मुसद्दी - एक प्रेम कथा - 2 संदीप सिंह (ईशू) द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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मुसद्दी - एक प्रेम कथा - 2

2️⃣


अब ये मुसद्दी के मन मे माँ का सम्मान था या बाबु जी के गुजरने के बाद अम्मा , को मिलने वाली पेंशन का कमाल पर निठल्ले मुसदद्दी की मातृ भक्ति देख कर पल भर को आँखे नम हो गई थी।

थोड़ी शान्ति के बाद मुसद्दी भी पाइप मे रखी कुत्ते की दुम सरीखे लय मे आ गये । पर आज मुसद्दी हमारे पड़ोस के बड़े चक्कर काट रहे दिखे।

माथा सनका, आज मुसद्दी नहाए धोए भी जान पड़े और थोड़ा तमीज मे भी।
बदले मिजाज का मर्म समझ न आया। जब दिमाग के घोड़े दौडायें तब थोड़ी हरियाली दिखी।

मुसद्दी को फूल दिख गया था, सो लगे भंवरियाने। पड़ोस मे रहने वाले काका जी के यहां बड़े शहर से दो रिश्तेदार कन्याएँ पधारी थी।

थोड़ा मार्डन, पढ़ी लिखी, लॉक डाउन के चक्कर मे वापसी ना हो सकीं थी।
लिहाजा शहर और गांव के बीच स्थित कस्बा, न शहर बन सका न गांव रहा। सो दिखावा लंबा लंबा।

अगल बगल नाक पोछती, चरचर करती अन्य स्थानीय बच्चियों मे भी परिवर्तन आया।
अब बनने संवरने के साथ झगड़े, गाली के बजाय, जिह्वा शहदमय हो गई थी। अच्छे बदलाव जरूरी भी हैं।

मन के जेम्सबांड ने माजरा समझा, बड़े शहर वाली कन्या के मन मे क्या था, कह नहीं सकता पर भाव भंगिमा से लगा नहीं की मुसद्दी को देखा भी हो।

गुरु मामला आशिकी का, अब प्यार सामने वाले से स्टाम्प पर लिखा कर थोड़े ना होता है।
अरे आज नहीं तो कल उहो चाहने लगेगी यही सोच कर मुसद्दी प्रयत्नशील थे।

लेकिन गौर करने वाली बात ये थी कि मुसद्दी अब मुसद्दी ना रहे, थोड़ा जेंटलमैंन मुसद्दी हो गए थे।
क्रांतिकारी परिवर्तन दिखा, निठल्लो के बादशाह मुसद्दी ठेले पर। लॉक डाउन मे मुसद्दी रोजगार के मूड मे।

ये पहेली मेरे दिमाग को चकरघिन्नी बना दिए, "मन मतंग मानत नहीं" सो खबरियों को खंगाला। खबरी भी चकरा गए।

जहाँ लाकडाउन और कोरोना से भारत ही नही पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था समंदर मे हिचकोले खा रही है ,इस घड़ी मुसद्दी ने इन्वेस्ट ने एक मित्र से उनके दो चारपहिया वाहन ' ठेलिया ( डेला ) मे से एक का जुगाड़ किया मिन्नतें करके और दोस्ती का वास्ता दे कर।

सब ने सोचा मुसद्दी बन गया जेटलमैन ।

अम्मां को भी बड़ा आश्चर्य हुआ कि चंद्र टरै सूरज टरै , टरै जगत व्यवहार , पर न बदले मुसद्दी का लम्पटई विचार ।

खैर जब मुसद्दी ने अम्मा के आगे अपना बिजनेस ब्लू प्रिंट (व्यावसायिक रूप रेखा) समझाया , अम्मा चित्त।
मुसद्दी मुद्दे पर आए।

'अम्मा बिजनस तो आप समझै गई होईहैं, समस्या पूंजी का है, तो का कुछौ टेट ढीली करबों अम्मा। '
अम्मा मुद्रा के नाम पर सटकी।

अम्मा ने यक्ष प्रश्न दागा - ' हम देंगे तौ पर एका का गारंटी है कि तुम पीबौ नै।'
' अरे अम्मा तुम सठिया गई हो का, अरे हम कौन तुम्हार जेवर (गहने) मांग रहे हैं।

थोड़ा लंबी साँस ले कर मुसद्दी आगे बोला - 'पेंशन से 500 रुपया और 500 रुपया जो जन-धन खाते मे आवत है, कुल मिला कर 1000 रुपया, और हम पटरी पर।'
मुसद्दी ने अम्मा को समझाइश दी।

घोर मनन मंथन के उपरांत अम्मा रिस्क लेने को तैयार हो गई।
लिहाजा मुसद्दी के ठेले पर तरबूज विराजमान हो गया।
अब चक्कर दो चक्कर के बाद मुसद्दी सामने नीम के पेड़ की छांव मे जम जाते।

तरबूज तौलते तौलते, जरा नजर चिपका देते शहरी कन्या पर। मुझे पंकज उधास साहब की गजल की पंक्ति याद आ गई।


"इश्क नचाये जिसको यार , वो फिर नाचे बीच बाजार ।"


कुछ यही हाल मुसद्दी का भी था।

ठेले वालो को पुलिस भी हल्की घुड़की, और रिश्वत प्रथा की परम्परा का पालन करते हुए, एक तरबूज और मामला फिट।
लॉक डाउन मे रेट का तो पूछो ही मत, दबा कर छील रहे थे दुकानदार।

मुसद्दी के ठेले पर भी विकास दिखा... अब तरबूज के साथ साथ फलो के राजा आम और नारियल (हरा) भी आ गया था ।