मे से आम छांटने लगी। छांटने मे मुसद्दी भी पूरी निष्ठा से हाथ बटा रहा था।

एक एक आम को सीआईडी के डीसीपी प्रद्धुम के तरह बारीकी से चेक करके बड़ी नजाकत से रख रहा था।
सहसा, मुस्काते हुए भद्र कन्या ने दया तोड़ दरवाजा की तर्ज़ पर दिल तोड दिया ' भड़ाक" से !!!

' बस बस भईया जी.. ज्यादा नहीं बस डेढ़ किलो आम ही दो।' - कंठ से कोयल जैसी कुकी थी वो कोकिला सुंदरी।
' भईया ' शब्द कानो के पर्दे पर पिघले शीशे की तरह चुभा था।

मुसद्दी स्तब्ध, जड़वत हो गया था। मुँह फैलाए देखता रह गया मुसद्दी, लगा जैसे दुनिया उजड़ गई उसकी।

वो परम सुंदरी आम की थैली ले के एक एक कदम दूर जा रही थी, इधर मुसद्दी की शकल चूसे आम जैसी हो गई थी। कन्या घर की चौखट मे समा चुकी थी।

दूर कहीं किशोर दा की आवाज मे दर्दनाक गीत बज रहा था......!
दिल ऐसा किसी ने तोड़ा.. भले मानुष को अमानुष बना के छोड़ा।

नीम की शीतल छाया भी वहीं थी, तपती सड़क भी वहीं थी, पर आज नहीं था तो मुसद्दी का ठेला।

मुसदद्दी - एक प्रेम कथा
(समाप्त)

✍🏻संदीप सिंह "ईशू"
©सर्वाधिकार लेखकाधीन

आशा है मेरी यह हास्य रचना आप सभी को पसंद आई होगी, आपसे अनुरोध है कि कृपया रेटिंग अवश्य दे। जिससे मुझे अपनी अन्य रचनाएं लिखने हेतु उत्साह मिले। मैं आपके लिए सदैव बेहतर रचनाएं लिखने के लिये प्रतिबद्ध हूँ।